Monday, 23 September 2019

संघ प्रार्थना : प्रारम्भ और विकास का इतिहास

संघ में वर्तमान में प्रचलित "प्रार्थना", "आज्ञायें" ,"घोष रचनाएं" ,"गणवेश", आदि सभी आज जैसी है हमेशा से बैसी नहीं थी. समय-समय पर आवश्कतानुसार उनमें परिवर्तन होता रहा है, जैसे अभी तीन साल पहले विजय दशमी 2016 में गणवेश में परिवर्तन हुआ था. अपने लचीले होने के कारण ही संघ आज दुनिया का सबसे बड़ा संगठन बन सका है.
"राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" में हमेशा देश-काल और परिस्थिति के अनुसार आवश्यक परिवर्तन किये जाते रहे हैं. मैं अपने लेखों के माध्यम से अन्य बदलाबो के बारे में भी जानकारी देता रहा हूँ. आज मैं संघ की प्रार्थना (भारत माता की प्रार्थना ) के अर्थ, विकास और इतिहास पर चर्चा करूँगा। 1925 की विजयदशवी को संघ की स्थापना हुई थी.
एक पार्क में कुछ बच्चो के खेलकूद के रूप में संघ को स्थापित किया. एक घंटे की शाखा में बच्चों को व्यायाम और खेलकूद कराये जाते थे. इसके बाद उनको बौद्धिक सुनाया जाता. बौद्धिक के बाद उस समय का कोई भी प्रचलित हिंदी / मराठी गीत गववाकर शाखा को बिकीर कर दिया जाता था. ऐसा लगभग 6 माह तक चलता रहा.
अप्रेल 26 में निर्णय लिया गया कि- शाखा में एक निश्चित प्रार्थना और जय घोष बोले जाए. तब उस समय की प्रचलित प्रार्थना में से ही एक प्राथना तय की गई. प्रार्थना में दो पद निश्चित किये गए, जिसमे एक पद मराठी व एक पद हिंदी का था. मराठी पद उन दिनों महाराष्ट्र के स्कूलों में और हिंदी पद हिंदी राज्यों के स्कूल की प्राथना थी
इसी वन्दना में कुछ आवश्यक परिवर्तन करके मराठी / हिंदी स्कूल की प्रार्थना को संघ की प्रार्थना के लिए चुना गया। तत्कालीन प्रार्थना के अन्त में छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रेरणा स्रोत्र "श्री समर्थ रामदास स्वामी" जी का जयघोष बोला जाता था. यह प्रार्थना लगभग 14 साल तक शाखाओं में की जाती रही. यह प्रार्थना इस प्रकार थी.
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मराठी :-
"नमो मातृभूमि जिथे जन्मलो मी ।
नमो आर्यभूमि जिथे वाढलो मी ।।
नमो धर्मभूमि जियेच्याच कामी ।
पड़ो देह माझा सदा ती नमीमी ।।
हिन्दी :-
"हे गुरु श्री रामदूता , शील हमको दीजिये,
शीघ्र सारे दुर्गुणों से ,मुक्त हमको कीजिये।।
लीजिये हमको शरण में , राम पन्थी हम बनें,
ब्रह्मचारी धर्म रक्षक , वीरव्रत धारी बनें ।।
"राष्ट्र गुरु श्री समर्थ रामदास स्वामी की जय !
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संघ का विस्तार संपूर्ण भारतवर्ष में फैलने लगा, तो प्रार्थना की भाषा और शब्दों में बदलाब की जरूरत महसूस होने लगी. फरवरी 1939 में सिन्दी में एक बैठक हुई उसमें प.पू.डॉक्टर जी, प.पू.श्री गुरु जी, श्री तात्याराव तैलंग, बाबासाहब आप्टे, विट्ठलराव पतकी, श्री बाबाजी सालोडकर, श्री कृष्णराव मोहरीर, नाना साहब टालाटूले, आदि कार्यकर्ता उपस्थित थे.
इस बैठक में विचारविमश कर सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ कि- अब प्रार्थना को उस भाषा में होना चाहिए जो समस्त समाज व सम्पूर्ण भारतवर्ष में स्वीकार्य हो. इसी बैठक में संस्कृत भाषा में प्रार्थना का ऐतिहासिक निर्णय हुआ, क्योंकि संस्कृत भाषा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी तथा राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ने वाली है और समस्त हिन्दु समाज को स्वीकार्य है.
अब प्रार्थना का गद्य और पद्य प्रारूप का दायित्व क्रमशः नाना साहब टालटुले व श्री नरहरि नारायण भिड़े जी को दिया गया. उनसे कहा गया कि ऐसी प्रार्थना की रचना करे, जिसमे भारत माता को नमन, संघ का लक्ष्य , लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग, लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक गुण, संघ के अधिष्ठान, संकल्प आदि सभी कुछ को समाहित किया गया हो.
तब नाना साहब टालटुले ने गद्य के रूप में क्रमबद्ध तरीके से ये सब बातें लिखीं. इस गद्य रचना पर श्री "नरहरि नारायण भिड़े" ने सुन्दर पद्य के रूप में गीत लिखकर फरवरी 1939 लिखकर दिखाया. गीत सभी को पसंद आया. बहुत ही अच्छा गीत गाने वाले एक स्वयंसेवक "यादवराव जोशी" ने गीत की ले बनाने और स्वरबद्ध करने की जिम्मेदारी ली.
"यादवराव जोशी" और "बाबु सुधीर फडके" ने मिलकर गीत की लय तैयार की. इस प्रार्थना का प्रथम गायन माननीय यादवराव जोशी जी के द्वारा 1940 में पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में किया गया. प्रार्थना पूरी तरह से पुरुषार्थवादी है. प्रार्थना में भगवान् अथवा देश से कुछ माँगा नहीं गया है बल्कि इस देश के लिए अपना सबकुछ देने का भाव है.
"यादवराव जोशी" और "बाबु सुधीर फडके" ने मिलकर गीत की लय तैयार की. इस प्रार्थना का प्रथम गायन माननीय यादवराव जोशी जी के द्वारा 23 अप्रेल 1940 में पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में किया गया. प्रार्थना पूरी तरह से पुरुषार्थवादी है. प्रार्थना में भगवान् अथवा देश से कुछ माँगा नहीं गया है बल्कि इस देश के लिए अपना सबकुछ देने का भाव है.
इसमें भगवान् से गुण देने की मांग की गई है इसके अलावा यही कहा गया है कि - हम कार्य करेंगे या हम प्रयास हम करेंगे. संघ का सिद्धांत, उद्देश्य, कार्यपद्धति आदि विभिन्न बातों का समावेश सूत्र रूप में किया गया है. अतः प्रत्येक स्वयंसेवक को प्रार्थना कण्ठस्थ उसके स्वर, उच्चारण, शब्दार्थ और भावार्थ आदि का सम्यक ज्ञान आवश्यक है.
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वर्तमान प्रार्थना
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नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते॥१॥
प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्
त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयम्
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।
अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिम्
सुशीलं जगद् येन नम्रं भवेत्
श्रुतं चैव यत् कण्टकाकीर्णमार्गम्
स्वयं स्वीकृतं नः सुगङ्कारयेत्॥२॥
समुत्कर्ष निःश्रेयसस्यैकमुग्रम्
परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा
हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्राऽनिशम्।
विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्॥३॥
॥भारत माता की जय॥
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प्रार्थना का भावार्थ
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हे प्यार करने वाली मातृभूमि! मैं तुझे सदा (सदैव) नमस्कार करता हूँ। तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है।
हे महामंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पण हो। मैं तुझे बारम्बार नमस्कार करता हूँ।
हे सर्वशक्तिशाली परमेश्वर! हम हिन्दूराष्ट्र के अंगभूत तुझे आदरसहित प्रणाम करते है। तेरे ही कार्य के लिए हमने अपनी कमर कसी है। उसकी पूर्ति के लिए हमें अपना शुभाशीर्वाद दे।
हे प्रभु! हमें ऐसी शक्ति दे, जिसे विश्व में कभी कोई चुनौती न दे सके, ऐसा शुद्ध चारित्र्य दे जिसके समक्ष सम्पूर्ण विश्व नतमस्तक हो जाये ऐसा ज्ञान दे कि स्वयं के द्वारा स्वीकृत किया गया यह कंटकाकीर्ण मार्ग सुगम हो जाये।
उग्र वीरव्रती की भावना हम में उत्स्फूर्त होती रहे जो उच्चतम आध्यात्मिक सुख एवं महानतम ऐहिक समृद्धि प्राप्त करने का एकमेव श्रेष्ठतम साधन है। तीव्र एवं अखंड ध्येयनिष्ठा हमारे अंतःकरणों में सदैव जागती रहे।
तेरी कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को वैभव के उच्चतम शिखर पर पहुँचाने में समर्थ हो।
भारत माता की जय।

