Monday, 17 December 2018

हुनत सिंह राठौर

1971 के युद्ध में लाहोर को घेरने में मुख्य भूमिका निभाने वाले
महान सैन्य रणनीतिकार लेफ्टीनेंट जनरल, महावीर "हनुत सिंह राठौर" **********************************************************************
भारतीय सेना के भूतपूर्व लेफ्टिनेंट जनरल महावीर "हनुत सिंह राठौर" भारतीय सेना के महान जनरलों में गिने जाते हैं,.1965 और 1971 की लड़ाइयों में पापिस्तान के ऊपर विजय में उनका बहुत योगदान माना जाता है. वे आजीवन ब्रह्मचारी रहे और रिटायरमेंट के बाद भी बिना वेतन के सेना को अपनी सेवा देते रहे थे.
भारतीय सेना में उनके जूनियर्स, उनको सम्मान से "गुरुदेव" कहकर पुकारते थे. हनूट सिंह का जन्म 6 जुलाई 1933 को बाड़मेर जिले के जसोल नामक कसबे में हुआ था. उनके पिता अर्जुन सिंह भी भारतीय सेना में लेफ्टीनेंट कर्नल के पद पर थे. भाजपा के सीनियर नेता और पूर्व विदेश एवं रक्षामंत्री जसवंत सिंह उनके चचेरे भाई थे.
देहरादून के कर्नल ब्राउन कालेज से 12वीं पास करने के बाद. देहरादून NDA में भरती हुए. NDA के बाद वे सेना में सेकिंड लेफ्टीनेंट के रूप में शामिल हो गए. दिसंबर 1952 में उन्हें पूना हार्स कैलीवारी रेजीमेंट में कमीशन दिया गया. उन्होंने "17 पूना हार्स" की कमान सम्हाली जिसने बसंतर के युद्ध में पापिस्तान की 8 आर्म्ड ब्रिगेड का सफाया किया था.
वे पोलो के बेहतरीन खिलाड़ी थे. उन्हें "पोलोब्लू" के खिताब से भी सम्मानित किया गया था. असाधारण सेनानायक होने के साथ साथ वे बहुत ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे. इस कारण कुछ ही समय में वे "गुरुदेव" के नाम से विख्यात ही गए. 1965 के भारत पापिस्तान युद्द में उनकी व्यूह रचना का लोहां, अमेरिका ने भी माना था.
1965 में पापिस्तान ने 264 पैटर्न टैंकों के साथ "आपरेशन ग्रेंड स्लैम" के तहत पंजाब के खेमकरण सेक्टर में, "असाल उताड़" पर आक्रमण कर दिया था. इस हमले से निपटने की जिम्मेदारी "हरबख्श सिंह", "गुरुबख्श सिंह" और "हनूत सिंह" को दी गई. "हरबख्श सिंह", "गुरुबख्श" ने व्यूह रचना की जिम्मेदारी "हनूत सिंह" को सौंप दी.
उनके पास शर्मन और सेंचुरियन जैसे 135 साधारण टैंक थे. कुछ सैनिको के पास कुछ गनमाउंटेड जीप थी. काफी सैनिको के पास केवल थ्री नाट थ्री रायफलें ही थी जो युद्द क्षेत्र में मात्र बच्चों के खिलौने के समान कही जा सकती है. उनकी व्यूह रचना और मोटीवेशन ने सैनको के हौशले को बुलंद बनाया हुआ था.
जब सैनको के सामने बौद्धिक (भाषण) देते थे तो सैनिको में अपार जोश भर जाता था. इस लड़ाई में पापिस्तान के सौ से ज्यादा टैंक नष्ट हुए थे, जिसमे से 7 टैंक तो अकेले "वीर अब्दुल हमीद" ने अपनी गनमाउंटेड जीप से तोड़े थे. 1965 के युद्ध में पापिस्तान के "आपरेशन ग्रेंड स्लैम" को विफल करने में उनका बहुत बड़ा योगदान था.
1965 के युद्ध के बाद उन्होंने 1971 के युद्ध में भी बड़ी भूमिका निभाई. 1971 के युद्ध में उन्होंने 47 इन्फेंट्री ब्रिगेड को कमांड किया था. इस ब्रिगेड को शकरगढ़ सेक्टर में बसंतर नदी के पास तैनात किया गया था. पापिस्तानी सेना ने नदी के आसपास बहुत सारी लैंड माइंस बिछाई हुई थीं. उनकी ब्रिगेड उन्हें विफल करते हुए नदी पार कर गई.
इस युद्ध में उनकी ब्रिगेड ने पापिस्तान की सेना के 48 टैकों को नष्ट कर, 16 दिसंबर 1971 को लाहोर को घेर लिया था. वे लाहोर पर हमला करना चाहते थे लेकिन जनरल मानेकशा ने उनको सीधा आदेश दिया कि- हम पापिस्तान को "ढाका" आत्मसमर्पण करने की तैयारी कर रहे हैं, इसलिए थोडा इन्तजार करो.
यदि पापिस्तान आत्म कर देता है तो ठीक है वर्ना लाहोर पर सीधा हमला शुरू कर देना. ढाका में मात्र तीन हजार भारतीय सैनिको के सामने पापिस्तान के 30,000 सैनिको ने जो आत्मसमर्पण किया था उसके पीछे "हनूत सिंह" द्वारा लाहोर की घेराबंदी भी. इसका एक बहुत बड़ा कारण थी. इसके लिए उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया.
वरीयता और योग्यता के हिसाव से उनका 1987 में थल सेनाध्यक्ष बनना तय था. इसके लिए जनवरी 1987 में एक दिन उनको प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने खुद फोन किया

, परन्तु जब फोन आया तो वे पूजा में बैठे हुए थे. उन्होंने कहा कि - मैं पूजा के बाद बात करूँगा. यह बात राजीव गांधी को बुरी लगी और इसे अपना अपमान समझा.
इतनी सी बात से नाराज हो जाने के कारण राजीव गांधी ने, उनकी बरिष्ठ्ता, शानदार सर्विस रिकार्ड और महावीर चक्र विजेता होने के बाबजूद, लेफ्टिनेंट जनरल हनूत सिंह को दर किनार कर, उनके जूनियर "विश्वनाथ शर्मा" को भारत का अगला थलसेनाध्यक्ष बनवा दिया था. जिसका बिरोधी पार्टियों ने भी काफी बिरोध किया था.
परन्तु "हनूत सिंह जी" एक वैरागी व्यक्ति थे. उन्होंने जीवनभर निष्काम कर्म किया था इसलिए उन्हें इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ा. 31 जुलाई 1991 में वे सेना से रिटायर हो गए और उन्होंने बिना वेतन सेना की सेवा करने की विशेष अनुमति भी ले ली. इसके अलावा वे देहरादून में ही राजपुर रोड पर "शिववाला योगी आश्रम" में साधना करने लगे.
वे मांस और मदिरा के सख्त खिलाफ थे. 11 अप्रेल 2015 को देहरादून में कुर्सी पर बैठे बैठे ध्यान मुद्रा में ही समाधि में प्रवेश कर गए. वे सेना में रहते हुए भी अध्यात्म से जुड़े रहे लेकिन उन्होंने कभी भी अध्यात्म को सैनिक की कमजोरी नहीं बन्ने दिया बल्कि उसे सैनिक की ताकत बनाया. उनको महान सैन्य रणनीतिकार के रूप में याद किया जाता है.

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