Tuesday, 25 February 2020

शिक्षा और संस्कार

Image result for शिक्षा और संस्कारअक्सर हम शिक्षा और संस्कार दोनों को एक ही चीज समझ लेते हैं जबकि दोनों में बहुत फर्क है. शिक्षा इंसान को अपने क्षेत्र में ज्यदा कुशल बनाती है जबकि संस्कार इंसान को अच्छा इंसान बनाते हैं. कोई आवश्यक नहीं कि जो व्यक्ति संस्कारी हो वह बहुत शिक्षित भी हो या जो व्यक्ति बहुत ज्यादा शिक्षित हो वह संस्कारी भी हो.
एक उच्च संस्कारी व्यक्ति हमेशा अच्छा काम ही करेगा लेकिन यह कोई आवश्यक नहीं है कि एक उच्च शिक्षित व्यति भी हमेशा अच्छे काम ही करेगा. एक उच्च शिक्षित व्यक्ति अगर गलत काम करता है तो वह और भी ज्यादा खतरनाक होता है. ओसामा बिन लादेन और अफजल गुरू जैसे सारे आतंकवादी उच्च शिक्षित ही हैं,
एक अनपढ़ डाकू "गब्बर सिंह" अगर डाका डालने जाता है तो वह घोडा, बंदूक और बहुत सारे साथियों को साथ लेकर जाता है और अपनी जान जोखिम में डालकर अनाज और पैसे लूटकर लाता है, लेकिन अगर एक उच्च शिक्षित और प्रशिक्षित डाक्टर अगर अपराध का रास्ता अपनाता है तो वह गरीबो की किडनी, आँख, लीवर तक चुरा लेता है.
इलाज के नाम पर लूटने वाले डाक्टर, स्कूलों में शिक्षा बेचने के नाम पर लूटने वाले टीचर, अधिक पैसे लेकर घटिया निर्माण करने वाले इंजीनियर, पैसे की खातिर अपराधियों को बचाने वाले वकील और जज, विभिन्न सरकारी विभागों के रिश्वतखोर अधिकारी / कर्मचारी, कमीशन लेकर लोन बांटने वाले बैंक कर्मी, आदि सभी उच्च शिक्षित हैं.
अनपढ़ चोर / डाकू को तो फिर भी जान जोखिम में डालकर बड़ी मुस्किल से कुछ हजार की लूट करते थे लेकिन हरिदास मूंदड़ा, हर्षद मेहता, अब्दुल रहेमान अंतुले, विजय माल्या, अब्दुल करीम तेलगी, नीरव मोदी, सुरेश कलमाड़ी, लालू यादव, ए.राजा, हसन अली, आदि जैसे पढ़े लिखे लोग तो अपने आफिस में बैठे बैठे ही करोड़ों की लूट कर लेते हैं.
अगर क्रान्ति का इतिहास उठाकर देखेंगे तो पता चलेगा कि - जितने मंगल पांडे, खुदीराम बोस, आजाद आदि ज्यादातर सभी क्रांतिकारी अल्पशिक्षित थे. जबकि उस जमाने में जो ज्यादा पढ़े लिखे लोग थे वो अंग्रेजों के विभिन्न महकमों में नौकरी करते थे और अंग्रेजों के बफादार थे. वो पढ़े लिखे लोग क्रांतिकारियों को गलत बताया करते थे.
Image result for शिक्षा और संस्कारइसी प्रकार मुग़लों के शासन के समय में भी उनसे टकराने वाले ज्यादातर अल्पशिक्षित थे और अपने आपको पढ़ालिखा बताने वाले मुग़लों के यहाँ लिखा पडी का काम करते थे. जितना ज्यादा पढ़ा लिखा उतना ज्यादा दहेज़. जितना बड़ा अधिकारी उतनी ही ज्यादा रिश्वत. आज के समय में भी भ्रस्ट अधिकारी , जितना बड़ा डॉक्टर उतना ही उसकी लूट.
इसलिए शिक्षा से ज्यादा महत्व अच्छे संस्कारों का है. किसी दूर दराज के गाँव का रहने वाला संस्कारी अनपढ़ व्यक्ति भी बोलता है "भारत माता की जय" और "वन्दे मातरम" लेकिन AMU और JNU जैसे बड़े शिक्षण संस्थानों के उच्च शिक्षित संस्कार विहीन छात्र नारे लगाते हैं " भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह"

Monday, 24 February 2020

जमीन अधिग्रहण से जमीन के पूर्व मालिक का नुकशान न हो

Image may contain: 1 personजमीन अधिग्रहण हमेशा से एक विवादित मुद्दा रहा है. जमीन से बेदखल होने वाला व्यक्ति आर्थिक के साथ भावनात्मक रूप से भी प्रभावित होता है. विकास अगर जरुरी है तो जमीन से बेदखल होने वाले के हक़ की रक्षा भी जरुरी है. मेरा ख़याल है सरकार को इस पर जनता की राय लेने के बाद, उस पर व्यापक बहस कराकर ही कोई पालिसी बनानी चाहिए.

बैसे तो हम लोगों की कोई हस्ती नहीं है कि- इन नेताओं को कुछ समझा सकें लेकिन हमें आपस में चर्चा करके कुछ ऐसे बिंदु तो खोजने ही चाहिए जिससे कोई अच्छा परिणाम निकलने की उम्मीद हो. किसी एक पार्टी का समर्थक होने के कारण दुसरी पार्टी के प्रधान को कोसकर अपना कर्तव्य पूरा हुआ मान लेने के कारण ही हमारे देश में इतनी सारी समस्याएं हैं.

किसी को कोसने के बजाय सुझाव दीजिये, पिछले दो सौ साल से अभी तक ( अंग्रेजों से लेकर कांग्रेस तक) तो किसी भी नियम से कोई भी संतुष्ट नहीं हो सका है. कृषि अगर जरुरी है तो सड़क, हस्पताल, बिजलीघर, आवासीय कालोनी, बाजार, माल, फैक्ट्रीज भी देश के विकास के लिए बहुत जरुरी हैं.

पोस्ट को मोदी समर्थक या मोदी बिरोधी के चश्मे से देखने के बजाय कुछ ऐसे बिंदु खोजने के कोशिश की जानी चाहिए जिससे ऐसे सुझाव सामने आयें जो अधिक से अधिक लोगों का भला कर सकें. मैं अपने कुछ सुझाव लिख रहा हूँ, कृपया आप भी अपने सुझाव लिखिए. हो सकता है कि - हमारी यह चर्चा किसी प्रभावशाली व्यक्ति को दिखे और वह उसमे से कुछ ग्रहण करे.

1. जमीन का मुआवजा कलेक्ट्रेट रेट पर नहीं, बल्कि बाजार भाव पर तय किया जाए. जमीन की कीमत के साथ साथ उनकी भावनाओं का मुआवजा भी दिया जाय.
2. जितनी जमीन रिक्वायर हो उससे 20% अधिक जमीन एक्वायर की जाय. जिसकी जमीन अधिग्रहित की गई हो उसकी 20% जमीन भी उसको मुआवजे के अलावा दी जाए.

3, मुआवजे के अलावा 20% जमीन भी मिलने से अधिकांश लोग सैटिस्फाई हो जायेंगे क्योंकि प्रोजेक्ट के बाद उस जगह की कीमत भी दश गुना हो जाती है.