Friday, 20 September 2019

मृत्युभोज : मृतक की ओर से उनको धन्यवाद है जो उसकी सांसारिक यात्रा में सहयोगी थे

हिन्दुओं की परम्पराओं पर हमला करने के लिए, गैरहिन्दू लोग बहाने ढूंढते है और अक्सर हिन्दू उसमे फंस भी जाते हैं. आजकल ऐसे ही मृत्युभोज को लेकर भ्रान्ति फैलाई जा रही है. विभिन्न प्रकार के लेख लिखकर ऐसा प्रदर्शित किया जा रहा है कि- जैसे किसी हिन्दू के घर में मृत्यु हो जाने पर लोग उसको जबरन मृत्युभोज करने पर मजबूर करते हों.
सबसे पहले तो यह समझें कि मृत्युभोज है क्या ? आम तौर पर जब किसी भारतीय परिवार में किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसके घर 10 दिन तक खाना नहीं बनता है. उस परिवार के मित्र और रिश्तेदार यह जानते हैं कि- वह परिवार दुखी है और उसको अपने खाने-पीने का ध्यान नहीं होगा, इसलिए वे मित्र और रिश्तेदार उसके घर भोजन भिजवाते हैं.
जिस घर में मृत्यु हुई है, उसके घर को अशुद्ध मान लिया जाता है, जो लोग उसके घर आते हैं, वो उसके लिए तो भोजन लाते हैं, लेकिन खुद उसके यहाँ भोजन अथवा जलपान नहीं करते हैं. ऐसा करने के पीछे यह मंशा है कि- जिसके घर मृत्यु हुई है, उसके घर लोगों के आने पर, उस दुखी परिवार को चाय नाश्ते या भोजन की औपचारिकता में न पड़ना पड़े.
ऐसे में में उस परिवार के पड़ोसी या आसपास रहने वाले रिश्तेदार, अपने आप ही यह जिम्मेदारी उठा लेते कि- जो कोई वहां मिलने आये उसको वो घर के वाहर बिठाके जलपान करा दे. लगभग दस दिन में परिवार शोक से काफी हद तक उबर जाता है. वह अपने घर को शुद्ध करके अपने नजदीकी रिश्तेदारों और मित्रों को धन्यवाद भोजन (दशवा) कराता है.
उसके तीन दिन बाद (तेरहवे दिन) तेरहवीं की पूजा होती है. उस दिन वह अपने उन सभी मित्रों और रिश्तेदारों को सूचित करता है, जो अंतिम संस्कार से लेकर शोक के दिनों तक उसके दुःख में शामिल रहे थे. शुद्धिकरण की पूजा के बाद उन सभी मित्रों और रिश्तेदारों को भोजन कराता है. अब उसका घर हर तरह से शुद्ध मान लिया जाता है.
अब जो लोग यह बोल रहे हैं कि- युवा पुत्र की मौत पर माँ- बाप कैसे किसी को दावत दे सकते है, तो यह बात अच्छी तरह से समझ लीजिये कि - युवा पुत्र की अकाल मौत पर, कोई माँ-बाप मृत्युभोज नहीं देते है बल्कि केवल सफल सांसारिक यात्रा पूरी करने के बाद, पूरी उम्र गुजार कर गए माता पिता की याद में उनके पुत्र, माता पिता के नाम से ही भोज देते हैं.
उस भोज को मृतक बुजुर्ग की तरफ से दिया गया अंतिम भोज ही कहा जाता है. यह माना जाता है कि - वह व्यक्ति जो सफल सांसारिक यात्रा पूरी करके भगवान् के पास चला गया है, वह व्यक्ति खुद अपने आप अपने उन मित्रों और रिश्तेदारों को भोज दे रहा है जो उसकी सफल सांसारिक यात्रा में सहयात्री रहे थे, वह एक तरह से उनको धन्यवाद देता है.
हिन्दू परम्पराओं में तेरहवी होने तक यही माना जाता है कि- मृतक की आत्मा उनके आस पास ही है. इसीलिए मृतक की अस्थि विसर्जन के लिए हरिद्वार या अन्य कहीं पवित्र नदी में प्रवाहित करने के लिए ले जाते समय भी अश्थि कलश के साथ वही व्यवहार किया जाता है जैसा कि- किसी जीवित व्यक्ति के साथ किया जाता है,
अगर ट्रेन से जा रहे हैं तो ट्रेन में अस्थि कलश के लिए भी सीट आरक्षित की जाती है. अगर कार में जा रहे हों तो कार में अस्थि कलश को भी पूरी सीट दी जाती है या उसे गोद में बिठाया जाता है. पिछले तीन साल में मेरे घर में दो म्रत्यु हुई हैं. पौने तीन साल पहले पिता जी की और सवा साल पहले भतीजे की. उनका अनुभव आपको बताता हूँ.
83 साल की सफल सांसारिक यात्रा पूरी करके, ईश्वर के पास जाते समय, पिताजी ने मृत्युभोज दिया था (वो भोज उन्होंने ही दिया था, हम तीनो भाई लोग तो केवल उनकी तरफ से काम करने वाले थे ). लेकिन भतीजे की अचानक दुर्घटना में हुई अकाल मृत्यु के बाद ऐसा कोई भोज नहीं दिया गया. न ही हमसे किसी ने ऐसा करने को कहा.
किसी के घर में बालक का जन्म होने या पुत्र का विवाह होने पर तो लोग आग्रह कर भी देते हैं कि - पार्टी कीजिए लेकिन किसी की मृत्यु होने पर कोई भी उसे मृत्युभोज के लिए आग्रह नहीं करता है और न ही मृत्युभोज, न करने पर उसे कोई उलाहना देता है. यह केवल मृतक की संतान की इच्छा पर निर्भर करता है है कि वह मृत्युभोज करे या न करे.
तो फिर मृत्युभोज की आलोचना करने का आखिर क्या औचित्य है ? अगर कोई मृत्युभोज कर रहा है तो उसे रोकिये मत और जो नहीं कर रहा है उसको करने के लिए आग्रह न करे. बैसे जिन मां-बाप या पुरखों की संपत्ति के हम स्वतः ही अधिकारी बन जाते हैं, उनकी ही सम्पत्ति से उनके नाम से अगर कुछ खर्च कर देते है तो क्या बुरा है ?

