
घर वालों के आग्रह पर उन्होंन गांव में स्थित निर्मला सम्प्रदाय के डेरे में संत बूटा सिंह से गुरुमुखी की शिक्षा ली. कुछ बड़े होकर वे घर में खेती, पशु चराना आदि कामों में हाथ बंटाने लगे. 1883 में वे सेना में भर्ती हो गये. 54 पल्टन में काम करते हुए उन्होंने अमृत छका और फिर सेना की नौकरी छोड़कर निष्ठापूवर्क सिख मर्यादा का पालन करने लगे.
वे सूर्योदय से पूर्व कई घंटे जप और ध्यान करते थे. पिताजी के देहांत से उनके मन में वैराग्य जागा और वे पैदल ही हुजुर साहिब चल दिये. माया मोह से मुक्ति के लिए सारा धन उन्होंने नदी में फेंक दियाम. हुजूर साहिब में दो साल और फिर हरिद्वार और ऋषिकेश के जंगलों में जाकर कठोर साधना की. इसके बाद वे अमृतसर तथा दमदमा साहिब गये.
इसके बाद कनोहे गांव के जंगल में रहकर उन्होंने साधना की. इस दौरान वहां अनेक चमत्कार हुए, जिससे उनकी ख्याति चहुंओर फैल गयी. वे पंथ, संगत और गुरुघर की सेवा, कीर्तन और अमृत छककर पंथ का मर्यादानुसार चलने पर बहुत जोर देते थे. वे कीर्तन में राग के बदले भाव पर अधिक ध्यान देते थे। उन्होंने 14 लाख लोगों को अमृतपान कराया.
1901 में उन्होंने मस्तुआणा के जंगल में डेरा डालकर उसे एक महान तीर्थ बना दिया. संत जी ने स्वयं भले ही सांसारिक शिक्षा नहीं पायी थी, पर उन्होंने वहां पंथ की शिक्षा के साथ आधुनिक शिक्षा का भी प्रबंध किया. उन्होंने पंजाब में कई शिक्षा संस्थान स्थापित किये, जिससे आज भी लाखों छात्र लाभान्वित हो रहे हैं.
जब महामना मदन मोहन मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्विद्यालय की स्थापना करने का संकल्प लिया तो उन्होंने देश की अनेकों रियासतों के राजाओं और नबाबो से इसके लिए धन एवं संशाधन एकत्र किये. सब व्यवस्था करने के बाद मालवीय जी ने प्रस्ताव रखा कि - इस पवित्र कार्य का शिलान्यास भी किसी 'पवित्र व्यक्तित्व' द्वारा किया जाना चाहिए.
सदस्यों द्वारा कई नाम सुझाये जाने के बाद अंत में जिस नाम पर सर्वसम्मति बनी वे थे - 'संत अतर सिंह". जिनका आश्रम पटियाला और नाभा राज्य की सीमा के पास "मस्तुआना" में था. 1914 में मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पहले विद्यालय की नींव संत जी के हाथ से सरस्वति पूजा (बसंत पंचमी) के पुनीत दिवस पर रखवाई.
पंडित मदन मोहन मालवीय संत जी के सत्तारूढ़ आध्यात्मिक व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए और उन्होंने संत अत्तर सिंह से निवेदन किया कि- वे अपने शिष्य संत तेजा सिंह को शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय के प्रमुख के रूप में भेजने की कृपा करें. संत अत्तर सिंह ने मालवीय की के निवेदन को स्वीकार किया और विश्वविद्यालय बनाने में अपना मार्गदर्शन भी दिया.
इसी प्रकार पंथ और संगत की सेवा करते हुए 31 जनवरी 1927 को उनका शरीर शांत हुआ. उनके विचारों का प्रचार-प्रसार कलगीधर ट्रस्ट, बडू साहिब के माध्यम से उनके प्रियजन कर रहे हैं.
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