4. जिस प्रोजेक्ट के लिए जमीन चाहिए उसके अलाबा वह जमीन किसी अन्य कार्य के लिए आवंटित न हो, यदि प्रोजेक्ट कैंसल हो जाता है तो जमीन मूल मालिकों को वापस की जाए.

5. जो प्रोजेक्ट वहां लगना है, उसमे नौकरी के लिए पूर्व जमीन मालिकों के वंशजों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

6. फक्ट्रीज बनाने के लिए ऐसी जमीन को चुना जाना चाहिए जो कृषि कार्यों के लिए कम उपयुक्त (अर्थात - बंजर या कम उपजाऊ ) हो

7. किसान, मजदूर और व्यापारी सभी महत्त्वपूर्ण हैं . इनको एक दूसरे के खिलाफ वरगलाने वाले या लड़ाने वाले के खिलाफ कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए

8. रेल, हस्पताल, स्कूल, फोकल प्वाइंट, आदि जैसे सार्वजनिक उपक्रमों के लिये तो सरकार जमीन अधिग्रहीत करे लेकिन निजी व्यापारियों के साथ किसानो को खुद सौदेबाजी करने दे.

9. अधिग्रहण में फ़ालतू जमीन अधिग्रहीत हो जाने पर , वह शेष जमीन टोटल एक्वायर जमीन की जितनी प्रतिशत हो, पूर्व मालिकों को उस अनुपात में बाँट दी जाए.

10. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल जैसे पिछड़े राज्यों में नए औद्ध्योगिक क्षेत्रों को विकसित किया जाना चाहिए जहाँ बड़ी के साथ साथ छोटी छोटी फैक्ट्रीज लग सकें

Thursday, 20 February 2020

कौन हैं ये नागा साधू ?

Image may contain: 4 people, crowd and outdoorमहाकुंभ, अर्धकुंभ या फिर सिंहस्थ कुंभ में आपने नागा साधुओं को जरूर देखा होगा. इनको देखकर आप सभी के मन में अक्सर यह सवाल उठते होंगे कि - कौन हैं ये नागा साधु, कहां से आते हैं और कुंभ खत्म होते ही कहां चले जाते हैं ? आइए आज हम लोग चर्चा करते है हिंदू धर्म के इन सबसे रहस्यमयी लोगों के बारे में.
"नागा" शब्द बहुत पुराना है. यह शब्द संस्कृत के 'नग' शब्द से निकला है, जिसका अर्थ 'पहाड़' से होता है. इस पर रहने वाले लोग 'पहाड़ी' या 'नागा' कहलाते हैं. 'नागा' का अर्थ 'नग्न' रहने वाले व्यक्तियों से भी है. भारत में नागवंश और नागा जाति का बहुत पुराना इतिहास है. शैव पंथ से कई संन्यासी पंथों और परंपराओं की शुरुआत मानी गई है.
भारत में प्राचीन काल से नागवंशी, नागा जाति और दसनामी संप्रदाय के लोग रहते आए हैं. उत्तर भारत का एक संप्रदाय "नाथ संप्रदाय" भी दसनामी संप्रदाय से ही संबंध रखता है". 'नागा' से तात्पर्य 'एकबहादुर लड़ाकू व्यक्ति' से लिया जाता है. जैसा कि हम जानते है कि - सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आध्य शंकराचार्य ने रखी थी.
शंकराचार्य का जन्म 8 वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था. उस समय भारत सम्रद्ध तो बहुत था परन्तु धर्म से विमुख होने लगा था. भारत की धन संपदा को लूटने के लालच में तमाम आक्रमणकारी यहां आ रहे थे. कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए,
Image may contain: 1 person, outdoorलेकिन कुल मिलाकर सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी. ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था. ऐसे में आध्य शंकराचार्य ने सनातन धर्म की पुनर्स्थापना के लिए कई बड़े कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों (चार धाम) का निर्माण करना.
आदिगुरु आध्य शंकराचार्य को लगने लगा था कि - केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है. इसके लिए अधर्मियों से युद्ध करने के लिए धर्मयोद्दाओं की भी आवश्यकता है. तब उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को मजबूत बनाए और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें.
इसके लिए उन्होंने कुछ ऐसे मठों का निर्माण किया, जिनमे व्यायाम करने और तरह तरह के शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा. आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं. कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए.
शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि - मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें. इस तरह विदेशी और विधर्मी आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक भारत को सुरक्षा कवच देने का काम किया. विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं ने अनेकों युद्धों में हिस्सा लिया.
प्रथ्वीराज चौहान के समय में हुए मोहम्मद गौरी के पहले आक्रमण के समय सेना के पहुँचने से पहले ही नागा साधुओ ने कुरुक्षेत्र में गौरी की सेना को घेर लिया था जब गौरी की सेना कुरुक्षेत्र और पेहोवा के मंदिरों को नुकशान पहुंचाने की कोशिश कर रही थी. उसके बाद प्रथ्वी राज की सेना ने गौरी की सेना को तराइन (तरावडी) में काट दिया था.
Image may contain: 6 people, people standing and outdoorइस युद्ध के बाद पड़े कुम्भ में , नागा योद्धाओं को सम्मान देने के लिए, प्रथ्वीराज चौहान ने कुम्भ में सबसे पहले स्नान करने का अधिकार दिया था. तब से यह परम्परा चली आ रही है कि - कुम्भ का पहला स्नान नागा साधू करेंगे. इन नागा धर्म योद्धाओं ने केवल एक में ही नहीं बल्कि अनेकों युद्धों में विदेशी आक्रान्ताओं को टक्कर दी.
दिल्ली को लूटने के बाद हरिद्वार के विध्वंस को निकले "तैमूर लंग" को भी हरिद्वार के पास हुई ज्वालापुर की लड़ाई में नागाओं ने मार भगाया था. तैमूर के हमले के समय जब ज्यादातर राजा डर कर छुप गए थे. जोगराज सिंह गुर्जर, हरवीर जाट, राम प्यारी, धूलाधाडी , आदि के साथ साथ नागा योद्धाओं ने तैमूर लंग को भारत से भागने पर मजबूर किया था.
इसी प्रकार खिलजी के आक्रमण के समय नाथ सम्प्रदाय के योद्धा साधुओं ने कडा मुकाबला किया था. अहेमद शाह अब्दाली के आक्रमण के समय जब उत्तर भारत के राजाओं ने नोटा दबा दिया था और मराठा सेना पानीपत में हार गई थी तब मथुरा - वृन्दावन - गोकुल की रक्षा के लिए 40,000 नागा योद्धाओं ने अब्दाली से टक्कर ली थी..
पानीपत की हार का बदला लेने के लिए जब पेशवा माधवराव ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था तो नागा योद्धाओं ने अब्दाली के स्थानीय मददगारों को मारा था. इस प्रकार आप अब यह समझ चुके होंगे कि - नागा साधू सनातन धर्म के रक्षक धर्म योद्धा हैं. यह सांसारिक सुखों से दूर रहकर केवल धर्म के लिए जीते हैं.
अब बात करते हैं कि - नागा साधू कौन बनते हैं तथा कैसे बनते है. नागाओं को आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है. नागा साधु बनने की प्रक्रिया बहुत कठिन है. नागा साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम आदमी इसे पार ही नहीं कर पाए इस प्रक्रिया को पूरा होने में कई साल लग जाते हैं.
जब कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता, पहले अखाड़ा अपने स्तर पर ये पता लगाता कि वह साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है. पहले उसे नागाा सन्यासी जीवन की कठिनता से परिचय कराया जाता है
अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है. अखाड़े में प्रवेश के बाद उसको ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है. उसके तप, ब्रह्मचर्य, वैराग्य, ध्यान, संन्यास और धर्म का अनुशासन तथा निष्ठा आदि प्रमुखता से परखे-देखे जाते हैं।
इसमें 6 महीने से लेकर 12 साल तक लग जाते हैं. अगर अखाड़ा यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है. इसके बाद वह अपना श्राद्ध, मुंडन और पिंडदान करते हैं तथा गुरु मंत्र लेकर संन्यास धर्म मे दीक्षित होते है. अपना श्राद्ध करने का मतलब सांसारिक रिश्तेदारों से सम्बन्ध तोड़ लेना.
कई अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा साधु की दीक्षा दी जाती है.वैसे तो महिला नागा साधु और पुरुष नागा साधु के नियम कायदे समान ही है, फर्क केवल इतना ही है की महिला नागा साधु को एक पीला वस्त्र लपेटकर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहन कर स्नान करना पड़ता है. उन्हें नग्न स्नान की अनुमति नहीं है,
जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है. उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं. ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं. इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं. यह नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं.
महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है. इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं. अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का तर्पण और पिंडदान करना होता है. ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं. अब ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं. इनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा.
नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती. अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गेरुए रंग का एक वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं. नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है. नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, उन्हें अपनी चोटी का त्याग करना होता है और जटा रखनी होती है.
नागा साधुओं को 24 घंटे में केवल एक ही समय भोजन करना होता है. वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है. एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है. अगर सात घरों से भिक्षा मांगने पर कोई भिक्षा ना मिले, तो वह आठवे घर में भिक्षा मांगने भी नहीं जा सकता. उसे उस दिन भूखा ही रहना पड़ता है.
Image may contain: 1 person, sky, cloud and outdoorनागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता. नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं. यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है. दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है. उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है.
कुम्भ मेले के अलावा नागा साधु पूरी तरह तरह से आम आवादी से दूर रहते हैं और गुफाओं, कन्दराओं मे कठोर तप करते हैं. ये लोग बस्ती से बाहर निवास करते हैं. ये किसी को प्रणाम नहीं करते है तथा केवल संन्यासी को ही प्रणाम करते हैं. ऐसे और भी कुछ नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को पालन करना पड़ते हैं.
नागाओं को सिर्फ साधु नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है. वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान शरीर के स्वामी होते हैं. अक्सर नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते हैं. ये हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण हैं, नागाओं में चिमटा रखना अनिवार्य होता है. चिमटा हथियार भी है और इनका औजार भी.
नागा साधू अपने भक्तों को चिमटे से छूकर ही आशीर्वाद देते हैं. माना जाता है कि- जिसको सिद्ध नागा साधू चिमटा छू जाए उसका कल्याण हो जाता है. आधुनिक आग्नेयास्त्रों के आने के बाद से इन अखाड़ों ने अपना पारम्परिक सैन्य चरित्र त्याग दिया है. अब इन अखाड़ों में सनातनी मूल्यों का अनुपालन करते हुए संयमित जीवन जीने पर ध्यान रहता है.
इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं. प्रयागराज के कुंभ में उपाधि पाने वाले को नागा, उज्जैन में खूनी नागा, हरिद्वार में बर्फानी नागा, नासिक में उपाधि पाने वाले को खिचड़िया नागा कहा जाता है. इससे यह पता चल पाता है कि उसे किस कुंभ में नागा बनाया गया है.
इन प्रमुख अखाड़ों के नाम प्रकार हैः श्री निरंजनी अखाड़ा, श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा, श्री महानिर्वाण अखाड़ा, श्री अटल अखाड़ा, श्री आह्वान अखाड़ा, श्री आनंद अखाड़ा, श्री पंचाग्नि अखाड़ा, श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा, श्री वैष्णव अखाड़ा, श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा, श्री उदासीन नया अखाड़ा, श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा।
वरीयता के हिसाब से इनको कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोतवाल, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव जैसे पद दिए जाते हैं. सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पद सचिव का होता है. नागा साधु अखाड़े के आश्रम और मंदिरों में रहते हैं. तथा तपस्या करने के लिए हिमालय या ऊंचे पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं

