Tuesday, 18 October 2022

अंग्रेजों के राज में कांग्रेसी अध्यक्षों को कैसे-कैसे ईनाम और पद मिला करते थे ?

जैसा कि सभी जानते है "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस" की स्थापना एक अंग्रेज "ए ओ ह्युम" ने की थी. उसके बारे में अलग से विस्तार से लिखा है. वह 1857 की क्रान्ति के समय इटावा का कलक्टर था और क्रान्तिकारियो के प्रति बहुत क्रूर था.

क्रांतिकारियों के भय से मुह काला कर और औरत का भेष बनाकर भागा था. रिटायर होने के बाद इसने एक ऐसा संगठन बनाने का बिचार किया जिसमे अंग्रेज टाइप भारतीय हो. जो अंग्रेजों की नीतियों को भारतीय जनता पर थोपने के काम आयें.
"ए ओ ह्युम" ने ऐसे 72 भारतीयों को लेकर 1885 में "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस" की स्थापना की. हर साल पार्टी का अध्यक्ष बदला जाता था परन्तु पार्टी का महासचिव लगातार 22 साल तक वह खुद बना रहा और अपने हिसाब से पार्टी को चलाता रहा.
पार्टी के अध्यक्ष
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अब आपको "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस" के अध्यक्षों की जानकारी दे रहा हू. उनका परिचय जानकार आपको खुद अंदाजा लग जाएगा कि देश को आजाद कराने में इस पार्टी का कितना योगदान रहा होगा. इस लम्बी सूची को कई भाग में प्रस्तुत करूँगा.
1.व्योमेश चन्द्र बनर्जी
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रिटायर्ड अंग्रेज कलक्टर ए ओ ह्युम ने जब 1885 में कांग्रेस का गठन किया तब उसने कांग्रेस का पहला अध्यक्ष व्योमेश चन्द्र बनर्जी को बनाया जो कोलकाता उच्च न्यायालय के वक़ील थे. ये भारत में अंग्रेज़ी शासन से प्रभावित थे और उसे देश के लिये अच्छा मानते थे.
व्योमेश चन्द्र बनर्जी अंग्रेज़ी चाल-ढाल के इतने कट्टर अनुयायी थे कि इन्होंने स्वयं अपने पारिवारिक नाम बनर्जी (या बोनर्जी) का अंग्रेज़ीकरण करके उसे 'बैनर्जी' कर दिया. इन्होंने अपने पुत्र का नाम भी 'शेली' रखा, जो कि अंग्रेज़ों में अधिक प्रचलित था.
'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के 1885 ई. में हुए प्रथम अधिवेशन के वे अध्यक्ष चुने गये थे। उन्हें दोबारा भी इलाहाबाद में 1892 ई. में हुए कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया था. 1902 ई. में वे इंग्लैंड जाकर बस गये. 1906 में अपनी म्रत्यु तक वहीँ रहे.
2. दादाभाई नौरोजी
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दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर, 1825 को मुम्बई के एक ग़रीब पारसी परिवार में हुआ था. उनकी माँ ने निर्धनता में भी बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई। उच्च शिक्षा प्राप्त करके दादाभाई लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में पढ़ाने लगे थे.
1855 तक बम्बई में गणित और दर्शन के प्रोफेसर के रूप में काम किया. 1857 क्रांति के बाद अंग्रेज ऐसे भारतीयों को तलाश रहे थे जो भारतीय होकर भी अंग्रेजों जैसे हो. ऐसे में 1859 में अंग्रेजों ने उनको एक कम्पनी लगवाकर कपास का व्यापार शुरू कराया.
1867 में उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम पर ईस्ट इण्डिया एसोशिएसन बनाई और उसके बाद देखते ही देखते उन ग़रीब की गिनती अमीरों में होने लगी. 1986 में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. 1906 में भी वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने.
दादाभाई ने मांग उठाई कि- इंग्लैंड की पार्लियामेंट में भी कम से कम एक भारतीय के लिए भी सीट सुनिश्चित होनी चाहिए. उनकी बात मानकर अंग्रेजों ने 1892 में उन्हे ही इंग्लैंड की पार्लियामेंट में भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना.
3. बदरुद्दीन तैयब
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बदरुद्दीन तैयबजी का जन्म 8 अक्टूबर, 1844 ई. को मुम्बई के एक धनी मुस्लिम परिवार में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा भारत में पूरी करने के बाद वे क़ानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड चले गए और वहां से बैरिस्टर बन कर लौटे.
उन्होंने मुसलमानों में शिक्षा का प्रचार करने के लिए ‘अंजुमने इस्लाम’ नामक संस्था को जन्म दिया. वे महिलाओं की आज़ादी और शिक्षा के भी समर्थक थे. उन्होंने अपने परिवार की महिलाओं का पर्दा भी समाप्त कराया और उच्च शिक्षा दिलबाई.
उनका रहन सहन भी बिलकुल अंग्रेजो के सामान था. अंग्रेज सरकार ने उनको मुंबई हाईकोर्ट का न्यायाधीश बनाया गया. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1887 ई. में मद्रास में आयोजित 'तीसरे वार्षिक अधिवेशन' के अध्यक्ष वे सर्वसम्मति से चुने गए थे.
4. जॉर्ज यूल
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तीन बार लगातार अंग्रेज टाइप भारतीयों को अध्यक्ष बनाने के बाद कांग्रेस ने इस बार1888 में एक अंग्रेज "जार्ज यूल" को ही पार्टी का अध्यक्ष बना लिया. वह लंदन के जॉर्ज यूल एंड कंम्पनी के संस्थापक थे और कलकत्ता के एंड्रयू यूल एंड कंम्पनी के अध्यक्ष थे.
वे कलकत्ता के फौजदार और कुछ समय तक इंडियन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स के अध्यक्ष भी रहे थे. कांग्रेस का एक दल जो साल 1889 में ब्रिटिश जनता के लिए हुए राजनीतिक सुधारों का समर्थन करने के लिए लंदन गया था, तो वहाँ जॉर्ज यूल ने उनकी काफ़ी सहायता की.
कहा जाता है कि कांग्रेस पार्टी के गठन के समय तथा बाद में पार्टी का संचालन करने के लिए सबसे ज्यादा धन उन्होंने ही दिया था. पार्टी की स्थापना के साथ ही उनकी पार्टी पर पकड़ थी. इसी बजह से उनको पार्टी का अध्यक्ष भी बनाया गया था.
5. विलियम वेडरबर्न
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1889 में कांग्रेस ने फिर एक अंग्रेज सर विलियम वेडरबर्न को अपना अध्यक्ष बनाया. सर विलियम वेडरबर्न का जन्म 25 मार्च 1838 को स्कॉटलैंड के इडिनबर्ग में हुआ था. 1860 में उन्होंने धारवाड़ में उप-जिलाधीश के रूप में काम शुरू किया.
1874 में वह सिंध के ज्यूडिशियल कमिश्नर और फिर साधर कोर्ट के न्यायधीश बने. 1882 में वह पूना के ज़िला और फिर सेशन जज बने. 1887 में अपनी रिटारमेंट के वक्त वह बम्बई सरकार के मुख्य सचिव थे. रिटायर होने के बाद उन्होंने कांग्रेस ज्वाइन की.
1890 और 1910 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. 1893 में वह लिबरल पार्टी की ओर से संसद सदस्य चुने गए. उन्होंने ब्रिटिश सरकार की उस नीति का समर्थन किया, जिसमें कहा गया था कि ब्रिटिश नीति का लक्ष्य भारत में एक प्रगतिशील शासन की स्थापना करना है

