Thursday, 13 December 2018

वीर छत्रसाल"



इत जमुना उत नर्मदा 
इत चंबल उत टोंस।
छत्रसाल से लरन की 
रही न काहू होंस।।

जिस प्रकार समर्थ गुरु रामदास के कुशल निर्देशन में छत्रपति शिवाजी ने, अपने पौरुष, पराक्रम और चातुर्य से मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे, ठीक उसी प्रकार गुरु प्राणनाथ के मार्गदर्शन में छत्रसाल ने अपनी वीरता, चातुर्यपूर्ण रणनीति से और कौशल से विदेशियों को परास्त किया था. मुग़ल आतताइयों के लिए छत्रसाल नाम भय का पर्याय था.
बुंदेलखंड के शिवाजी के नाम से प्रख्यात छत्रसाल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल 3 संवत 1706 विक्रमी तदनुसार दिनांक 17 जून, 1648 ईस्वी को एक पहाड़ी ग्राम में हुआ था. इस बहादुर वीर बालक की माता का नाम लालकुँवरि था और पिता का नाम चम्पतराय था. बालक छत्रसाल तलवारों की खनक और युद्ध की भयंकर मारकाट के बीच बड़े हुए.
माता लालकुँवरि की धर्म व संस्कृति से संबंधित कहानियाँ बालक छत्रसाल को बहादुर बनाती रहीं. बालक छत्रसाल मामा के यहाँ रहता हुआ अस्त्र-शस्त्रों का संचालन और युद्ध कला में पारंगत होता रहा. दस वर्ष की अवस्था तक छत्रसाल कुशल सैनिक बन गए थे. सोलह साल की अवस्था में छत्रसाल को अपने माता-पिता की छत्रछाया से वंचित होना पड़ा.
पिता की मौत के बाद मुग़ल सरदारों ने उनकी जागीर पर कब्ज़ा कर लिया. छत्रसाल ने धैर्यपूर्वक और समझदारी से काम लिया और माँ के गहने बेचकर छोटी सी सेना खड़ी की. उन्होंने अपने साथ ऐसे हिन्दूओं को जोड़ना शुरू किया जो मुग़लिया जुल्म के शिकार थे. या फिर जो हिन्दू धर्म के प्रति कट्टर थे और इसकी रक्षा के लिए मरने मारने को तैयार रहते थे.
उन्होंने आसपास के छोटे छोटे राजाओं और जागीरदारों को, मुग़ल सत्ता के खिलाफ संगठित करना शुरू किया. बहुत से लोग उनके साथ आ गए , जो साथ नहीं आये उनसे युद्ध कर पराजित किया. उन राज्यों की आम हिन्दू जनता भी छत्रसाल का समर्थन करने लगी. इस प्रकार वे अपने क्षेत्र विस्तार करते रहे और धीरे-धीरे सैन्य शक्ति बढ़ाते गए.
दिल्ली तख्त पर विराजमान औरंगजेब भी छत्रसाल के पौरुष और उसकी बढ़ती सैनिक शक्ति को देखकर चिंतित हो उठा था. छत्रसाल की युद्ध नीति और कुशलतापूर्ण सैन्य संचालन से अनेक बार औरंगजेब की सेना को हार माननी पड़ी. छत्रसाल ने धीरे-धीरे अपनी प्रजा को सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ पहुँचाकर प्रजा का विश्वास प्राप्त कर लिया था.
छत्रसाल ने हिन्दू समाज के प्रत्येक वर्ग और वर्ण से अपनी सेना के लिए प्रतिनिधि चुनने शुरू किये. वे जानते थे कि जब तक समाज के प्रत्येक वर्ग के भीतर वीरता नहीं जगेगी तब तक एक शक्तिशाली हिन्दू समाज खड़ा नहीं हो पायेगा. उन्होंने समाज के उपेक्षित वर्ग का अपनी सेना तथा दुश्मन की जासूसी के लिए बहुत अच्छा उपयोग किया.
