
युद्ध के बाद "जादोनांग" ने अपने गाँव आकर तीन नागा कबीलों जेमी, ल्यांगमेयी और रांगमेयी में एकता स्थापित करने हेतु "हरक्का" पन्थ की स्थापना की. आगे चलकर ये तीनों सामूहिक रूप से "जेलियांगरांग" कहलाये। इन्होने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रान्ति प्रारम्भ कर दी जिसमे कई अंग्रेज और उनके भारतीय चापलूस मारे गए.
उधर इस इलाके में ईसाई मिशनरियां काफी सारे नागा लोगों को ईसाई बना चुकी थी. उन कन्वर्टेड ईसाईयो की मुखबिरी से "जादोनांग" को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 29 अगस्त 1931 को फाँसी दे दी. लेकिन "जादोनांग" के बलिदान के बाद नागाओं का संघर्ष थमा नहीं बल्कि उनकी 17 बर्षीय बहन "गाइडिन्ल्यू" के नेतृत्व में और भी तेज हो गया.
गाइडिन्ल्यू अपनी नागा संस्कृति को सुरक्षित रखना चाहती थीं। उन्होंने "हराक्का" पर जोर दिया और नागाओं को ईसाइयत से दूर रहने को कहा. "हराक्का" का अर्थ है "पवित्र". उनकी नेतृत्वक्षमता को देखकर लोग उन्हें देवी मानने लगे. उनका प्रभाव उत्तरी मणिपुर, खोनोमा तथा कोहिमा तक फैल गया। नागाओं के अन्य कबीले भी उन्हें अपना नेता मानने लगे.
अब अंग्रेज गाइडिन्ल्यू के पीछे पड़ गये. उनके प्रभाव क्षेत्र के गाँवों में उनके चित्र वाले पोस्टर दीवारों पर चिपकाये तथा उन्हें पकड़वाने वाले को 500 रु. पुरस्कार देने की घाषिणा की पर कोई इस लालच में नहीं आया. अंग्रेजों ने आन्दोलनरत गाँवों पर सख्त कार्यवाहियां शुरू कर दीं. उन पर सामूहिक जुर्माना लगाकर उनकी बन्दूकें रखवा लीं.
अंग्रेजों ने अनेकों नागाओं को गिरफ्तार किया और उनसे गाइडिन्ल्यू के बारे में जानकारी देने को कहा. न बताने पर अंग्रेजों उन बेकसूर नागाओं को यातनाये देकर मार डाला. 1932 में गाइडिन्ल्यू ने पोलोमी गाँव में एक विशाल काष्ठदुर्ग का निर्माण शुरू किया, जिसमें 40,000 योद्धा रह सकें। उन्होंने अन्य जनजातीय नेताओं से भी सम्पर्क बढ़ाया.
गाइडिन्ल्यू ने अपना खुफिया तन्त्र भी स्थापित कर लिया। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी. अंग्रेजों ने डिप्टी कमिश्नर जे.पी.मिल्स को उन्हें पकड़ने की जिम्मेदारी दी। असम के गवर्नर ने ‘असम राइफल्स’ की दो टुकड़ियाँ उनको और उनकी सेना को पकड़ने के लिए भेजा। साथ ही गाइदिनल्यू को पकड़वाने के लिए इनाम भी घोषित कर दिया.
कन्वर्टेड ईसाई नागाओं की मुखबिरी से 17 अक्टूबर 1932 को रानी और उनके कई समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया. रानी गाइदिनल्यू को इम्फाल ले जाया गया जहाँ उनपर 10 महीने तक मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। तथा उनके ज्यादातर सहयोगियों को मौत की सजा दी या जेल में डाल दिया.
सन 1933 से लेकर सन 1947 तक रानी गाइदिनल्यू गौहाटी, शिल्लोंग, आइजोल और तुरा जेल में कैद रहीं. 1937 में अपने असम प्रवास के दौरान अपने एक भाषण में जवाहर लाल नेहरू ने जेल में बंद क्रांतिकारी "गाइडिन्ल्यू" को "नागाओं की रानी' कहकर सम्बोधित किया था. तब से यह सम्बोधन उनकी पहचान बन गया.
1947 भारत को अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद 'गाइडिन्ल्यू" को जेल से रिहा कर दिया गया. जेल से रिहाई के बाद वे अपने लोगों के उत्थान और विकास के लिए कार्य करती रहीं. उन्होंने पूर्वोत्तर में धर्मांतरण को रोकने के लिए आरएसएस के अनुषांगिक संगठन वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद् का सहयोग लिया तथा इनको अपना सहयोग दिया.
वे वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यक्रमों में जाती थी. आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक के. एस सुदर्शन ने उन्हें पूर्वोत्तर की रानी लक्ष्मीबाई कहकर सम्बोधित किया. धर्मांतरण का बिरोध करने तथा आरएसएस की बिचारधारा का समर्थन करने के कारण धीरे धीरे सरकार की निगाह में उनका महत्त्व काम होता चला गया.
1958 में कुछ नागा संगठनों ने विदेशी ईसाई मिशनरियों की शह पर नागालैण्ड को भारत से अलग करने का हिंसक आन्दोलन चलाया. रानीमाँ "गाइडिन्ल्यू"ने उसका प्रबल विरोध किया। इस पर वे उनके प्राणों के प्यासे हो गये. इस कारण रानी माँ को छह साल तक भूमिगत रहना पड़ा. इसके बाद वे भी शान्ति के प्रयास में लगी रहीं।

आज रानीमाँ "गाइडिन्ल्यू" की जयन्ति पर उन्हें बारम्बार नमन करते हुए उनकी यश गाथा को सोशल मीडिया के माध्यम से आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूँ. देश के ऐसे अन्य गुमनाम नायक / नायिकाओं की गाथा को आपके सामने लाने का हमारा प्रयास ऐसे ही चलता रहेगा. आशा है आप भी शेयर, कमेंट, लाइक कर हमारा उत्साह बढ़ाते रहेंगे.
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