संत अत्तर सिंह : जिनके हाथों "बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय" का शिलान्यास हुआ था

Image may contain: 1 person, beard, hat, eyeglasses, sunglasses and closeup बाबा अतर सिंह जी का जन्म 28 मार्च 1866 को ग्राम चीमा (संगरूर, पंजाब) में हुआ था. इनके पिता श्री करमसिंह तथा माता श्रीमती भोली जी थीं. छोटी अवस्था में वे फटे-पुराने कपड़ों के टुकड़ों की माला बनाकर उससे जप करते रहते थे. लौकिक शिक्षा की बात चलने पर वे कहते कि हमें तो बस सत्य की ही शिक्षा लेनी है.

घर वालों के आग्रह पर उन्होंन गांव में स्थित निर्मला सम्प्रदाय के डेरे में संत बूटा सिंह से गुरुमुखी की शिक्षा ली. कुछ बड़े होकर वे घर में खेती, पशु चराना आदि कामों में हाथ बंटाने लगे. 1883 में वे सेना में भर्ती हो गये. 54 पल्टन में काम करते हुए उन्होंने अमृत छका और फिर सेना की नौकरी छोड़कर निष्ठापूवर्क सिख मर्यादा का पालन करने लगे.

वे सूर्योदय से पूर्व कई घंटे जप और ध्यान करते थे. पिताजी के देहांत से उनके मन में वैराग्य जागा और वे पैदल ही हुजुर साहिब चल दिये. माया मोह से मुक्ति के लिए सारा धन उन्होंने नदी में फेंक दियाम. हुजूर साहिब में दो साल और फिर हरिद्वार और ऋषिकेश के जंगलों में जाकर कठोर साधना की. इसके बाद वे अमृतसर तथा दमदमा साहिब गये.

इसके बाद कनोहे गांव के जंगल में रहकर उन्होंने साधना की. इस दौरान वहां अनेक चमत्कार हुए, जिससे उनकी ख्याति चहुंओर फैल गयी. वे पंथ, संगत और गुरुघर की सेवा, कीर्तन और अमृत छककर पंथ का मर्यादानुसार चलने पर बहुत जोर देते थे. वे कीर्तन में राग के बदले भाव पर अधिक ध्यान देते थे। उन्होंने 14 लाख लोगों को अमृतपान कराया.

1901 में उन्होंने मस्तुआणा के जंगल में डेरा डालकर उसे एक महान तीर्थ बना दिया. संत जी ने स्वयं भले ही सांसारिक शिक्षा नहीं पायी थी, पर उन्होंने वहां पंथ की शिक्षा के साथ आधुनिक शिक्षा का भी प्रबंध किया. उन्होंने पंजाब में कई शिक्षा संस्थान स्थापित किये, जिससे आज भी लाखों छात्र लाभान्वित हो रहे हैं.