सबके बारे में विस्तार से लिखने में समय लग रहा है और पोस्ट भी लंबी होती जा रही है
इसलिए अन्य कांग्रेसियों के बारे में सक्षेप में पढ़ लीजिये
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1890 में कांग्रेस अध्यक्ष रहे "फिरोजशाह मेहता" को 1904 नाइटहुड (सर) की उपाधि दे गई. 1900 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे "नारायण गणेश चंदावरकर" को पहले 1901 में बोम्बे हाईकोर्ट का जज बनाया गया. उन्होंने जज रहते हुए क्रांतिकारियों को खूब सजाये सुनाई.

नारायण गणेश चंदावरकर" के फैसलों का सबसे ज्यादा शिकार बने थे "अभिनव भारत" दल के कार्यकर्ता. नाशिक के कलक्टर "जैक्शन" की हत्या के मामले उन्होंने बहुत ज्यादा इंटरेस्ट लिया. इस मामले में अनेकों क्रांतिकारियों को फांसी, कालापानी से लेकर 3 से 7 साल की सजा दी गई थी, इससे खुश होकर 1910 में उन्हें सर की उपाधि दी गई.
1907 और 1908 में लगातार दो बार अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. रासबिहारी घोष (रास बिहारी बोस नहीं) को भी सन 1915 में नाइटहुड (सर) की उपाधि से सम्मानित किया था. 1897 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे "चेत्तूर संकरन नायर" को अंग्रेजों ने 1904 में "कम्पेनियन ऑफ इंडियन एम्पायर" की उपाधि दी.
इसके अलाबा "चेत्तूर संकरन नायर" को मद्रास हाईकोर्ट का जज नियुक्त किया और 1912 में उनको भी नाइटहुड (सर) की उपाधि दी. अंग्रेज राजा "जार्ज पंचम" के भारत आने पर उसकी तारीफ़ में जन -गन - मन लिखने वाले "रविन्द्र नाथ टैगोर" को तो नाइटहुड (सर) के अलाबा "नोबेल पुरुष्कार" तक दिया गया था.
यह तो हुए बड़े नाम और बड़े पुरष्कार. अंग्रेजों ने इससे कुछ छोटे स्तर की उपाधिया और पुरस्कार भी बनाए थे जैसे - खान साहिब, खान बहादुर, राय बहादुर, आदि. जिन लोगों को ऐसे पुरस्कार मिले थे. तमाम नबाब, राजाओं, जमीदारों, आदि को खान बहादुर, राय बहादुर की उपाधि दे गई. आजाद भारत में "नेहरु" " ने भी उनको बड़े पद दिए थे.
ऐसा ही एक नाम है "फजल अली". अंग्रेजों ने पहले इसे खान साहिब, फिर खान बहादुर की उपाधि दी. इसने "अंग्रेजों भारत छोड़ो" आन्दोलन में मुसलमानों से आन्दोलन में शामिल न होने की अपील की थी, जिसके इनाम में इसे भी नाइटहुड (सर) से सम्मानित किया गया. आजादी के बाद नेहरु ने इन्हें पहले उड़ीसा का फिर असम का गवर्नर बनाया.
"एन. गोपालस्वामी अय्यंगर" नाम के एक नौकरशाह को अंग्रेजो ने 1941 में नाइटहुड (सर) की उपाधि के अलावा दीवान बहादुर, आर्डर ऑफ दी इंडियन एम्पायर, कम्पेनियन ऑफ दी ऑर्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इंडिया आदि 7 अन्य उपाधियों दी थीं, आजादी मिलते ही नेहरु ने उसे पहले बिना विभाग का मंत्री बनकर अपनी कैबिनेट में जगह दी.
उसके बाद फिर "अय्यंगर" को 1948 से 1952 तक देश का पहला रेलमंत्री नियुक्त किया और 1952 में उसे देश के रक्षामंत्री जैसा महत्वपूर्ण पद दिया. यह तो बस कुछेक उदाहरण हैं, अंग्रेजों के बफादारों को ब्रिटिश शासन में ऐसी उपाधियाँ मिलना तथा नेहरु के राज में उनको बड़े पद मिलना आम बात थी. ऐसे लोगों की संख्या हजारों में है.

