Tuesday, 18 October 2022

अंग्रेजों के राज में कांग्रेसी अध्यक्षों को कैसे-कैसे ईनाम और पद मिला करते थे ?

जैसा कि सभी जानते है "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस" की स्थापना एक अंग्रेज "ए ओ ह्युम" ने की थी. उसके बारे में अलग से विस्तार से लिखा है. वह 1857 की क्रान्ति के समय इटावा का कलक्टर था और क्रान्तिकारियो के प्रति बहुत क्रूर था.

क्रांतिकारियों के भय से मुह काला कर और औरत का भेष बनाकर भागा था. रिटायर होने के बाद इसने एक ऐसा संगठन बनाने का बिचार किया जिसमे अंग्रेज टाइप भारतीय हो. जो अंग्रेजों की नीतियों को भारतीय जनता पर थोपने के काम आयें.
"ए ओ ह्युम" ने ऐसे 72 भारतीयों को लेकर 1885 में "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस" की स्थापना की. हर साल पार्टी का अध्यक्ष बदला जाता था परन्तु पार्टी का महासचिव लगातार 22 साल तक वह खुद बना रहा और अपने हिसाब से पार्टी को चलाता रहा.
पार्टी के अध्यक्ष
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अब आपको "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस" के अध्यक्षों की जानकारी दे रहा हू. उनका परिचय जानकार आपको खुद अंदाजा लग जाएगा कि देश को आजाद कराने में इस पार्टी का कितना योगदान रहा होगा. इस लम्बी सूची को कई भाग में प्रस्तुत करूँगा.
1.व्योमेश चन्द्र बनर्जी
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रिटायर्ड अंग्रेज कलक्टर ए ओ ह्युम ने जब 1885 में कांग्रेस का गठन किया तब उसने कांग्रेस का पहला अध्यक्ष व्योमेश चन्द्र बनर्जी को बनाया जो कोलकाता उच्च न्यायालय के वक़ील थे. ये भारत में अंग्रेज़ी शासन से प्रभावित थे और उसे देश के लिये अच्छा मानते थे.
व्योमेश चन्द्र बनर्जी अंग्रेज़ी चाल-ढाल के इतने कट्टर अनुयायी थे कि इन्होंने स्वयं अपने पारिवारिक नाम बनर्जी (या बोनर्जी) का अंग्रेज़ीकरण करके उसे 'बैनर्जी' कर दिया. इन्होंने अपने पुत्र का नाम भी 'शेली' रखा, जो कि अंग्रेज़ों में अधिक प्रचलित था.
'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के 1885 ई. में हुए प्रथम अधिवेशन के वे अध्यक्ष चुने गये थे। उन्हें दोबारा भी इलाहाबाद में 1892 ई. में हुए कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया था. 1902 ई. में वे इंग्लैंड जाकर बस गये. 1906 में अपनी म्रत्यु तक वहीँ रहे.
2. दादाभाई नौरोजी
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दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर, 1825 को मुम्बई के एक ग़रीब पारसी परिवार में हुआ था. उनकी माँ ने निर्धनता में भी बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई। उच्च शिक्षा प्राप्त करके दादाभाई लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में पढ़ाने लगे थे.
1855 तक बम्बई में गणित और दर्शन के प्रोफेसर के रूप में काम किया. 1857 क्रांति के बाद अंग्रेज ऐसे भारतीयों को तलाश रहे थे जो भारतीय होकर भी अंग्रेजों जैसे हो. ऐसे में 1859 में अंग्रेजों ने उनको एक कम्पनी लगवाकर कपास का व्यापार शुरू कराया.
1867 में उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम पर ईस्ट इण्डिया एसोशिएसन बनाई और उसके बाद देखते ही देखते उन ग़रीब की गिनती अमीरों में होने लगी. 1986 में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. 1906 में भी वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने.
