Saturday, 29 December 2018

कांग्रेसियों की अंधभक्ति या चमचागिरी


अपनी हार पर आजकल EVM का रोना रो रहे हैं. जो लोग कांग्रेस का चरित्र जानते हैं उनके लिए यह बात बहुत मामूली लगेगी. हमेशा सत्ता में रहने के आदी कांग्रेसियों से हर बर्दाश्त नहीं होती है. अभी तो यह केवल EVM और चुनाव आयोग पर आरोप लगाकर ही खामोश हो जाते हैं, जबकि पहले तो ये लोग हवाई जहाज भी हाईजैक कर लेते थे.
समय समय पर कांग्रेसी अपना असली चेहरा दिखाते रहे है, लेकिन न जाने क्यों देश की जनता फिर भी इनके बहकावे में आ जाती है. ऐसी ही एक घटना 20 दिसंबर 1978 की है जो कांग्रेस का चरित्र बताने के लिए पर्याप्त है. यह तब की घटना है जब जनता ने कांग्रेस को उखाड़ कर जनता पार्टी की सरकार बना दी थी और मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री थे.
20 दिसम्बर 1978 की बात है. लखनऊ से दिल्ली जाने वाली इंडियन एयरलाइंस के जहाज बोईंग 737 की फ्लाइट संख्या IC 410 को, उड़ान भरते ही हाईजैक कर लिया गया था. हैजैकर थे, इंडियन यूथ कांग्रेस के दो सदस्य आजमगढ़ का "भोला पांडे" और बलिया का "देवेन्द्र पांडे". उस समय इस हवाई जहाज में 130 के यात्री थे.
उन दोनो हथियार बंद हाईजैकर्स ने यात्रियों को रिहा करने के बदले में तीन मांगे रखी थी. एक इंदिरा गांधी को जेल से रिहा किया जाय, दुसरी संजय गांधी और इंदिरा गांधी के खिलाफ सारे आपराधिक मामले बंद किये जायें और तीसरी मांग यह थी कि जनता पार्टी की सरकार अपना इस्तीफा दे. मांग न मानने पर यात्रियों को मारने की धमकी दी.
उ. प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री राम नरेश यादव के साथ बातचीत होने के बाद, उन हाईजैकर्स ने सरेंडर किया. कांग्रेस के अलाबा सभी पार्टीयों ने इस घटना की निंदा की. कांग्रेस ने बेशर्मी दिखाते हुए इस घटना को एक मजाक समझकर भूल जाने को कहा. कांग्रेस इतने पर भी नहीं रुकी, इसकी तुलना महात्मा गांधी के नमक आन्दोलन से कर डाली .
इस मामले में देवेंद्र पाण्डेय और भोला पांडेय 9 माह 28 दिन लखनऊ की जेल में रहे थे. इसके बाद इंदिरा गांधी ने उन्हें 1980 के विधानसभा चुनाव में अपना उम्मीदवार बनाया था और दोनों बिधायक बन गए. कांग्रेस की सरकार आने के बाद उनके ऊपर से मुकदमा वापस ले लिया गया. बाद में भोला पांडे को 5 बार लोकसभा का टिकट भी दिया गया.
कांग्रेस ने आजतक कभी इस घटना की निंदा नहीं की. संसद में चर्चा के दौरान कांग्रेस के बसंत साठे और आर वेंकटरमन ने इसे "सत्ता विरोध करने का अधिकार" तक कह डाला. इन हाईजैकर्स की तरफदारी करने वाले बसंत साठे मंत्री बने और आर. वेंकटरामन आगे जाकर देश के राष्ट्रपति बने. यह है कांग्रेस का चरित्र .
ऐसे तरीको में नाकामयाब होने के बाद, इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का लालच देकर बरगलाया. जिसमे वो आ गए और अपनी ही सरकार से गद्दारी कर बैठे. ठीक यही काम वी. पी. सिंह सरकार को हटाने के लिए चन्द्रशेखर को बरगलाकर किया. बीजेपी को हराने के लिए भी केजरीवाल को खडा किया, लेकिन इसमें खुद फंस गए.

