Monday, 28 May 2018

केंद्रीय वित्तमंत्री "अरुण जेटली" के नाम "कुमार विश्वास" का खत

अरुण जेटली (वित्तमंत्री भारत सरकार)
आशा है आप सानंद होंगे. समाचार माध्यमों से ज्ञात हुआ कि आपका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं है. मां सरस्वती से प्रार्थना है कि-आप शीघ्र स्वस्थ होकर देश की वित्त व्यवथा को अपनी ऊर्जा प्रदान करें. यद्यपि आपके स्वास्थ्य लाभ के समय, आपसे राजनैतिक चर्चा करना उपयुक्त नहीं लगता, किन्तु अवसर की आवश्यकता को देखते हुए मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूं, आशा है कि आप मेरे कथन को सहज भाव के साथ सुनेंगे.
महोदय मुझ जैसे करोड़ों भारतीय जो इस देश से अपार प्रेम करते हैं, वे सब समय-अवसर के अनुकूल देश के लिए कुछ न कुछ करने की इच्छा रखते हैं. उन सब को दैनिक राजनीति की जटिल-भाषा न समझ आती है और न वे ये सब समझना चाहतें हैं. परिवर्तन की इसी आशा से मैंने भी 2010 में अपने दो पुराने मित्रों के साथ देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन की भूमिका तैयार की जो कालांतर में 'आम आदमी पार्टी' नामक राजनैतिक दल में परिवर्तित हो गई.
हर दल की तरह नेता चुनने की परंपरा के तहत हमने भी "अरविन्द केजरीवाल" को अपने दल का सर्वोच्च नेता चुना था. अरविन्द अक्सर कुछ कागज़ जमा करके हम सबको और बाद में हमारे माध्यम से कार्यकर्ताओं व जनता को, वे कागज़ कमोबेश हर दल के नेता के भ्रष्टाचार के सबूत कहकर दिखाते रहते थे. हर दल के कार्यकर्ता की तरह हम सबने भी उनकी बातों पर सदा आंख मूंद कर भरोसा किया था.
राजनीतिक दलों की परम्पराओं के अनुसार शीर्ष नेतृत्व की बात पर सहज भरोसा करने का क्रम आम आदमी पार्टी में भी था. बहुधा पार्टियों के शीर्ष नेता जब कोई बड़ा सार्वजनिक बयान दे कर स्टैंड लेते हैं, तो दल का आखिरी कार्यकर्ता भी वही बात दोहराता है. हम सबने भी बिना सच-झूठ परखे, बिना अपने नेता पर शंका किए उसके हर कथन को अक्षरशः दुहराया.
आम आदमी पार्टी के लाखों कार्यकर्ताओं और करोड़ों शुभचिंतकों ने भी अरविन्द की हर कुतार्किक बात पर यह सोच आंख मूंदकर भरोसा किया कि करोड़ों लोगों के भरोसे को वो कम से कम, केवल चुनाव जीतने जैसी इच्छा के लिए नहीं तोड़ेगा. यही कारण है कि जब अरविन्द ने आपको या नितिन गडकरी या कपिल सिब्बल या सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले अनेक नेताओं, पत्रकारों, व्यापारियों को भ्रष्टाचारी कहा,
तो हम साथियों-कार्यकर्ताओं ने भी पार्टी का आदेश मानते हुए उसी की बात को अक्षरशः दोहराया. मैंने निजी मित्रता और पार्टी संस्थापक होने के अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए अरविन्द को अनेक बार ज़रूर आगाह करते हुए कहा, 'तथ्यों के अधकचरे होने पर सिर्फ चुनाव जीतने या गद्दी हथियाने की लालसा से भरकर कोई आरोप मत लगाओ. इससे देश में तुम्हारी विश्वसनीयता ही कम नहीं होगी, बल्कि पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी.
हमारी पूरी पार्टी का बहुत बड़ा नुकसान होगा. किन्तु उसने हर बार चीख-चीखकर कहा कि- उसके ये सारे तथाकथित सबूत उसकी स्वराज किताब की तरह ही असली हैं. यहां तक कि पंजाब चुनाव के समय पंजाब के अकाली नेता मजीठिया को भी वो अवैध ड्रग्स का व्यापारी खुलेआम कहते रहे, लेकिन जबसे इन केसों की सुनवाई दिन-प्रतिदिन के हिसाब से चलने लगी, तो कानून के विशद जानकारों ने अरविन्द को बताया कि आरोप झूठे सिद्ध होने पर कुछ दिन की सांकेतिक जेल निश्चित है.
