हमारा शरीर भी एक मशीन है जिसको कई तरह से काम करने होते हैं.शरीर के द्वारा उचित काम लेने के आंतरिक शरीर का भी सुचारू रूप से कार्य करना आवश्यक है तभी यह बाहरी काम कर सकता है. जिस तरह से हम सोकर या आराम कर के शरीर को आराम देते हैं उसी तरह उपवास के द्वारा आंतरिक प्रणाली को विश्राम दिया जाता है.
शरीर को उर्जा भोजन से मिलती है. भोजन को पचाकर उसे ऊर्जा में बदलने के लिए आंतरिक पुर्जों को काम करना पड़ता है. इनको यदि आराम न मिले तो उनकी कार्य प्रणाली भी प्रभावित हो जाती है और अपच, कब्ज, थायराइड, शुगर, आदि जैसी बीमारियाँ लग जाती हैं. यदि निश्चित समय पर पुर्जों को विश्राम मिले तो यह ठीक से काम करते रहते हैं.
शरीर के आंतरिक पुर्जों को निश्चित अंतराल के बाद आराम देने के उद्देश्य से, हमारे महान पूर्वजों ने व्रत का प्रावधान बनाया और उनको धर्म से जोड़ दिया. कोई भी चीज यदि धर्म से जोड़ दी जाए तो उसको लोग आसानी से मान लेते हैं. विभिन्न प्राचीन घटनाओं, महापुरुषों के जन्मदिन, महापुरुषों की शादी की सालगिरह आदि को इसके लिए चुन लिया गया.
महान पूर्वजों ने अलग अलग लोगों की क्षमताओं को देखते हुए अलग अलग तरह का प्रावधान बना दिया. इन व्रतों को साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक,बार्षिक अंतराल पर, निर्धारित कर दिया. जो लोग नियमित अंतराल पर व्रत नहीं कर सकते उनके लिए कुछेक विशेष त्यौहार बना दिए, जिससे कि जो नियमित नहीं कर सकते वो कभी कभार ही कर लें.
जो लोग ज्यादा कठिनाइ झेल सकते हैं उनके लिए निर्जल व्रत, जो इतना नहीं सह सकते उनके लिए पानी और फल की छुट वाला व्रत भी है. जो यह भी नहीं कर सकते उनके लिए एक समय भोजन करने वाला व्रत भी है. जिनके लिए यह भी करना संभव नहीं है उनके लिए कुछ ऐसे सुपाच्य पदार्थ वैद्ध्य घोषित कर दिए हैं जिससे वो उनके साथ ही कर लें.
कहने का अर्थ यह कि- हमारे महान पूर्वजों ने अलग अलग लोगों की क्षमताओं को देखते हुए अलग अलग लेवल की कठिनाई वाले व्रत का प्रावधान बनाया. जिसकी जितनी क्षमता है वो उसके अनुसार अपने लिए उपवास चुन ले. अब बात करते है इस्लामी व्रत "रोजा" की. इस्लाम में एक माह का व्रत रखने का प्रावधान है.
इस्लाम का प्रारम्भ अरब में हुआ और शुरुआत में उसका प्रभाव उसके आस पास ही था. सभी को पता है उस क्षेत्र में पानी और फलदार पेड़ पौधों का अभाव है. हम जानते हैं कि- मानव शरीर की खाशियत है कि- इसको जैसा बना दिया जाए बन जाता है. रोजा के माध्यम से उनको ऐसा बनाने का प्रयास किया गया कि- बिना पानी / भोजन के भी दिन भर रह सकें.
अरब देशों में जो लोग, घर से बाहर निकलते थे, वे गरमी से बचने के लिए सुबह- सुबह निकलते थे और अपने दिन भर के काम निपटा कर शाम को वापस आते थे. कई बार दिन भर भोजन / पानी न मिल पाने के कारण बेचैन हो जाते थे. लोगों की इस परेशानी को देखते हुए मोहम्मद साहब ने दिनभर बिना पानी रहने का अभ्यस्त बनाने का प्रयास किया.
उन्होंने इसके लिए एक पूरा महीना चुना. उनका मानना था जो लोग लगातार एक महीने केवल सुबह / शाम भोजन करेंगे और दिन भर कुछ नहीं खायेंगे, तो उनका शरीर इसका इतना अभ्यस्त हो जाएगा कि- यदि बाद में भी किसी दिन उनको व्यापार / पर्यटन / युद्ध आदि के लिए बाहर रहना पड़े और भोजन / पानी न मिले, तो भी उनको तकलीफ न हो.
यदि किसी को ऐसे ही कहा जाए कि- तुम एक महीने तक दिन भर कुछ मत खाना, तो शायद कोई नहीं मानेगा. इसलिए उन्होंने इसे धर्म से जोड़ा और इसे अल्ला का आदेश बताया और सभी को ऐसा करने का निर्देश दिया. एक ऐसा माहौल बना दिया कि- सभी लोग यह अभ्यास करें. जब सभी लोग करेंगे तो सभी को एक दुसरे को देखकर हिम्मत मिलेगी.
कहने का तात्पर्य यह कि - हमारे महान पूर्वजों ने जो प्रावधान बनाए हैं हमें उनका पालन तो करना ही चाहिए और साथ साथ उनकी दूरदर्शी सोंच के लिए उनकी बुद्धिमानी की प्रशंशा भी करनी चाहिए. यह जितने भी प्रावधान है, उनका देश - काल - वातावरण के अनुसार बहुत महत्त्व है. इन परम्पराओं का पालन अवश्य करना चाहिए.
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