हिन्दू राजाओं में राज्य के विस्तार के लिए लड़ाइयाँ होती रहती थी. उनकी आपस की लड़ाई के बाद भी राज्यों की सत्ता बदलती थी मगर इतिहास में ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जिसमे किसी जीते हुए राजा ने हारे हुए राजा के परिवार अथवा राज्य की स्त्रीयों को अपमानित किया हो, इसलिए ऐसे किसी युद्ध के बाद जौहर का जिक्र इतिहास में नहीं मिलता है.

चित्तौड़ और रणथमभौर ही नहीं भारत में अनेकों ऐसे स्थान हैं जहाँ जेहादियों से अपनी इज्ज़त बचाने के लिए स्वाभमानी महिलाओं ने जौहर किया था. ऐसा ही एक राज्य की गाथा है "रायसेन का जौहर". रायसेन का यह किला भोपाल के पास स्थित है. यह 1532ई. की घटना है जब रायसेन में "राजा शिलादित्य सेन" का राज था.
"राजा शिलादित्य सेन" का रायेसेंन, भोजपाल, विदिशा, आषटा, आदि तक राज था. मालवा (उज्जैन, इंदौर) में महमूद शाह खिलजी का शासन था तथा गुजरात में "बहादुर शाह द्वितीय" का शासन था. बहादुर शाह गुजरात के अलावा राजस्थान का भी कुछ भाग जीत चुका था और वह अपने शासन का मध्यप्रदेश भी विस्तार करना चाहता था.
उसने एक सन्देश रायसेन में "राजा शिलादित्य सेन" के पास भेजा कि- मेरी "महमूद शाह खिलजी" से दुश्मनी है. आप अगर हमारा साथ दें तो हम उसको पकड़कर सजा देना चाहते है बदले में मालवा आपका होगा. "राजा शिलादित्य सेन" भी महाकाल की नगरी उज्जैन को आजाद कराना चाहते थे इसलिए उन्होंने "बहादुरशाह द्वितीय" के प्रस्ताव को मान लिया.
जून 1531 ईस्वी मे "वहादुर शाह द्वितीय" ने मालवा पर आक्रमण कर दिया. रायसेन के राजा "राजा शिलादित्य सेन" ने भी दुसरी तरफ से मालवा पर हमला कर दिया. युद्ध जीतने के बाद "वहादुर शाह द्वितीय" "महमूद शाह खिलजी" को पकड़ ले गया और बाद में मार दिया. उज्जैन पर "राजा शिलादित्य सेन" का अधिकार हो गया,
"राजा शिलादित्य" को खबर लगी कि- शेरशाह सूरी रायसेन पर हमले की तैयारी कर रहा है. तो उन्होंने अपने बड़े बेटे "भूपति सेन" को बड़ी सेना देकर शेरशाह का रास्ता रोकने और राजस्थान के राजाओं से मिलने भेज दिया. साथ ही उन्होंने मित्र समझकर इसकी खबर "वहादुर शाह" को भी भेज दी, जिससे कि जरूरत पड़ने पर उसकी मदद मिल सके.
दिसंबर 1531 में "वहादुर शाह" ने अपने एक अमीर "नस्सन खान" को "राजा शिलादित्य सेन" के पास रायसेन दुर्ग में भेजा और कहलवाया कि - मैं आप से मिलकर रणनीति बनाना चाहता हूँ, मैं नालछा जा रहा हूँ आप वहां आकर मिलने की कृपा करें, "राजा शिलादित्य सेन" उसे मित्र समझकर मिलने चले गए मगर "वहादुर शाह" ने उनको बंदी बना लिया.
"शिलादित्य" के साथ गऐ कुछ सैनिको ने उज्जैन पहुंच कर "राजा शिलादित्य सेन" के छोटे बेटे "लक्ष्मण सेन" को सूचना दी. "लक्ष्मण सेन" ने इस घटना की जानकारी अपने बड़े भाई "भूपति सेन" को देने के लिए दूत चित्तौड़ की तरफ रवाना किये और स्वयं रायसेन की रक्षा के लिए निकल पड़ा. इधर बहादुर शाह ने उज्जैन पर आक्रमण कर दिया.
जनवरी 1532 में उसने सारंगपुर, आषटा और विदिशा पर भी कब्ज़ा कर लिया.उसने इस क्षेत्र के अनेकों मंदिरों सहित मूर्ति पूजा के समस्त चिन्हों को जमींदोज कर दिया गया. 17 जनवरी 1532 ई. को बहादुर शाह, रायसेन दुर्ग के सामने जा पहुंचा. उसने सन्देश दिया कि- तुम लोग आत्मसमर्पण कर दो अन्यथा कैद में "शिलादित्य" को मार दिया जाएगा.