जब महामना मदन मोहन मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्विद्यालय की स्थापना करने का संकल्प लिया तो उन्होंने देश की अनेकों रियासतों के राजाओं और नबाबो से इसके लिए धन एवं संशाधन एकत्र किये. सब व्यवस्था करने के बाद मालवीय जी ने प्रस्ताव रखा कि - इस पवित्र कार्य का शिलान्यास भी किसी 'पवित्र व्यक्तित्व' द्वारा किया जाना चाहिए.

सदस्यों द्वारा कई नाम सुझाये जाने के बाद अंत में जिस नाम पर सर्वसम्मति बनी वे थे - 'संत अतर सिंह". जिनका आश्रम पटियाला और नाभा राज्य की सीमा के पास "मस्तुआना" में था. 1914 में मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पहले विद्यालय की नींव संत जी के हाथ से सरस्वति पूजा (बसंत पंचमी) के पुनीत दिवस पर रखवाई.

पंडित मदन मोहन मालवीय संत जी के सत्तारूढ़ आध्यात्मिक व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए और उन्होंने संत अत्तर सिंह से निवेदन किया कि- वे अपने शिष्य संत तेजा सिंह को शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय के प्रमुख के रूप में भेजने की कृपा करें. संत अत्तर सिंह ने मालवीय की के निवेदन को स्वीकार किया और विश्वविद्यालय बनाने में अपना मार्गदर्शन भी दिया.

इसी प्रकार पंथ और संगत की सेवा करते हुए 31 जनवरी 1927 को उनका शरीर शांत हुआ. उनके विचारों का प्रचार-प्रसार कलगीधर ट्रस्ट, बडू साहिब के माध्यम से उनके प्रियजन कर रहे हैं.

Monday, 17 February 2020

वासुदेव बलवंत फड़के

Image may contain: 2 peopleप्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रांति की असफलता के बाद, जब भारत में कोई भी अंग्रेजों के खिलाफ बोलने का भी साहस नहीं कर पा रहा था, उस समय "वासुदेव बलवंत फड़के"जी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का संगठन बनया था.
वासुदेव बलवंत फड़के का जन्म 4 नवंबर, 1845 को महाराष्ट्र के रायगड जिले के शिरढोणे गांव में हुआ था. प्राथमिक शिक्षा पाने के बाद इनके पिताजी ने, फडके जी को एक दुकान पर काम करने के लिये बोला लेकिन फडके जी इन सब से दूर मुंबई आ गये.
उन्होंने पहले मुम्बई में 'ग्रेट इंडियन पेनिंसुला रेलवे' और बाद में पुणे में 'मिलिट्री फ़ाइनेंस डिपार्टमेंट" में नौकरी की. पुणे में नौकरी करते समय उन्हें 1870 में "गोविन्द महादेव राणा डे" की सभा में जाने का अवसर मिला. इससे उनकी सोंच में बदलाब आया.
इसी बीच घर से उनकी माँ की तबीयत बहुत ज्यादा खराब होने का तार आया जिसमे उनको फौरन बुलाया गया था. उन्होंने अपनी माँ की बीमारी का हवाला देते हुए अपने अंग्रेज अधिकारी से छुट्टी मांगी. इस पर अंग्रेज अफसर ने उन्हें छुट्टी देने से मना कर दिया.
दस दिन के लगातार प्रयास के बाद भी जब उन्हें छुट्टी नहीं मिली तो वे बिना छुट्टे मंजूरी के ही अपने गाँव चले गए. तब तक उनकी माँ की म्रत्यु हो चुकी थी. जब वे वापस आये तो अधिकारी ने डाटा और माँ के बारे में बताने उनकी माँ को भी अपशब्द बोले.
इस पर उनको गुस्सा आ गया और उन्होंने उस अधिकारी को बुरी तरह से पीट दिया और वहां से फरार हो गए. अब उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्ति को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. गाँव गाँव घूमकर वे अंग्रेजो के सताए लोगों से मिलने लगे.
उन्होंने अनेको जोशीले युवाओं को अपने साथ मिला लिया और अपना क्रांतिकारी संगठन खडा कर लिया. उन्होंने जंगल में एक व्यायामशाला बनाई, जहाँ वे युद्धाभ्यास करने लगे. ज्योतिबा फुले और बाल गंगाधर तिलक भी उनके साथ जुड़ गए थे.
यहाँ लोगों को शस्त्र चलाने का भी अभ्यास कराया जाता था. तिलक ने भी यही शस्त्र चलाना सीखा था जिसे बाद में उन्होंने अनेकों क्रांतिकारियों को सिखाया था. उनके दल ने अंग्रेजों के ऊपर शिवाजी की शैली में घात लगाकर हमले करने शुरू कर दिए.
लड़ाई के लिए धन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए उन्होंने अंग्रेजों के चापलूस सेठों को लूटना शुरू कर दिया. अब उनका सपना था भारत माता को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना. धीरे धीरे उन्होंने पुणे सहित सात जिलों में उनका प्रभाव फैल गया . .
उनकी क्रन्तिकारी गतिविधियों से अंग्रेज इतना डर गए थे कि- कोई अधिकारी पोस्टिंग पर वहां जाना नहीं चाहता था. पुणे और आस पास के इलाके के लोगों ने उनको अपना महाराजा मान लिया था. एक तरह से वह इलाका कुछ समय के लिए आजाद हो गया था.
परन्तु दुर्भाग्यवश जुलाई 1879 में वे बहुत बीमार हो गए थे. 20 जुलाई, 1879 को "फड़केजी" बीमारी की हालत में एक मंदिर में आराम कर रहे थे. उसी समय अंग्रेज पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर लिया. |उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया;
Image may contain: 2 peopleउनको कालापानी की सजा देकर "अंडमान" के सेल्युलर जेल भेज दिया गया. कालापानी में उनको सताने के लिए अंग्रेजों ने विशेष रूप से अफगान सिपाहियों को नियुक्त किया था. अफगान सिपाही उनकी धार्मिक आस्थाओं के बिपरीत व्यवहार किया करते थे.
कई बार केवल गौमांस बनाया जाता और कहा जाता कि इसे खा लो वर्ना भूखा रहना पड़ेगा, तो वे कई कई बार अपनी आस्था की खातिर, कई दिन भूखे रहे. अंग्रेजों / अफगानों के अत्याचार सहते हुए 17 फरवरी 1883 को कालापानी में उन्होंने अपना बलिदान दे दिया.

Friday, 14 February 2020

सन्त गंगादास

Image may contain: 2 peopleहिंदी साहित्य के भीष्म पितामह, रानी लक्ष्मीबाई के गुरु एवं महान 
स्वतन्त्रता सेनानी सन्त गंगादास जी के जन्म दिवस पर सादर नमन