Monday, 16 September 2019

अधर्मी पेरियार

Image result for पेरियारआज एक हिन्दी, हिंदुत्व और हिन्दुस्थान के बिरोधी कांग्रेसी / साम्यवादी नेता "पेरियार" का जन्मदिन हैं. भारत में उत्तर-दक्षिण का झगडा बढाने में इस की बहुत बड़ी भूमिका रही है. "पेरियार" का असली नाम "इरोड वेंकट नायकर रामासामी" था. पेरियार का जन्म 17 सितम्बर 1879 को तमिलनाडु के इरोड में एक हिन्दू परिवार में हुआ था.
इनके माता पिता बहुत ही धार्मिक प्रव्रत्ति के थे और संतों तथा भारतीय परम्पराओं का बहुत आदर करते थे. उनके घर में अक्सर भजन, कीर्तन तथा उपदेश आदि का आयोजन होता रहता था. उनका स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में दाखिल कराया गया मगर उनका पढने में मन नहीं लगा और 5वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी.
19 वर्ष की उम्र में उनकी शादी 13 बर्ष की "नगम्मल" के साथ हो गई. इसी बीच किशोर "पेरियार" का संपर्क कुछ ईसाई प्रचारकों से हुआ, जो गरीब हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन कराने के उद्देश्य से हिन्दू परम्पराओं को गलत बताते थे. उस कुसंग के कारण "पेरियार" ने भी हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यताओं का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया.
वे अपने आपको नास्तिक कहते थे लेकिन उनका निशाना कभी भी ईसाई अथवा इस्लामिक धार्मिक मान्यताएं नहीं होती थीं. वे केवल हिन्दू महाकाव्यों तथा पुराणों में कही बातों का ही मखौल उड़ाया करते थे. उन्हें बस केवल हर हिन्दू मान्यता और परम्परा से आपत्ति थी. इस कारण उनके माता पिता भी उनसे बहुत नाराज रहते थे.
1904 में उन्होंने एक क्रांतिकारी ब्राह्मण की मुखबिरी कर उसे अंग्रेज पुलिस के हाथों पकडवा दिया. उस पर आरोप लगाया कि- वह धार्मिक कथाओं के माध्यम से लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ भड़काता है. इस घटना पर उनके पिता अत्यंत लज्जित और क्रोधित हुए और उन्होंने "पेरियार" को सड़क पर सबके सामने बहुत पीटा और घर से निकाल दिया.
घर से निकलने के बाद वे काशी आ गए. यहाँ एक जगह ब्राह्मणभोज का कार्यक्रम चल रहा था, वे भी उसमे जाकर बैठ गए. इस पर उनको बताया गया कि- अभी ब्राह्मण भोज चल रहा है, ब्राह्मण भोज के बाद ही अन्य सभी लोगों को भोजन कराया जाएगा. अभी उठ जाइए और थोड़ा इन्तजार कीजिए, थोड़ी देर में आपको भी भोजन मिलेगा.
इस बात पर उनको ब्राह्मणों से नफरत हो गई, जो आजीवन बनी रही. इसके बाद उन्होंने अपना सारा जीवन ब्राह्मण, हिंदुत्व, हिन्दू देवी देवताओं, हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के खिलाफ बोलने में लगा दिया.ऐसी हरकतों के कारण उनको अंग्रेज सरकार से भी भरपूर सहयोग मिलने लगा. ऐसे सेकुलर ( हिन्दू बिरोधी) तो कांग्रेस को भी हमेशा से प्रिय रहे हैं.
सन 1919 में सी. राजगोपालाचारी ने उन्होने कांग्रेस का सदस्य बनाकर तमिलनाडु इकाई का प्रमुख बना दिया. जल्द ही वे अपने शहर के नगरपालिका के प्रमुख बन गए. कुछ बर्ष बाद सोवियत रूस के दौरे पर जाने पर, उन्हें साम्यवाद ने बहुत प्रभावित किया, वापस आकर उन्होने कांग्रेस छोड़ कर अपने साम्यवादी होने की घोषणा की.
उन्होंने कांग्रेस छोड़कर "जस्टिस पार्टी" ज्वाइन कर ली, कुछ समय बाद वे इस पार्टी के अध्यक्ष बन गए. 1937 में उन्होंने दक्षिण भारत में हिंदी भाषा के बिरोध में एक बड़ा अभियान शुरू किया, इस हिन्दी बिरोधी अभियान के कारण भारत उत्तर दक्षिण में बंट गया. आज का उत्तर दक्षिण और हिंदी / तमिल का झगडा काफी हद तक उनकी ही देंन है.
अंग्रेजों के समय में इसने एक रेली निकाली थी जिसमे ट्रकों पर राम-सीता, राधा-कृष्ण, शिव, हनुमान, आदि की मूर्तियों को रखा. इसके कार्यकर्ता उन मूर्त्तियों को झाडू और जुते मार कर प्रदर्शन कर रहे थे और यह राक्षस अट्टाहास कर रहा था कि - लो देख लो इन मूर्त्तियों की ताकत, यह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पा रही हैं, जिनकी तुम लोग पूजा करते हो.
1944 में उन्होंने जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर "द्रविदर कड़गम" कर दिया. इसी बीच 1949 में उन्होंने अपने से 20 साल छोटी एक लड़की जिसको पहले अपनी बेटी बताते थे, से एक और विवाह कर लिया. इस बात से नाराज होकर उनके बहुत से साथियों ( सी॰ एन॰ अन्नादुरै / एम. करुनानिधि.आदि ) ने उनको छोड़कर एक नए दल "D M K" (द्रविड़ मुनेत्र कडगम ) की स्थापना कर दी.
D M K के प्रभावशाली हो जाने के बाद, उनकी पार्टी का राजनैतिक पतन हो गया. इसके बाद उन्होंने राजनीति को छोड़कर हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू देवी देवताओं के खिलाफ लिखना और बोलना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया. उन्होंने रामायण के बिरोध "सच्ची रामायण" नामक किताब लिखी, जिसमे राम को गलत बताया.
राम के बारे में पेरियार का मत है कि - वाल्मीकि के राम विचार और कर्म से धूर्त थे. झूठ, कृतघ्नता, दिखावटीपन, चालाकी, कठोरता, लोलुपता, निर्दोष लोगों को सताना और कुसंगति जैसे अवगुण उनमें कूट-कूट कर भरे थे. पेरियार जैसे अधर्मी व्यक्ति की बातें कोई भी व्यक्ति अपने धर्म के लिए बर्दाश्त नहीं कर सकता.
इसका बुढापा अत्यंत गरीबी, लाचारी, बीमारी और अकेलेपन में बीता. इसके सभी साथी इसको छोड़ गए. विभिन्न बीमारियों का शिकार होने के बाद 94 साल की आयु में 24 दिसंबर 1973 को इसकी मौत बहुत ही घिसटते घिसटते हुई थी.

Thursday, 12 September 2019

गुरू पूर्णिमा महापर्व की हार्दिक शुभकामनाएं

 सनातन भारतीय जीवन शैली में गुरु का बहुत महत्त्व है. शिष्य अपने गुरु का भगवान् के समान आदर करते हैं. सावन माह की पूर्णिमा को "गुरु आराधना" के लिए समर्पित किया गया है. इसलिए इसको गुरु पूर्णिमा कहते है. शिष्य अपने गुरुओं को यूँ तो हमेशा ही सम्मान देते हैं, लेकिन इस दिन शिष्य अपने गुरु का विशेष सम्मान देते है.
गुरु पूर्णिमा का दिन चुनने के पीछे अलग अलग मान्यताएं हैं. ऐसा माना जाता है कि - आदि गुरु भगवान् महादेव ने आज के दिन ही सप्त ऋषियों को ज्ञान प्रदान किया था. उसके बाद सप्त ऋषियों ने गुरु परम्परा को कायम किया और ज्ञान को जन जन तक पहुंचाने के लिए गुरुकुलों (विश्वविद्यालयों) की व्यवस्था की थी.
यह सप्तऋषि है : .गुरु वशिष्ठ, गुरु विश्वामित्र, गुरु कण्व, गुरु भारद्वाज, गुरु अत्रि, गुरु वामदेव एवं गुरु शौनक. परन्तु कुछ विद्वान् यह मानते है कि सप्तऋषियों में भृगु ऋषि, जमदग्नि ऋषि एवं पुलस्त्य ऋषि को सप्तर्षियों में रखते हैं. इन सप्तऋषियों के गुरुकुलों (विश्वविद्यालयों) में अलग अलग प्रकार की शिक्षा दी जाती थी.
इन सप्तऋषियों और उनके गुरुकुलों (विश्वविद्यालयों) का इतना महत्त्व था कि - लोग अपनी वंश परम्परा (कुल का नाम) के साथ गुरु परम्परा (गोत्र) का भी उल्लेख करते थे. जैसे आजकल भी लोग बताते है कि किस विश्वविद्यालयों से पढ़े हुए है. इन सभी ऋषियों के गुरुकुल अलग अलग बिषयों की शिक्षा के लिए विख्यात थे.
कहीं आध्यात्म की तो कहीं विज्ञान की, कहीं समाज शास्त्र की तो कहीं युद्धकला की, कहीं धर्मपूर्ण राजनीति की तो कही आयुर्वेद की, कहीं ज्योतिष शास्त्र की तो कहीं कला की. शिष्य द्वारा अपने नाम के साथ गोत्र (गुरु परम्परा) का उल्लेख करने का अर्थ यही होता था कि वह व्यक्ति किस बिषय की जानकारी रखता होगा.
यहाँ एक महत्वपूर्ण बात आपको और बताना चाहता हूँ. कश्यप ऋषि के बारे में कहा जाता है कि - उनका गुरुकुल आजकल की ओपन यूनिवर्सिटी की तरह था. उनके शिष्य गाँव गाँव में घूमकर ज्ञान का प्रसार करते थे. इसलिए यह भी कहा जाता है कि - जिसे अपना गोत्र ज्ञात न हो उसे अपना गोत्र "कश्यप" मान लेना चाहिए.
गुरुपूर्णिमा को सावन माह की पूर्णिमा को मनाने के पीछे एक बजह और भी बताई जाती है. इस दिन महाभारत के रचयिता "व्यास ऋषि" का जन्म हुआ था. प्राचीन सनातन ज्ञान को संकलन कर और उसका वर्गीकरण करके व्यवस्थित करने का काम "ऋषि व्यास"जी ने किया था. इसलिए गुरुपूर्णिमा को "व्यास पूर्णिमा" भी कहते हैं.
यूं तो यह माना जाता है कि वेद और वैदिक ज्ञान तुगों युगों से है, लेकिन यह भी माना जाता है कि -"ऋषि व्यास" जी ने वैदिक स्तोत्र को इकट्ठा कर उनको वर्गीकृत कर जन सामान्य के लिए उपलब्ध कराया. उन्होंने कथाबाचकों की एक पीढ़ी को तैयार किया और उन कथाबाच्कों के माध्यम से यह ज्ञान आम जनता तक पहुंचाया.
कोई कथाबचक जब ज्ञान चर्चा करता है तो उसके आसन को व्यास गद्दी कहा जाता है और उस कथाबचक को "ऋषि व्यास" का प्रतिरूप माना जाता है. अगर कोई कथाबाचक "व्यास गद्दी" पर विराजमान है तो उस समय किसी बड़े संत या बड़े व्यक्ति के आने पर भी व्यास गद्दी पर बैठा व्यक्ति उन्हें प्रणाम नहीं करता है बल्कि वह संत उन्हें प्रणाम करता है.
हर व्यक्ति को अपने गुरु का सम्मान करना चाहिए. कोई जरुरी नहीं है कि - आपने किसी से गुरुदीक्षा ली हो तब ही आप किसी को अपना गुरु कहेंगे. हर वो व्यक्ति, वो महापुरुष, वो ग्रन्थ, वो पुस्तक, यहाँ तक कि - सिनेमा / नाटक के किसी प्रसंग से भी अगर आपको कुछ प्रेरणा ग्रहण करते हैं तो आप उसे अपना गुरु कह सकते हैं.
विद्याथी जीवन में भी आप जिन टीचर्स से प्रेरित होते हैं वो भी गुरु हैं और आपके माता - पिता - भाई - चाचा - मामा - पड़ोसी, मित्र, रिश्तेदार, आदि में से भी अगर, किसी की शिक्षा से आपका जीवन प्रभावित हुआ है तो वो आपका गुरु कहलाने के योग्य है. ऐसे प्रत्येक व्यक्ति का भी "गुरु" के सामान सम्मान करना चाहिए .
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भगवा ध्वज का अपना गुरु मानते हैं. भगवा ध्वज को "हनुमान" जी की साक्षात उपस्थिति का प्रतीक माना है. इस गुरु पूर्णिमा के अवसर पर उन सभी को मेरा सादर नमन जिनसे मुझे कोई न कोई ज्ञान प्राप्त हुआ है.

