Monday, 17 February 2020

वासुदेव बलवंत फड़के

Image may contain: 2 peopleप्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रांति की असफलता के बाद, जब भारत में कोई भी अंग्रेजों के खिलाफ बोलने का भी साहस नहीं कर पा रहा था, उस समय "वासुदेव बलवंत फड़के"जी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का संगठन बनया था.
वासुदेव बलवंत फड़के का जन्म 4 नवंबर, 1845 को महाराष्ट्र के रायगड जिले के शिरढोणे गांव में हुआ था. प्राथमिक शिक्षा पाने के बाद इनके पिताजी ने, फडके जी को एक दुकान पर काम करने के लिये बोला लेकिन फडके जी इन सब से दूर मुंबई आ गये.
उन्होंने पहले मुम्बई में 'ग्रेट इंडियन पेनिंसुला रेलवे' और बाद में पुणे में 'मिलिट्री फ़ाइनेंस डिपार्टमेंट" में नौकरी की. पुणे में नौकरी करते समय उन्हें 1870 में "गोविन्द महादेव राणा डे" की सभा में जाने का अवसर मिला. इससे उनकी सोंच में बदलाब आया.
इसी बीच घर से उनकी माँ की तबीयत बहुत ज्यादा खराब होने का तार आया जिसमे उनको फौरन बुलाया गया था. उन्होंने अपनी माँ की बीमारी का हवाला देते हुए अपने अंग्रेज अधिकारी से छुट्टी मांगी. इस पर अंग्रेज अफसर ने उन्हें छुट्टी देने से मना कर दिया.
दस दिन के लगातार प्रयास के बाद भी जब उन्हें छुट्टी नहीं मिली तो वे बिना छुट्टे मंजूरी के ही अपने गाँव चले गए. तब तक उनकी माँ की म्रत्यु हो चुकी थी. जब वे वापस आये तो अधिकारी ने डाटा और माँ के बारे में बताने उनकी माँ को भी अपशब्द बोले.
इस पर उनको गुस्सा आ गया और उन्होंने उस अधिकारी को बुरी तरह से पीट दिया और वहां से फरार हो गए. अब उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्ति को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. गाँव गाँव घूमकर वे अंग्रेजो के सताए लोगों से मिलने लगे.
उन्होंने अनेको जोशीले युवाओं को अपने साथ मिला लिया और अपना क्रांतिकारी संगठन खडा कर लिया. उन्होंने जंगल में एक व्यायामशाला बनाई, जहाँ वे युद्धाभ्यास करने लगे. ज्योतिबा फुले और बाल गंगाधर तिलक भी उनके साथ जुड़ गए थे.
यहाँ लोगों को शस्त्र चलाने का भी अभ्यास कराया जाता था. तिलक ने भी यही शस्त्र चलाना सीखा था जिसे बाद में उन्होंने अनेकों क्रांतिकारियों को सिखाया था. उनके दल ने अंग्रेजों के ऊपर शिवाजी की शैली में घात लगाकर हमले करने शुरू कर दिए.
लड़ाई के लिए धन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए उन्होंने अंग्रेजों के चापलूस सेठों को लूटना शुरू कर दिया. अब उनका सपना था भारत माता को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना. धीरे धीरे उन्होंने पुणे सहित सात जिलों में उनका प्रभाव फैल गया . .
उनकी क्रन्तिकारी गतिविधियों से अंग्रेज इतना डर गए थे कि- कोई अधिकारी पोस्टिंग पर वहां जाना नहीं चाहता था. पुणे और आस पास के इलाके के लोगों ने उनको अपना महाराजा मान लिया था. एक तरह से वह इलाका कुछ समय के लिए आजाद हो गया था.
परन्तु दुर्भाग्यवश जुलाई 1879 में वे बहुत बीमार हो गए थे. 20 जुलाई, 1879 को "फड़केजी" बीमारी की हालत में एक मंदिर में आराम कर रहे थे. उसी समय अंग्रेज पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर लिया. |उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया;
Image may contain: 2 peopleउनको कालापानी की सजा देकर "अंडमान" के सेल्युलर जेल भेज दिया गया. कालापानी में उनको सताने के लिए अंग्रेजों ने विशेष रूप से अफगान सिपाहियों को नियुक्त किया था. अफगान सिपाही उनकी धार्मिक आस्थाओं के बिपरीत व्यवहार किया करते थे.
कई बार केवल गौमांस बनाया जाता और कहा जाता कि इसे खा लो वर्ना भूखा रहना पड़ेगा, तो वे कई कई बार अपनी आस्था की खातिर, कई दिन भूखे रहे. अंग्रेजों / अफगानों के अत्याचार सहते हुए 17 फरवरी 1883 को कालापानी में उन्होंने अपना बलिदान दे दिया.

No comments:

Post a Comment