Monday, 17 December 2018

हुनत सिंह राठौर

1971 के युद्ध में लाहोर को घेरने में मुख्य भूमिका निभाने वाले
महान सैन्य रणनीतिकार लेफ्टीनेंट जनरल, महावीर "हनुत सिंह राठौर" **********************************************************************
भारतीय सेना के भूतपूर्व लेफ्टिनेंट जनरल महावीर "हनुत सिंह राठौर" भारतीय सेना के महान जनरलों में गिने जाते हैं,.1965 और 1971 की लड़ाइयों में पापिस्तान के ऊपर विजय में उनका बहुत योगदान माना जाता है. वे आजीवन ब्रह्मचारी रहे और रिटायरमेंट के बाद भी बिना वेतन के सेना को अपनी सेवा देते रहे थे.
भारतीय सेना में उनके जूनियर्स, उनको सम्मान से "गुरुदेव" कहकर पुकारते थे. हनूट सिंह का जन्म 6 जुलाई 1933 को बाड़मेर जिले के जसोल नामक कसबे में हुआ था. उनके पिता अर्जुन सिंह भी भारतीय सेना में लेफ्टीनेंट कर्नल के पद पर थे. भाजपा के सीनियर नेता और पूर्व विदेश एवं रक्षामंत्री जसवंत सिंह उनके चचेरे भाई थे.
देहरादून के कर्नल ब्राउन कालेज से 12वीं पास करने के बाद. देहरादून NDA में भरती हुए. NDA के बाद वे सेना में सेकिंड लेफ्टीनेंट के रूप में शामिल हो गए. दिसंबर 1952 में उन्हें पूना हार्स कैलीवारी रेजीमेंट में कमीशन दिया गया. उन्होंने "17 पूना हार्स" की कमान सम्हाली जिसने बसंतर के युद्ध में पापिस्तान की 8 आर्म्ड ब्रिगेड का सफाया किया था.
वे पोलो के बेहतरीन खिलाड़ी थे. उन्हें "पोलोब्लू" के खिताब से भी सम्मानित किया गया था. असाधारण सेनानायक होने के साथ साथ वे बहुत ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे. इस कारण कुछ ही समय में वे "गुरुदेव" के नाम से विख्यात ही गए. 1965 के भारत पापिस्तान युद्द में उनकी व्यूह रचना का लोहां, अमेरिका ने भी माना था.
1965 में पापिस्तान ने 264 पैटर्न टैंकों के साथ "आपरेशन ग्रेंड स्लैम" के तहत पंजाब के खेमकरण सेक्टर में, "असाल उताड़" पर आक्रमण कर दिया था. इस हमले से निपटने की जिम्मेदारी "हरबख्श सिंह", "गुरुबख्श सिंह" और "हनूत सिंह" को दी गई. "हरबख्श सिंह", "गुरुबख्श" ने व्यूह रचना की जिम्मेदारी "हनूत सिंह" को सौंप दी.
उनके पास शर्मन और सेंचुरियन जैसे 135 साधारण टैंक थे. कुछ सैनिको के पास कुछ गनमाउंटेड जीप थी. काफी सैनिको के पास केवल थ्री नाट थ्री रायफलें ही थी जो युद्द क्षेत्र में मात्र बच्चों के खिलौने के समान कही जा सकती है. उनकी व्यूह रचना और मोटीवेशन ने सैनको के हौशले को बुलंद बनाया हुआ था.
जब सैनको के सामने बौद्धिक (भाषण) देते थे तो सैनिको में अपार जोश भर जाता था. इस लड़ाई में पापिस्तान के सौ से ज्यादा टैंक नष्ट हुए थे, जिसमे से 7 टैंक तो अकेले "वीर अब्दुल हमीद" ने अपनी गनमाउंटेड जीप से तोड़े थे. 1965 के युद्ध में पापिस्तान के "आपरेशन ग्रेंड स्लैम" को विफल करने में उनका बहुत बड़ा योगदान था.
1965 के युद्ध के बाद उन्होंने 1971 के युद्ध में भी बड़ी भूमिका निभाई. 1971 के युद्ध में उन्होंने 47 इन्फेंट्री ब्रिगेड को कमांड किया था. इस ब्रिगेड को शकरगढ़ सेक्टर में बसंतर नदी के पास तैनात किया गया था. पापिस्तानी सेना ने नदी के आसपास बहुत सारी लैंड माइंस बिछाई हुई थीं. उनकी ब्रिगेड उन्हें विफल करते हुए नदी पार कर गई.
इस युद्ध में उनकी ब्रिगेड ने पापिस्तान की सेना के 48 टैकों को नष्ट कर, 16 दिसंबर 1971 को लाहोर को घेर लिया था. वे लाहोर पर हमला करना चाहते थे लेकिन जनरल मानेकशा ने उनको सीधा आदेश दिया कि- हम पापिस्तान को "ढाका" आत्मसमर्पण करने की तैयारी कर रहे हैं, इसलिए थोडा इन्तजार करो.
यदि पापिस्तान आत्म कर देता है तो ठीक है वर्ना लाहोर पर सीधा हमला शुरू कर देना. ढाका में मात्र तीन हजार भारतीय सैनिको के सामने पापिस्तान के 30,000 सैनिको ने जो आत्मसमर्पण किया था उसके पीछे "हनूत सिंह" द्वारा लाहोर की घेराबंदी भी. इसका एक बहुत बड़ा कारण थी. इसके लिए उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया.
वरीयता और योग्यता के हिसाव से उनका 1987 में थल सेनाध्यक्ष बनना तय था. इसके लिए जनवरी 1987 में एक दिन उनको प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने खुद फोन किया

, परन्तु जब फोन आया तो वे पूजा में बैठे हुए थे. उन्होंने कहा कि - मैं पूजा के बाद बात करूँगा. यह बात राजीव गांधी को बुरी लगी और इसे अपना अपमान समझा.
इतनी सी बात से नाराज हो जाने के कारण राजीव गांधी ने, उनकी बरिष्ठ्ता, शानदार सर्विस रिकार्ड और महावीर चक्र विजेता होने के बाबजूद, लेफ्टिनेंट जनरल हनूत सिंह को दर किनार कर, उनके जूनियर "विश्वनाथ शर्मा" को भारत का अगला थलसेनाध्यक्ष बनवा दिया था. जिसका बिरोधी पार्टियों ने भी काफी बिरोध किया था.
परन्तु "हनूत सिंह जी" एक वैरागी व्यक्ति थे. उन्होंने जीवनभर निष्काम कर्म किया था इसलिए उन्हें इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ा. 31 जुलाई 1991 में वे सेना से रिटायर हो गए और उन्होंने बिना वेतन सेना की सेवा करने की विशेष अनुमति भी ले ली. इसके अलावा वे देहरादून में ही राजपुर रोड पर "शिववाला योगी आश्रम" में साधना करने लगे.
वे मांस और मदिरा के सख्त खिलाफ थे. 11 अप्रेल 2015 को देहरादून में कुर्सी पर बैठे बैठे ध्यान मुद्रा में ही समाधि में प्रवेश कर गए. वे सेना में रहते हुए भी अध्यात्म से जुड़े रहे लेकिन उन्होंने कभी भी अध्यात्म को सैनिक की कमजोरी नहीं बन्ने दिया बल्कि उसे सैनिक की ताकत बनाया. उनको महान सैन्य रणनीतिकार के रूप में याद किया जाता है.

Thursday, 13 December 2018

वीर छत्रसाल"