Monday, 2 September 2019

सड़कों पर घूमते बेसहारा जानवर


सड़कों पर घूम रहे जानवर (खासकर गाय) ट्रेफिक और आम आदमी के लिए भारी मुसीबत का कारण बन रहे है. इनके कारण अनेकों लोग और वाहन चालक दुर्घटना ग्रस्त होकर घायल हो चुके हैं या अकाल मौत का शिकार बन चुके है. इन बेसहारा भटकने वाले जानवरों को सड़कों से हटाकर कहीं और व्यवस्थित करने की बहुत जरूरत है.
इनको सड़क से अवश्य हटाना चाहिए लेकिन इसका अर्थ यह हरगिज नहीं है कि - गौभक्षकों को इन्हें मारकर, इनका मांस खाने की इजाजत दे दी जाये, जबकि ज्यादातर गौ-भक्षक जो इनको लेकर अनर्गल प्रलाप करते हैं उनका उद्देश्य केवल इतना ही होता है कि - उनको गौहत्या करने और गौ मांस खाने की इजाजत मिल जाए.
सबसे पहली बात तो यह कि- सड़कों पर घूमने वाली गायों को "आवारा गाय" न कहा जाए बल्कि "बेसहारा गाय" कहा जाए. आवारा का अर्थ होता है- अपना घर छोड़कर बेकार इधर उधर घूमना, जबकि जिसका कोई घर या ठिकाना न हो वो बेसहारा कहलाता है. हमारा कर्तव्य है कि- बेसहारा को सहारा दिया जाए न कि- उसे से जान से मार दिया जाए
हमारे देश में लगभग हर राज्य के जिले में गौ-चर जमीन होती है जिसे गायों के चरने के लिए छोड़ा जाता है, परन्तु इन जमीनों पर नेताओं, सारकारी अधिकारियों और भू-माफियाओं ने कब्ज़ा कर रखा है. सबसे पहले तो उन जमीनों से अवैद्ध कब्ज़ा छुड़ाकर, उस जमीन पर गौशाला बनाी जाए. जहाँ सभी बेसहारा गायों को रखा जा सके.
दुसरी बात, जिस भारतीय मूल की गाय के दिव्य गुणों के कारण उसे "माँ" कहा जाता है, हमें केवल उस देशी गाय को ही संरक्षित करना है. उसके अलावा जितनी भी मिक्स ब्रीड गाये (गाये जैसी दिखने वाली जानवर) हैं. उनको को फिलहाल तो जरूर बचाया जाए लेकिन उनका बंध्याकरण कर दिया जाए, जिससे कि आगे उनकी संख्या न बढे.
गाय के जिस पञ्चगव्य को मनुष्य के लिए लाभदायक माना जाता है वह केवल भारतीय गाय के पञ्चगव्य में होता है. मिक्स ब्रीड या विदेशी नश्ल की गाय का भारतीय परिवेश में कोई महत्त्व नहीं है. ये तो कई जानवरो को मिक्स करके बनाई गई दूध देने वाली मशीन मात्र है. इनका मूत्र और गोबर तो छोड़िये दूध भी हानिकारक होता है.
अब चूँकि ये भी देखने में हमारी गौमाता जैसी लगती है, तो जाहिर सी बात है कि- हम इनको कटने तो नहीं दे सकते लेकिन इनकी संख्या न बढे ऐसे प्रयास अवश्य कर सकते हैं. भारत के लोग सैकड़ों साल से गाय को माँ कहकर संरक्षण देते आ रहे हैं, तो यह गौ-संरक्षण की परम्परा कायम रहनी चाहिए. इसके लिए अलग से बजट भी रखना चाहिए.
गायों को पालने और गौ-शालाओ का खर्च चलाने के लिए, अलग से एक "गौ सुरक्षा टैक्स" लगाया जाना चाहिए, जिससे पर्याप्त गौशालाओ की व्यवस्था की जा सके. गाय भारतीय संस्कृति में बहुत ही सम्मानित जानवर है, हमें भारतीय संस्कृति की रक्षा करने खातिर भारतीय देशी नश्ल की गाय के संरक्षण की समुचित व्यवस्था करनी ही चाहिए।

बाढ़ और सूखे की समस्या का "अटल" समाधान

देश साल में चार महीने सूखे की चपेट में रहता है तो चार महीने बाढ़ में डूबता है. हर बर्ष हजारों करोड़ का नुकशान होता है, लाखों लोग प्रभावित होते हैं और हजारों लोग मारे जाते है. सूखे के समय टैंकर से पानी पहुंचाकर और बाढ़ के समय हेलीकाप्टर से खाना फेंककर, सरकारें यह समझ लेती है उसने बहुत महान काम कर दिया है.
बाढ़ और सूखे की यह समस्या हर साल की समस्या है और इसका स्थाई हल निकालना बहुत जरुरी है. बरसात में इतना पानी बरसता है कि - अगर उसका 5% भी स्टोर कर लिया जाए तो सालभर पानी की कमी नहीं होगी. लेकिन हम उस पानी को ऐसे ही नदियों में बह जाने देते हैं और और नदियाँ लोगों डुबोते हुए पानी समुन्द्र में डाल देती है.
बाढ़ और सूखे की समस्या का स्थाई हल यही है कि - एक तो बर्षा के जल को संग्रह किया जाए और दुसरा देश की सभी नदियों को नहरों के माध्यम से जोड़ दिया जाए. बर्षा के जल को संग्रह करने के दो उपाय है एक तो पारम्परिक तालाब जिनमे पानी भर जाये और धीरे धीरे रिसते हुए भूजल में मिल जाए तथा जिसको पशु - पक्षी सीधे ही इस्तेमाल करें.
जमीन घिर जाने के कारण तालाब के लिए स्थान नहीं बचा है लेकिन सड़क तथा बड़ी छतों पर गिरने वाले पानी को "रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम" के द्वारा ग्राउंड वाटर को रीचार्ज किया जा सकता है. ऐसा करने से धरती में भूजल का स्तर ऊपर आ जाएगा, जो सालभर काम आएगा इसके अलावा कम पानी बहने से बाढ़ की समस्या भी कम होगी.
दुसरा उपाय है नदियों को जोड़ना. भूतपूर्व प्रधानमंत्री "अटल बिहारी बाजपेई" जी ने इस अभियान की शुरुआत की थी. उनका बिचार था कि- यदि देश की नदियों पर डैम बनाकर उनको नहरों के माध्यम से आपस में मिला दिया जाए, तो बाढ़ और सूखे का हल किया जा सकता है. कभी भी ऐसा नहीं होता है कि सारे देश में एक साथ बाढ़ और सुखा हुआ हो.
बाढ़ आने पर पानी को नहरों के माध्यम से दूर भेजा जा सकता है तथा सुखा पड़ने पर उन इलाकों से पानी मंगवाया जा सकता है जहाँ पर पानी उपलब्ध हो. "अटल" जी इस योजना पर काम शुरू कर पाते इससे पहले ही उनकी सरकार चली गई और दस साल में लोग इसे भूल गए. और नदियों को जोड़ने की योजना अधर में लटक गई.
हालांकि कि - अटल जी की पार्टी (बीजेपी) की सरकार वाले तीन राज्यों (गुजरात - मध्य प्रदेश- राजस्थान) ने राज्य स्तर पर इस योजना को चालू रखा . नर्मदा - क्षिप्रा, नर्मदा - सावरमती, केन -वेतवा, आदि जैसी कुछ परियोजनाओं को पूरा भी कर लिया. लेकिन यह काम लार्ज स्केल पर सारे भारत में करने की आवश्यकता है.
इस समय जम्मू -कश्मीर में किशनगंगा प्रोजेक्ट चल रहा है. इसके अलावा सिन्धू, झेलम, रावी तथा कुछ छोटी नदियों को जोड़कर उनका पानी पंजाब में और पंजाब से राजस्तान गुजरात तथा महारष्ट्र तक ले जाने का बिचार है. नदियों को जोड़ने की परियोजना में सबसे बड़ी बाधा है नदियों के जल पर राज्य का अधिकार माना जाना.
संविधान में नदियों के पानी का प्रबंधन करने और उसका इस्तेमाल करने का निर्णय लेने का अधिकार राज्यों को दे रखा है. ज्यादातर सभी राज्यों की सरकारें झूठी बातें करके अपने-अपने राज्यों की जनता को भड़काती रहती हैं कि - केंद्र सरकार तम्हारा पानी छीनना चाहती हैं. सतलुज-यमुना और कृष्ण- कावेरी का झगडा आप देखते ही है.
मेरा वर्तमान केंद्र सरकार से अनुरोध है कि - "अटलजी" की इस महत्वाकांक्षी परियोजना को फिर से शुरू किया जाए. संविधान में संशोधन कर नदियों एवं उनके जल पर किसी राज्य का नहीं बल्कि सारे देश का अधिकार माना जाए. नदियों को जोड़ने की व्यापक और सुरक्षित प्रणाली को विकसित कर सारे देश में नहरों का जाल बिछाया जाए.
इस काम को करने के लिए वास्तविक पर्यावरण विशेषज्ञों को भी साथ लिया जाए, लेकिन ऐसे तथाकथित फर्जी पर्यावरणविद जिनका काम केवल परियोजनाओं को रुकवाना होता है, वे अगर रुकावट डालें तो उन पर देशद्रोह का मुकदमा कायम करके जेल भेजना चाहिए, राष्ट्र विकास में वाधा डालना भी देशद्रोह से कम नहीं है.