देश का राष्ट्रगान, राष्ट्रभक्ति से भरा होना चाहिए

 किसी भी देश का "राष्ट्रगान" कोई ऐसा गीत होता है, जिसको प्रतिदिन गाने से देश वाशियों में राष्ट्रवाद की भावना प्रबल हो. आज आवश्यकता है कि - लोग जागरूक हों और यह सवाल उठायें कि - आखिर इस गीत में ऐसा क्या है, जो इसे हमारा राष्ट्रगान बनाया गया है ?

अंग्रेज तो किसी भी राष्ट्रवादी गीत, लेख या किताब पर प्रतिबध लगा दिया करते थे और जो गीत आजादी से 37 साल पहले अंग्रेज राजा के सामने गाया गया हो और अंग्रेजों ने उसपर कोई ऐतराज न जताया हो, तो कम से कम उस गीत का भावार्थ तो देशवाशियों को पता होना ही चाहिए
इसको समझने के लिए हमें उस काल खंड में जाना होगा. उसका क्रमवार विवरण पता करना होगा. इस गीत का पूरा सही भावार्थ तो कोई भाषाई विद्वान् ही बता सकता है लेकिन फिलहाल जो भावार्थ बताया जाता है, उसको तो हमें जान ही लेना चाहिए.
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हे भारत की जनता के अधिनायक (Superhero), तुम्हारी जय हो.
भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता मानती है.
तुम्हारे भारत आने से पंजाब, सिंध, गुजरात, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, उड़ीसा, बंगाल
( आदि सभी प्रांत) और बिंध्याचल - हि्मालय (सभी पर्वत), तथा यमुना और गंगा (सभी नदियाँ) सभी प्रसन्न है, हम सब तुम्हारा नाम लेकर ही जागते है . हम तुम्हारा आशीर्वाद चाहते है और तुम्हारी ही हम यशगाथा गाते है.
हे भारत के मगल दायक, हे भाग्य विधाता.
तुम्हारी जय हो जय हो जय हो.
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अगर ऊपर बताया गया भावार्थ सही है तब तो हमें इस पर पुनर्बिचार करना चाहिएम. लेकिन हां, यदि कोई विद्वान् कोई ऐसा दूसरा भावार्थ बताता है - जिसके अनुसार इसमें भारत माता की प्रार्थना है तो हम उस भावार्थ को स्वीकार करके बे-झिझक क्षमा भी मांग लेंगे.
हमें बिचार करना चाहिए कि- अंग्रेजों ने "वन्देमातरम" से लेकर "दूर हटो ए दुनिया वालों" तक, अनेकों गीतों पर प्रतिबन्ध लगाया. अंग्रेजो ने वीर सावरकर के ग्रन्थ "1857 : प्रथम स्वातंत्र्य समर" पर प्रतिबन्ध लगाया लेकिन इस गीत से उनको कोई आपत्ति नहीं थी.
जब कभी क्रांतिकारियों और क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास पढ़ते है तो उसमे यही मिलता है कि - देशभक्त क्रान्तिकारी लोग "वन्देमातरम", "पगड़ी सम्हाल" , "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" , "सरफरोसी की तमन्ना" , "सारे जहाँ से अच्छा", "देश नू चल्लो", आदि गीत को गाया करते थे.
कम से कम मैंने तो कहीं नहीं सुना और न ही किसी किताब में पढ़ा है कि - क्रांतिकारियों ने अपना कोई क्रांतिकारी अभियान, कभी "जन गण मन" के साथ प्रारम्भ किया हो या कोई क्रांतिकारी "जन गण मन" गीत, गाता हुआ फांसी के फंदे पर झूल गया हो.

जन गण मन

 1857 से 1905  वाले काल खंड की. 1857 की क्रान्ति को अंग्रेजो ने ग़दर तथा क्रांतिकारियों को राजद्रोही कहकर प्रचारित किया था. हालाँकि स्वाधीनता संग्राम के बाद भी पंजाब में गाय की रक्षा के लिए, कूकों का विद्रोह तथा बिहार में विरसा मुंडा का आन्दोलन अवश्य हुआ, लेकिन व्यापक रूप से सरे देश में कोई बड़ी क्रान्ति नहीं हुई.

1857 में क्रातिकारियों से छुपकर जान बचाने वाले इटावा के कलक्टर, "ए. ओ. ह्युम" ने रिटायरमेंट के बाद 1885 में अंग्रेज टाइप भारतीयों का एक संगठन "कांग्रेस" बनाया, जिसका उद्देश्य अंग्रेजों और भारतीयों के बीच एक कड़ी के रूप में काम करना था. ये लोग अंग्रेजों और आम जनता के बीच मध्यस्थ का काम करते थे.

यह संगठन अपने उद्देश्य में काफी हद तक सफल भी रहा. इन लोगों के प्रयास से देश के ज्यादातर लोगो ने अंग्रेजों को अपना मालिक मान लिया. इसके बनने के लगभग 20 साल तक देश में कोई क्रांतिकारी घटना नहीं हुई. 1905 के आसपास बंगाल में "युगांतर", "अनुशीलन समिति" तथा महाराष्ट्र में "अभिनव भारत" ने कुछ प्रयास अवश्य शुरू किये.

1904 के बाद में "युगांतर", "अनुशीलन समिति" तथा "अभिनव भारत" ने, रोष प्रदर्शन तथा विदेशी कपड़ों की होली, आदि जैसे कुछ आन्दोलन अवश्य किये लेकिन उनका प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर न होकर स्थानीय ही था. देश में क्रान्ति का ज्वालामुखी फूटा, 1907 में जब स्वातंत्र्यवीर सावरकर का ग्रन्थ "1857- प्रथम स्वतंत्र समर"  जनता के सामने आया.

सावरकर ने 1907 में, "1857- प्रथम स्वतंत्र समर" नामक ग्रन्थ लिखा. जिसमे उन्होंने 50 साल से गदर के रूप में प्रचारित घटना को "प्रथम स्वतंत्र्य समर" लिखा. जिन लोगों को "गद्दार" कहकर अपमानित किया जाता था, सावरकर उनको स्वतंत्रता सेनानी घोषित किया. इसके अलावा उन्होंने 10 मई 1907 को प्रथम स्वाधीनता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई.

