
गौरतलब है कि - नाथूराम गोडसे को महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में फांसी की सजा हुई थी और उन्हें ब्रिटिश कानून के अनुसार 15 नबम्बर 1949 को अम्बाला जेल में फांसी पर लटका दिया गया था. ब्रिटिश कानून का जिक्र इसलिए किया है कि - तब तक भारत में ब्रिटिश कानून ही लागू था. भारतीय कानून 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था.
गोडसे की गांधी जी से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी और न ही लूट के लिए उसने ऐसा किया था. दरअसल बंटबारे के कारण हुए हिन्दुओं के कत्लेआम और बंटबारे में हुई बेईमानी के लिए अधिकाँश भारतीय गांधी जी को जिम्मेदार मानते थे, जो अपने आपको महान आत्मा साबित करने के चक्कर में हिन्दुओं के अधिकार लुटबाते जा रहे थे.
पिछले 500 साल से हिन्दुओं का पहले मुघलों से आजादी के लिए संघर्ष चल रहा था और उसके बाद अंग्रेजों से संघर्ष करना पड़ा. अंग्रेजों से संघर्ष के समय मुघलों के अत्याचार और हिन्दुस्थान की पूर्ण आजादी को भुला दिया गया था. हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग अलग देश की अवधारणा को मान लिया गया था, मगर इसमें भी बेइमानी हो गई.
मुसलमानों को तो अलग देश पापिस्तान दे दिया गया मगर हिन्दुओं को हिन्दुस्थान नहीं दिया गया. पापिस्तान में हिन्दुओं का भीषण कत्लेआम हुआ मगर गांधी उस पर खामोश रहे, लेकिन जब भारत में इसकी प्रतिक्रिया हुई तो गांधीजी हड़ताल पर बैठ गए. पापिस्तान की ऐसी हरकतों के बाबजूद गांधीजी ने पापिस्तान को 60 करोड़ रूपय भी दे दिए.
गांधीजी पापिस्तान को पूर्वी पापिस्तान को पश्चिमी पापिस्तान से जोड़नेवाला एक दस मील चौड़ा गलियारा भी देना चाहते थे. इन बातों के अलाबा गांधीजी का क्रांतिकारियों के प्रति जो व्यवहार था वह भी बहुत सारे लोगों को नागवार गुजरता था. इन्ही बातों को लेकर नाराज लोगों में से एक "नाथूराम गोडसे" ने गांधीजी की गोलीमारकर हत्या कर दी थी.
गांधी जी की हत्या करने के अपराध में गोडसे और नारायण आप्टे को 15 नबम्बर 1949 को अम्बाला जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया था. जिस तरह अंग्रेजो ने क्रांतिकारी त्रिमूर्ति का शव उनके परिजनो को नहीं सौपा था बल्कि खुद ही फिरोजपुर में सतलुज के किनारे तेल छिड़क कर जला दिया था, वही काम नेहरु सरकार ने भी इनके साथ किया.
सरकार ने गोडसे और आप्टे के शव को उनके परिजनों को नहीं सौपा बल्कि खुद ही चुपचाप अंतिम संस्कार कर दिया. अंतिम संस्कार करने के बाद, उनकी अस्थियों को एक कलस में डालकर, उसे अम्बाला - राजपुरा के मध्य में , बहने वाली घघ्घर नदी के पुल से नीचे फेंक दिया गया, संयोग से उन दिनों नदी में पानी बहुत कम था.
अस्थि कलश फेंककर आ रहे उन्ही जेलकर्मियों ने वापसी में, बातों बातों में यह बात अम्बाला के एक दुकानदार को बता दी. उस दुकानदार ने यह खबर हिन्दू महासभा के नेता और "दि ट्रिब्यून" अखबार के एक कर्मचारी "इंद्रसेन शर्मा" को खबर दे दी. "इंद्रसेन शर्मा" अपने दो साथियों के साथ दूकानदार द्वारा बताई हुई जगह पर पहुंच गए.
बरसात के मौसम के अलाबा घघ्घर नदी में पानी बहुत कम होता है. थोड़े से प्रयास के बाद नदी में से कलश को निकाल लिया गया. इसका पता चलते ही पुलिस भी वहां पहुँच गई लेकिन "दि ट्रिब्यून" जैसे प्रतिष्ठत अख़बार के कर्मियों से कलश छीनने की हिम्मत नहीं कर पाई. इन्द्रसेन जी ने वह कलश अम्बाला के प्रोफ़ेसर ओम प्रकाश कोहली को सौंप दिया.

प्रत्येक बर्ष 15 नबम्बर को उनके समर्थक पुना में इकठ्ठा होते हैं और गोडसे तथा आप्टे को श्रद्धांजली देकर अखंड भारत की कसम खाते हैं. गोपाल गोडसे का कहना था कि- जिस तरह यहूदियों ने 1600 साल बाद अपना यरुशलम वापस लिया था उसी तरह हम भी अपना अखंड भारत हाशिल करके रहेंगे. भारत माता की जय, वन्दे मातरम .
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