मदन लाल धींगरा

मदन लाल ढींगरा का जन्म 18 फरवरी 1883 को पंजाब के अमृतसर शहर में एक संपन्न हिंदू परिवार में हुआ था. उनके पिता सिविल सर्जन थे और अंग्रेज़ी रंग में पूरे रंगे हुए थे. उनका परिवार अंग्रेजों का विश्वासपात्र था. परन्तु मदनलाल का ननिहाल और उनकी माताजी अत्यन्त धार्मिक एवं राष्ट्रवादी संस्कारों से परिपूर्ण थे.
माँ के कारण मदन लाल के मन भी क्रांतिकारी सोंच पैदा हो गई. लाहौर में पढ़ाई करते समय वे क्रांतिकारियों के संपर्क में आये. परन्तु क्रांतिकारियों से सम्बन्ध रखने के कारण उन्हें कालेज से निकाल दिया गया. इससे नाराज होकर उनके पिता ने भी उनको घर से निकाल दिया. तब जीवन यापन करने के लिए उन्होंने मजदूरी भी की.
कारखाने में मजदूरी करते समय उन्होंने वहां यूनियन बनाने का प्रयास किया तो उन्हें वहां से भी निकाल दिया गया. उसके बाद वे अपने बड़े भाई की सलाह मानकर घर वापस आ गए और मेकेनिकल इंजीनियरिग की पढ़ाई करने लंदन चले गए. क्रांतिकारी बिचारों के मदन लाल पढ़ाई से ज्यादा क्रांतिकारी गतिबिधियों में रूचि रखने कगे.
वहां वे भारत के प्रख्यात राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर एवं श्यामजी कृष्ण वर्मा के सम्पर्क में आये. वे लोग भी धींगड़ा की प्रचण्ड देशभक्ति से बहुत प्रभावित हुए. सावरकर ने उन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया. ढींगरा 'अभिनव भारत मंडल' के सदस्य होने के साथ ही 'इंडिया हाउस' नाम के संगठन से भी जुड़ गए.
इस दौरान सावरकर और ढींगरा के अतिरिक्त ब्रिटेन में पढ़ने वाले अन्य बहुत से भारतीय छात्र भारत में खुदीराम बोस, कनानी दत्त, सतिंदर पाल और कांशीराम जैसे देशभक्तों को फाँसी दिए जाने की घटनाओं से तिलमिला उठे और उन्होंने बदला लेने की की कसम खाई. और लन्दन में बड़ा काण्ड करने का निर्णय लिया.
पहले उनलोगो वाइसराय लॉर्ड कर्ज़न को भी मारने की कोशिश की थी पर वह कामयाब नहीं हो पाए थे. इसके बाद सावरकर जी ने मदनलाल को साथ लेकर भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार सर विलियम हट कर्जन वायली को मारने की योजना बनाई और मदनलाल को साफ कह दिया गया कि इस बार किसी भी हाल में सफल होना है.
1 जुलाई सन् 1909 की शाम को इण्डियन नेशनल ऐसोसिएशन के वार्षिकोत्सव में भाग लेने के लिये भारी संख्या में भारतीय और अंग्रेज इकठे हुए. जैसे ही कर्जन वायली अपनी पत्नी के साथ हाल में घुसे, ढींगरा ने उनके चेहरे पर पाँच गोलियाँ दाग दी.कर्ज़न को बचाने की कोशिश करने वाला पारसी डॉक्टर कोवासी लालकाका भी ढींगरा की गोलियों से मारा गया.
उसके बाद धींगड़ा ने अपने पिस्तौल से स्वयं को भी गोली मारनी चाही किन्तु उन्हें पकड़ लिया गया. उनपर मुकदमा चलाया गया तो उन्होंने कहा कि- "ब्रिटिश सरकार को कोई हक़ नही है मुझ पर मुकदमा चलाने का. जो ब्रिटिश सरकार भारत मे लाखो बेगुनाह देशभक्तों को मार रही है और हर साल 10 करोड़ पाउंड भारत से इंग्लैंड ला रही है,
उस सरकार के कानून को वो कुछ नही मानते, इसलिए इस कोर्ट मे वो अपनी सफाई भी नही देंगे, जिस जो करना है कर लो”. जब उन्हे म्रत्यु दंड देकर ले जाने लगे, तो उन्होने जज को शुक्रिया अदा करते हुए कहा था - “शुक्रिया ,आपने मुझे मेरी मात्रभूमि के लिए जान नियोछावर करने का मोका दिया”
23 जुलाई 1909 को अदालत ने उन्हें मृत्युदण्ड की सजा सुनाई. 17 अगस्त सन् 1909 को लन्दन की पेंटविले जेल में फाँसी पर लटका कर अमर कर दिया गया. उनका अंतिम संस्कार भी अंग्रेजी सरकार ने किया था क्योंकि उनके राजभक्त परिवार ने उनसे सभी सम्बन्ध समाप्त करने की घोषणा कर दी थी
वीर सावरकर ने उनके शव का अंतिम संस्कार करना चाहां, मगर उनकी मांग को ठुकरा दिया गया.