इसके बाद तो जैसे देश मे क्रान्ति का ज्वार आ गया. देश के युवा अग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए संघर्ष करने लगे. अंग्रेजों ने ग्रन्थ पर प्रतिबन्ध लगा दिया लेकिन मैडम कामा, हरदयाल शारदा, आदि जैसे देशभक्त इसको चोरी छुपे छपवाते और प्रसारित करते रहे. बाद में भी सुखदेव, भगत सिंह, आदि जैसे क्रांतिकारियों ने भी इस ग्रन्थ का प्रचार प्रसार किया.

इसी बीच 6 मई 1910 को इंग्लैण्ड के राजा एडवर्ड सप्तम का देहांत हो गया और जार्ज पंचम राजा बन गए. अंग्रेजों और उनकेचापलूसों ने सोंचा कि- यदि ऐसे में इंगलैंड के राजा जार्ज पंचम भारत आते हैं तो देश की जनता में राजा को लेकर उत्साह पैदा होगा तथा क्रांतिकारियों का असर ख़त्म हो जाएगा. दिसंबर 1911 में जार्ज पंचम का भारत आना तय हो गया.

अंग्रेज चाहते थे कि - जार्ज पंचम की भारत यात्रा से पहले सावरकर जैसे भड़काऊ लोगो को गिरफ्तार कर, फांसी या कालापानी जैसी कोई कड़ी सजा दी जाए. लेकिन किताब लिखना कोई इतना बड़ा गुनाह नहीं था कि - ऐसी सजा दी जा सके. इसी बीच सावरकर के समर्थक "अभिनव भारत" के सदस्यों ने "नाशिक" के कलक्टर "जैक्सन" का वध कर दिया.

तब अंग्रेजों ने जैक्सन की ह्त्या का षड्यंत्र करने का आरोप लगाकर, सावरकर को गिरफ्तार कर लिया. अपने आपको न्याय का देवता बताने वाले अंग्रेजों ने बिना जुर्म साबित हुए ही, 4 जुलाई 1911 को "सावरकर" को कालापानी भेज दिया. उस कालखंड में बहुत सारे क्रांतिकार बिना प्रापर सुनबाई किये, फांसी चढ़ा दिए गए या कालापानी जेल भेज दिए गए.

अंग्रेज चाहते थे कि - राजा रानी के स्वागत और स्तुति में, कोई ऐसा गीत लिखा जाए, जो प्रत्येक भारतीय की जुबान पर चढ़ जाए और लोग सावरकर के ग्रन्थ "1857- प्रथम स्वतंत्र समर" को भूल जाएँ. इसके लिए अग्रेजो के साथ साझेदारी में व्यापार करने वाले परिवार के, व्यापारी / कवि / लेखक रविन्द्रनाथ टैगोर की सेवा ली गई.

अंग्रेज राजा जार्ज पंचम और रानी मेरी दिनांक 2 दिसंबर 1911 में भारत आये, उनके स्वागत में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक गीत लिखा था. "जन-गण-मन" .  जिसको 2 दिसंबर 1911 को भारत आये अंग्रेज राजा "जार्ज पंचम" की स्तुति के रूप में गाया गया. इसी गीत को 27 दिसंबर 1911 को अपने अधिवेशन में गाकर कांग्रेस ने अपनी राजभक्ति का परिचय दिया था. प्रस्तुत है पूरा गीत 

जनगणमन-अधिनायक जय हे भारतभाग्यविधाता!

पंजाब सिन्धु गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग

विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छलजलधितरंग

तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मागे,

गाहे तव जयगाथा।

जनगणमंगलदायक जय हे भारतभाग्यविधाता!

जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।


अहरह तव आह्वान प्रचारित, शुनि तव उदार बाणी

हिन्दु बौद्ध शिख जैन पारसिक मुसलमान खृष्टानी

पूरब पश्चिम आसे तव सिंहासन-पाशे

प्रेमहार हय गाँथा।

जनगण-ऐक्य-विधायक जय हे भारतभाग्यविधाता!

जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।


पतन-अभ्युदय-वन्धुर पन्था, युग युग धावित यात्री।

हे चिरसारथि, तव रथचक्रे मुखरित पथ दिनरात्रि।

दारुण विप्लव-माझे तव शंखध्वनि बाजे

संकटदुःखत्राता।

जनगणपथपरिचायक जय हे भारतभाग्यविधाता!

जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।


घोरतिमिरघन निविड़ निशीथे पीड़ित मूर्छित देशे

जाग्रत छिल तव अविचल मंगल नतनयने अनिमेषे।

दुःस्वप्ने आतंके रक्षा करिले अंके

स्नेहमयी तुमि माता।

जनगणदुःखत्रायक जय हे भारतभाग्यविधाता!

जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।


रात्रि प्रभातिल, उदिल रविच्छवि पूर्व-उदयगिरिभाले –

गाहे विहंगम, पुण्य समीरण नवजीवनरस ढाले।

तव करुणारुणरागे निद्रित भारत जागे

तव चरणे नत माथा।

जय जय जय हे जय राजेश्वर भारतभाग्यविधाता!

जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।


Thursday, 13 October 2022

सम्राट वीर विक्रमादित्य और उनके नवरत्न

भारत में भगवान् श्री राम के बाद सबसे महान राजा हुए हैं महाराजा विक्रमादित्य. उनके दरवार में अपनी अपनी विशेष योग्यताये रखने वाले नौ महापुरुष थे, उनको नवरत्न की उपाधि दी गई थी.