इसमें अरविन्द को विभिन्न नेताओं पर अपने द्वारा लगाए झूठे आरोपों के कारण अगर कुछ दिन के लिए भी जेल जाना पड़ेगा, तो उसे मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ेगा. अरविन्द का मानना था कि इन झूठे आरोप लगाने के कारण हुए मुक़दमों में अगर उसे सजा हुई, तो उस सजा के कारण उसे पद छोड़कर मनीष को मुख्यमंत्री बनाना होगा. ऐसी परिस्थिति में सजा से वापस आने पर मनीष उसे सीएम की गद्दी वापस नहीं देगा.
इसलिए उसने पहले तो अलग-अलग लोगों के माध्यम से समझौते की कोशिश की और उन कोशिशों के असफल होने पर खुद ही लिखित माफी मांगना शुरू कर दिया. मान्य जेटली जी, इस पूरी कवायद में उसने मेरे और संजय जैसे वरिष्ठ दोस्तों, नेताओं, कार्यकर्ताओं और सह-अभियुक्तों, जिन्होंने उसके झूठ को सच समझकर दोहराया, उन तक से न तो सलाह की न ही हमें सूचित किया.
ऐसा करके अरविन्द ने आप, गडकरी, मजीठिया आदि नेताओं के विरुद्ध बयान देने वाले या सडकों पर प्रदर्शन करने वाले हज़ारों साथी कार्यकर्ता को अकेले लड़ने के लिए छोड़ दिया. बिना पार्टी में चर्चा किए झूठ से लबालब भरी अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए अरविन्द का अकेले ही माफी का निर्णय ठीक वैसा ही हुआ, जैसे चलते युद्ध में साथी सिपाहियों को जान जोखिम में डालकर कोई कायर सेनापति पीछे से मैदान छोड़कर न केवल भाग खड़ा हो,
बल्कि सामने वाले योद्धाओं के तंबू में जाकर उन्हीं के चरणों पर गिर पड़े और साथियों की कीमत पर कमाई अपनी 'जान-राजमुकुट' बख़्श देने के लिए रोने-गिड़गिड़ाने लगे. ये न केवल मेरे लिए बल्कि हज़ारों कार्यकर्ताओं व देशवासियों के लिए योद्धा स्वराज-मार्गी अरविन्द का 'कुर्सी के पिस्सू' में बदलने का चौंकाने वाला रूपांतरण था. हालांकि अपने मार्ग से वो कोसों दूर तो अनेक कारणों से पहले ही निकल गया था.
किन्तु वो थूककर बारंबार चाटेगा, ऐसी वीभत्स कल्पना इस देश में उसके राजनीतिक शत्रुओं तक ने नहीं की थी. उसके दरबारियों का कुतर्क था कि अब अरविन्द सारा ध्यान दिल्ली चलाने पर देना चाहता है, इसलिए माफियां मांगता फिर रहा है यानी चार साल तक ऐसे अनेक केस और राजनीतिक प्रपंचों में खुद को जबरन फंसा कर वो दिल्लीवालों को ईश्वर भरोसे छोड़े हुए था?
मान्य अरुण जी, अब जब अपनी कुर्सी और सत्ता बचाने के लिए अरविन्द ने लाखों पार्टी-कार्यकर्ताओं और मुझ जैसे सबसे पुराने साथी को बिना संज्ञान में लिए आपसे माफ़ी मांगते हुए ये कहा है कि मेरे (केजरीवाल) द्वारा लगाए गए आरोप झूठे थे और मुझे किसी ने गलत कागज़ लाकर दे दिए थे, तो अब हम सब कार्यकर्ताओं का ये जानना बेहद ज़रूरी हो गया है कि वो आप पर ऐसे आरोप लगाते समय झूठ बोल रहा था या अब अपनी कुर्सी बचाने के लिए झूठ बोल रहा है?
यानी अरविन्द के सचिव राजेंद्र कुमार के दफ्तर पर पड़े सीबीआई के छापे को डीडीसीए के कागज़ों के लिए प्रधानमंत्री द्वारा डलवाया गया छापा बताना, सच पता होने पर भी सिर्फ फायदा उठाने के लिए बोला गया अरविन्द का राजनैतिक झूठ था? यानी प्रधानमंत्री के लिए लिखे गए उसके अपशब्द भी उसका जायज गुस्सा न होकर राजनीतिक स्टंट था? यानी आजतक जिन-जिन बातों पर हम सबने भरोसा किया, उसमें न जाने क्या-क्या झूठ था?