इत जमुना उत नर्मदा 
इत चंबल उत टोंस।
छत्रसाल से लरन की 
रही न काहू होंस।।

जिस प्रकार समर्थ गुरु रामदास के कुशल निर्देशन में छत्रपति शिवाजी ने, अपने पौरुष, पराक्रम और चातुर्य से मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे, ठीक उसी प्रकार गुरु प्राणनाथ के मार्गदर्शन में छत्रसाल ने अपनी वीरता, चातुर्यपूर्ण रणनीति से और कौशल से विदेशियों को परास्त किया था. मुग़ल आतताइयों के लिए छत्रसाल नाम भय का पर्याय था.
बुंदेलखंड के शिवाजी के नाम से प्रख्यात छत्रसाल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल 3 संवत 1706 विक्रमी तदनुसार दिनांक 17 जून, 1648 ईस्वी को एक पहाड़ी ग्राम में हुआ था. इस बहादुर वीर बालक की माता का नाम लालकुँवरि था और पिता का नाम चम्पतराय था. बालक छत्रसाल तलवारों की खनक और युद्ध की भयंकर मारकाट के बीच बड़े हुए.
माता लालकुँवरि की धर्म व संस्कृति से संबंधित कहानियाँ बालक छत्रसाल को बहादुर बनाती रहीं. बालक छत्रसाल मामा के यहाँ रहता हुआ अस्त्र-शस्त्रों का संचालन और युद्ध कला में पारंगत होता रहा. दस वर्ष की अवस्था तक छत्रसाल कुशल सैनिक बन गए थे. सोलह साल की अवस्था में छत्रसाल को अपने माता-पिता की छत्रछाया से वंचित होना पड़ा.
पिता की मौत के बाद मुग़ल सरदारों ने उनकी जागीर पर कब्ज़ा कर लिया. छत्रसाल ने धैर्यपूर्वक और समझदारी से काम लिया और माँ के गहने बेचकर छोटी सी सेना खड़ी की. उन्होंने अपने साथ ऐसे हिन्दूओं को जोड़ना शुरू किया जो मुग़लिया जुल्म के शिकार थे. या फिर जो हिन्दू धर्म के प्रति कट्टर थे और इसकी रक्षा के लिए मरने मारने को तैयार रहते थे.
उन्होंने आसपास के छोटे छोटे राजाओं और जागीरदारों को, मुग़ल सत्ता के खिलाफ संगठित करना शुरू किया. बहुत से लोग उनके साथ आ गए , जो साथ नहीं आये उनसे युद्ध कर पराजित किया. उन राज्यों की आम हिन्दू जनता भी छत्रसाल का समर्थन करने लगी. इस प्रकार वे अपने क्षेत्र विस्तार करते रहे और धीरे-धीरे सैन्य शक्ति बढ़ाते गए.
दिल्ली तख्त पर विराजमान औरंगजेब भी छत्रसाल के पौरुष और उसकी बढ़ती सैनिक शक्ति को देखकर चिंतित हो उठा था. छत्रसाल की युद्ध नीति और कुशलतापूर्ण सैन्य संचालन से अनेक बार औरंगजेब की सेना को हार माननी पड़ी. छत्रसाल ने धीरे-धीरे अपनी प्रजा को सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ पहुँचाकर प्रजा का विश्वास प्राप्त कर लिया था.
छत्रसाल ने हिन्दू समाज के प्रत्येक वर्ग और वर्ण से अपनी सेना के लिए प्रतिनिधि चुनने शुरू किये. वे जानते थे कि जब तक समाज के प्रत्येक वर्ग के भीतर वीरता नहीं जगेगी तब तक एक शक्तिशाली हिन्दू समाज खड़ा नहीं हो पायेगा. उन्होंने समाज के उपेक्षित वर्ग का अपनी सेना तथा दुश्मन की जासूसी के लिए बहुत अच्छा उपयोग किया.
छत्रसाल ने पहला बड़ा आक्रमण अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात कर, उनकी जागीर छिनवाने वाले मुगल मातहत "कुंअरसिंह" पर किया और उसकी मदद को आये हाशिम खां को भागने पर मजबूर कर दिया. उसके बाद ग्वालियर के सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया. मुनव्वर खां को हराने के बाद और भी राजा उनके साथ आ गए.
छत्रसाल, छत्रपति शिवाजी महाराज से बहुत प्रभावित थे. उन दिनों दक्षिण / पश्चिम क्षेत्र में शिवाजी महाराज ने, मुगलों के छक्के छुडा रक्खे थे. वे शिवाजी से जाकर मिले थे. उनसे शिवाजी ने कहा - तुम बुंदेलखंड में हिन्दुओं को एकजुट करते रहो और इसे अपनी निजी सत्ता की लड़ाई न मानकर हिंदुत्व के स्वाभिमान की लड़ाई बना दो
शिवाजी महाराज की सलाह पर अमल करके उन्होंने बुंदेलखंड को एक शक्तिशाली राज्य बना दिया था. छतरपुर नगर छत्रसाल का बसाया हुआ नगर है. छत्रसाल तलवार के धनी और कुशल शस्त्र संचालक थे, साथ ही वे शास्त्रों का भी बहुत आदर करते थे. वे स्वयं भी बड़े विद्वान और कवि थे और शांतिकाल में कविता भी लिखते थे.
छत्रसाल कहते थे कि - जहाँ शस्त्र से राष्ट्र की रक्षा होती है वहाँ पर ही शास्त्र सुरक्षित रहते हैं. शिवाजी महाराज के दरबार के राजकवि "भूषण" ने भी छत्रसाल की वीरता और बहादुरी की प्रशंसा में अनेक कविताएँ लिखीं. 'छत्रसाल-दशक' में इस वीर बुंदेले के शौर्य और पराक्रम की गाथा है. छत्रसाल की राजधानी महोबा थी.
औरंगजेब के साथ हुए मुकाबले में औरंगजेब को मारने की स्थिति में होने के बाबजूद उन्होंने अपने गुरु प्राणनाथ के दिए खंजर से बार करके छोड़ दिया था. कहा जाता है कि - गुरु प्राण नाथ ने उस खंजर पर कुछ ऐसी दवा लगाईं थी कि - उससे होने वाला घाव कभी सही न हो और घायल काफी समय तक तड़पते हुए दर्दनाक मौत मरे.
ऐसी दर्दनाक मौत देने का उद्देश्य औरंगजेब को, उसके द्वारा भारतवाशियों को दिए गये दर्द की याद दिला दिला कर मारना. औरंगशाही में औरंगजेब ने स्वयं लिखा है कि- "मुझे प्राण नाथ और छत्रसाल ने छल से मारा है ". उसके बाद भारतीय राजाओं से चौथ बसुलाने वाले अनेक मुगल फौजदार, स्वयं ही छत्रसाल को चौथ देने लगे थे.
छत्रसाल अत्यंत धार्मिक स्वभाव के थे. युद्धभूमि में हों या राजमहल में, छत्रसाल दैनिक पूजा अर्चना करना कभी नहीं भूलते थे. छत्रसाल ने गौ-रक्षा के लिए बचपन से ही प्रतिबद्ध होकर कार्य किया. दस बर्ष की आयु में उन्होंने कसाइयों से लड़कर गायों की रक्षा की थी. 83 वर्ष की आयु में 14 दिसंबर 1731 ईस्वी को स्वर्गवास हो गया था.
"वीर छत्रसाल" की छत्रसाल की प्रशंसा में किसी कवि ने कहा है :-
'छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय.
जित-जित घोड़ा मुख करे, तित-तित फत्ते होय'

