Monday, 2 September 2019

मदन लाल धींगरा

मदन लाल ढींगरा का जन्म 18 फरवरी 1883 को पंजाब के अमृतसर शहर में एक संपन्न हिंदू परिवार में हुआ था. उनके पिता सिविल सर्जन थे और अंग्रेज़ी रंग में पूरे रंगे हुए थे. उनका परिवार अंग्रेजों का विश्वासपात्र था. परन्तु मदनलाल का ननिहाल और उनकी माताजी अत्यन्त धार्मिक एवं राष्ट्रवादी संस्कारों से परिपूर्ण थे.
माँ के कारण मदन लाल के मन भी क्रांतिकारी सोंच पैदा हो गई. लाहौर में पढ़ाई करते समय वे क्रांतिकारियों के संपर्क में आये. परन्तु क्रांतिकारियों से सम्बन्ध रखने के कारण उन्हें कालेज से निकाल दिया गया. इससे नाराज होकर उनके पिता ने भी उनको घर से निकाल दिया. तब जीवन यापन करने के लिए उन्होंने मजदूरी भी की.
कारखाने में मजदूरी करते समय उन्होंने वहां यूनियन बनाने का प्रयास किया तो उन्हें वहां से भी निकाल दिया गया. उसके बाद वे अपने बड़े भाई की सलाह मानकर घर वापस आ गए और मेकेनिकल इंजीनियरिग की पढ़ाई करने लंदन चले गए. क्रांतिकारी बिचारों के मदन लाल पढ़ाई से ज्यादा क्रांतिकारी गतिबिधियों में रूचि रखने कगे.
वहां वे भारत के प्रख्यात राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर एवं श्यामजी कृष्ण वर्मा के सम्पर्क में आये. वे लोग भी धींगड़ा की प्रचण्ड देशभक्ति से बहुत प्रभावित हुए. सावरकर ने उन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया. ढींगरा 'अभिनव भारत मंडल' के सदस्य होने के साथ ही 'इंडिया हाउस' नाम के संगठन से भी जुड़ गए.
इस दौरान सावरकर और ढींगरा के अतिरिक्त ब्रिटेन में पढ़ने वाले अन्य बहुत से भारतीय छात्र भारत में खुदीराम बोस, कनानी दत्त, सतिंदर पाल और कांशीराम जैसे देशभक्तों को फाँसी दिए जाने की घटनाओं से तिलमिला उठे और उन्होंने बदला लेने की की कसम खाई. और लन्दन में बड़ा काण्ड करने का निर्णय लिया.
पहले उनलोगो वाइसराय लॉर्ड कर्ज़न को भी मारने की कोशिश की थी पर वह कामयाब नहीं हो पाए थे. इसके बाद सावरकर जी ने मदनलाल को साथ लेकर भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार सर विलियम हट कर्जन वायली को मारने की योजना बनाई और मदनलाल को साफ कह दिया गया कि इस बार किसी भी हाल में सफल होना है.
1 जुलाई सन् 1909 की शाम को इण्डियन नेशनल ऐसोसिएशन के वार्षिकोत्सव में भाग लेने के लिये भारी संख्या में भारतीय और अंग्रेज इकठे हुए. जैसे ही कर्जन वायली अपनी पत्नी के साथ हाल में घुसे, ढींगरा ने उनके चेहरे पर पाँच गोलियाँ दाग दी.कर्ज़न को बचाने की कोशिश करने वाला पारसी डॉक्टर कोवासी लालकाका भी ढींगरा की गोलियों से मारा गया.
उसके बाद धींगड़ा ने अपने पिस्तौल से स्वयं को भी गोली मारनी चाही किन्तु उन्हें पकड़ लिया गया. उनपर मुकदमा चलाया गया तो उन्होंने कहा कि- "ब्रिटिश सरकार को कोई हक़ नही है मुझ पर मुकदमा चलाने का. जो ब्रिटिश सरकार भारत मे लाखो बेगुनाह देशभक्तों को मार रही है और हर साल 10 करोड़ पाउंड भारत से इंग्लैंड ला रही है,
उस सरकार के कानून को वो कुछ नही मानते, इसलिए इस कोर्ट मे वो अपनी सफाई भी नही देंगे, जिस जो करना है कर लो”. जब उन्हे म्रत्यु दंड देकर ले जाने लगे, तो उन्होने जज को शुक्रिया अदा करते हुए कहा था - “शुक्रिया ,आपने मुझे मेरी मात्रभूमि के लिए जान नियोछावर करने का मोका दिया”
23 जुलाई 1909 को अदालत ने उन्हें मृत्युदण्ड की सजा सुनाई. 17 अगस्त सन् 1909 को लन्दन की पेंटविले जेल में फाँसी पर लटका कर अमर कर दिया गया. उनका अंतिम संस्कार भी अंग्रेजी सरकार ने किया था क्योंकि उनके राजभक्त परिवार ने उनसे सभी सम्बन्ध समाप्त करने की घोषणा कर दी थी
वीर सावरकर ने उनके शव का अंतिम संस्कार करना चाहां, मगर उनकी मांग को ठुकरा दिया गया.

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