1. धन्वंतरि :–
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प्राचीन काल में चिकित्सा के क्षेत्र में सबसे विद्वान् व्यक्ति को धन्वंतरि की उपाधि दी जाती थी. हमारे ग्रंथों तीन प्रकार के धन्वंतरियों का उल्लेख मिलता है, दैविक, वैदिक और ऐतिहासिक. सबसे पहले धन्वंतरि देवताओं के वैद्य कहलाते हैं जिनका अवतरण समुद्र मंथन से हुआ था. उनको दैविक धन्वंतरि माना जाता है. उनको चिकित्सा विज्ञान का जनक माना जाता है
प्राचीन वेद पुराण आदि में जो धन्वंतरि हुए हैं उनको वैदिक धन्वंतरि कहा जाता है. ऐतिहासिक धन्वंतरि वे हैं जो लगभग ढाई हजार साल के इतिहास में वर्णित हैं. इनमे उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य के राजवैद्य ‘धन्वंतरि’ और गुप्त काल में सुश्रुत संहिता लिखने वाले सुश्रत के शिक्षक ‘धन्वंतरि’ प्रमुख हैं. आज भी किसी वैध की प्रशंसा करनी हो तो उसे ‘धन्वन्तरि’ उपमा दी जाती है,
2. क्षपणक :–
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राजा विक्रमादित्य के दूसरे नवरत्न क्षपणक थे. ये बौद्ध सन्यासी थे. वे राजा को यह बताते रहते थे कि शासन करते समय मानवाधिकार का पालन कैसे हो.
3. शंकु :–
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शंकु का पूरा नाम ‘शङ्कुक’ था. शङ्कुक को संस्कृत का विद्वान, ज्योतिष शास्त्री माना जाता था. वे ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर शकुन अपसकुन की सटीक भविष्यवाणी करते थे. कुछ विद्वान इनको मांत्रिक और कुछ विद्वान् इनको रसाचार्य भी मानते थे. विक्रम की सभा के रत्न होने के कारण इनकी विद्वता का परिचय अवश्य मिलता है.
4. वेतालभट्ट :–
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विक्रमादित्य के रत्नों में वेतालभट्ट के नामोल्लेख से आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति का नाम वेतालभट्ट अर्थात भूत-प्रेत का पंडित कैसे हो गया ? ऐसा माना जाता है कि वेतालभट्ट को महान तांत्रिक रहे होंगे जिनकी साधना शक्ति से राज्य को लाभ होता होगा और विक्रमादित्य ने वेताल की सहायता से असुरों, राक्षसों और दुराचारियों को नष्ट किया होगा.
5. घटखर्पर :–
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ये उस समय के महान कवि थे. कहा जाता है कि इन्होने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो कवि मुझे ‘यमक’ और ‘अनुप्रास’ रचना में पराजित कर देगा, उसके घर वे फूटे घड़े से पानी भरेंगें. तभी से इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया. इनके रचित दो लघुकाव्य उपलब्ध हैं. इनमें से एक पद्यों का सुंदर काव्य है, जो संयोग श्रृंगार से ओत-प्रोत है.
उसकी शैली, मधुरता, शब्द विन्यास आदि पाठक के हृदय पर विक्रम युग की छाप छोड़ते हैं. यह काव्य ‘घटखर्पर’ काव्य के नाम से प्रसिद्ध है. यह दूत-काव्य है. इसमें मेघ के द्वारा संदेश भेजा गया है. घटखर्पर रचित दूसरा काव्य ‘नीतिसार’ माना जाता है. इनके प्रथम काव्य पर अभिनव गुप्त, भरतमल्लिका, शंकर गोवर्धन, कमलाकर, वैद्यनाथ आदि प्रसिद्ध विद्वानों ने टीका ग्रंथ लिखे थे.
6. वररुचि :–
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वररुचि कात्यायन पाणीनिय सूत्रों के प्रसिद्ध वार्तिककार थे.वररुचि ने ‘पत्रकौमुदी’ नामक काव्य की रचना की. ‘पत्रकौमुदी’ काव्य के आरंभ में उन्होंने लिखा है कि विक्रमादित्य के आदेश से ही वररुचि ने ‘पत्रकौमुदी’ काव्य की रचना की थी। वररुचि ने ‘विद्यासुंदर’ नामक एक अन्य काव्य भी लिखा था। इसकी रचना भी उन्होंने विक्रमादित्य के आदेश से किया था.
कथासरित्सागर’ के अनुसार वररुचि का दूसरा नाम ‘कात्यायन’ था. इनका जन्म कौशाम्बी के ब्राह्मण कुल में हुआ था. जब ये 5 वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई थी. ये आरंभ से ही तीक्ष्ण बुद्धि के थे. एक बार सुनी बात ये उसी समय ज्यों-की-त्यों कह देते थे. इन्होने पाटलिपुत्र में शिक्षा प्राप्त की तथा शास्त्रकार की परीक्षा उत्तीर्ण किया.
7. अमरसिंह :–
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अमरसिंह प्रकांड विद्वान थे और राजा विक्रमादित्य के निजी सचिव थे. वे सनातन धर्म और बौद्ध धर्म दोनों के विद्वान् और अनुयायी थे. गया का वर्तमान बुद्ध-मंदिर उनके द्वारा ही बनवाया गया है. उन्होंने ही बौद्धों और सनातनियों को एक करने के लिए महात्मा बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित किया था. वे संस्कृत भाषा के महान विद्वान् थे,
संस्कृत का सर्वप्रथम शब्दकोश अमरसिंह का ‘नामलिंगानुशासन’ है, जो अब भी उपलब्ध है और ‘अमरकोश’ के नाम से प्रसिद्ध है. अमरकोश पर 50 टीकाएं उपलब्ध हैं. यही उसकी महत्ता का प्रमाण है. अमरकोश से अनेक वैदिक शब्दों का अर्थ भी स्पष्ट हुआ है. बोध गया के अभिलेख में लिखा है कि विक्रमादित्य संसार के प्रसिद्ध राजा हैं और वे राजा के प्रिय पात्र है,
8. वराहमिहिर :–
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वराहमिहिर एक गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे. उनको राजा विक्रमादित्य की सभा में का सबसे उम्रदराज और ज्योतिष का प्रकांड विद्वान् माना जाता है. उन्होंने प्राचीन भारतीय ऋषियों द्वारा खोजे गये ज्ञान का संकलन किया और नए शोध किये. सम्राट वीर विक्रमादित्य ने उनके लिए दिल्ली के पास महरोली में एक विशाल वेधशाला बनवाई
यहाँ एक विशाल स्तम्भ बनबाया जिसको नाम दिया विष्णु स्तम्भ. इसको ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था. इस पर चढ़कर वे और उनके शिष्य आसमान का निरीक्षण और प्रेक्षण करते थे. इसके अलावा वहां 27 और स्थान बनवाये जिनको मंदिर कहा जाता था लेकिन वास्तव में वे 27 नक्षत्रों के प्रतीक थे. यहीं बैठकर वराहमिहिर ने हिन्दू पंचांग का निर्माण किया.
9. कालिदास :–
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कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे. कालिदास ने भारत की पौराणिक कथाओं औए दर्शन को आधार बनाकर अनेकों रचनाएँ की. आज के इतिहासकारों द्वारा महाकवि कालिदास को राजा विक्रमादित्य की सभा का प्रमुख रत्न माना जाता है. कालिदास ने भी अपने ग्रंथों में राजा विक्रमादित्य के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरुप निरुपित किया है.
कहा जाता है कि माँ काली देवी के कृपा से उन्हें विद्या की प्राप्ति हुई थी इसीलिए इनका नाम कालीदास पड़ा. कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है. वे न केवल अपने समय के महान साहित्यकार थे बल्कि आज तक भी कोई उन जैसा महान साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ. शकुंतलम’ उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है.