Sunday, 9 December 2018

परमवीर निर्मल जीत सिंह सेखों

फ्लाइंग ऑफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों के शहीदी दिवस (14 दिसम्बर) पर सदर नमन
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1971 का भारत पापिस्तान युद्ध अपने अंतिम चरण में पहुँच चूका था. भारत ने पापिस्तान को हर क्षेत्र में मात दी थी. पूर्वी पापिस्तान में हमारी थलसेना और मुक्तिवाहिनी ने मिलकर पापिस्तानी सेना के हौशले पश्त कर दिए थे, पापिस्तनी पंजाब और सिंध के बड़े क्षेत्र भारतीय सेना के कब्जे में आ चुके थे.
कराची बंदरगाह तबाह हो चूका था और भारतीय नौसेना ने उसे घेर रखा था. ऐसे में पापिस्तान को लगा कि - अब किसी तरह कश्मीर को शेष भारत से अलग थलग किया जाए. उनको पता था कि - अगर कश्मीर को हवाई मदद बंद हो जाए तो दुर्गम क्षेत्र होने के कारण पापिस्तानी थलसेना वहां पर ज्यादा प्रभावी रहेगी.
पापिस्तान को यह भी पता था कि - संयुक्त राष्ट्र समझौते के कारण कश्मीर के चेत्र में कोई भारतीय लड़ाकू विमान नहीं रहते और न ही वहां पर रडार लगाए गए हैं. पापिस्तान को भी उस क्षेत्र के आसपास लड़ाकू विमान उड़ाने की इजाजत नहीं थी. भारत को खबर लग चुकी थी कि पापिस्तान वहा हवाई हमला अवश्य करेगा.
3 दिसंबर 1971 को भारत पापिस्तान युद्ध शुरू होने के बाद, भारतीय वायुसेना ने, अहतियात के तौर पर, अम्बाला से चार Gnats लड़ाकू विमान श्री नगर भेज दिए गए थे. इन्हें स्कैरडन लीडर "पठानिया", फ्लाईट लेफ्टीनेंट "बोप्य्या", फ्लाईट लेफ्टीनेंट "घुम्मन" और युवा फ़्लाइंग आफिसर निर्मलजीत सेखो उड़ा रहे थे.
पापिस्तान ने श्रीनगर एयरपोर्ट को नष्ट करने की योजना बनाई. 14 दिसम्बर 1971 को श्रीनगर एयरफील्ड पर पाकिस्तान के छह सैबर जेट विमानों ने हमला किया था. जैसे ही यह 6 पापिस्तानी जेट भारतीय सीमा में दाखिल हुए डोडा सेक्टर की चौकी से चेताबनी जारी की गई कि- पापिस्तानी हम्लाबर विमान श्रीनगर की तरह बढ़ रहे हैं.
सुबह 8 बजकर 2 मिनट पर चेताबनी मिली. उस समय फ्लाइंग ऑफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों और फ्लाइंग लैफ्टिनेंट घुम्मन अपने अपने Gnats के साथ थे. बिना किसी आदेश की प्रतीक्षा किये वे दोनों अपने अपने फाइटर में सवार हो गए. उन्होंने उड़ान भरने का संकेत दिया और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये 10 सेकण्ड बाद उड़ान भर दी.
उनकी तेजी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि - 8 बजकर 2 मिनट पर चेताबनी मिली थी और 8 बजकर 4 मिनट पर वे दोनों आसमान में थे. पहले लैफ्टिनेंट घुम्मन के जेट ने उड़ान भरी और उसके तुरंत बाद निर्मल जीत सेखों ने. घुम्मन ने अपना जहाज दुश्मन के पीछे लगा दिया. उनके रन वे छोड़ते ही एक बम ठीक उनके पीछे आकर गिरा.
उस बम के कारण सारी एयर फील्ड धुएं से भर गई और निर्मलजीत का संपर्क घुम्मन से टूट गया. पापिस्तानी जेट निर्मल जीत के सामने थे .पापिस्तान के 5 सेवर जेटों ने उनको एक तरह से घेर लिया था. घुम्मन का जहाज काफी आगे निकल चूका था. घुम्मन ने अपने जहाज को गोता लगाकर पलटा और निर्मलजीत की मदद के लिए बढे.
इससे पहले की घुम्मन उनकी मदद को पहुँच पाते, पापिस्तानी जहाज़ों ने निर्मलजीत के जेट को नष्ट करने की तैयारी कर ली. दुश्मन के इरादे को जानकार निर्मलजीत ने आत्मघाती गोता लगाते हुए दुशमन पर फायर कर दिए, दो दुश्मन जहाजो को उनके निशाने बिलकुल ठीक जगह पर लगे और तीसरे से उनका जहाज जा टकराया.
इस प्रकार उन्होंने दूश्मन के तीन जहाज नष्ट कर दिए और इस काम को करते हुए खुद भी देश के लिए शहीद हो गए. इधर लेफ्टीनेंट घुम्मन भी पलट कर आ चुके थे और तब तक स्कैरडन लीडर "पठानिया" तथा फ्लाईट लेफ्टीनेंट "बोप्य्या" ने भी उड़ान भर ली थी. उनको आते देख तीनो बचे हुए पापिस्तानी जहाज वापस भाग निकले.
हवाई हमलो में सारा खेल मात्र कुछ सेकंड्स का होता है और तुरंत लिए निर्णय ही जीत / हार का कारण बनते हैं. उन दोनों ने अगर चेताबनी मिलते ही तुरंत तेजी न दिखाई होती तो वो पापिस्तानी जहाज निश्चित रूप से हवाई अड्डे को नष्ट कर देते और तब कश्मीर में भारत को निश्चित रूप से बहुत मुश्किल आनी थी.
पहाडी दुर्गम क्षेत्र होने के कारण कभी भी उनकी लाश नहीं मिल सकी. युद्ध की समाप्ति के बाद फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों को युद्ध में असाधारण बहादुरी दिखाने के लिए मरणोपरांत "परमवीर चक्र" प्रदान किया गया. आजतक के सैन्य इतिहास में परमवीर चक्र पाने वाले " निर्मलजीत सिंह सेखों" एकमात्र वायु सैनिक हैं.