सन्त गंगादास जी का जन्म 14 फरवरी 1823 को बसंत पंचमी के दिन उत्तर प्रदेश के रसूलपुर गांव में एक धनी कुलीन जाट परिवार में हुआ था. उनके पिता चौधरी सुखीराम जी मुंढेर के पास 600 एकड़ जमीन थी. उनके परिवार का वातावरण बहुत धार्मिक था. उनकी माता दखाकौर हरियाणा के बल्लभगढ के एक गांव से थी.
महात्मा जी का बचपन का नाम गंगाबक्ष था. गंगाबक्ष जी बचपन से ही बहुत धार्मिक व साफ सफाई रखते थे उन्हें थोड़ी सी मिट्टी लगते ही वे रोने लग जाते थे व बहुत पूजा पाठ और भक्ति भी करते थे. इसलिए लोग उन्हें व्यंग से भगत जी ही कहने लग गए थे. जब वे छोटे थे तब ही उनके माता पिता का स्वर्गवास हो गया था.
वे बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे, इसलिए वे 12 वर्ष की उम्र में ही एक अच्छे गुरु की खोज में निकल पड़े. उनकी विरक्ति एवं बुद्धिमता देखकर सेदेपुर जिला बुलंदशहर की कुटी के संत बाबा विष्णुदास उदासीन ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया और उन्हें नया नाम दिया गंगादास. यहाँ उन्हें साहित्य की शिक्षा देशभक्ति के संस्कार भी प्राप्त हुए.
रानी लक्ष्मी के पिता ने उन्हें अपना गुरु धारण किया था. लक्ष्मीबाई ने भी उनसे गुरुदीक्षा ली थी. विवाह के बाद वे झांसी पहुंची तो उनको आशीर्वाद देने वे झांसी भी गए. उनके आध्यात्मिक और देशभक्ति भरे प्रवचनों को सुनकर झांसी, ग्वालियर, आदि में उनके अनेकों शिष्य बन गए. उन्होंने ग्वालियर के नजदीक अपना एक आश्रम भी बना लिया.
सन्त जी अपनी मातृभूमि से बहुत प्रेम करते थे व इसे अंग्रेजो की दासता से मुक्त करवाना चाहते थे. 1857 की क्रांति के दौर में संत गंगादास जी बहुत सक्रिय रहे और अपने घोड़े पर चढ़कर जगह जगह घूमकर लोगो को स्वतन्त्रता संग्राम में शामिल होने के लिए उत्साहित किया. बहुत से क्रांतिकारी उनसे मार्दर्शन लेने के लिए गुप्त रूप से मिलने आते थे.
रानी लक्ष्मीबाई व्यथित होती थी तो वे मार्गदर्शन के लिए उनसे मिलने आती थी. एक बार लक्ष्मीबाई ने उनसे पूछा के स्वराज किस प्रकार मिलेगा ? गुरुजी ने कहा कि स्वराज बलिदानों से मिलेगा. जब हम सब भेदभाव भूलकर एक हो जाएंगे और स्वराज रूपी भवन के लिए बलिदान रूपी पत्थरो को जोड़कर भवन बनाएंगे तो एक दिन स्वराज जरूर मिलेगा.
एक बार लक्ष्मीबाई ने व्यथित होकर उनसे कहा कि - लगता हैं हम अपने जीवन में स्वराज नहीं देख पाएंगे, तो गुरुजी ने उन्हें समझाया कि- कोई भवन बनाने से पहले नींव को पत्थरो से भरना जरूरी होता है. आज के बलिदानी भले ही स्वराज न ला सकते परन्तु वे नींव का काम कर रहें हैं और आगे चलकर इसी नींव पर स्वराज का कंगूरा खड़ा होगा.
जब वीरांगना लक्ष्मीबाई युद्ध मे घायल हो गयी और मरणासन्न अवस्था में थी तो उन्होंने अपने साथियों से कहा कि- ऊनका शव दुष्ट अंग्रेजो के हाथ नहीं लागना चाहिए. तब गौस खान और रामराव उन्हें अंग्रेजो से बचकर बाबा गंगादास जी की शाला में ले गए. कुछ क्षण बाद वीरांगना ने अपने प्राण त्याग दिए. उनकी मृत्यु से सब दुखी हो गए.
तब महात्मा जी ने सबको समझाया कि प्रकाश का कभी अंत नहीं होता यह हमेशा जगत को प्रकाशमान करता है. यह पुनः प्रज्वलित होकर चमकेगा. लक्ष्मी मरी नहीं बल्कि अमर हो गयी है, इसलिए अपना मोह त्यागकर जल्दी से अंतिम संस्कार की तैयारी शुरू करो क्योंकि जल्द ही अंग्रेज और उनके साथी गद्दार भारतीय यहां पहुंचने वाले हैं.
अंग्रेज लक्ष्मीबाई के पुत्र दामोदर को पकड़ना चाहते थे. तब संत गंगादास ने गौस खान और रामराव से कहा कि - आप लोग दामोदर को लेकर यहाँ से निकल जाए, अंग्रेजों को हम रोकेंगे. अंग्रेज टुकड़ी को पास आते देख संत गंगादास जी ने लक्ष्मीबाई के पार्थिव शरीर को अपनी कुटिया में रखकर दामोदर के हाथों कुटिया को आग लगवा दी.
गंगादास के आदेश पर गौस खान और रामराव दामोदर को लेकर वहां से निकल गए. उन की शाला (आश्रम) के 745 साधुओं ने अंग्रेजो की उस टुकड़ी से मुकाबला करते हुए अपना बलिदान दिया. इस युद्ध में रानी की हत्या करने वाला दुष्ट अंग्रेज अफसर भी मारा गया. इस प्रकार रानी के शरीर की बेअदबी भी नहीं हुई और दामोदर भी बच गए.
अंग्रेजों के दबाब में ग्वालियर के राजा सिंधिया ने बाबा गंगादास के आश्रम की जमीन जब्त कर उन्हें देश निकाला दे दिया. कहते हैं कि महात्मा जी को रानी ने अपने गुप्त खजाने का राज बता दिया था ताकि वह अंग्रेजो के हाथ न लगे. महात्मा जी व उनके शिष्य कालूराम ने उसे तीन हिस्सों में करके अलग अलग जगह छुपॉ दिया.
कहते हैं - वह खजाना वहीं कहीं छुपा हुआ है. देश निकाले के पश्चात महात्मा जी रानी की अस्थियों को लेकर हरिद्वार चले गए और उन्हें गंगा में प्रवाहित कर उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की. फिर वे बनारस चले गए. बाद में जनता के दबाब में सिंधिया को भी झुकना पड़ा और उनकी जागीर वापिस कर आश्रम से प्रतिबंध हटा दिया.
महात्मा जी जीवन पर्यंत भक्ति, क्रांति व समाज सुधार में लगे रहे. उन्होंने हिंदी साहित्य में भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया. आज जो हिंदी हम बोलते हैं उसे विकसित करने और उसमे साहित्य रचना करने का श्रेय संत गंगादास को ही जाता है. उनके ही प्रयास से यह आम बोलचाल की भाषा विकसित हुई व शुद्ध होकर हिंन्दी के रूप में राष्ट्र की भाषा बनी.
उनके शिष्य जैसे -चेतराम, बालूराम, दयाराम, मोतीराम, मोहनलाल आदि उनकी पद काव्य रचनाएं घूम घूमकर लोगो को सुनाते थे जिससे जागरूकता के साथ साथ हिंदी का भी विकास हो रहा था. इस तरह उन्हें खड़ी बोली का आदिकवि कहा जाता है। और हिंदी साहित्य में उनके योगदान के कारण उन्हें हिंदी साहित्य का भीष्म पितामह कहा जाता है.
हिंदी के महान लेखक एवं कवि भारतेन्दु हरिश्चंद्र भी उन्हें अपना गुरु मानते थे. संत गंगादास ने अपने 90 वर्ष के जीवन काल मे 50 से अधिक गर्न्थो की रचना की. कबीर का फक्कड़पन, सूर की भक्ति, तुलसी का समन्वय, केशव की छंद योजना और बिहारी की कला एक ही स्थान पर देखनी हो तो संत गंगा दास का काव्य इसका सटीक उदहारण है.
उनके काव्य में पार्वती मंगल (दो भाग), नल दमयंती, नरसी भक्त, ध्रुव भक्त, कृष्णजन्म, नल पुराण, राम कथा, नाग लीला, सुदामा चरित, महा भारत पदावली, बलि, बलि के पद रुक्मणी मंगल, प्रह्लाद भक्त, चन्द्रावती-नासिकेत, भ्रमर गीत मंजरी, हरिचंद होली, हरिचंद के पद, गिरिराज पूजा, होली पूरनमल, पूरनमल के पद, द्रोपदी-चीर आदि प्रमुख हैं.
गंगा दास ने 25 कथा काव्यों और कई सहस्र निर्गुण पदों कुंडलियों की रचना की थी, जो हिंदी साहित्य के लिए अमूल्य निधि हैं. उनका बहुत सा साहित्य व रचनाएं अभी लोगो के सामने नहीं आयी है, आज भी उन पर शोध चल रहे हैं. डॉ जगन्नाथ शर्मा 'हंस' सर्वप्रथम 1970 में 'महाकवि गंगादास व्यक्तित्व और क्र्तित्व' विषय पर शोध ग्रन्थ लिखा।
गंगादास जी ने काशी में २० वर्षों तक रहकर वेदांत, व्याकरण, गीता, महाभारत, रामायण, रामचरित मानस, अद्वैत कौस्तुम तथा मुक्तावली आदि दार्शनिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया. वीर सावरकर ने अपना ग्रन्थ "1857 : प्रथम स्वातंत्र्य समर" लिखने के लिए तथ्यों की जानकारी लेने के लिए संत गंगादास जी से मुलाकत की थी.
इनका कद ऊँचा और चेहरा लालिमा से दहकता था. संत गंगादास ने सन 1913 में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया था. वह स्थान जहाँ महात्मा जी का आश्रम था, उदासी साधू बुद्धा सिंह द्वारा डॉ राम मनोहर लोहिया कालिज को दान में दे दिया गया है. उनकी समाधी रसूलपुर गाँव के निकट गढ़मुक्तेश्वर मार्ग पर चोपला में बनी है.
जय सन्त गंगादास जी, जय राष्ट्रभाषा हिन्दी, जय भारत माता।

