युधिष्ठर महाराज ने परीक्षित को हस्तिनापुर का राज्य सौंपकर, श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को मथुरा मंडल के राज्य सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया था. महाराज वज्रनाभ ने महाराज परीक्षित और महर्षि शांडिल्य के सहयोग से मथुरा मंडल की पुन: स्थापना करके उसकी सांस्कृतिक छवि का पुनरूद्वार किया और वहां अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया.
महाराज वज्रनाभ कंस के कारागार स्थल को तोड़कर वहां पर अपने परदादा (भगवान श्रीकृष्णचन्द्र) का भव्य मंदिर स्थापित किया. ज्ञात रहे - भरतपुर राजवंश अपने आपको इन्ही महाराजा बज्रभान का वंशज मानता है. समय समय पर अनेकों राजाओं ने इस मंदिर का विस्तार और सौन्दर्यकरण किया.
यहाँ कालक्रम में अनेकों गगनचुम्बी भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ. इनमें से कुछ तो समय के साथ नष्ट हो गये और कुछ को विधर्मियों ने नष्ट कर दिया। एक शिलालेख के अनुसार कोई राजा "वसु" ने वहां पर तोरण द्वार बनबाया। ज्ञात इतिहास के अनुसार यदुवंशी राजा ब्रजनाम (भरतपुर नरेश के पूर्वज) ने 80 वर्ष ईसा पूर्व यहाँ मंदिर का पुनरुयद्धार कराया था.
अपने भाई भर्तहरि के आदेश पर उज्जैन के राजा वीर विक्रमा दित्य ने भी अयोध्या, हरिद्वार और विष्णु स्तम्भ के साथ इसका विस्तार किया. उन्होंने हरिद्वार में गंगा नदी के किनारे हरि की पौड़ी, अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर, दिल्ली के निकट विष्णु स्तम्भ बेधशाला और मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थल पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया.
हूण और कुषाण के हमलों में इस मंदिर के ध्वस्त होने के बाद गुप्तकाल के सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने सन् 400 ई० में नए सिरे से एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था. इस मंदिर को महमूद गजनवी ने ध्वस्त कर दिया था. कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा में बने भव्य मंदिर को देखकर लुटेरा महमूद गजनवी भी आश्चर्यचकित रह गया था.
उसके मीर मुंशी अल उत्वी ने अपनी पुस्तक तारीखे यामिनी में लिखा है कि गनजवी ने मंदिर की भव्यता देखकर कहा था कि इस मंदिर के बारे में बखान करना नामुमकिन है. उसका अनुमान था कि वैसा भव्य मंदिर बनाने में दस करोड़ दीनार खर्च करने होंगे और इसमें दो सौ साल लगेंगे. सन् 1017-18 में महमूद गजनवी ने मथुरा के समस्त मंदिर तुड़वा दिए थे,
लेकिन उसके लौटते ही मंदिर बन गए. मथुरा के मंदिरों के टूटने और बनने का सिलसिला भी कई बार चला. बाद में इसे महाराजा विजयपाल देव के शासन में सन् 1150 ई. में "जज्ज" नामक किसी व्यक्ति ने बनवाया. यह मंदिर पहले की अपेक्षा और भी विशाल था, जिसे 16वीं शताब्दी के आरंभ में सिकंदर लोदी ने नष्ट करवा डाला।
ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जूदेव बुन्देला ने पुन: इस खंडहर पड़े स्थान पर एक भव्य और पहले की अपेक्षा विशाल मंदिर बनवाया. इसके संबंध में कहा जाता है कि यह इतना ऊंचा और विशाल था कि यह आगरा से दिखाई देता था लेकिन इसे भी औरंगजेब 1670 में नष्ट कर इसकी भवन सामग्री से ही वहां भव्य ईदगाह बनवा दी.
इस ईदगाह के पीछे ही महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी की प्रेरणा से पुन: एक मंदिर स्थापित किया गया है, इसके लिये मदनमोहन मालवीयजी ने जुगलाल किशोर बिड़ला जी सहित कई उद्योगपतियों सेआर्थिक सहयोग लिया. लेकिन अब यह विवादित क्षेत्र बन चुका है क्योंकि जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह है और आधे पर मंदिर.
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