स्वतन्त्रता सेनानी सन्त गंगादास जी के जन्म दिवस पर सादर नमन
सन्त गंगादास जी का जन्म 14 फरवरी 1823 को बसंत पंचमी के दिन उत्तर प्रदेश के रसूलपुर गांव में एक धनी कुलीन जाट परिवार में हुआ था. उनके पिता चौधरी सुखीराम जी मुंढेर के पास 600 एकड़ जमीन थी. उनके परिवार का वातावरण बहुत धार्मिक था. उनकी माता दखाकौर हरियाणा के बल्लभगढ के एक गांव से थी.
महात्मा जी का बचपन का नाम गंगाबक्ष था. गंगाबक्ष जी बचपन से ही बहुत धार्मिक व साफ सफाई रखते थे उन्हें थोड़ी सी मिट्टी लगते ही वे रोने लग जाते थे व बहुत पूजा पाठ और भक्ति भी करते थे. इसलिए लोग उन्हें व्यंग से भगत जी ही कहने लग गए थे. जब वे छोटे थे तब ही उनके माता पिता का स्वर्गवास हो गया था.
वे बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे, इसलिए वे 12 वर्ष की उम्र में ही एक अच्छे गुरु की खोज में निकल पड़े. उनकी विरक्ति एवं बुद्धिमता देखकर सेदेपुर जिला बुलंदशहर की कुटी के संत बाबा विष्णुदास उदासीन ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया और उन्हें नया नाम दिया गंगादास. यहाँ उन्हें साहित्य की शिक्षा देशभक्ति के संस्कार भी प्राप्त हुए.
रानी लक्ष्मी के पिता ने उन्हें अपना गुरु धारण किया था. लक्ष्मीबाई ने भी उनसे गुरुदीक्षा ली थी. विवाह के बाद वे झांसी पहुंची तो उनको आशीर्वाद देने वे झांसी भी गए. उनके आध्यात्मिक और देशभक्ति भरे प्रवचनों को सुनकर झांसी, ग्वालियर, आदि में उनके अनेकों शिष्य बन गए. उन्होंने ग्वालियर के नजदीक अपना एक आश्रम भी बना लिया.
सन्त जी अपनी मातृभूमि से बहुत प्रेम करते थे व इसे अंग्रेजो की दासता से मुक्त करवाना चाहते थे. 1857 की क्रांति के दौर में संत गंगादास जी बहुत सक्रिय रहे और अपने घोड़े पर चढ़कर जगह जगह घूमकर लोगो को स्वतन्त्रता संग्राम में शामिल होने के लिए उत्साहित किया. बहुत से क्रांतिकारी उनसे मार्दर्शन लेने के लिए गुप्त रूप से मिलने आते थे.
रानी लक्ष्मीबाई व्यथित होती थी तो वे मार्गदर्शन के लिए उनसे मिलने आती थी. एक बार लक्ष्मीबाई ने उनसे पूछा के स्वराज किस प्रकार मिलेगा ? गुरुजी ने कहा कि स्वराज बलिदानों से मिलेगा. जब हम सब भेदभाव भूलकर एक हो जाएंगे और स्वराज रूपी भवन के लिए बलिदान रूपी पत्थरो को जोड़कर भवन बनाएंगे तो एक दिन स्वराज जरूर मिलेगा.
एक बार लक्ष्मीबाई ने व्यथित होकर उनसे कहा कि - लगता हैं हम अपने जीवन में स्वराज नहीं देख पाएंगे, तो गुरुजी ने उन्हें समझाया कि- कोई भवन बनाने से पहले नींव को पत्थरो से भरना जरूरी होता है. आज के बलिदानी भले ही स्वराज न ला सकते परन्तु वे नींव का काम कर रहें हैं और आगे चलकर इसी नींव पर स्वराज का कंगूरा खड़ा होगा.
जब वीरांगना लक्ष्मीबाई युद्ध मे घायल हो गयी और मरणासन्न अवस्था में थी तो उन्होंने अपने साथियों से कहा कि- ऊनका शव दुष्ट अंग्रेजो के हाथ नहीं लागना चाहिए. तब गौस खान और रामराव उन्हें अंग्रेजो से बचकर बाबा गंगादास जी की शाला में ले गए. कुछ क्षण बाद वीरांगना ने अपने प्राण त्याग दिए. उनकी मृत्यु से सब दुखी हो गए.
तब महात्मा जी ने सबको समझाया कि प्रकाश का कभी अंत नहीं होता यह हमेशा जगत को प्रकाशमान करता है. यह पुनः प्रज्वलित होकर चमकेगा. लक्ष्मी मरी नहीं बल्कि अमर हो गयी है, इसलिए अपना मोह त्यागकर जल्दी से अंतिम संस्कार की तैयारी शुरू करो क्योंकि जल्द ही अंग्रेज और उनके साथी गद्दार भारतीय यहां पहुंचने वाले हैं.
अंग्रेज लक्ष्मीबाई के पुत्र दामोदर को पकड़ना चाहते थे. तब संत गंगादास ने गौस खान और रामराव से कहा कि - आप लोग दामोदर को लेकर यहाँ से निकल जाए, अंग्रेजों को हम रोकेंगे. अंग्रेज टुकड़ी को पास आते देख संत गंगादास जी ने लक्ष्मीबाई के पार्थिव शरीर को अपनी कुटिया में रखकर दामोदर के हाथों कुटिया को आग लगवा दी.