दादाभाई ने मांग उठाई कि- इंग्लैंड की पार्लियामेंट में भी कम से कम एक भारतीय के लिए भी सीट सुनिश्चित होनी चाहिए. उनकी बात मानकर अंग्रेजों ने 1892 में उन्हे ही इंग्लैंड की पार्लियामेंट में भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना.
3. बदरुद्दीन तैयब
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बदरुद्दीन तैयबजी का जन्म 8 अक्टूबर, 1844 ई. को मुम्बई के एक धनी मुस्लिम परिवार में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा भारत में पूरी करने के बाद वे क़ानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड चले गए और वहां से बैरिस्टर बन कर लौटे.
उन्होंने मुसलमानों में शिक्षा का प्रचार करने के लिए ‘अंजुमने इस्लाम’ नामक संस्था को जन्म दिया. वे महिलाओं की आज़ादी और शिक्षा के भी समर्थक थे. उन्होंने अपने परिवार की महिलाओं का पर्दा भी समाप्त कराया और उच्च शिक्षा दिलबाई.
उनका रहन सहन भी बिलकुल अंग्रेजो के सामान था. अंग्रेज सरकार ने उनको मुंबई हाईकोर्ट का न्यायाधीश बनाया गया. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1887 ई. में मद्रास में आयोजित 'तीसरे वार्षिक अधिवेशन' के अध्यक्ष वे सर्वसम्मति से चुने गए थे.
4. जॉर्ज यूल
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तीन बार लगातार अंग्रेज टाइप भारतीयों को अध्यक्ष बनाने के बाद कांग्रेस ने इस बार1888 में एक अंग्रेज "जार्ज यूल" को ही पार्टी का अध्यक्ष बना लिया. वह लंदन के जॉर्ज यूल एंड कंम्पनी के संस्थापक थे और कलकत्ता के एंड्रयू यूल एंड कंम्पनी के अध्यक्ष थे.
वे कलकत्ता के फौजदार और कुछ समय तक इंडियन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स के अध्यक्ष भी रहे थे. कांग्रेस का एक दल जो साल 1889 में ब्रिटिश जनता के लिए हुए राजनीतिक सुधारों का समर्थन करने के लिए लंदन गया था, तो वहाँ जॉर्ज यूल ने उनकी काफ़ी सहायता की.
कहा जाता है कि कांग्रेस पार्टी के गठन के समय तथा बाद में पार्टी का संचालन करने के लिए सबसे ज्यादा धन उन्होंने ही दिया था. पार्टी की स्थापना के साथ ही उनकी पार्टी पर पकड़ थी. इसी बजह से उनको पार्टी का अध्यक्ष भी बनाया गया था.
5. विलियम वेडरबर्न
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1889 में कांग्रेस ने फिर एक अंग्रेज सर विलियम वेडरबर्न को अपना अध्यक्ष बनाया. सर विलियम वेडरबर्न का जन्म 25 मार्च 1838 को स्कॉटलैंड के इडिनबर्ग में हुआ था. 1860 में उन्होंने धारवाड़ में उप-जिलाधीश के रूप में काम शुरू किया.
1874 में वह सिंध के ज्यूडिशियल कमिश्नर और फिर साधर कोर्ट के न्यायधीश बने. 1882 में वह पूना के ज़िला और फिर सेशन जज बने. 1887 में अपनी रिटारमेंट के वक्त वह बम्बई सरकार के मुख्य सचिव थे. रिटायर होने के बाद उन्होंने कांग्रेस ज्वाइन की.
1890 और 1910 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. 1893 में वह लिबरल पार्टी की ओर से संसद सदस्य चुने गए. उन्होंने ब्रिटिश सरकार की उस नीति का समर्थन किया, जिसमें कहा गया था कि ब्रिटिश नीति का लक्ष्य भारत में एक प्रगतिशील शासन की स्थापना करना है

सबके बारे में विस्तार से लिखने में समय लग रहा है और पोस्ट भी लंबी होती जा रही है
इसलिए अन्य कांग्रेसियों के बारे में सक्षेप में पढ़ लीजिये
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1890 में कांग्रेस अध्यक्ष रहे "फिरोजशाह मेहता" को 1904 नाइटहुड (सर) की उपाधि दे गई. 1900 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे "नारायण गणेश चंदावरकर" को पहले 1901 में बोम्बे हाईकोर्ट का जज बनाया गया. उन्होंने जज रहते हुए क्रांतिकारियों को खूब सजाये सुनाई.