क्रान्तिकाल के भामाशाह : मेमन अब्दुल हबीब युसूफ मारफानी

द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो चूका था. जर्मन, जापान, इटली, आदि देश अंग्रेजों और उनके मित्रदेशों पर कहर वरपा रहे थे. अंग्रेजों की हालत खराब थी. "दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है" और इसी नीति पर चलते हुए महान क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अंग्रेजों के खिलाफ जर्मन -जापान - इटली का साथ देने का निर्णय लिया.
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जर्मन जाकर हिटलर से मिले और विश्वयुद्ध में अंग्रेजों के खिलाफ भारत की जनता द्वारा हिटलर की मदद करने का बचन दिया. उन्होंने आजाद हिन्द फ़ौज का पुनर्गठन किया. उन्होंने भारतीय मूल के ब्रिटिश सैनिको और आम नागरिकों से आजाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने और आर्थिक मदद करने आव्हान किया.
लाखों युवा नेताजी के आव्हान पर आजाद हिन्द फ़ौज में शामिल हो गए या फिर अपने आपको आजाद हिन्द फ़ौज का सैनिक कहते हुए अपने अपने गाँव / शहर / कसबे में ही अंग्रेजों और अंग्रेजों के चापलूस भारतीयों के खिलाफ कार्यवाही करने लगे. आजाद हिन्द फ़ौज ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को खोखला कर दिया.
ऐसे समय में जब अंग्रेज कमजोर हो गए थे तब अंग्रेजो के द्वारा बनाई गई और देशी अंग्रेजों द्वारा चलाई जा रही पार्टी "कांग्रेस" ने विश्वयुद्ध में अंग्रजों का साथ देने का ऐलान कर दिया. अब भारत में ही आम जनता दो वर्गों में विभाजित हो गई. अब विश्वयुद्ध में सुभाष समर्थक अंग्रेजों के खिलाफ थे और गांधी समर्थक अंग्रेजों के साथ थे.
नेताजी को अंग्रेजों से लड़ाई जारी रखने के लिए, अपनी फ़ौज के लिए बहुत ज्यादा धन की आवश्यकता थी. उन्होंने भारतीयों से आर्थिक मदद का आव्हान किया. उनके आव्हान पर देशभक्तों ने अपना धन-सोना-चांदी आदि आजाद हिन्द फ़ौज को समर्पित कर दिया. उस समय सौराष्ट्र के एक मुस्लिम व्यापारी ने जो किया वह तो बेमिशाल है.
सौराष्ट्र (गुजरात) के एक धनवान व्यापारी "मेमन अब्दुल हबीब युसूफ मारफानी" उस समय रंगून में थे. उन्होंने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से रंगून में मुलाक़ात की और सारी पूंजी, सोना, जायदाद "आजाद हिन्द फ़ौज" को समर्पित कर दी. जिसकी कीमत उस जमाने में लगभग एक करोड़ थी, आज कितनी होगी इसका अंदाज आप खुद लगा सकते हैं.
नेताजी ने ‘आजाद हिन्द बैंक’ का गठन किया और यह पूंजी उस बैंक की प्रारम्भिक पूंजी घोषित कर दी गई. इसके अलाबा नेताजी ने "मारफानी" को 'सेवक ऐ हिन्द' का खिताब देकर अपनी इस बैंक का प्रमुख घोषित कर दिया. नेताजी ने कहा - 'हबीब सेठ ने आजाद हिन्द फौज की मदद की है, उनका यह योगदान हमेशा याद रखा जायेगा'.
आजाद हिन्द फ़ौज ने जापान के सहयोग से भारत का काफी हिस्सा अंग्रेजों से आजाद करा लिया. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अंडमान में आजाद हिन्द फ़ौज का झंडा फहराकर भारत की आजादी की घोषणा कर दी और खुद को भारत का प्रथम प्रधानमंत्री घोषित कर दिया. मगर यह बात अंग्रेजों के साथ साथ देशी अंग्रेजों को भी नागबार गुजरी.
दुर्भाग्य से विश्वयुद्ध में जापान-जर्मन की हार हो गई और नेताजी की दुर्घटना में म्रत्यु अथवा गायब हो जाने के कारण आजाद हिन्द फ़ौज भी बिखर गई. कुछ समय बाद जब देश आजाद हुआ तो सत्ता पर कब्ज़ा उस कांग्रेस का हो गया जो विश्वयुद्ध में आजाद हिन्द फ़ौज के खिलाफ और अंग्रेजों के साथ थी.
बहुत सारे लोग आज भी यह मानते हैं कि- आजाद हिन्द बैंक के खजाने पर भी तत्कालीन सरकार ने कब्ज़ा कर लिया था और उसे देश की सम्पत्ति घोषित करने के बजाये, कुछ लालची नेताओं ने अपनी निजी समाप्ति बना लिया. साथ ही "मेमन अब्दुल हबीब युसूफ मारफानी" जैसे देशभक्त दानवीर का नाम इतिहास में दर्ज तक नहीं होने दिया.
मुसलमानो को लेकर संघ को कोसने वालों को बताना चाहता हूँ कि - मैंने उनका नाम सबसे पहले 1990 में बरेली , संघ के प्रचारक "विनोद जी" के बौद्धिक में सुना था. उसके बाद पाञ्चजन्य में उनपर एक लेख पढ़ा था. कई साल बाद जब इंटर नेट आया तो मैंने गुमनाम महापुरुषों के बारे में खीजना प्रारम्भ कियाम. उस खोज के बाद यह लेख लिखा है.
मैंने अपनी अभी तक की जानकारी के हिसाब से तो ठीक ठाक लिख दिया है लेकिन अभी मैं खुद संतुष्ट नहीं हूँ.  अभी मैं उनके बारे में और जानना चाहता हूँ.  यदि आपमें से किसी के पास "मेमन अब्दुल हबीब युसूफ मारफानी" जी के बारे में कोई विशेष जानकारी हो तो कमेन्ट बाक्स में देने की कृपा करें, जिससे लेख को और ज्यादा विस्तार दिया जा सके. 
"मेमन अब्दुल हबीब युसूफ मारफानी" जैसे गुमनाम महापुरुषों के बारे में जानकारी पहुंचाना हम सभी का कर्तव्य होना चाहिए.

अगर कोई हिन्दू / सिक्ख गौहत्या का समर्थन करे तो उसका DNA जरुर पता करें

महाराजा रणजीत सिंह के समय की बात है. लाहौर में एक गाय के सींग एक दीवार में बने छेद में फंस गये. बहुत कोशिश के बाद भी वह उसे निकाल नही पा रही थी. लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई, लोग गाय को निकालने के लिए तरह तरह के सुझाव देने लगे.
परन्तु सभी का ध्यान एक बात पर ही था कि - गाय को कोई कष्ट ना हो. तभी वहां दुलीचंद नाम का एक व्यक्ति आया और आते ही बोला - गाय के सींग काट दो. लोगों ने एक बार उसे नफरत से देखा फिर उसे नजरअंदाज कर अन्य उपाय करने लगे.
आखिर में लोगों ने सावधानीपूर्वक दीवार को तोड़कर गाय को सकुशल वहां से निकाल लिया गया. इस घटना की चर्चा किसी दरबारी ने महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में भी छेड़ दी. गाय को सकुशल निकालने की बात महाराजा भी बहुत खुश हुए.
फिर वे अचानक बोले कि- उस व्यक्ति को दरबार में बुलाया जाए. जब वह दरबार में पहुंचा तो महाराज ने उससे कहा- अपने और अपने परिवार के बारे में बताओ. तब उस व्यक्ति ने अपना परिचय देते हुए बताया कि - मेरा नाम दुलीचन्द है.
मेरे पिता का नाम सोमचंद था, जो फ़ौज में एक सिपाही था और लड़ाई में मारा जा चुका है. महाराज को उसके जबाब से सन्तुष्टि नहीं हुई. उन्होंने उसकी अधेड़ माँ को बुलवाकर पूछा तो उसकी माँ ने भी यही सब दोहराया, किन्तु महाराजा अभी भी असंतुष्ट थे.
उन्होंने जब उस महिला से सख्ती से पूछताछ करवाई तो पता चला कि- उसका पति जब लड़ाई पर जाता था तब उसके अवैध संबंध, उसके एक पड़ोसी समसुद्दीन से हो गए थे और ये लड़का दुलीचंद, सोमचन्द के बजाय "समसुद्दीन" की औलाद है.
महाराजा का संदेह सही साबित हुआ. उन्होंने अपने दरबारियों से कहा कि- कोई भी शुध्द सनातनी हिन्दू रक्त अपनी संस्कृति, अपनी मातृभूमि, पवित्र गंगा, तुलसी और गौ-माता के अरिष्ट, अपमान और उसके पराभाव को सहन नही कर सकता.
जैसे ही मैंने सुना कि दुलीचंद ने गाय के सींग काटने की बात की थी, तभी मुझे यह अहसास हो गया था कि- हो ना हो इसके रक्त में अशुद्धता आ गई है. सोमचन्द की औलाद ऐसा नही सोच सकती. तभी तो वह समसुद्दीन की औलाद निकला.
हमें "महाराजा रणजीत सिंह" की बात को सदैव ध्यान रखना चाहिए. अगर कोई दुलीचंद भारतीय संस्क्रति पर आघात करता दिखाई दे तो समझ जाइए कि - वह "सन ऑफ सोमचन्द" की आड़ में "सन ऑफ समसुद्दीन" ही होगा.