शिवाजी महारज की वहू ( रानी तारा बाई )

मुघलों को दक्षिण भारत में बढ़ने से रोकने वाली
राजमाता रानी ताराबाई की पुण्यतिथि पर सादर नमन
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यूं तो विदेशी आक्रमणकारियों के शासन काल में भी अनेको हिन्दू रियासतों ने अपनी स्वतंत्रता को कायम रखा था लेकिन सहीं मायने में हिन्दू साम्राज्य की पुनर्स्थापना का श्रेय छत्रपति शिवाजी महाराज को जाता है. उनके सारे परिवार ने ही देश की आजादी के लिए संघर्ष किया. यह गाथा उनकी बहु "रानी तारा बाई' की है.
"रानी तारा बाई" मराठा सेना के सर सेनापति हम्बीरराव मोहिते की पुत्री तथा छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे "राजाराम महाराज"की पत्नी थी. शिवाजी के बाद 1680 में उनके बड़े पुत्र सँभाजी महाराज ने माराठा साम्राज्य की बागडोर सम्हाली थी. 1689 औरंगजेब द्वारा उनको धोखे से गिराफ्तार कर टुकड़े टुकड़े कर मार डाला गया था.
संभाजी महाराज "शाहू जी" का भी औरंगजेब ने अपहरण कर लिया और अपने हरम में बंद कर दिया. औरंगजेब यह सोचकर खुश था कि अब उसकी विजय निश्चित ही है क्योकि उसने लगभग मराठा साम्राज्य और उसके उत्तराधिकारियों को खत्म कर दिया है. संभाजी के बेटे को अपह्रत करना का उद्देश्य भविष्य में ब्लेकमेल करना भी था.
लेकिन मराठों ने संभाजी महाराज की मृत्यु और उनके पुत्र के अपहरण के बाद शिवाजी महाराज के छोटे बेटे "राजाराम महाराज"को मराठा साम्राज्य का राजा बना दिया. रानी तारा बाई उनकी ही पत्नी थीं. वे बहुत ही बुद्धिमान और शक्तिशाली महिला थीं. देश का दुर्भाग्य की 1700 में राजाराम महाराज की म्रत्यु हो गई.
पति की म्रत्यु हो जाने के बाद रानी ताराबाई ने अपने पुत्र "शिवाजी द्वितीय" को राजा घोषित किया और स्वयं उनके नाम से राज्य का संचालन करने लगीं. जिस समय मराठा साम्राज्य को अच्छे नेतृत्व की जरुरत थी उस समय ताराबाई ने उस नेतृत्व को अच्छे तरीके से निभाया था और मुग़ल सम्राट औरंगजेब का डटकर सामना किया.
रानी ताराबाई ने साम-दाम-दण्ड-भेद हर प्रकार की सभी पद्धतियाँ अपनाते हुए मराठा सरदारों को अपनी तरफ मिलाया और शासन पर अपनी पकड़ मजबूत की और साथ ही राजाराम की दूसरी रानी राजसबाई को जेल में डाल दिया. अगले कुछ वर्षों तक ताराबाई ने शक्तिशाली बादशाह औरंगजेब के खिलाफ अपना युद्ध जारी रखा.
जिस तरह औरंगजेब धन का लालच (रिश्वत) देकर अन्य राज्यों की सेना के राज पता करता था, ताराबाई ने भी उसकी तकनीक अपनाकर, रिश्वत के बलपर कर मुग़ल सेनाओं के कई राज़ मालूम कर लिए. इसी बीच बुंदेलखंड के राजा वीर छत्रसाल के हाथों घायल होने बाद, नासूर की पीड़ा को झेलते हुए 1707 औरंगजेब की मृत्यु हो गई.
औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगलों ने उसके द्वारा अपहृत किये हुए सँभा जी के पुत्र "शाहूजी" को मुक्त कर दिया, ताकि सत्ता संघर्ष के बहाने मराठों में फूट डाली जा सके. मराठों में फूट डालने के लिए मुघलों ने कहना शुरू कर दिया कि - मराठा सत्ता पर शाहू जी का हक़ होना चाहिए, जैसे कि इतने साल तक उन्होंने दे रखे थे.
यह पता चलते ही रानी ताराबाई ने विभिन्न स्थानों पर दरबार लगाकर जनता को यह बताया कि- इतने वर्ष तक औरंगजेब की कैद में रहने और उसकी पुत्री जेबुन्निशा के द्वारा पाले जाने के कारण शाहू अब मुस्लिम बन चुका है, और वह मराठा साम्राज्य का राजा बनने लायक नहीं है. ताराबाई उसे गद्दार घोषित कर दिया.
मुग़ल सेनाओं के सहयोग से शाहू जी महाराज ने 1708 में सातारा पर हमला कर दिया. शिवाजी महाराज का पौत्र और संभाजी महाराज का पुत्र होने के कारण मराठा सैनिको ने भी उनका कोई ख़ास बिरोध नहीं किया. तब रानी ताराबाई को भी उन्हेे राजा घोषित करना पड़ा. परन्तु इसके साथ मराठा राज्य दो भागों में बंट गया.
मराठे आपस में न लड़ें इसके लिए रानी तारारानी ने एक फार्मूला दिया कि- मुघलों के किलों से चौथ बसुलेंगे लेकिन एक दुसरे के रास्ते में नहीं आयेंगे. बाद में शाहू जी महाराज ने एक अत्यंत वीर योद्धा बालाजी विश्वनाथ को अपना “पेशवा” (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया. बाला जी विश्वनाथ के बाद उनके पुत्र "बाजीराव प्रथम" ने पेशाबाई सम्हाली.
बाजीराव पेशवा ने कान्होजी आंग्रे के साथ मिलकर 1714 में ताराबाई को पराजित किया तथा उनको उनके पुत्र सहित पन्हाला किले में ही नजरबन्द कर दिया, जहाँ ताराबाई और अगले 16 वर्ष कैद रही. 1730 में शाहूजी महाराज ने पारिवारिक विवाद को सुलझाने के उद्देश्य ने रानी ताराबाई और उनके पुत्र को कोल्हापुर की रियासत देकर रिहा कर दिया.
लेकिन अब तक सेना और सत्ता का मुख्य संचालन राज परिवार के बजाय पेशवाओं के हाथ में आ गया था. इस बीच मराठों का राज्य पंजाब की सीमा तक पहुँच चुका था. गायकवाड़, भोसले, शिंदे, होलकर जैसे कई सेनापति इसे संभालते थे, परन्तु इन सभी की वफादारी पेशवाओं के प्रति अधिक थी. अंततः ताराबाई को पेशवाओं से समझौता करना पड़ा.
मराठा सेनापति, सूबेदार, और सैनिक सभी पेशवाओं के प्रति समर्पित थे अतः ताराबाई को सातारा पर ही संतुष्ट होना पड़ा और मराठाओं की वास्तविक शक्ति पूना में पेशवाओं के पास केंद्रित हो गई. शासन की बागडोर भले ही पेशवाओं के हाथ में थी लेकिन मराठा जनता और सेनानायक उनको भी बरावर सम्मान देते थे.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि - शिवाजी, सँभाजी और राजाराम जी की म्रत्यु के बाद अगर राजमाता ताराबाई 
ने सत्ता नहीं सम्हाली होती और अलग अलग मोर्चो पर औरंगजेब को कूटनीतिक मात नहीं दी होती तो, दक्षिण में भी मुघलो का राज होता. 9 दिसंबर 1761 को 73 साल की उम्र में राजामाता ताराबाई  का स्वर्गवास हो गया था.