नारायण गणेश चंदावरकर" के फैसलों का सबसे ज्यादा शिकार बने थे "अभिनव भारत" दल के कार्यकर्ता. नाशिक के कलक्टर "जैक्शन" की हत्या के मामले उन्होंने बहुत ज्यादा इंटरेस्ट लिया. इस मामले में अनेकों क्रांतिकारियों को फांसी, कालापानी से लेकर 3 से 7 साल की सजा दी गई थी, इससे खुश होकर 1910 में उन्हें सर की उपाधि दी गई.
1907 और 1908 में लगातार दो बार अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. रासबिहारी घोष (रास बिहारी बोस नहीं) को भी सन 1915 में नाइटहुड (सर) की उपाधि से सम्मानित किया था. 1897 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे "चेत्तूर संकरन नायर" को अंग्रेजों ने 1904 में "कम्पेनियन ऑफ इंडियन एम्पायर" की उपाधि दी.
इसके अलाबा "चेत्तूर संकरन नायर" को मद्रास हाईकोर्ट का जज नियुक्त किया और 1912 में उनको भी नाइटहुड (सर) की उपाधि दी. अंग्रेज राजा "जार्ज पंचम" के भारत आने पर उसकी तारीफ़ में जन -गन - मन लिखने वाले "रविन्द्र नाथ टैगोर" को तो नाइटहुड (सर) के अलाबा "नोबेल पुरुष्कार" तक दिया गया था.
यह तो हुए बड़े नाम और बड़े पुरष्कार. अंग्रेजों ने इससे कुछ छोटे स्तर की उपाधिया और पुरस्कार भी बनाए थे जैसे - खान साहिब, खान बहादुर, राय बहादुर, आदि. जिन लोगों को ऐसे पुरस्कार मिले थे. तमाम नबाब, राजाओं, जमीदारों, आदि को खान बहादुर, राय बहादुर की उपाधि दे गई. आजाद भारत में "नेहरु" " ने भी उनको बड़े पद दिए थे.
ऐसा ही एक नाम है "फजल अली". अंग्रेजों ने पहले इसे खान साहिब, फिर खान बहादुर की उपाधि दी. इसने "अंग्रेजों भारत छोड़ो" आन्दोलन में मुसलमानों से आन्दोलन में शामिल न होने की अपील की थी, जिसके इनाम में इसे भी नाइटहुड (सर) से सम्मानित किया गया. आजादी के बाद नेहरु ने इन्हें पहले उड़ीसा का फिर असम का गवर्नर बनाया.
"एन. गोपालस्वामी अय्यंगर" नाम के एक नौकरशाह को अंग्रेजो ने 1941 में नाइटहुड (सर) की उपाधि के अलावा दीवान बहादुर, आर्डर ऑफ दी इंडियन एम्पायर, कम्पेनियन ऑफ दी ऑर्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इंडिया आदि 7 अन्य उपाधियों दी थीं, आजादी मिलते ही नेहरु ने उसे पहले बिना विभाग का मंत्री बनकर अपनी कैबिनेट में जगह दी.
उसके बाद फिर "अय्यंगर" को 1948 से 1952 तक देश का पहला रेलमंत्री नियुक्त किया और 1952 में उसे देश के रक्षामंत्री जैसा महत्वपूर्ण पद दिया. यह तो बस कुछेक उदाहरण हैं, अंग्रेजों के बफादारों को ब्रिटिश शासन में ऐसी उपाधियाँ मिलना तथा नेहरु के राज में उनको बड़े पद मिलना आम बात थी. ऐसे लोगों की संख्या हजारों में है.

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