नागालैण्ड और धारा 371A का सच




अभी हाल ही में कश्मीर से अलगाववादी धारा 370 और 35a हटाई गई है. सारा देश जानता है कि यह धाराएं देश की एकता और अखंडता के लिए घातक थीं. इसलिए अंधबिरोधी इन धाराओं को हटाने के खिलाफ तो बोल नहीं पाते है लेकिन इसको हटाने के खिलाफ तरह तरह के कुतर्क अवश्य गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.
उनका ऐसा ही एक कुतर्क है कि मोदी ने कश्मीर से धारा 370 तो हटा दी है लेकिन नागालैंड में धारा 371 लगा दी है. अब नागालैंड का अपना अलग झंडा होगा तथा नागालैंड जाने के लिए वीजा लेना पड़ेगा. जबकि हकीकत यह है कि- नागालैंड की चर्चा करने के बाद भी , उनके चाचा नेहरू ही कटघरे में खड़े दिखाई देंगे.
धारा 371a नागालैंड में 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ही लगाई थी, यह धारा 370 की तरह अस्थाई नहीं बल्कि एक संविधान संशोधन था जिसे हटाने के लिए दोनों सदनों से दो तिहाई बहुमत के साथ विधेयक पास करना अनिवार्य है. जिस परमिट की बात कर रहे हैं वह आज से नहीं बल्कि अंग्रेजों के समय से चल रहा है.
नागालैंड के उग्रवादी संगठन, 1947 से ही नागालैंड में राज्य सरकार के अतिरिक्त अपनी समानांतर सरकार चलाते आ रहे हैं जिनका अपना झंडा है, अपने मंत्रालय हैं, और टैक्स भी लेते हैं. 70 साल से किसी सरकार ने उनको रोकने की कोशिश तक नहीं की. 2015 से मोदी सरकार ने उस समस्या को हल करन के लिए प्रयास करना शुरू किया है.
यह कहना कि- मोदी सरकार ने नागालैंड के लिए अलग झंडे की मान्यता दी है, तथ्यहीन और झूठा प्रोपेगेंडा है. आइये अब हम नागालैंड से सम्बंधित तथ्यों का क्रमवार अध्यन करते हैं. पूर्वोत्तर के छोटे छोटे पहाड़ी राज्य दरअसल छोटे छोटे कबीलों के समान है जो अपने कबीले के अलाबा किसी बाहरी व्यक्ति को बर्दाश्त नहीं करते और उनसे लड़ते हैं.
नागालैंड में 1826 में अंग्रेजों ने ब्रिटिश शासन लागू किया था और इसे असम में मिला दिया था. 1881 में अंग्रेजों ने कोहिमा में अपनी सैनिक छावनी बनाई. असम के नागालैंड, अरुणाचल, मिजोरम, आदि वाले क्षेत्र में कई ऐसी हिंसक जनजातियों के लोग रहते थे जो अपने इलाके में आने वाले किसी भी बाहरी इंसान की बिना किसी कारण हत्या कर देते थे.
तब अंग्रेजों अरुणाचल, नागालैंड और मिजोरम में प्रवेश करने वाले बाहरी व्यक्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए यह व्यवस्था बनाई कि- जब भी कोई उस इलाके में जाए तो जाने से पहले प्रवेश चौकी पर अपनी इंट्री कराये. इसके साथ उसे एक परमिट मिल जाती है कि वह व्यक्ति उस इलाके में आया है राज्य की पुलिस उसकी सुरक्षा करेगी.
तब से ही यह परमिट सिस्टम चला आ रहा है. वर्तमान में यह परमिट मिजोरम नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में पूर्ण रूप से लागू है एवं अन्य पांच राज्यों में भी आंशिक रूप से कुछ जनजाति बहुल क्षेत्रों में लागू है. इसलिए यह कहना कि ऐसा अभी हुआ है यह पूरी तरह से झूठ और बेबुनियाद है इसको सौ साल से ज्यादा हो चुके हैं.
1946 में नागा नेता "अंगामी जापू फिजो" ने "नागा नेशनल काउंसिल" (NNC) बनाई पहले उनकी मांग यह थी कि- नागा हिल्स भारत में रहे लेकिन उन्हें स्वायत्तता दे दी जाए जिससे वे अपने पारम्परिक तरीके से रह सकें, लेकिन 14 अगस्त 1947 को इसने पापिस्तान की तरह अपने आपको भारत से अलग होकर नया राष्ट्र घोषित कर दिया.
उग्रवादी संगठन NNC ने 1951 में अपनी तरफ से एक जनमत संग्रह करवाने का दावा किया, जिसमें उन्होंने बताया कि 99% नागा हिल्स के नागरिक आजाद नागालैंड की इच्छा रखते हैं. उनकी बात पर जब केंद्र सरकार ने इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया तो "फिजो" ने 22 मार्च 1956 को "नागा फेडरल गवर्नमेंट" बनाने की घोषणा कर दी.
एक तरह से यह है उग्रवादियों की समानांतर सरकार थी, जिसका लक्ष्य था नागा हिल्स को बंदूक के दम पर भारत से अलग करके अलग देश बनाना। अप्रैल 1956 में सुरक्षा बलों ने नागालैंड में अपने ऑपरेशन शुरू किए, NNC पर दबाव बना और आतंकवादी नेता "फिजो" साल खत्म होने से पहले ही जान बचाकर पूर्वी पाकिस्तान भाग गया.
सेना लगातार कार्यवाही करती रही लेकिन दुर्गम क्षेत्र होने और स्थानीय लोगों द्वारा आतंकियों का साथ देने के कारण जब उग्रवादियों से निपटने में सफलता नहीं मिली तो केंद्र ने वहां "आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट" (AFSPA) कानून लगा दिया. इस कानून के अनुरूप सशस्त्र बलों को दिए विशेषाधिकार कुछ इस तरह हैं,
* चेतावनी के बाद भी कोई कानून तोड़ता है, तो उसको गोली मारी जा सकती है.
* किसी आश्रय स्थल को नष्ट किया जा सकता है, जहां से हमले का संशय हो.
* किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को बिना किसी वारंट गिरफ्तार किया जा सकता है,
* गिरफ्तारी के समय किसी भी तरह की शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है
* बिना वारंट किसी के भी घर की तलाशी ली जा सकती है,
* इसके लिए जरूरी बल का भी प्रयोग किया जा सकता है.
* किसी भी वाहन को रोककर उसकी तलाशी ली जा सकती है.
उग्रवाद से निपटने के लिए इस कानून को असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड सहित पूरे पूर्वी भारत में लागू किया गया. उग्रवाद के दौर में पंजाब में भी यह क़ानून लगाया गया था और 1990 के बाद कश्मीर में भी यह कानून लागू है. AFSPA लगने के बाद फिजो 1960 में भागकर लंदन में जा छिपा.
फिर जवाहरलाल नेहरू ने इसके बाद 1963 में नागा हिल्स और त्यूएनसांग को मिलाकर नागालैंड राज्य बना दिया, साथ ही नागालैंड में राज्य की मूल नागा जनजातियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए धारा 371A लगा दी. जिसके अनुसार उन विषयों में नागालैंड में संसद और सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा जिनमें-
* नागालैंड के लोगों की धार्मिक / सामाजिक गतिविधियां प्रभावित होती हों.
* नागा संप्रदाय के अपने पारम्परिक कानूनों से टकराव होता हो.
* नागा कानूनों के आधार पर नागरिक और अपराधिक मामलों में न्याय.
* जमीन का स्वामित्व और खरीद फरोख्त के नियम केवल राज्य तय करेगा.
* कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्यपाल को विशिष्ट अधिकार होंगे.
* केंद्र सरकार की ओर से किसी विशेष काम के लिए दी गई धनराशि उसी काम के लिए प्रयोग की जा सकती है, किसी अन्य काम के लिए नहीं.
* त्यूसांग जिले के लिए 35 सदस्यों की एक क्षेत्रीय काउंसिल बनाई जाए और इस काउंसिल से जुड़े सभी फैसले और कानून बनाने की जिम्मेदारी राज्यपाल की होगी.
साल 1963 में जब नागालैंड राज्य बना था तो इसे विशिष्ट और सुरक्षित राज्य का दर्जा आर्टिकल 371A के द्वारा ही दिया गया था, 1964 के अप्रैल में जयप्रकाश नारायण, असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री माईला प्रसाद चालिहा और एक ईसाई धर्मगुरु रेवरेंड माइकल स्टार्क का एक शांति मिशन नागालैंड भेजा गया.
इस शांति मिशन ने NNC और केंद्र सरकार के बीच समझौता करवाने में सफलता प्राप्त की, समझौते के अनुसार दोनों पक्ष अपनी-अपनी बंदूकें त्याग देंगे, लेकिन इस समझौते के बाद भी NNC की ओर से उग्रवादी घटनाएं होती रही, कई माह तक यह नाटक चला जब भी सरकार NNC से इसकी शिकायत करती, वो कहते लड़के हैं गलती हो जाती है.
इसी बीच इस बात के सबूत मिले कि - इन घटनाओं के पीछे चीन का हाथ है. जब हालत में कोई सुधार नहीं हुआ तो तत्कालीन लालबहादुर शास्त्री की सरकार के आदेश पर 1965 में सुरक्षा बलों ने इन उग्रवादी गुटों के खिलाफ जबरदस्त कार्यवाही शुरू की. सेना का फोकस रहा NNC, NFG और NFA पर. सेना को इसमें काफी सफलता मिली.
परन्तु 1966 में शास्त्रीजी की असामयिक मौत के बाद यह अभियान रोक दिया गया. नार्थईस्ट के हालात फिर खराब हो गये. 11 नवंबर 1975 में इंदिरा गांधी ने NNC और NFG से फिर एक समझौता किया, लेकिन जब शिलांग में यह समझौता हो रहा था, तब NNC का एक मेंबर "थुइनगालेंग मुइवा" चीन से समझौता कर रहा था,
"थुइनगालेंग मुइवा" ने इंदिरा गांधी और NNC / NFG के साथ हुए समझौते की शर्ते मानने से इंकार कर दिया. चीन के पालतू उग्रवादियों ने 1980 में "नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड" (NSCN) नाम का नया संगठन बनाया. यह आतंकवादी संगठन समाजवाद से ज्यादा हिंसक तरीके विद्रोह करने में विश्वास रखता था.
इस उग्रवादी संगठन में दो और छोटे संगठन मिल गए जिन्होंने पहले इंदिरा गांधी के साथ समझौता किया था. इसके बाद इन उग्रवादी संगठनों ने बड़े पैमाने पर हिंसा शुरू कर दी. इस संगठन में 8 साल के बाद एक बंटवारा हुआ और "खापलांग" नाम के एक खतरनाक उग्रवादी ने अपना नया संगठन बना लिया.
इसी बीच 1991 में "फिजो" की लंदन में मौत हो गई. NSCN चीन के पैसे और हथियार के दम पर लोगों की हत्या करवाता रहा. 1997 में इन्द्र कुमार गुजराल सरकार ने NSCN के साथ पहला सीजफायर समझौता किया. लेकिन दूसरा गुट NSCN (IM) समझौते को धता बताते हुए अपनी समानांतर सरकार चलाता रहा.
NSCN (IM) नागालैंड में चल रही अकेली समानांतर सरकार नहीं है. वहां NNC और NSCN के जितने धड़े हैं और उन धड़ों के जितने धड़े हैं, सबकी अपनी-अपनी ‘सरकारें’ चल रही हैं. और सभी जबरन टैक्स वसूलती है. अनेक ‘सरकारों’ के होने से नागाओं की ज़िंदगी नरक बनी हुई है. उनके लिए तय करना मुश्किल है कि किसका नियम मानें,
1999 में अटल बिहारी बाजपेई ने नागा नेताओं से बातचीत शुरू की. नागाओं की आजतक किसी भारतीय प्रधानमंत्री से सबसे ज़्यादा पटी है, तो वो थे अटल बिहारी वाजपेयी, अटलजी वो पहले नेता थे, जिन्होंने नागाओं की पहचान और इतिहास का ज़िक्र किया. साथ ही ये माना कि इंसरजेंसी में फौज से कुछ गलतियां भी हुईं.
अपनी पहचान को लेकर भावुक नागाओं को ये बात बहुत पसंद आई. अटलजी ने 1998 में पैरिस में "इसाक चिसी स्वु" और "थुइनगालेंग मुइवा" से मुलाक़ात भी की. इसी बीच आरएसएस ने भी जमीनी स्तर पर नागाओ में अपनी पैठ बना ली, परन्तु 2004 में बाजपेई सरकार चली जाने से शान्ति प्रयास एक बार फिर थम गये.
परन्तु 2004 में बाजपेई सरकार जाने के बाद एक बार फिर केंद्र और नागाओं में संवादहीनता के हालात पैदा हो गए. 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद केन्द्र ने एक बार फिर नार्थईष्ट पर ध्यान देना शुरू किया. 3 अगस्त 2015 को एक और समझौता हुआ जो नागा शांति समझौते का फ्रेमवर्क ऑफ एग्रीमेंट हैं.
नागा लोग भी मोदी को अटलजी का शिष्य मानते हुए, मोदी के प्रति विश्वास जता रहे हैं. नागालैंड के वर्तमान राज्यपाल "आर. एन. रवि ने भी नागाओं के बीच में रहकर काफी काम किया है. इनसे पहले वाले राज्यपाल "पद्मनाभ बालकृष्ण आचार्य" ने राज्यपाल बनने से पहले संघ के सवयंसेवक के रूप में नागालैंड में बहुत सेवा कार्य किया था.
सुरक्षाबलों के लगातार चले अभियान ने नागालैंड में रहकर उग्रवाद को पालना पोषण कहीं ज्यादा मुश्किल कर दिया है, सीमाएं सील हैं या तेजी से की जा रही हैं, तो विदेशी मदद मिलने के रास्ते कम हो रहे हैं NSCN(K) म्यांमार के जंगलों से अब भी उग्रवादी घटनाएं अंजाम दे रहा है. सरकार ने इसे बातचीत शामिल नहीं किया है.
एनएससीएन के अतिरिक्त नागालैंड में 6 और उग्रवादी संगठन हैं, केंद्र सरकार उनको भी इस समझौते का हिस्सा बनाना चाहती है, लेकिन सरकार यह चाहती है कि- सरकार एक पार्टी हो और सभी नागा गुट मिलकर एक पार्टी हों. ऐसा माना जा रहा है कि- लगभग सभी उग्रवादी संगठन समझौते पर एकमत हो चुके हैं.
धीरे-धीरे समझौते की शर्ते भी बाहर आ रही हैं, जो भी कुछ इस तरह हैं-
* सरकार उन सभी गुटों से बात कर रही है लेकिन समझौता वह एक से ही करेगी, इसका एक पक्ष केंद्र सरकार होगी और दूसरा पक्ष सभी उग्रवादी संगठन.
* भारत के संविधान में निहित संप्रभुता के भाव को सभी पक्ष मान्यता देंगे, अर्थात भारतीय संघ से अलग होने की मांग का दी एंड, सभी उग्रवादी संगठन मान लेंगे कि वह भारतीय हैं.
* उग्रवादी संगठनों के द्वारा हिंसा हमेशा हमेशा के लिए खत्म, जो हथियार छोड़ने वाले उग्रवादी हथियार चलाना चाहते हैं वह भारतीय सेना में सम्मिलित हो सकते हैं, जो इस के योग्य नहीं होंगे उन्हें पुनर्वास के लिए कुछ और बंदोबस्त किया जाएगा.
* सभी उग्रवादी संगठन हथियार डाल देंगे तो सुरक्षा बल भी अपनी छावनीयों में लौट आएंगे AFSPA हटा लिया जाएगा, सुरक्षा बल आवश्यक होने पर ही दखल देंगे.
* नागालैंड राज्य की सीमाओं में कोई बदलाव नहीं होगा.
* मणिपुर और अरुणाचल के नागा बहुल इलाकों में नागा टेरिटोरियल काउंसिल बनाए जाएंगे, यह राज्य सरकार के अधीन नहीं होंगे, असम के नागा बहुल इलाकों में यह नहीं बनाई जाएंगी.
* एक ऐसी संस्था भी बनाई जाएगी जो अलग अलग राज्य में बसे ना गांव के सांस्कृतिक प्लेटफार्म का काम करेगी इस संस्था में नागा जनजातियों के प्रतिनिधि बैठेंगे और यह राजनीति से दूर रहेगी.
* नागालैंड विधानसभा में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार की तरह विधान परिषद जैसा दूसरा सदन बनाया जाएगा और विधानसभा सीटों की संख्या भी बढ़ाई जाएगी.
* अभी नागालैंड से सिर्फ एक एक सांसद लोकसभा और राज्यसभा भेजा जाता है, इसे बढ़ाया जाएगा, कहां और कितना यह अभी साफ नहीं है.
* सरकार सात गुटों से बात कर रही है. लेकिन NSCN (K). इस गुट ने 2001 में भारत सरकार के साथ शांति समझौता किया था, लेकिन बाद में तोड़ दिया था.

