1. धन्वंतरि :–
प्राचीन काल में चिकित्सा के क्षेत्र में सबसे विद्वान् व्यक्ति को धन्वंतरि की उपाधि दी जाती थी. हमारे ग्रंथों तीन प्रकार के धन्वंतरियों का उल्लेख मिलता है, दैविक, वैदिक और ऐतिहासिक. सबसे पहले धन्वंतरि देवताओं के वैद्य कहलाते हैं जिनका अवतरण समुद्र मंथन से हुआ था. उनको दैविक धन्वंतरि माना जाता है. उनको चिकित्सा विज्ञान का जनक माना जाता है
प्राचीन वेद पुराण आदि में जो धन्वंतरि हुए हैं उनको वैदिक धन्वंतरि कहा जाता है. ऐतिहासिक धन्वंतरि वे हैं जो लगभग ढाई हजार साल के इतिहास में वर्णित हैं. इनमे उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य के राजवैद्य ‘धन्वंतरि’ और गुप्त काल में सुश्रुत संहिता लिखने वाले सुश्रत के शिक्षक ‘धन्वंतरि’ प्रमुख हैं. आज भी किसी वैध की प्रशंसा करनी हो तो उसे ‘धन्वन्तरि’ उपमा दी जाती है,
2. क्षपणक :–
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राजा विक्रमादित्य के दूसरे नवरत्न क्षपणक थे. ये बौद्ध सन्यासी थे. वे राजा को यह बताते रहते थे कि शासन करते समय मानवाधिकार का पालन कैसे हो.
3. शंकु :–
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शंकु का पूरा नाम ‘शङ्कुक’ था. शङ्कुक को संस्कृत का विद्वान, ज्योतिष शास्त्री माना जाता था. वे ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर शकुन अपसकुन की सटीक भविष्यवाणी करते थे. कुछ विद्वान इनको मांत्रिक और कुछ विद्वान् इनको रसाचार्य भी मानते थे. विक्रम की सभा के रत्न होने के कारण इनकी विद्वता का परिचय अवश्य मिलता है.
4. वेतालभट्ट :–
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विक्रमादित्य के रत्नों में वेतालभट्ट के नामोल्लेख से आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति का नाम वेतालभट्ट अर्थात भूत-प्रेत का पंडित कैसे हो गया ? ऐसा माना जाता है कि वेतालभट्ट को महान तांत्रिक रहे होंगे जिनकी साधना शक्ति से राज्य को लाभ होता होगा और विक्रमादित्य ने वेताल की सहायता से असुरों, राक्षसों और दुराचारियों को नष्ट किया होगा.
5. घटखर्पर :–
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ये उस समय के महान कवि थे. कहा जाता है कि इन्होने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो कवि मुझे ‘यमक’ और ‘अनुप्रास’ रचना में पराजित कर देगा, उसके घर वे फूटे घड़े से पानी भरेंगें. तभी से इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया. इनके रचित दो लघुकाव्य उपलब्ध हैं. इनमें से एक पद्यों का सुंदर काव्य है, जो संयोग श्रृंगार से ओत-प्रोत है.
उसकी शैली, मधुरता, शब्द विन्यास आदि पाठक के हृदय पर विक्रम युग की छाप छोड़ते हैं. यह काव्य ‘घटखर्पर’ काव्य के नाम से प्रसिद्ध है. यह दूत-काव्य है. इसमें मेघ के द्वारा संदेश भेजा गया है. घटखर्पर रचित दूसरा काव्य ‘नीतिसार’ माना जाता है. इनके प्रथम काव्य पर अभिनव गुप्त, भरतमल्लिका, शंकर गोवर्धन, कमलाकर, वैद्यनाथ आदि प्रसिद्ध विद्वानों ने टीका ग्रंथ लिखे थे.
6. वररुचि :–
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वररुचि कात्यायन पाणीनिय सूत्रों के प्रसिद्ध वार्तिककार थे.वररुचि ने ‘पत्रकौमुदी’ नामक काव्य की रचना की. ‘पत्रकौमुदी’ काव्य के आरंभ में उन्होंने लिखा है कि विक्रमादित्य के आदेश से ही वररुचि ने ‘पत्रकौमुदी’ काव्य की रचना की थी। वररुचि ने ‘विद्यासुंदर’ नामक एक अन्य काव्य भी लिखा था। इसकी रचना भी उन्होंने विक्रमादित्य के आदेश से किया था.