Saturday, 8 December 2018

कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला एवं अन्य 193 नौ सैनिको के शहादत दिवस पर सादर नमन

पापिस्तान से हुए 1971 के युद्ध में भारत हर मोर्चे पर पापिस्तान पर भारी पडा था , लेकिन एक ऐसी घटना भी घटी थी जिसमे पापिस्तान हमें परेशान करने में कामयाब रहा था. इस घटना में हमें भारी नुकशान हुआ था. इस हमले ने हमारे युद्धपोत "आईएनएस खुखरी" ने 18 अफसर सहित 194 नौ सेना के जवानो के साथ जल समाधि ले ली थी.
पाकिस्तान से युद्ध के दौरान 9 दिसंबर 1971 भारत के दिन पाकिस्तान के "पीएनएस हैंगर" और भारत के "आईएनएस खुखरी" के बीच दीव समुद्र तट से 40 नाटिकल मील दूर पर मुकाबला हुआ. इसी बीच एक पाकिस्तानी सबमरीन की ओर से तीन तारपीडो दागे गए. उस समय खुखरी में भारत के 18 अफसर और 176 नौसैनिक को अपनी जान गंवानी पड़ी.
भले ही हमें पाकिस्तान से युद्ध में विजयश्री मिली लेकिन इस युध्द में खुखरी पर सवार 18 अधिकारियों और 176 नाविकों यानी 194 बहादुर फौजियों को देश ने खो दिया. आईएनएस खुखरी के हादसे में 61 नौ सैनिक और छह अधिकारी अपनी जान बचा पाए थे. खुखरी से बचने के बाद इन लोगों को संयोग से एक नाव मिल गई थी.
आईएनएस खुखरी के कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला चाहते तो अपनी जान बचा सकते थे लेकिन उन्होंने जहाज नहीं छोड़ा और जहाज के साथ जल समाधि ले ली थी. भारत ने इस घटना के दो दिन बाद 11 दिसंबर को जबरदस्त हमला कर, कराची बंदरगाह पर कब्जा कर लिया था. युद्ध की समाप्ति के बाद कैप्टेन महेंद्र नाथ मुल्ला को मरणोपरांत महावीर चक्र दिया गया.
इस घटना और इन शहीदों को हमारी सरकारों ने भुला दिया था. 28 साल बाद 1999 में अटल बिहारी बाजपेई की सरकार के समय में, उन बहादुर सैनिकों की याद में दीव के चक्रतीर्थ बीच, पर "आईएनएस खुखरी का मेमोरियल" बनबाया. यहां पर खुखरी का एक माडल भी बनाया गया है. चक्रतीर्थ बीच दीव शहर से चार किलोमीटर की दूरी पर है.

कौन थे "बलबंत सिंह भाखासर" ?



कल मैंने आपको एक डाकू "बलबंत सिंह भाखासर" की कहानी बताई थी जिसने 1971 के भारत पापिस्तान युद्ध में भारतीय सेना की एक ब्रिगेड को कमांड किया था और पापिस्तान के 100 से ज्यादा गाँवों, छाछरो नाम के कसबे पर और उस इलाके के सभी थानों पर कब्ज़ा कर लिया था. अब मैं आपको बताऊंगा कि - वे कौन थे और डाकू कैसे बने.
"बलबंत सिंह भाखासर" वास्तव में कोई आम लोगों को लूटने वाले डाकू नहीं थे बल्कि एक बाग़ी थे. उस इलाके के पुराने जागीरदार थे. उनकी जागीर राजस्थान और पापिस्तान दोनों में पड़ती थी. बंटबारे में भारत आ जाने पर पापिस्तान वाली जमीन बैसे ही छुट गई थी और नेहरु की पालिसी से यहा वाली जमीन पर भी सरकार का कब्ज़ा हो गया था.
बलवंत सिंह का जन्म राजस्थान के बाड़मेर जिले के "बाखासर" गांव में चौहान राजपूत परिवार में तथा शादी कच्छ (गुजरात) के विजेपासर गाव में जडेजा राजपूतो के यहाँ हुयी थी. उनका बचपन गुजरात / राजस्थान और पापिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्र में गुजरा था. उस समय भारत पापिस्तान सीमा पर कोई बाड़ नहीं हुआ करती थी.
भारत से गायों को पापिस्तान ले जाने का काम इसी खुली सीमा से होता था. पापिस्तान के गौ-तश्करो का, भारत के अपराधी / नेता / सरकारी अधिकारी पैसे के लालच में साथ देते थे. इसके अलाबा सिन्धी लुटेरे भी सीमावर्ती गाँव वाशियों को बहुत तंग करते थे. बलबंत सिंह ने सबसे पहले गौ-तश्करो और लुटेरों के खिलाफ ही हथियार उठाये थे.
गुजरात / राजस्थान के सरकारी महकमों और पुलिस विभाग के लिए वो डकैत थे लेकिन बाडमेर साँचोर और उत्तरी गुजरात के सीमावर्ती गाँवो में उनकी छवि "राबिन हुड" के समान थी. 100 KM के इलाके में उनके नाम की धाक थी. जिस गाँव में रुकते थे वहां के लोग इनकी और इसके साथियों की खातिरदारी करके अपने आपको धन्य समझते थे.
पापिस्तानी लुटेरे और तश्कर तथा स्थानीय भ्रष्ट अधिकारी और नेता उनके नाम से थर्राते थे. एक बार मीठी के सिन्धी तश्कर, उस इलाके से एक साथ 100 गायो को, पाकिस्तान लेकर जा रहे थे. जैसे ही इसकी खबर बलवंत सिंह जी को मिली, वे उसी समय अपने घोड़े पर सवार निकल पड़े और अकेले ही 8 सिन्धी तश्करों को मारकर गायों को छुड़ा लाये.
बाड़मेर के बिधायक अब्दुल हादी (जो 7 बार विधायक रहे) का भाई मोहम्मद हुसैन, अपने भाई के बल पर तश्करी और लूटमार करता था तथा इलाके के गरीब लोगों की मजबूरी का फायेदा उठाकर उनकी बहु / बेटियों की इज्ज़त से खेलता था. बलबंत सिंह ने उसको भी मार गिराया था, तब ही बलबंत सिंह पर हत्या और डकैती का पहला केस दर्ज हुआ था.
भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों से भी धन लूटकर वे गरीबों में बांटते थे. बाड़मेर का ही एक अन्य लुटेरा "मोहम्मद हयात खान" जिसके ऊपर एक अन्य बिधायक "नाथूराम मिर्धा" का हाथ बताया जाता था, उसको भी "बलवंत सिंह" ने मार गिराया था. अब्दुल हादी और नाथूराम मिर्धा ने ही बलबंत सिंह पर डकैती और हत्या के के दर्ज करबाए थे.
जन समर्थन होने के कारण तथा पुलिस में भी उनके समर्थक होने के कारण कभी उनपर कोई कार्यवाही नहीं हुई. इसी बीच 1971 का भारत पापिस्तान युद्ध छिड़ गया. जब जयपुर के पूर्व महाराज लेफ्टीनेंट कर्नल "सवाई भवानी सिंह" ने उनसे मदद माँगी, तो वे फौरन तैयार हो गए लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास सकुचा रहे थे.
उसके बाद बलबंत सिंह ने सेना का नेतत्व करते हुए, किस तरह से पापिस्तान के 100 से ज्यादा गाँवों पर कब्ज़ा किया यह तो आप मेरी पिछली पोस्ट में पढ़ ही चुके हैं. उनका भारत के अलावा पापिस्तान के ग्रामीण भी बहुत सम्मान करते थे. जब वे छाछरो चौकी में थे तो दूर दूर से पपिस्तानी ग्रामीण, पैदल चलकर, उनको देखने आते थे.
वे ग्रामीण लोग स्थानीय फल, सब्जियां तथा हाथ से बनी टोकरियाँ, पंखे, कपडे, आदि उनको उपहार में देने के लिए लाते थे . उन ग्रामीणों का कहना था कि - बलबंत सिंह ने जिन सिन्धी तश्करों और लुटेरों को मारा था, वे तश्कर / लुटेरे पपिस्तानी ग्रामीणों को भी बहुत परेशान किया करते थे. क्या ऐसे व्यक्ति को डाकू कहना अनुचित नहीं है ?