गंगादास के आदेश पर गौस खान और रामराव दामोदर को लेकर वहां से निकल गए. उन की शाला (आश्रम) के 745 साधुओं ने अंग्रेजो की उस टुकड़ी से मुकाबला करते हुए अपना बलिदान दिया. इस युद्ध में रानी की हत्या करने वाला दुष्ट अंग्रेज अफसर भी मारा गया. इस प्रकार रानी के शरीर की बेअदबी भी नहीं हुई और दामोदर भी बच गए.
अंग्रेजों के दबाब में ग्वालियर के राजा सिंधिया ने बाबा गंगादास के आश्रम की जमीन जब्त कर उन्हें देश निकाला दे दिया. कहते हैं कि महात्मा जी को रानी ने अपने गुप्त खजाने का राज बता दिया था ताकि वह अंग्रेजो के हाथ न लगे. महात्मा जी व उनके शिष्य कालूराम ने उसे तीन हिस्सों में करके अलग अलग जगह छुपॉ दिया.
कहते हैं - वह खजाना वहीं कहीं छुपा हुआ है. देश निकाले के पश्चात महात्मा जी रानी की अस्थियों को लेकर हरिद्वार चले गए और उन्हें गंगा में प्रवाहित कर उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की. फिर वे बनारस चले गए. बाद में जनता के दबाब में सिंधिया को भी झुकना पड़ा और उनकी जागीर वापिस कर आश्रम से प्रतिबंध हटा दिया.
महात्मा जी जीवन पर्यंत भक्ति, क्रांति व समाज सुधार में लगे रहे. उन्होंने हिंदी साहित्य में भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया. आज जो हिंदी हम बोलते हैं उसे विकसित करने और उसमे साहित्य रचना करने का श्रेय संत गंगादास को ही जाता है. उनके ही प्रयास से यह आम बोलचाल की भाषा विकसित हुई व शुद्ध होकर हिंन्दी के रूप में राष्ट्र की भाषा बनी.
उनके शिष्य जैसे -चेतराम, बालूराम, दयाराम, मोतीराम, मोहनलाल आदि उनकी पद काव्य रचनाएं घूम घूमकर लोगो को सुनाते थे जिससे जागरूकता के साथ साथ हिंदी का भी विकास हो रहा था. इस तरह उन्हें खड़ी बोली का आदिकवि कहा जाता है। और हिंदी साहित्य में उनके योगदान के कारण उन्हें हिंदी साहित्य का भीष्म पितामह कहा जाता है.
हिंदी के महान लेखक एवं कवि भारतेन्दु हरिश्चंद्र भी उन्हें अपना गुरु मानते थे. संत गंगादास ने अपने 90 वर्ष के जीवन काल मे 50 से अधिक गर्न्थो की रचना की. कबीर का फक्कड़पन, सूर की भक्ति, तुलसी का समन्वय, केशव की छंद योजना और बिहारी की कला एक ही स्थान पर देखनी हो तो संत गंगा दास का काव्य इसका सटीक उदहारण है.
उनके काव्य में पार्वती मंगल (दो भाग), नल दमयंती, नरसी भक्त, ध्रुव भक्त, कृष्णजन्म, नल पुराण, राम कथा, नाग लीला, सुदामा चरित, महा भारत पदावली, बलि, बलि के पद रुक्मणी मंगल, प्रह्लाद भक्त, चन्द्रावती-नासिकेत, भ्रमर गीत मंजरी, हरिचंद होली, हरिचंद के पद, गिरिराज पूजा, होली पूरनमल, पूरनमल के पद, द्रोपदी-चीर आदि प्रमुख हैं.
गंगा दास ने 25 कथा काव्यों और कई सहस्र निर्गुण पदों कुंडलियों की रचना की थी, जो हिंदी साहित्य के लिए अमूल्य निधि हैं. उनका बहुत सा साहित्य व रचनाएं अभी लोगो के सामने नहीं आयी है, आज भी उन पर शोध चल रहे हैं. डॉ जगन्नाथ शर्मा 'हंस' सर्वप्रथम 1970 में 'महाकवि गंगादास व्यक्तित्व और क्र्तित्व' विषय पर शोध ग्रन्थ लिखा।
गंगादास जी ने काशी में २० वर्षों तक रहकर वेदांत, व्याकरण, गीता, महाभारत, रामायण, रामचरित मानस, अद्वैत कौस्तुम तथा मुक्तावली आदि दार्शनिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया. वीर सावरकर ने अपना ग्रन्थ "1857 : प्रथम स्वातंत्र्य समर" लिखने के लिए तथ्यों की जानकारी लेने के लिए संत गंगादास जी से मुलाकत की थी.
इनका कद ऊँचा और चेहरा लालिमा से दहकता था. संत गंगादास ने सन 1913 में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया था. वह स्थान जहाँ महात्मा जी का आश्रम था, उदासी साधू बुद्धा सिंह द्वारा डॉ राम मनोहर लोहिया कालिज को दान में दे दिया गया है. उनकी समाधी रसूलपुर गाँव के निकट गढ़मुक्तेश्वर मार्ग पर चोपला में बनी है.
जय सन्त गंगादास जी, जय राष्ट्रभाषा हिन्दी, जय भारत माता।
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