यानी अब आगे अरविन्द जब किसी के बारे में कुछ भी बोलेगा, तो वह बात सच है या झूठ यह तो केवल उसकी कुर्सी खतरे में पड़ने पर ही हमें और देश को पता चल सकेगा? मान्य अरुण जी, अब जब हमारे नेता ने ही मान लिया कि वो सस्ती लोकप्रियता और राजनीतिक फायदे के लिए अनर्गल झूठ बोलने वाला आदतन झूठा है, तो मेरे जैसे लाखों कार्यकर्ताओं के लिए सहज है कि हम सब भी न केवल आपके, नितिन गडकरी, मजीठिया, प्रधानमंत्री, एलजी दिल्ली, मीडिया जगत के प्रति खेद प्रकट करके एक झूठे इंसान के द्वारा फैलाए प्रपंच से पिंड छुड़ाएं.
किन्तु यहां सवाल यह उठता है कि आपको या अकारण लज्जित हुए हम सबको यह तो पता चले की वो 'तथाकथित-सबूत' का सफ़ेद झूठ क्यों रचा गया? जब सचमुच कोई सबूत नहीं था, तो किस आधार पर इतना बड़ा वितंडा रचा गया? जिन कुछ लोगों द्वारा गलत सबूत देने का फ़र्ज़ी बहाना रचकर अरविन्द इस 'Mud Sledging' की घटिया हरकत पर पर्दा डालना चाहता है वो 'कुछ लोग' कौन थे?
इसके लिए मैंने अरविन्द से संवाद की अनेक कोशिश की जो सफल नहीं हो सकीं. PAC वो कराता नहीं, फ़ोन वो उठाता नहीं और अपने घर आए हर राजनीतिक मेहमान की वीडियो रिकॉर्डिंग का इच्छाधारी क्रांतिकारी वीडियो कैमरों के सामने बात करने को तैयार नहीं. इस केस के न तो वो "तथाकथित-सबूत" देने को तैयार है न ही मिलकर ये बताने को तैयार है कि वे "नरपुंगव" कौन थे ?
जो दिनरात आरोप लगा कर लड़ने वाले एक योद्धा के हाथ में "बारूद" के नाम पर सबूतों का "कागज़ी गोबर" थमाकर,बचकर निकल लिए? मान्य अरुण जी, हम किस के माफ़ी मांगे? आप से? आप के परिवार से? नितिन जी सरीखे अन्य नेताओं या मिडिया मुगलों से? यदि हम आप सब से इसकी माफ़ी मांगते हैं और आशा है कि इस विवाद के पटाक्षेप होने के बाद हम सब अपनी-अपनी दुनिया में लौट भी जाएंगे,
तो भी उन सब लाखों साथी कार्यकर्ताओं से माफ़ी कौन मांगेगा जिन्होंने एक सत्तालोलुप कायर झूठे के कहे पर अपना-अपना परिवार-कैरियर-सपने सब दांव पर लगा दिए? उन बच्चों से माफ़ी कौन मांगेगा जिन्होंने एक कायर झूठे के कहने को सच समझ कर आप सब के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन किया, पुलिस की लाठियां खायीं, लोगों के मज़ाक के पात्र बने, कॅरियर के शुरूआती दौर में अपने खिलाफ मुक़दमे दर्ज़ करवाए और आज भी अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं?
आप एक बड़े वकील होने के अतिरिक्त देश के वित्तमंत्री भी है मान्य अरुण जी, आप इस पद की जिम्मेदारियों में लगातार व्यस्त हैं ही, अरविन्द एंड गैंग चंद माफिओं के एवज़ में सत्ता-सुख बचा ले आने की ख़ुशी में मगन है और रहेगा, मैं सामाजिक और साहित्यिक रूप से और अधिक स्वीकार्य हो कर अपने कार्यक्रमों में व्यस्त हो जाऊंगा, किन्तु देश के बाहर और भीतर, सहमत और असहमत उन करोड़ों भारतवासियों से माफ़ी कौन मांगेगा, जिनके अंदर "कुछ तो बदलेगा" की उम्मीद पैदा हुई थी?