Wednesday, 5 December 2018

मेरठ का "हाशिमपुरा कांड"

हाईकोर्ट ने 31 साल पुराने हाशिमपूरा काण्ड मामले में 16 पूर्व पुलिस (PAC) कर्मियों को उम्रकैद की सजा सुनाई है. बहुत से लोगों को इस मामले के बारे में पता नहीं होगा कि- हाशिमपुराकांड क्या था तथा यह कहाँ हुआ था. बात 1985 से 1987 के बीच के समय की है, जब केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी.
उस समय राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और वीर बहादुर सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर लगे ताले को खोलने के लिएं बजरंगदल और विश्व हिन्दू परिषद् ने लोकतांत्रिक आन्दोलन चलाया था. 1986 में कोर्ट के आदेश पर श्रीराम जन्मभूमि पर लगे ताले को खोल दिया गया और भीतर जाकर पूजा होने लगी.
इस बात से नाराज होकर कई मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंसक प्रदर्शन हुए. जिनमे सबसे ज्यादा हिंसक प्रदर्शन मेरठ में हुए. मेरठ में कई माह तक हिंसक प्रदर्शन चलते रहे. देखते ही देखते मेरठ में यह हिंसक प्रदर्शन साम्प्रदायिक दंगे में बदल गए. दंगों को रोकने के लिए मेरठ में कई बार कर्फ्यू लगाया गया, लेकिन फिर भी शान्ति नहीं हुई.
इसी बीच "सैयद शहाबुद्दीन" ने 30 मार्च को दिल्ली में रैली बुलायी. रेली में साम्प्रदायिक भाषण दिए गए और वक्ताओं ने ताला खोलने के बिरोध में मुसलमानों से अपने घरों पर काले झंडे लगाने का आव्हान किया. कहा जाता है कि ऐसा इसलिए किया गया जिससे मुसलमानों के घरों को पहेचान कर उनको निशाना बन्ने से बचाया जाए.
इस रैली से लौटकर आये मुस्लिमस मेरठ के मुसलमानों ने बहुत स्वागत किया. और उनके कहने पर अपने घरों पर काले झंडे लगाए. इसे देखकर बिना किसी साजिश का अनुमान लगाए जोश में आकर हिन्दू संगठनों ने भी हिन्दुओं से अपने घर पर भगवा झंडे लगाने को कहा. हिन्दुओं द्वारा भगवा झंडे लगाना, हिन्दुओं के लिए और भी घातक रहा.
कई जगह मुस्लिम दंगाइयों ने हिन्दुओं पर भयानक् हमले किये. बताया जाता है कि - मेरठ के एक सिनेमाघर पर भी हमला किया गया, जिसमे गुप्त पहेचान को चेक करके हिन्दुओं की हत्या की गई. मेरठ-दौराला रोड पर एक बस रोककर उसमे भी इसी प्रकार सवारियों को धर्म के आधार पर अलग अलग कर हिन्दुओं की हत्या की गई.
सरकारी आंकड़ों के हिसाब से उस दंगे में कितने हिन्दू मारे गए यह तो सरकारी आंकड़ों से ही पता चलेगा लेकिन मेरठ के लोगों का कहना था कि - उस दंगे में 1000 से ज्यादा हिन्दू मारे गए थे. सिनेमाघर में ही 80 लोग जलाकर मार दिए गए थे. दौराला बस काण्ड में भी 40 हिन्दुओं को पेड़ से बाँधकर बुरी तरह से तडपाकर मारा गया था.
मेरठ के हाशिमपूरा, कबाड़ी बाजार, आदि जैसे क्षेत्रों में हिन्दुओं का सबसे ज्यादा बुरा हाल हुआ. अनेकों लोग मार दिये गए, उनकी संपत्ति लूट ली गई, महिलाओं की इज्जत लूटी गई. मेरठ शहर के अलाबा आसपास के मुश्लिम बहुल कस्बों और गाँवों में भी हिन्दुओं के साथ बहुत अत्याचार हुए. वे लोग 30मार्च के बाद ही दंगे की तैयारी किये हुए थे.
उसके बाद मेरठ के हालात और खराब हो गए. यह दंगा रुक रुक कर लगभग डेढ़ महीने तक चला जिसमे बहुत लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति का नुकशान हुआ. तब दंगे को रोकने के लिए PAC के जवानो को मेरठ में लगाया गया. इंटेलीजेंस रिपोर्ट और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान के आधार पर PAC ने संदिग्ध लोगों की सूची तैयार की.
PAC ने दंगे के संदिग्धों को पकड़ना शुरू कर दिया. 22 मई 1987 की रात को PAC ने मेरठ के हाशिमपूरा और आसपास के क्षेत्र से दो सौ से ज्यादा लोगों को हिरासत में लिया. पूछताछ और लिस्ट से मिलान के बाद ज्यादातर लोगों को छोड़ दिया गया लेकिन 43 लोगों को दंगाई मानते हुए वे ट्रक में बिठाकर मुरादनगर की तरफ ले गए.
अगले दिन सुबह लोगों को नहर में 38 शव नहर में दिखाई दिए. उस रात जो हुआ वो बहुत गलत हुआ लेकिन मेरठ के लोगों का यही कहना था कि - माना कि- PAC को कानून को अपने हाथ में लेने का हक़ नहीं था, लेकिन आखिर क्या कारण है कि - जो दंगा किसी भी तरह से नहीं रुक रहा था वह दंगा उस हाशिमपुरा काण्ड के बाद कैसे रुक गया ?