नकलची अकबर ने भी अपने आपको सम्राट वीर विक्रमादित्य की तरह महान साबित करने के लिए अपने नौ देबारियों को नवरत्न की उपाधि प्रदान की थी. अपनी अगली किसी पोस्ट में अकबर के उन चापलूस दरबारियों (तथाकथित नवरत्नो) की विस्तार से जानकारी दूँगा. उसे पढ़ने के बाद आप जानेंगे कि वे नवरत्न वास्तव में नौ चमचे थे.

Saturday, 8 October 2022

हाईस्पीड ट्रेन "वन्देभारत" एक्सप्रेस

अंधविरोधी और उनमे भी विशेष रूप से शान्तिधूर्त हमेंशा यही चाहते हैं देश का नुकशान होने की कोई बुरी खबर मिले और उनको सरकार को कोसने का मौका मिले. जब इनको ऐसा कोई बड़ा मौका नहीं मिल पाता है तो वे छोटी छोटी मामूली घटनाओ को ही बड़ा नुकशान बताकर सरकार को कोसने लगते हैं लेकिन ऐसे प्रयास में खुद उनकी ही बदनामी होती है

जब देश में हाईस्पीड ट्रेन वन्देभारत चली तो शान्तिधूर्तों ने इस पर जगह जगह पथराव किया बजह यह बताई कि इनको नाम पसंद नहीं आ रहा. नाम तो एक बजह थी ही क्योंकि इस तरह नाम को लेने से देशभक्ति की भावना जाग्रत हो जाती है, इसके अलावा यह हाई स्पीड ट्रेन है और इसका अधिकाँश भाग स्वदेशी है तथा यह भारत की तरक्की का प्रतीक भी है
काफी समय से किसी बुरी खबर का इन्तजार कर रहे इन शान्तिधूर्तों को जैसे ही खबर मिली कि किसी रूट पर वन्देभारत ट्रेन से एक भैंस टकराई जिससे ट्रेन के इंजन के आगे लगा फाइवर शीट का खोल टूट गया, तो इनका दिल ख़ुशी से झूम उठा इसको लेकर दर्जनों पोस्ट्स लिख डालीं. परन्तु ऐसा करने से भी इनको फायदा होने के बजाये नुकशान ही हुआ.
पहली बात तो यह कि ट्रेन या इंजन को कोई नुकशान नहीं हुआ बल्कि सामने का फाइबर का खोल टूट गया. यह फाइवर का खोल के दो काम है एक ट्रेन की सुंदरता बढ़ाना और दूसरे हवा को काटकर का हवा का प्रेशर इंजन पर कम करना. यह फोल्डिंग हैऔर मात्र चन्द स्क्रू खोलकर कुछ ही समय में बदला जा सकता है. न भी टूटें तो इनको रूटीन में भी बदला जाता है
दूसरी बात यह कि रेल की पटरी रेलगाड़ी के चलने के लिए ही है. जहाँ अधिकृत रेलवे क्रासिंग है आप केवल वही से रेल लाइन पार कर सकते हैं. रेल की पटरी पर दुर्घटना होने पर इंश्योरेंस क्लेम तक नहीं मिलता है. ये नियम आज से नही बल्कि हमेशा से ही हैं. ट्रेन ने खेत में जाकर भैंस को टक्कर नहीं मारी थी बल्कि भैंस मालिक की गलती से भैंस पटरी पर आ गई थी.
वन्देभारत बहुत अच्छी ट्रेन है और हमने तो इसका बहुत लाभ उठाया है. हमको जब लुधियाना से जम्मू जाना होता है तो हम सुबह 6 बजे की ट्रेन बेगमपुरा से जम्मू जाते है और वापसी में सवा चार वाली वन्देभारत ट्रेन से वापस लुधियाना आ जाते है. जहाँ अन्य गाड़ियां साढ़े चार से छ घंटे लेती है वहीं वंदेभारत मात्र सवा तीन घंटे में जम्मू से लुधियाना पहुंचा देती है.
एक बात और कहना चाहूंगा कि आप लोग देख रहे होंगे कि - कोई छोटी बड़ी दुर्घटना की खबर आते ही अंधविरोधी कम्बख्त खुश हो जाते है , जबकि चाहे किसी की भी सरकार हो स्वयंसेवक दुर्घटना में फंसे लोगों की मदद करने निकल पड़ते है. खन्ना रेल दुर्घटना के बाद मैं भी वहां पहुंचा था. इसके आलावा मेरे जो वर्कर खन्ना में ही थे उन लोगों ने भी वहां सेवा काम किया था.