कथासरित्सागर’ के अनुसार वररुचि का दूसरा नाम ‘कात्यायन’ था. इनका जन्म कौशाम्बी के ब्राह्मण कुल में हुआ था. जब ये 5 वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई थी. ये आरंभ से ही तीक्ष्ण बुद्धि के थे. एक बार सुनी बात ये उसी समय ज्यों-की-त्यों कह देते थे. इन्होने पाटलिपुत्र में शिक्षा प्राप्त की तथा शास्त्रकार की परीक्षा उत्तीर्ण किया.
7. अमरसिंह :–
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अमरसिंह प्रकांड विद्वान थे और राजा विक्रमादित्य के निजी सचिव थे. वे सनातन धर्म और बौद्ध धर्म दोनों के विद्वान् और अनुयायी थे. गया का वर्तमान बुद्ध-मंदिर उनके द्वारा ही बनवाया गया है. उन्होंने ही बौद्धों और सनातनियों को एक करने के लिए महात्मा बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित किया था. वे संस्कृत भाषा के महान विद्वान् थे,
संस्कृत का सर्वप्रथम शब्दकोश अमरसिंह का ‘नामलिंगानुशासन’ है, जो अब भी उपलब्ध है और ‘अमरकोश’ के नाम से प्रसिद्ध है. अमरकोश पर 50 टीकाएं उपलब्ध हैं. यही उसकी महत्ता का प्रमाण है. अमरकोश से अनेक वैदिक शब्दों का अर्थ भी स्पष्ट हुआ है. बोध गया के अभिलेख में लिखा है कि विक्रमादित्य संसार के प्रसिद्ध राजा हैं और वे राजा के प्रिय पात्र है,
8. वराहमिहिर :–
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वराहमिहिर एक गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे. उनको राजा विक्रमादित्य की सभा में का सबसे उम्रदराज और ज्योतिष का प्रकांड विद्वान् माना जाता है. उन्होंने प्राचीन भारतीय ऋषियों द्वारा खोजे गये ज्ञान का संकलन किया और नए शोध किये. सम्राट वीर विक्रमादित्य ने उनके लिए दिल्ली के पास महरोली में एक विशाल वेधशाला बनवाई
यहाँ एक विशाल स्तम्भ बनबाया जिसको नाम दिया विष्णु स्तम्भ. इसको ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था. इस पर चढ़कर वे और उनके शिष्य आसमान का निरीक्षण और प्रेक्षण करते थे. इसके अलावा वहां 27 और स्थान बनवाये जिनको मंदिर कहा जाता था लेकिन वास्तव में वे 27 नक्षत्रों के प्रतीक थे. यहीं बैठकर वराहमिहिर ने हिन्दू पंचांग का निर्माण किया.
9. कालिदास :–
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कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे. कालिदास ने भारत की पौराणिक कथाओं औए दर्शन को आधार बनाकर अनेकों रचनाएँ की. आज के इतिहासकारों द्वारा महाकवि कालिदास को राजा विक्रमादित्य की सभा का प्रमुख रत्न माना जाता है. कालिदास ने भी अपने ग्रंथों में राजा विक्रमादित्य के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरुप निरुपित किया है.
कहा जाता है कि माँ काली देवी के कृपा से उन्हें विद्या की प्राप्ति हुई थी इसीलिए इनका नाम कालीदास पड़ा. कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है. वे न केवल अपने समय के महान साहित्यकार थे बल्कि आज तक भी कोई उन जैसा महान साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ. शकुंतलम’ उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है.
नकलची अकबर ने भी अपने आपको सम्राट वीर विक्रमादित्य की तरह महान साबित करने के लिए अपने नौ देबारियों को नवरत्न की उपाधि प्रदान की थी. अपनी अगली किसी पोस्ट में अकबर के उन चापलूस दरबारियों (तथाकथित नवरत्नो) की विस्तार से जानकारी दूँगा. उसे पढ़ने के बाद आप जानेंगे कि वे नवरत्न वास्तव में नौ चमचे थे.
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