सनातन भारतीय जीवन शैली में गुरु का बहुत महत्त्व है. शिष्य अपने गुरु का भगवान् के समान आदर करते हैं. सावन माह की पूर्णिमा को "गुरु आराधना" के लिए समर्पित किया गया है. इसलिए इसको गुरु पूर्णिमा कहते है. शिष्य अपने गुरुओं को यूँ तो हमेशा ही सम्मान देते हैं, लेकिन इस दिन शिष्य अपने गुरु का विशेष सम्मान देते है.
यूं तो यह माना जाता है कि वेद और वैदिक ज्ञान तुगों युगों से है, लेकिन यह भी माना जाता है कि -"ऋषि व्यास" जी ने वैदिक स्तोत्र को इकट्ठा कर उनको वर्गीकृत कर जन सामान्य के लिए उपलब्ध कराया. उन्होंने कथाबाचकों की एक पीढ़ी को तैयार किया और उन कथाबाच्कों के माध्यम से यह ज्ञान आम जनता तक पहुंचाया.
गुरु पूर्णिमा का दिन चुनने के पीछे अलग अलग मान्यताएं हैं. ऐसा माना जाता है कि - आदि गुरु भगवान् महादेव ने आज के दिन ही सप्त ऋषियों को ज्ञान प्रदान किया था. उसके बाद सप्त ऋषियों ने गुरु परम्परा को कायम किया और ज्ञान को जन जन तक पहुंचाने के लिए गुरुकुलों (विश्वविद्यालयों) की व्यवस्था की थी.
यह सप्तऋषि है : .गुरु वशिष्ठ, गुरु विश्वामित्र, गुरु कण्व, गुरु भारद्वाज, गुरु अत्रि, गुरु वामदेव एवं गुरु शौनक. परन्तु कुछ विद्वान् यह मानते है कि सप्तऋषियों में भृगु ऋषि, जमदग्नि ऋषि एवं पुलस्त्य ऋषि को सप्तर्षियों में रखते हैं. इन सप्तऋषियों के गुरुकुलों (विश्वविद्यालयों) में अलग अलग प्रकार की शिक्षा दी जाती थी.
इन सप्तऋषियों और उनके गुरुकुलों (विश्वविद्यालयों) का इतना महत्त्व था कि - लोग अपनी वंश परम्परा (कुल का नाम) के साथ गुरु परम्परा (गोत्र) का भी उल्लेख करते थे. जैसे आजकल भी लोग बताते है कि किस विश्वविद्यालयों से पढ़े हुए है. इन सभी ऋषियों के गुरुकुल अलग अलग बिषयों की शिक्षा के लिए विख्यात थे.
कहीं आध्यात्म की तो कहीं विज्ञान की, कहीं समाज शास्त्र की तो कहीं युद्धकला की, कहीं धर्मपूर्ण राजनीति की तो कही आयुर्वेद की, कहीं ज्योतिष शास्त्र की तो कहीं कला की. शिष्य द्वारा अपने नाम के साथ गोत्र (गुरु परम्परा) का उल्लेख करने का अर्थ यही होता था कि वह व्यक्ति किस बिषय की जानकारी रखता होगा.
यहाँ एक महत्वपूर्ण बात आपको और बताना चाहता हूँ. कश्यप ऋषि के बारे में कहा जाता है कि - उनका गुरुकुल आजकल की ओपन यूनिवर्सिटी की तरह था. उनके शिष्य गाँव गाँव में घूमकर ज्ञान का प्रसार करते थे. इसलिए यह भी कहा जाता है कि - जिसे अपना गोत्र ज्ञात न हो उसे अपना गोत्र "कश्यप" मान लेना चाहिए.
गुरुपूर्णिमा को सावन माह की पूर्णिमा को मनाने के पीछे एक बजह और भी बताई जाती है. इस दिन महाभारत के रचयिता "व्यास ऋषि" का जन्म हुआ था. प्राचीन सनातन ज्ञान को संकलन कर और उसका वर्गीकरण करके व्यवस्थित करने का काम "ऋषि व्यास"जी ने किया था. इसलिए गुरुपूर्णिमा को "व्यास पूर्णिमा" भी कहते हैं.

कोई कथाबचक जब ज्ञान चर्चा करता है तो उसके आसन को व्यास गद्दी कहा जाता है और उस कथाबचक को "ऋषि व्यास" का प्रतिरूप माना जाता है. अगर कोई कथाबाचक "व्यास गद्दी" पर विराजमान है तो उस समय किसी बड़े संत या बड़े व्यक्ति के आने पर भी व्यास गद्दी पर बैठा व्यक्ति उन्हें प्रणाम नहीं करता है बल्कि वह संत उन्हें प्रणाम करता है.
हर व्यक्ति को अपने गुरु का सम्मान करना चाहिए. कोई जरुरी नहीं है कि - आपने किसी से गुरुदीक्षा ली हो तब ही आप किसी को अपना गुरु कहेंगे. हर वो व्यक्ति, वो महापुरुष, वो ग्रन्थ, वो पुस्तक, यहाँ तक कि - सिनेमा / नाटक के किसी प्रसंग से भी अगर आपको कुछ प्रेरणा ग्रहण करते हैं तो आप उसे अपना गुरु कह सकते हैं.
विद्याथी जीवन में भी आप जिन टीचर्स से प्रेरित होते हैं वो भी गुरु हैं और आपके माता - पिता - भाई - चाचा - मामा - पड़ोसी, मित्र, रिश्तेदार, आदि में से भी अगर, किसी की शिक्षा से आपका जीवन प्रभावित हुआ है तो वो आपका गुरु कहलाने के योग्य है. ऐसे प्रत्येक व्यक्ति का भी "गुरु" के सामान सम्मान करना चाहिए .
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भगवा ध्वज का अपना गुरु मानते हैं. भगवा ध्वज को "हनुमान" जी की साक्षात उपस्थिति का प्रतीक माना है. इस गुरु पूर्णिमा के अवसर पर उन सभी को मेरा सादर नमन जिनसे मुझे कोई न कोई ज्ञान प्राप्त हुआ है.
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