Friday, 20 September 2019

मृत्युभोज : मृतक की ओर से उनको धन्यवाद है जो उसकी सांसारिक यात्रा में सहयोगी थे

हिन्दुओं की परम्पराओं पर हमला करने के लिए, गैरहिन्दू लोग बहाने ढूंढते है और अक्सर हिन्दू उसमे फंस भी जाते हैं. आजकल ऐसे ही मृत्युभोज को लेकर भ्रान्ति फैलाई जा रही है. विभिन्न प्रकार के लेख लिखकर ऐसा प्रदर्शित किया जा रहा है कि- जैसे किसी हिन्दू के घर में मृत्यु हो जाने पर लोग उसको जबरन मृत्युभोज करने पर मजबूर करते हों.
सबसे पहले तो यह समझें कि मृत्युभोज है क्या ? आम तौर पर जब किसी भारतीय परिवार में किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसके घर 10 दिन तक खाना नहीं बनता है. उस परिवार के मित्र और रिश्तेदार यह जानते हैं कि- वह परिवार दुखी है और उसको अपने खाने-पीने का ध्यान नहीं होगा, इसलिए वे मित्र और रिश्तेदार उसके घर भोजन भिजवाते हैं.
जिस घर में मृत्यु हुई है, उसके घर को अशुद्ध मान लिया जाता है, जो लोग उसके घर आते हैं, वो उसके लिए तो भोजन लाते हैं, लेकिन खुद उसके यहाँ भोजन अथवा जलपान नहीं करते हैं. ऐसा करने के पीछे यह मंशा है कि- जिसके घर मृत्यु हुई है, उसके घर लोगों के आने पर, उस दुखी परिवार को चाय नाश्ते या भोजन की औपचारिकता में न पड़ना पड़े.
ऐसे में में उस परिवार के पड़ोसी या आसपास रहने वाले रिश्तेदार, अपने आप ही यह जिम्मेदारी उठा लेते कि- जो कोई वहां मिलने आये उसको वो घर के वाहर बिठाके जलपान करा दे. लगभग दस दिन में परिवार शोक से काफी हद तक उबर जाता है. वह अपने घर को शुद्ध करके अपने नजदीकी रिश्तेदारों और मित्रों को धन्यवाद भोजन (दशवा) कराता है.
उसके तीन दिन बाद (तेरहवे दिन) तेरहवीं की पूजा होती है. उस दिन वह अपने उन सभी मित्रों और रिश्तेदारों को सूचित करता है, जो अंतिम संस्कार से लेकर शोक के दिनों तक उसके दुःख में शामिल रहे थे. शुद्धिकरण की पूजा के बाद उन सभी मित्रों और रिश्तेदारों को भोजन कराता है. अब उसका घर हर तरह से शुद्ध मान लिया जाता है.
अब जो लोग यह बोल रहे हैं कि- युवा पुत्र की मौत पर माँ- बाप कैसे किसी को दावत दे सकते है, तो यह बात अच्छी तरह से समझ लीजिये कि - युवा पुत्र की अकाल मौत पर, कोई माँ-बाप मृत्युभोज नहीं देते है बल्कि केवल सफल सांसारिक यात्रा पूरी करने के बाद, पूरी उम्र गुजार कर गए माता पिता की याद में उनके पुत्र, माता पिता के नाम से ही भोज देते हैं.
उस भोज को मृतक बुजुर्ग की तरफ से दिया गया अंतिम भोज ही कहा जाता है. यह माना जाता है कि - वह व्यक्ति जो सफल सांसारिक यात्रा पूरी करके भगवान् के पास चला गया है, वह व्यक्ति खुद अपने आप अपने उन मित्रों और रिश्तेदारों को भोज दे रहा है जो उसकी सफल सांसारिक यात्रा में सहयात्री रहे थे, वह एक तरह से उनको धन्यवाद देता है.
हिन्दू परम्पराओं में तेरहवी होने तक यही माना जाता है कि- मृतक की आत्मा उनके आस पास ही है. इसीलिए मृतक की अस्थि विसर्जन के लिए हरिद्वार या अन्य कहीं पवित्र नदी में प्रवाहित करने के लिए ले जाते समय भी अश्थि कलश के साथ वही व्यवहार किया जाता है जैसा कि- किसी जीवित व्यक्ति के साथ किया जाता है,
अगर ट्रेन से जा रहे हैं तो ट्रेन में अस्थि कलश के लिए भी सीट आरक्षित की जाती है. अगर कार में जा रहे हों तो कार में अस्थि कलश को भी पूरी सीट दी जाती है या उसे गोद में बिठाया जाता है. पिछले तीन साल में मेरे घर में दो म्रत्यु हुई हैं. पौने तीन साल पहले पिता जी की और सवा साल पहले भतीजे की. उनका अनुभव आपको बताता हूँ.
83 साल की सफल सांसारिक यात्रा पूरी करके, ईश्वर के पास जाते समय, पिताजी ने मृत्युभोज दिया था (वो भोज उन्होंने ही दिया था, हम तीनो भाई लोग तो केवल उनकी तरफ से काम करने वाले थे ). लेकिन भतीजे की अचानक दुर्घटना में हुई अकाल मृत्यु के बाद ऐसा कोई भोज नहीं दिया गया. न ही हमसे किसी ने ऐसा करने को कहा.
किसी के घर में बालक का जन्म होने या पुत्र का विवाह होने पर तो लोग आग्रह कर भी देते हैं कि - पार्टी कीजिए लेकिन किसी की मृत्यु होने पर कोई भी उसे मृत्युभोज के लिए आग्रह नहीं करता है और न ही मृत्युभोज, न करने पर उसे कोई उलाहना देता है. यह केवल मृतक की संतान की इच्छा पर निर्भर करता है है कि वह मृत्युभोज करे या न करे.
तो फिर मृत्युभोज की आलोचना करने का आखिर क्या औचित्य है ? अगर कोई मृत्युभोज कर रहा है तो उसे रोकिये मत और जो नहीं कर रहा है उसको करने के लिए आग्रह न करे. बैसे जिन मां-बाप या पुरखों की संपत्ति के हम स्वतः ही अधिकारी बन जाते हैं, उनकी ही सम्पत्ति से उनके नाम से अगर कुछ खर्च कर देते है तो क्या बुरा है ?

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