मैसूर राज्य : वोडेयार वंश और हैदर / टीपू

मैसूर से बेंगलुरू के बीच चलने वाली "टीपू एक्सप्रेस" का नाम बदलकर "वोडेयार एक्सप्रेस" किया गया है. मैसूर की जनता लम्बे समय से यह मांग कर रही थी. ट्रेन का नाम बदले जाने के खिलाफ भी कुछ अंधविरोधियों ने आवाज उठाई है. इसलिए मैं आपको टीपू के खानदान और वोडेयार वंश की जानकारी दे रहा हूँ जिससे भ्रम दूर हो सके.
कर्नाटक के अधिकाँश हिस्से पर लम्बे समय तक वोडेयार राजवंश का शासन रहा है. इस राजवंश ने मैसूर पर 1399 से 1761 और पुनः 1799 से 1947 तक शासन किया है. केवल थोड़े समय 1761 से 1799 तक ही हैदर अली और उसके बेटे टीपू का मैसूर पर कब्ज़ा रहा. इस कालखंड में टीपू ने राज्य की हिन्दू जनता पर बहुत अत्याचार किया
वोडेयार राजवंश की स्थापना 1399 में यदुराया वोडेयार ने की थी. वे हिमालय के तराई के मूल निवासी थे मैसूर क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता को देखकर वहीँ बस गए थे. उन्होंने 1423 तक विजयनगर साम्राज्य के तहत मैसूर पर शासन किया. यदुराया वोडेयार के बाद, मैसूर राज्य विजयनगर साम्राज्य के तहत वाडियार शासकों द्वारा शासित रहा.
1565 में विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद, मैसूर एक स्वतंत्र साम्राज्य बन गया. 1761 तक वोडेयार राजवंश का ही मैसूर पर शासन रहा. परन्तु उनके एक सेवक हैदर अली ने कुछ अन्य अधिकारियों को साथ लेकर राजा कृष्णराज द्वितीय (इम्मडि कृष्णराज ऒडॆयर् 1734 - 1766) से गद्दारी कर उन्हें हटाकर मैसूर पर कब्ज़ा कर लिया,
मैसूर की अधिकांश जनता हिन्दू धर्म को मानने वाली थी इसलिए हैदर ने कभी भीकट्टर इस्लामी नीति का प्रदर्शन नहीं किया बल्कि अपने हिन्दू मंत्री पूर्णिया पंडित को आगे रखकर शासन किया. 1782 में हैदर अली की मृत्यु हो जाने के बाद उसका बेटा टीपू मैसूर का राजा बन गया. टीपू ने पिता से उलट मैसूर को इस्लामी राज बनाने का प्रयास किया।
टीपू का असली नाम "सुल्तान फतेह अली खान शाहाब" था टीपू अपने आपको दक्षिण का औरंगजेब साबित करना चाहता था. उसने हिन्दुओ का धर्म परिवर्तन करने के लिए लालच देने और जुल्म करने दोनों का सहारा लिया. टीपू की कट्टर इस्लामी नीतियों के कारण हैदर के पुराने साथी भी टीपू से अलग हो गए. टीपू ने राज्य की हिन्दू जनता पर बहुत जुल्म किये
उन दिनों भारत में अंग्रेज भी पैर फैला रहे थे और फ्रांसीसी भी. राजा कृष्णराज वोडेयार द्वितीय के वंशजों ने अपना राज्य वापस पाने के लिए अंग्रेजों से मदद मांगी, राज्य की हिन्दू जनता भी टीपू के जुल्म से परेशान थी, उसने भी कृष्णराज वोडेयार तृतीय का साथ दिया. इधर टीपू ने अंग्रेजों से निपटने के लिए फ्रांसीसियों का साथ लिया मगर उसे धोखा मिला
1799 की लड़ाई में टीपू की मौत हो गई और कृष्णराज वोडेयार तृतीय (मुम्मडि कृष्णराज ऒडॆयरु 1799 - 1868) मैसूर के राजा बन गए. धीरे धीरे देश पर अंग्रेजों का शासन हो गया और कृष्णराज वोडेयार तृतीय और उनके वंशज अंग्रेजी सत्ता के अधीन मैसूर पर शासन करते रहे. 1947 में देश आजाद होते समय मैसूर का भी भारतबर्ष में विलय हो गया.
इसी वोडेयार वंश के नाम पर टीपू एक्प्रेस का नाम बदलकर वोडेयार एक्प्रेस किया गया है

Monday, 3 October 2022

समीक्षकों और कवियों ने "कर्ण" को जरूरत से ज्यादा महिमामंडित किया है

महर्षि व्यास द्वारा रचित असली महाभारत में दुर्योधन, दुशासन और कर्ण को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया है. महर्षि व्यास द्वारा तो उनका वास्तविक नाम सुयोधन, सुशासन और राधेय के बजाय दुर्योधन, सुशासन और कर्ण कहकर ही सम्बोधित किया गया है, क्योंकि महर्षि व्यास जी इन लोगों को ही उस महाविनाश का जिम्मेदार मानते थे.