Monday, 3 December 2018

मंदिर में दलितों के प्रवेश निषेध का सच

1992 या 93 की बात है, तब मैं बाजपुर (नैनीताल) में जॉब करता था. बाजपुर से लगभग 22 किलोमीटर दूर काशीपुर में "चैती मेला" लगा हुआ था. एक दिन मैं भी वहां मेला देखने और दर्शन करने गया था. उस दिन बहुत ज्यादा भीड़ थी. भीड़ का लाभ उठाकर कुछ असमाजिक तत्व महिलाओं के साथ छेड़छाड़ तथा बदतमीजी कर रहे थे.
भीड़ में लोगों को उन लफंगों से बहुत दिक्कत हो रही थी, लेकिन कोई उनको कुछ बोल नहीं पा रहा था. हमारे नजदीक में एक परिवार था जिसमे दो पुरुष, दो महिलाए और दो युवतियां तथा तथा दो- तीन छोटे बच्चे थे. देखने से लगता था कि - वो थारु जनजाति के लोग थे. वो दस बारह लड़कों का ग्रुप उस परिवार की लड़कियों को ज्यादा तंग कर रहा था.
मुझे भी गुस्सा आ रहा था, मगर दुसरे शहर में दस बारह लोगों से उलझना आसान नहीं था. तभी मुझे एक स्टाल पर एक व्यक्ति दखाई दिए, मैं उनको बाजपुर में संघ के कार्यक्रम में मिल चुका था. मैं उनके पास गया और बोला कि- यह दस बारह लोग महिलाओं को बहुत तंग कर रहे हैं और खासकर उस बिशेष थारु / बुक्सा परिवार की युवतियों को.
उसके बाद उन्होंने बजरंग दल के कार्यकर्त्ताओ को बुला लिया और गुंडों को घेर लिया. कुछ तो भाग गए लेकिन 6 गुंडे हम लोगों की पकड में आ गए. उनकी अच्छी खासी पिटाई हुई. मेला पुलिस को भी बुला लिया, साथ में उक्त थारु परिवार को भी रोक लिया. इतने लोगों का साथ मिल जाने पर उन लड़कियों ने भी गुंडों की चप्पल से पिटाई की.
उस समय नैनीताल जिले के तत्कालीन सांसद बलराज पासीजी भी मेले में आये हुए थे. पासीजी बाजपुर के ही रहने वाले थे और उनसे मेरा अच्छा परिचय था. उनसे कहकर पुलिस पर दबाब डलबाया कि - गुंडों पर सख्त कार्यवाही की जाए. पुलिस ने भी आश्वासन दिया कि- इनको छोड़ा नहीं जाएगा और इनके बाक़ी साथियों को भी पकड़ा जाएगा.
उसके बाद दर्शन कर हम काशीपुर से वापस बाजपुर आ गए. उस दिन यह बात काफी चर्चा का बिषय बनी रही क्योंकि पासी जी के साथ बाजपुर के कुछ और लोग भी थे उन्होंने भी सबको बताया था. लेकिन उसके दो दिन बाद एक अखबार ने खबर छापी कि - मेले में दर्शन करने गए दलितों को पीटा गया और उनको मंदिर में नहीं जाने दिया गया .
वो घटना मेरे सामने की थी, इलाके के सांसद बहां मौजूद थे, पुलिस ने पकड़ा था, गुंडों को सबने देखा था, जिन लड़कियों को तंग किया जा रहा था वो भी दलित (ST) थी, जब इसके बाबजूद, अखबार वाले ऐसी खबर लिख सकते हैं, तो ऐसी खबर पर कम से कम मैं तो कभी विशवास नहीं कर सकता कि किसी को जाति के कारण मंदिर जाने से रोका हो.
मैंने भारत / नेपाल के बहुत बड़े हिस्से में भ्रमण किया है. सैकड़ों छोटे बड़े मंदिरों में गया हूँ, मुझसे आजतक किसी ने जाति प्रमाणपत्र नहीं माँगा है और न ही मैंने किसी और से मांगते हुए देखा है. किसी के निजी डेरे में ऐसा होता हो तो हम कह नहीं सकते और ऐसे निजी डेरे में हमें जाने की जरूरत ही क्या है ? हम तो खुद उनका बहिष्कार कर देंगे.
ज्यादातर यही होता कि किसी धार्मिक कार्यक्रम में यदि कोई असामाजिक तत्व , छेड़छाड़, झगडा या चोरी करते पकड़ा जाता है और यदि वह इत्तेफाक से दलित हो तो, वो अपने आपको बचाने के लिए इसे जातिगत भेदभाव का मुद्दा बताने का प्रयास करता है. मीडिया और नेता भी जानबूझकर विवाद पैदा कर लाभ उठाने की कोशिश करते हैं.