गांधी जी का चरखा और राजीव गांधी का कम्प्यूटर

जो लोग राजीव गांधी को भारत में कम्प्यूटर और आईटी को लाने वाला बता रहे हैं उनको बता देना चाहता हूँ कि- भारत में कम्प्यूटर और आईटी की शुरुआत तब हो चुकी थी जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री बनना तो दूर राजनीति में भी नहीं आये थे.
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बन्ने के बाद भी कोई सरकारी कम्पनी कम्प्यूटर अथवा आईटी के क्षेत्र में आगे नहीं आई. राजीव के प्रधान मंत्री बन्ने के बाद और राजीव गांधी की म्रत्यु के बाद भी इस क्षेत्र में जो कम्पनियां आइ वो अपने निजी प्रयास से आई.
* टाटा समूह ने टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज की स्थापना 1968 में की थी
* शिव नाडर ने HCL की स्थापना 1976 में की थी
* प्रेम अजीम जी की विप्रो 1977 में कम्प्यूटर कारोबार में आ गई थी.
* 1981 में विप्रो ने कम्प्यूटर का उत्पादन शुरू कर दिया था.
* इनफ़ोसिस की स्थापना एन आर नारायण मूर्ति द्वारा 1981 में हुई थी
* टेक महिंद्रा 1986 में स्टार्ट हुई थी लेकिन राजीव गांधी के सहयोग से नहीं बल्कि ब्रिटिश टेलीकाम के ज्वाइंट बेंचर के साथ
* लार्सन एंड टुब्रो इन्फोटेक की स्थापना 1997 में हुई थी.
* माइंडट्री का गठन 1999 में हुआ था .
* एमफेसिस की स्थापना 2000 में हुई थी
भारत में कम्प्यूटर और आईटी को राजीव गांधी द्वारा शुरू करना उतना ही बड़ा झूठ है जितना जितना गांधी जी के चरखे से डर कर अंग्रेजों का भाग जाना.