"राजा शिलादित्य सेन" की पत्नी "रानी दुर्गावती" ने किले का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया और संघर्ष का ऐलान कर दिया. राजकुमार लक्षंमन सेन के नेत्रत्व में रायसेन युद्ध के लिए तैयार होने लगा. बहादुरशाह चाहता थ कि- भूपतिसेन के आने से पहले किले पर कब्ज़ा नहीं हुआ तो बाद में बहुत मुश्किल हो सकती है. इसलिए उसे रायसेन पर कब्जे की जल्दी थी.
बहादुर शाह ने "राजा शिलादित्य सेन" से कहा कि- अगर तुम इस्लाम कुबूल कर लो तो तुम्हारे राज्य को छोड़दूंगा. "राजा शिलादित्य सेन" उसके कमीनेपन से वाकिफ हो चुके थे, इसलिए उन्होंने चाल चलते हुए इस्लाम कुबूल करने के लिए हामी भर दी. इस्लाम कुबूल करने के बाद "शिलादित्य सेन" का नाम सलाहुद्दीन रख दिया गया.

सन्देश लिखवाने के बाद बहादुर शाह ने "शिलादित्य" को मान्डू के किले में कैद कर दिया. जब रानी दुर्गावती को राजा शिलादित्य का सन्देश मिला, तो वे राजा के गुप्त सन्देश को भी समझ गई. उन्होंने सन्देश भेजा कि- यदि महाराज ने इस्लाम कबूल कर लिया है तो हम भी कबूल कर लेंगे लेकिन यह बात महाराज को यहाँ आकर खुद कहनी होगी.
बहादुर शाह को किले पर कब्जे की जल्दी थी क्योंकि उसे खबर लग चुकी थी कि-भूपति सेन अपनी सेना के साथ चित्तौड़ की सेना लेकर लौट रहा है. अगर उसके आने से पहले किले पर कब्ज़ा हो गया तो वह भूपति सेन को भी हरा देगा. बहादुर शाह ने कुछ सैनिको और अपने सिपहसलार "मलिक शेर" के साथ शिलादित्य को रायसेन किले में भेज दिया.
इधर शिलादित्य भी लगातार यही प्रदर्शित करता रहा कि-उसने दिल से इस्लाम काबुल लिया है और रायसेन पहुँचकर अपने अन्य लोगों से भी इस्लाम कुबूल करवा लेगा. किले में पहुँचते ही शिलादित्य ने महारानी दुर्गावती एवं लक्ष्मण सेन आदि से भैट की.उनसे मिलते राजा शिलादित्य ने ऐलान कर दिया कि हम अंतिम सांस तक युद्ध लड़ेंगे.
"राजकुमार लक्षमण सेन" ने पुरुषों से "शाका" करने तथा "रानी दुर्गावती" ने महिलाओं से जौहर के लिए तैयार होने को कहा. किले के फाटक खोल दिए गए और राजपूत योद्धा केसरिया बाना पहनकर अंतिमयुद्ध (शाका) के लिए निकल पड़े. किले के भीतर जौहर की अग्नि तैयार कर दी गई. भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया.
चार दिन तक चले इस युद्ध में मुट्ठीभर राजपूतों ने बहादुरशाह की आधी सेना को मार गिराया लेकिन साथ ही रायसेन का हर सैनिक मारा गया. बहादुर शाह ने उनकी महिलाओं को उठाने के लिए किले में प्रवेश किया तो वहां महिलाओं और बच्चों की केवल राख मिली. किले में मौजूद सभी स्तिरीयाँ अपने बच्चों को साथ लेकर जौहर कर चुकी थी.
महाराज शिलादित्य अंतिम समय तक सेना का नेतृत्व करते हुए 10 मई 1532 ई्. को वीरगति को प्राप्त हुऐ. बहादुर शाह ने उनके मृत्यु स्थल पर एक कब्र बनवा दी, जिसे आज भी सलाहुद्दीन की मजार कहा जाता है. यह समाधि दुर्ग के बारादरी महल के पास स्थित है. राजा के बड़े पुत्र भूपति सेन को यह समाचार मिला तो वह तेज गति से रायसेन को दौड़ा.
बहादुरशाह को भूपति सेन के आने की खबर मिली तो वह "आलम खां लोदी" को रायसेन का प्रशासक नियुक्त कर गुजरात को निकल गया. भूपति सेन ने रायसेन पहुंचकर "आलम खां लोदी" पर भीषण हमला किया और उसकी सेना के एक एक सैनिक को जान से मार दिया. आलम खां लोदी किसी तरह से जान बचाकर भाग गया.
भूपति सेन ने किले पर पुनः कब्ज़ा बहाल कर लिया. भूपति सेन ने किले को पुनः सुद्रढ़ किया. 10 साल भूपति सेन ने रायसेन पर राज किया लेकिन 1543 में हुमायूं ने रायसेन पर हमला कर दिया. तब राजा भूपति सेन ने शाका तथा रानी रत्नावती ने जौहर किया था, उसके बाद लम्बे समय तक रायसेन पर मुघलों का कब्ज़ा बना रहा.
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