तड़ीपार

Image may contain: Sanjay Kumar Tripathi, smiling, beardअक्सर देखा गया है कि - बीजेपी से नफरत करने वाले अंधबिरोधी लोग अमित शाह को अपमानित करने के लिए तड़ीपार शब्द का प्रयोग करते हैं. हमें इसको समझने के लिए पहले यह समझना होगा कि - तड़ीपार होता क्या है और अमितशाह को क्यों किया गया था.
सबसे पहले तो यह समझ ले कि - वह मामला क्या है जिसमे अमित शाह को अदालत ने तड़ीपार किया था. जैसा कि सभी जानते है कि - गुजरात एक संपन्न राज्य है और सम्पन्न राज्य में अपराध, गुंडागर्दी और अवैद्ध बसूली करने वाले भी अक्सर पैदा हो जाते है.
यही हाल गुजरात का था. गुजरात में जगह जगह ऐसे गिरोह बन गए थे जो व्यापारियों और उद्योगपतियों को धमकाकर उनसे जबरन बसूली करते थे. 7 अक्तूबर 2001 को नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने. उन्होंने इस समस्या के हल पर बहुत जोर दिया.
उन्होंने अमित शाह को राज्य का गृहमंत्री बनाया. मोदी-अमित की टीम ने अपराधियों को गिरफ्तार कर उनपर केस चलाने के बजाये इनकाउंटर करने पर ज्यादा जोर दिया. इस तरीके से बहुत सारे अपराधी कम हुए और काफी गुजरात छोड़कर राज्य से बाहर भाग गए.
उन दिनों सोहराबुद्दीन और उसके साथी तुलसी प्रजापति का भी एक बड़ा गिरोह था जो मार्बल व्यापारियों को धमकाकर अवैध बसूली करता था. पुराने बदमाश "हामिद लाला" की हत्या करने के बाद सोहराबुद्दीन का मार्बल व्यापार पर एकछत्र राज हो गया था.
2004 में सोहराबुद्दीन ने राजस्थान के "आरके मार्बल्स" के मालिक "पटनी ब्रदर्स" को उगाही के लिए फोन किया था. उसने गुजरात सरकार को इसकी शिकायत की. मार्बल लॉबी की शिकायत पर गुजरात सरकार ने "डीजी बंजारा" को कार्रवाई के निर्देश दिए गए.
26 नवंबर 2005 को अहमदाबाद सर्किल और विशाला सर्किल के टोल प्वाइंट पर सुबह तड़के 4 बजे सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर कर दिया गया. एक साल एक माह बाद 26 दिसंबर 2006 को उसके साथी तुलसीराम प्रजापति को भी एनकाउंटर में मार गिराया गया.
"सोहराबुद्दीन" के भाई "रुबाबुद्दीन" ने आरोप लगाया कि उसके भाई को महारष्ट्र से पकड़कर, गुजरात ले जाकर मारा है. इसके बाद तो तत्कालीन UPA सरकार और फर्जी मानवाधिकारवादी संगठन गुजरात सरकार और अमित शाह के पीछे पड़ गए.
उन तथाकथित मानवाधिकारवादियों को गुंडों द्वारा व्यापारियों को लूटना और मारना कभी दिखाई नहीं दिया लेकिन गुंडों के मरने पर विलाप करने लगे. UPA सरकार ने भी तेजी दिखाते हुए उन गुंडों की की मौत का केस फ़टाफ़ट सीबीआई को सौंप दिया.
सीबीआई कोर्ट द्वारा भी यह मामला जज "आफताब आलम" की कोर्ट में भेजा गया. "जज आफताब आलम" सीबीआई ने कहां कि- अमित शाह के राज्य में रहने से जांच प्रभावित होगी इसलिए अमित शाह को राज्य बाहर (तडीपार) रखा जाए.
अमित शाह ने इस फैसले को स्वीकार किया और कोर्ट के निर्देश पर 2010 से 2012 के बीच कुछ समय के लिए राज्य से बाहर (तडीपार) रहे. इसके बाबजूद सीबीआई की जांच में अमित शाह और डीजी बंजारा सहित सभी 22 आरोपी निर्दोष पाए गए.
Image may contain: 2 people, possible text that says 'आखिर कौन थे सोहराबुद्दीन और तुलसी कैसे आए थे पकड़ में पत्रिका RAJASTHA'तो आप खुद बताइये कि - अमित शाह के लिए ऐसा कुछ बोलना क्या सही है ? अमित शाह के राज्य बदर (तडीपार) रहने के बाद भी अगर वो सब सीबीआई जांच में निर्दोष साबित हुए तो क्या आरोप लगाने वाले और तडीपार करने वाले ही गलत साबित नहीं हुए ?
यहाँ यह भी ध्यान देना चाहिए कि - 2005 से 2014 तक केंद्र में UPA की सरकार थी और सीबीआई केंद्र सरकार के अधीन कार्य करती है.उम्मीद करता हूँ कि - अमित शाह और तडीपार मामले की सच्चाई आपको ठीक से समझ आ गई होगी.