वामपंथी सोंच रखने वाले कवियों, कथाकारों और इतिहासकारो ने श्रीकृष्ण और पांडवों का महत्व कम करने के लिए अंगराज कर्ण को बड़ा दिखाने का मिथ्याप्रयास किया है जबकि यह निर्विवाद सत्य है कि - उस युग में महारथी अर्जुन ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे और दुर्योधन को बर्बाद करने में कर्ण का योगदान भी शकुनि से कम नहीं था.
शकुनि तो हमेशा ही दुर्योधन को बिना युद्ध के ही जितवा देना चाहता था लेकिन कर्ण दुर्योधन को हमेशा युद्ध के लिए उकसाता रहता था और बात बात में दुर्योधन से कहता था कि - डरते क्यो हो मित्र, चलो युद्ध करते है. कर्ण ने इसी तरह चने के झाड़ पर चढ़ाकर दुर्योधन की लँका लगा दी थी. जबकि हर मुकाबले में कर्ण अर्जुन से हारा था.
कर्ण भी एक महान योद्धा था लेकिन वह सिर्फ खुद को अर्जुन से बड़ा साबित करने की कुंठा में जी रहा था. उसे केवल एक ही इच्छा थी कि - किसी भी प्रकार से उसका अर्जुन से मुकाबला हो और वह उसे जीत जाए. लेकिन महाभारत में कई बार ऐसे अवसर आये भी और हर बार कर्ण को अर्जुन के हाथों हार का सामना करना पड़ा था.
दुर्योधन भी कर्ण की बातों से बहुत प्रभावित था क्योंकि उसे लगता था अगर कर्ण अर्जुन को सम्हाल ले तो बाक़ी चारों से तो वह खुद निपट लेगा लेकिन कर्ण ने उसे हर बार निराश किया. सबसे पहले जब द्रोणाचार्य ने कौरवों और पांडवों से गुरुदक्षिणा में द्रुपद को सजा देने को कहा तो कर्ण दुर्योधन का साथ देने के बजाय भाग निकला.
द्रोपदी के स्वयंवर में जब कर्ण और अर्जुन का सामना हुआ तो अर्जुन ने अपने एक ही वाण से कर्ण का धनुष काट डाला था. जब गन्दर्भों ने दुर्योधन को बंदी बनाया था उस समय भी कर्ण दुर्योधन के साथ था परन्तु दुर्योधन को बचा नहीं सका. उस समय भी अर्जुन और भीम ने वहां आकर दुर्योधन को गन्दर्भों से मुक्त कराया था.
विराट युद्द में तो अकेला अर्जुन, पूरी कुरु सेना पर भारी पड़ा था जिसमे भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, दुर्योधन के साथ कर्ण भी शामिल था. कर्ण बड़ा योध्दा था पर वो अर्जुन से बढ़कर बड़ा योद्धा कभी नही था. ये सब वामपंथी प्रोपगेंडा था जो की हमेशा हिन्दुओ के आदर्श व्यक्तियो के खिलाफ एक खलनायक को सही दिखाने का प्रयास करते रहते है.
ये लोग कभी कर्ण के बहाने जातिवाद का मुद्दा उठाने का प्रयास करते है, तो कभी उसे निसहाय, बिचारा और प्रताड़ित दिखाते रहै, जबकि वास्तव में वह केवल एक कुंठित व्यक्ति है जो भरी सभा मे द्रौपदी को वेश्या कहता है और कभी चक्रव्यूह में 6 अन्य महारथियों के साथ मिलकर , निहत्थे और अकेले अभिमन्यु की हत्या का भागीगार बनता है.

Sunday, 2 October 2022

कांग्रेस ने केवल चरखे की ही नहीं और भी बहुत कहानिया बना रखीं हैं

आज लाल बहादुर शास्त्री जी  की महानता को लेकर एक कहानी पढ़ी जिसमे बताया गया है कि - लाल बहादुर शास्त्री जी जब रेल मंत्री थे तब उन्होंने अपनी माता जी को यह नहीं बताया था कि - वो रेलमंत्री हैं बल्कि ये बताया था कि रेलवे में नौकरी करते हैं. 

उस कहानी में यह भी बताया गया है कि - एक बार रेलवे का एक कार्यक्रम था उस कार्यक्रम में शास्त्री जी को पूंछते पूंछते उनकी माँ पहुँच गईं. तब उस कार्यक्रम में शास्त्री जी ने अपनी माँ के सामने भाषण नहीं दिया था. 

जब उनसे इसका कारण पूंछा गया तो उन्होंने कहा - मेरी मां को नहीं पता कि मैं मंत्री हूं.  अगर उन्हें पता चल जाए तो वह लोगों की सिफारिश करने लगेगी और मैं मना भी नहीं कर पाऊंगा. शास्त्री जी की इस बात को लेकर बहुत प्रशंसा की गई है.

लेकिन मेरे मन में इस कहानी   लेकर कई सवाल भी उठ रहे हैं. जैसे कि- जिस किताब या अखबार से यह कहानी ली गई है क्या उस किताब / अखबार में यह भी लिखा था कि- यह कार्यक्रम किस शहर में हुआ था  और किस स्तर का कार्यक्रम था ?

जो डर उनको माँ से था कि- वो उनके पास सिफारिस लेकर आने लगेंगी. क्या उनको ऐसा डर अपनी पत्नी और अन्य रिश्तेदारों से नहीं था ? अपनी माँ के बारे में ऐसा सोंचने की उनकी आखिर क्या बजह रही होगी ?

अब रही बात लाल बहादुर शास्त्री जी की नौकरी की, तो उनका जन्म 1904 में हुआ था और उनकी माता जी को भी पता था कि- देश के आजाद होने तक 43 साल की आयु के होने तक उन्होंने कोई  नौकरी नहीं थी,  

शास्त्री जी लगभग 50 साल की आयु में रेलमंत्री बने थे तो उस समय उनकी माता की आयु भी लगभग 70 साल की तो रही ही होगी. अगर आज रेलवे का कोई कोई कार्यक्रम  हो तो क्या कर्मचारी की बूढी माँ ऐसे ही अपने आप उस कार्यक्रम में पहुँच जायेगी ?

आजाद भारत में भी रेल मंत्री बनने से पहले वे सांसद, उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव, गृहमंत्री, आदि जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके थे. इसलिए ये सोंचना कि उनकी माता को यह पता नहीं था कि- वे रेलवे में नौकरी नहीं करते हैं , मुझे तो बिलकुल झूठ लगता है