छत्रसाल ने पहला बड़ा आक्रमण अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात कर, उनकी जागीर छिनवाने वाले मुगल मातहत "कुंअरसिंह" पर किया और उसकी मदद को आये हाशिम खां को भागने पर मजबूर कर दिया. उसके बाद ग्वालियर के सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया. मुनव्वर खां को हराने के बाद और भी राजा उनके साथ आ गए.
छत्रसाल, छत्रपति शिवाजी महाराज से बहुत प्रभावित थे. उन दिनों दक्षिण / पश्चिम क्षेत्र में शिवाजी महाराज ने, मुगलों के छक्के छुडा रक्खे थे. वे शिवाजी से जाकर मिले थे. उनसे शिवाजी ने कहा - तुम बुंदेलखंड में हिन्दुओं को एकजुट करते रहो और इसे अपनी निजी सत्ता की लड़ाई न मानकर हिंदुत्व के स्वाभिमान की लड़ाई बना दो
शिवाजी महाराज की सलाह पर अमल करके उन्होंने बुंदेलखंड को एक शक्तिशाली राज्य बना दिया था. छतरपुर नगर छत्रसाल का बसाया हुआ नगर है. छत्रसाल तलवार के धनी और कुशल शस्त्र संचालक थे, साथ ही वे शास्त्रों का भी बहुत आदर करते थे. वे स्वयं भी बड़े विद्वान और कवि थे और शांतिकाल में कविता भी लिखते थे.
छत्रसाल कहते थे कि - जहाँ शस्त्र से राष्ट्र की रक्षा होती है वहाँ पर ही शास्त्र सुरक्षित रहते हैं. शिवाजी महाराज के दरबार के राजकवि "भूषण" ने भी छत्रसाल की वीरता और बहादुरी की प्रशंसा में अनेक कविताएँ लिखीं. 'छत्रसाल-दशक' में इस वीर बुंदेले के शौर्य और पराक्रम की गाथा है. छत्रसाल की राजधानी महोबा थी.
औरंगजेब के साथ हुए मुकाबले में औरंगजेब को मारने की स्थिति में होने के बाबजूद उन्होंने अपने गुरु प्राणनाथ के दिए खंजर से बार करके छोड़ दिया था. कहा जाता है कि - गुरु प्राण नाथ ने उस खंजर पर कुछ ऐसी दवा लगाईं थी कि - उससे होने वाला घाव कभी सही न हो और घायल काफी समय तक तड़पते हुए दर्दनाक मौत मरे.
ऐसी दर्दनाक मौत देने का उद्देश्य औरंगजेब को, उसके द्वारा भारतवाशियों को दिए गये दर्द की याद दिला दिला कर मारना. औरंगशाही में औरंगजेब ने स्वयं लिखा है कि- "मुझे प्राण नाथ और छत्रसाल ने छल से मारा है ". उसके बाद भारतीय राजाओं से चौथ बसुलाने वाले अनेक मुगल फौजदार, स्वयं ही छत्रसाल को चौथ देने लगे थे.
छत्रसाल अत्यंत धार्मिक स्वभाव के थे. युद्धभूमि में हों या राजमहल में, छत्रसाल दैनिक पूजा अर्चना करना कभी नहीं भूलते थे. छत्रसाल ने गौ-रक्षा के लिए बचपन से ही प्रतिबद्ध होकर कार्य किया. दस बर्ष की आयु में उन्होंने कसाइयों से लड़कर गायों की रक्षा की थी. 83 वर्ष की आयु में 14 दिसंबर 1731 ईस्वी को स्वर्गवास हो गया था.
"वीर छत्रसाल" की छत्रसाल की प्रशंसा में किसी कवि ने कहा है :-
'छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय.
जित-जित घोड़ा मुख करे, तित-तित फत्ते होय'

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