महाराजा जवाहर सिंह और गन्ना बेगम की प्रेम कहानी

Image may contain: 1 personअवध के सुजाजुद्दौला नबाब के यहाँ एक दरबारी था "अलीबेग कुली खान". कुली खान ईरान के शाही वंश से सम्बंध रखता था. उसकी बेटी चाँद बेगम बहुत ही सुंदर थी. सुंदर शरीर और मीठी बोली के कारण अवध के नबाब सुजाजुद्दौला ने तारीफ़ करते हुए कह दिया कि - कुली खान तुम्हारी बेटी तो गन्ने की तरह लम्बी और मीठी है.
उसके बाद सभी लोग चाँद बेगम को गन्ना बेगम कहने लगे. उन पर लिखी हुई कहानियों में लिखा गया है कि - गन्ना बेगम उस समय की विश्व सुंदरी थी. कहते है कि - जब वह पान खाती थी तो उसके गले में पान की लालिमा साफ दिखाई पड़ती थी. उस समय के तमाम नबाब और शहजादे गन्ना बेगम से निकाह करना चाहते थे.
उन दिनों भरतपुर में महाराजा सूरजमल का राज था. उनके पुत्र युवराज जवाहर सिंह भी बहुत बड़े योद्धा थे. उनकी बहादुरी के किस्से दूर दूर तक मशहूर थे. एक बार एक समारोह में गन्ना बेगम ने युवराज जवाहर सिंह को देखा तो वह उनको पहली ही नजर में ही दिल दे बैठी. जब जवाहर सिंह की नजर उन पर पड़ी तो वे भी गन्ना के हुस्न पर मोहित हो गए.
दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगे. जिस गन्ना को पाने के ख्वाब अनेकों नबाब और शहजादे देखते थे वह गन्ना एक हिन्दू युवराज से प्रेम करने लगी तो गन्ना से एक तरफ़ा प्रेम करने वाले आशिक भी युवराज जवाहर सिंह से जलने लगे. लोगों ने उनके प्रेम के किस्सों को बढ़ा चढ़ाकर बताकर अली बेग और नबाब सिराजुद्दौला के कान भरे.
नबाब सुजाजुद्दौला भी गन्ना बेगम को पसंद करता था लेकिन वह उससे उम्र में बहुत कम थी इसलिए कभी उससे मोहब्बत का इजहार नहीं कर सका था. लेकिन जब गन्ना और जवाहर के प्रेम को लेकर अलीबेग खान से चर्चा हुई तो उसने कहा कि - गन्ना का निकाह किसी मुस्लमान से ही होना चाहिए और अपने साथ निकाह का प्रस्ताव रख दिया.
नबाब सिराजुद्दौला की शान ओ शौकत से प्रभावित गन्ना के पिता अलीबेग खान ने भी नबाब का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. गन्ना के पिता लखनऊ में थे और गन्ना अपनी माँ और भाई बहनो के साथ आगरा में रहती थी. गन्ना के पिता ने उनको लखनऊ आने का सन्देश भेजा. जब गन्ना को इसका पता चला तो उसने जवाहर सिंह से मुलाकात की.
सब कुछ सही चल रहा था लेकिन तभी मौके पर महाराजा सूरजमल वहां पहुंच गए. उन्हें किसी ने खबर दी थी कि युवराज जवाहर सिंह किसी काफिले पर हमला कर उनका धन और औरतों को लूटने के लिए निकला है. महाराज ने जवाहर सिंह को डांटा कि राहगीरों को लूटना और किसी स्त्री का अपहरण करना हिन्दू वीरों का काम नहीं है.
अपने पिता का भगवान् की तरह सम्मान करने वाले जवाहर सिंह सर झुकाये डाँट खाते रहे लेकिन यह नहीं कह सके कि - वो धन या स्त्री को लूटने नहीं बल्कि अपनी प्रेमिका को पाने के लिए ये कर रहे थे. महाराज सूरजमल ने गन्ना सहित सभी राहगीरों को सुरक्षा का इंतजाम किया और उन्हें सकुशल अपने गंतव्य की ओर जाने का आदेश दिया.
जवाहर सिंह अपने पिता के साथ, चुपचाप निराशा में डूबे हुए घोड़े पर चढ़कर वापिस भरतपुर की ओर चल पड़े. गन्ना की आंखों से आंसू बह रहे थे. लेकिन इसी बीच नवाब का निकाह उम्दा बेगम से हो चुका था. दरअसल अहमद शाह अब्दाली से सम्बन्ध बनाने की खातिर सुजाजुद्दौला को अब्दाली की बहन से निकाह करना पड़ा था.
जब अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली में लूटमार और कत्लेआम किया तब दिल्ली के हजारों लोगो ने भरतपुर में शरण ली. गन्ना बेगम भी किसी तरह उन शरणार्थियों में शामिल होकर भरतपुर पहुँच गई. वहां गन्ना की मुलाक़ात फिर युवराज जवाहर सिंह के साथ हुई, उनका प्रेम फिर जाग उठा लेकिन लोकलाज के भय से परवान नहीं चढ़ सका.
पिता महाराजा सूरजमल के सम्मान के कारण युवराज जवाहर सिंह ने भी गन्ना को पाने का ख्वाब छोड़ दिया. इधर अब्दाली का आतंक समाप्त हो जाने के बाद अन्य सभी शरणार्थियों की तरह गन्ना बेगम भी अपने घर वापस चली गई. लेकिन कुछ समय बाद, एक बार फिर गन्ना बेगम मौका देखकर अवध से भाग निकली और जवाहर सिंह से मिली.
परन्तु उस समय गाजियाबाद में महाराज सूरजमल की हत्या हो चुकी थी और जवाहर सिंह अपने पिता के मृत्युशोक में डूबे थे और दिल्ली पर हमला करने की तैयारी कर रहे थे. महाराज जवाहर सिंह ने गन्ना से कहा कि - वह इन परिस्तिथियों में प्रेम अथवा विवाह के बारे में सोंच भी नहीं सकते तो गन्ना जवाहर सिंह से नाराज होकर ग्वालियर चली गयी.
वहां गन्ना सिख का भेष बनाकर रहने लगी और अपना नाम गुनी सिंह रख लिया. उसने महादजी सिंधिया के जासूस के रूप में काम किया. वह एक अच्छी यौद्धा भी थी उसने महादजी की एक युद्ध में भी सहायता भी की. इसके अलावा वह एक अच्छी शायरा भी थी. एक दिन उसकी पोल खुल गयी और उसे देखकर महादजी भी उसके आशिक हो गए.
परन्तु गन्ना अब भी सिर्फ जवाहर सिंह से प्रेम करती थी उसने महादजी को यह बात स्पष्ट बता दी. उसकी भावनाओं का सम्मान करते हुए महादजी ने भी गन्ना की असली पहचान दुनिया के सामने नहीं खोली और वह गुनी सिंह के रूप में ही काम करती रही. ग्वालियर की रियायत उस समय मध्य भारत की मजबूत रियासत थी.
पानीपत की 1761 की लड़ाई के बाद जब अब्दाली अफगानिस्तान वापस चला गया तो अवध का नबाब सुजाजुद्दौला हिन्दुस्थान का शहंशाह बनने का ख्वाब देखने लगा था. उसने अपने जासूसों को फकीरों के भेष में चारो तरफ फैला रखा था. एक बार वह फकीर जासूसों के साथ खुद भी ग्वालियर से 35 km दूर नूराबाद तक पहुँच गया.
महादजी सिंधिया को इसका पता चला तो उन्होंने गन्ना बेगम से इसका जिक्र किया. जिस मस्जिद में सुजाजुद्दौला अपने फ़कीर बने जासूसों के साथ मीटिंग कर रहा था वहां गन्ना भी भेष बदलकर पहुँच गई. लेकिन नबाब ने गन्ना को पहचान लिया और पकड़ लिया. नबाब ने उसकी इज्जत लूटनी चाही तो गन्ना ने अंगूठी में रखे जहर को चाटकर अपनी जान देदी.
No photo description available.कहा जाता है कि - जहरभरी हीरे की वह अगूठी गन्ना को जवाहर सिंह ने ही दी थी. महादजी ने भी अपना प्रेम निभाया और उसकी एक मजार बनवाई जो ग्वालियर से 35 km दूर नुराबाद में है. उन्होंने गन्ना मजार पर गन्ना की मातृ भाषा फ़ारसी में लिखवाया "आह गम ए गन्ना". इस प्रकार जवाहर सिंह और गन्ना की प्रेम कहानी का दुखद अंत हो गया.
गन्ना बेगम जवाहर सिंह से प्रेम करने के बाद भगवान् श्री कृष्ण की भक्त बन गई थी क्योंकि जवाहर सिंह भगवान् श्री कृष्ण को अपना पूर्वज मानते थे. यह कहानी जवाहर सिंह की पितृभक्ति के बारे में भी बताती है. वे अपने पिता की इतनी इज्जत करते थे कि- उन्होंने कभी उनके सामने ये बात अपनी जुबान से नहीं निकाली.
हिन्दू वीर शिरोमणि महाराजा जवाहर सिंह की जय, कृष्ण भक्त गन्ना बेगम की जय

Thursday, 13 February 2020

ये संयोग नही प्रयोग है

Image result for शाहीन बाग़अगर हमारे शरीर में बीमारी फैलाने वाला कोई वायरस प्रवेश करता है, तो हमारे शरीर में थकान, दर्द, बुखार, जी मिचलाना, आँख -नाक से पानी आना, आदि जैसे बीमारी के कुछ लक्षण दिखाई देने लग जाते हैं, उस समय हम थोड़ा सा परहेज कर ले और साथ में दवा भी ले लें तो वह वायरस बहुत जल्द समाप्त हो जाता है और हम बीमार होने से बच जाते हैं.
लक्षण दिखने के बाद भी अगर थोड़ी सी लापरवाही भी करते हैं लेकिन बीमार होते ही, डॉक्टर से दवा ले लेते हैं तो भी जल्दी ही स्वस्थ हो जाते है और ज्यादा बीमार होने से बच जाते हैं. लेकिन अगर बीमार होने के बाद भी न परहेज करते है और न ही दवा लेते हैं, तो बीमारी का वायरस मजबूत होता जाता है और शरीर की प्रतिरोध क्षमता ख़त्म होती जाती है.
तब वह बीमारी जानलेवा बन जाती है और शमशान पहुंचाने के बाद ही ख़त्म होती है. देश को भी ऐसा ही एक शरीर समझना चाहिए और देश में होने वाली अराजकता, दंगा, फसाद, आदि को बीमारी का लक्षण, जिसका कारण देशद्रोही रूपी वायरस होता है. अगरसमय रहते इसको काबू न किया जाए तो इसकी परिणति देश के टूटने के रूप में होती है.
भारत माता के ऊपर सैकड़ों साल से ही ऐसे ही अनेकों वायरस ने हमले किये और ज्यादातर बार हम लापरवाह बने रहे, जब बीमारी बहुत ज्यादा बढ़ गई तो हम ने इलाज किया जिसमे भारत माता को काफी तकलीफे सहनी पड़ीं. कई बार तो बीमारी इतनी बढ़ी कि सर्जरी करके भारत माता के कैंसर ग्रस्त अंगो को काटने को मजबूर होना पड़ा है.
पुरानी बातों को छोड़कर अगर केवल पिछले सौ साल की बात करे तो पता चलता है कि - सौ साल पहले खिलाफत के रूप में एक लक्षण दिखाई दिया था. ये खिलाफत आंदोलन तुर्की के खलीफा के लिए था, परन्तु हमारे देश के ज्यादातर लोग उसे स्वाधीनता संग्राम समझ बैठे और इसका नतीजा मालाबार, मुल्तान, कोहाट, आदि के दंगे के रूप में सामने आया.
मालाबार, मुल्तान, कोहाट, दंगे भी कोई संयोग नहीं थे बल्कि एक प्रयोग थे हिन्दुओं की मानशिकता को समझने के. उन दंगों में हजारों हिन्दुओं के मारे जाने के बाद भी जब शेष भारत के हिन्दुओं ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो उनको समझ आ गया कि - प्रयोग सफल रहा है और अब देश को तोड़कर एक हिस्सा अलग करने का प्रयास करना शुरू कर दिया गया.
1946 में डायरेक्ट एक्शन के रूप में एक और बड़ा परीक्षण किया गया और उसमे सफल होने के बाद उन्होंने भारत के दो टुकड़े कर एक हिस्से पर तो पूरा कब्ज़ा कर लिए और साथ ही दूसरे हिस्से से भी कब्ज़ा नहीं छोड़ा। यह भी उनका एक ही प्रयोग था हिन्दुओं की सहनशीलता ( चूतियापे ) को परखने का. उनका यह प्रयोग भी सफल रहा.
छोटे छोटे दंगे रूपी कई प्रयोग करने 1990 में कश्मीर में एक बड़ा हमला किया गया और वहां से हिन्दुओं को मार भगाया गया. उसके बाद फिर शांत होकर देखा गया कि शेष भारत के हिन्दू क्या करते हैं. कुछ समय में उनको समझ आ गया कि उनका यह प्रयोग भी सफल रहा. अब वे और भी बड़ी कार्यवाहियों की खातिर छोटे छोटे प्रयोग करने लगे हैं.
देश विरोधी नारे, हिंदुओं को खत्म करने की प्रतिज्ञा, नार्थ-ईस्ट को भारत से तोड़ने की प्लानिंग, CAA का बिरोध, जेहादियों का समर्था, यह सब उनका प्रयोग ही है और ये भारत माता के ऊपर गंभीर बीमारी वाले वायरस का हमला ही है. अगर इसके लक्षणों को पहचान कर अभी से इलाज शुरू नहीं किया तो यह कैंसर की तरह सारे देश में फ़ैल जाएगा.
वायरस खतरनाक है, लक्षण अच्छे नहीं है, समय रहते इन संकेतों को समझिये. ऐसी बीमारियों से छोटे स्तर पर निपट चुका, एक अनुभवी डॉक्टर महामारी की आशंका को देखते हुए, वायरस को नाकाम करने के लिए जी-जान से लगा हुआ है. 370 , 35a, CAA, NPR, आदि जैसी मेडिसन दे रहा है और NRC और UCC जैसा टीका लगाने की बात कर रहा है.
आज जरूरत है कि - हम भारत माता पर हमला करने वाले इस वायरस को पहचाने और इसे नाकाम करें. जो डॉक्टर इलाज करना चाह रहा है उसका साथ दें. उसको भी NRC, NPR , कॉमन सिविल कोड , जनसंख्या नियंत्रण, आदि जैसी उच्च कोटि की दवाओं का प्रयोग करने दें. वरना ऐसी हालत हो जाएगी कि - बाद में इलाज भी नहीं हो सकेगा..