मान्य अरुण जी, अब हाल ये है कि आप के सामने केस लड़ने के लिए सहमत मेरे निजी वकील को भी हमारी पार्टी ने पद से हटा दिया है। न केस के काग़ज़ दे रहे हैं और न अरविन्द उन नामुरादों के नाम बताने को तैयार है जिनके "तथाकथित झूठे सबूतों" के कारण हमारी ये फ़ज़ीहत हुई है, हो रही है! आप वकील हैं, इस सब बेशरम झूठ-कथा से निश्चित ही आपकी मानहानि हुई है,
हो सकता है कि आप सोचें कि आपको भला इन सब बातों से क्या लेना-देना ? और ये जायज़ भी है किन्तु मेरे और मुझ से हज़ारों कार्यकर्ताओं के लिए ये महज़ आप से या पूरे देश से अपने कायर नेता के झूठ को दोहराने की गलती पर क्षमाप्रार्थना मात्र नहीं है! मेरे लिए ये करोड़ों देशवासियों की ऊर्जा से बनी एक आशा भरी प्रतिमा के कायरतापूर्ण असमय अनैतिक पतन का शोककाल है !
मान्य अरुण जी, अब यह देश की अदालतों, प्रशासन और अन्य दलों के नेताओं की सदाशयता पर निर्भर है कि देश भर में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर अपने कायर झूठे नेता के उकसाने पर किये गए प्रदर्शनों में लंबित मुक़दमे ख़त्म कराएं या एक ओर अपने ऐसे नेता के द्वारा लुटे हुए निरपराध लोगों को अदालतों से और सजा दिलवाएं ! आप को और आप के परिवार-शुभचिंतकों को हमारे आदतन झूठे नेता के निराधार आरोप और हमारे उसके झूठ को दोहराने से जो कष्ट हुआ है उसके लिए हमें खेद है,
आशा है कि आप भी हम सब का ये सार्वजनिक दर्द समझेंगे और इस निराधार विवाद के हिस्से बचे हम जैसे निरपराध कार्यकर्ताओं को इस वाद में और अधिक कष्ट नहीं उठाने देंगे। दुःख किसी सरकार या नेता के सफल-असफल होने का नहीं दुःख एक आशा के धूमिल पटाक्षेप का है। मैं कवि हूं , इस पत्र के समाहार में शायद इन चार पंक्तियों से अपनी मनःस्थिति को ठीक से बयां कर सकूं.
'पराये आंसुओं से आंख को नम कर रहा हूं मैं,
भरोसा आजकल ख़ुद पर भी कुछ कम कर रहा हूं मैं,
बड़ी मुश्किल से जागी थी ज़माने की निगाहों में,
उसी उम्मीद के मरने का मातम कर रहा हूं मैं!'
आपके उत्तम स्वास्थ्य की कामना के साथ
कुमार विश्वास

उपवास / रोजा का महत्व

हमारा शरीर भी एक मशीन है जिसको कई तरह से काम करने होते हैं.शरीर के द्वारा उचित काम लेने के आंतरिक शरीर का भी सुचारू रूप से कार्य करना आवश्यक है तभी यह बाहरी काम कर सकता है. जिस तरह से हम सोकर या आराम कर के शरीर को आराम देते हैं उसी तरह उपवास के द्वारा आंतरिक प्रणाली को विश्राम दिया जाता है.
शरीर को उर्जा भोजन से मिलती है. भोजन को पचाकर उसे ऊर्जा में बदलने के लिए आंतरिक पुर्जों को काम करना पड़ता है. इनको यदि आराम न मिले तो उनकी कार्य प्रणाली भी प्रभावित हो जाती है और अपच, कब्ज, थायराइड, शुगर, आदि जैसी बीमारियाँ लग जाती हैं. यदि निश्चित समय पर पुर्जों को विश्राम मिले तो यह ठीक से काम करते रहते हैं.
शरीर के आंतरिक पुर्जों को निश्चित अंतराल के बाद आराम देने के उद्देश्य से, हमारे महान पूर्वजों ने व्रत का प्रावधान बनाया और उनको धर्म से जोड़ दिया. कोई भी चीज यदि धर्म से जोड़ दी जाए तो उसको लोग आसानी से मान लेते हैं. विभिन्न प्राचीन घटनाओं, महापुरुषों के जन्मदिन, महापुरुषों की शादी की सालगिरह आदि को इसके लिए चुन लिया गया.
महान पूर्वजों ने अलग अलग लोगों की क्षमताओं को देखते हुए अलग अलग तरह का प्रावधान बना दिया. इन व्रतों को साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक,बार्षिक अंतराल पर, निर्धारित कर दिया. जो लोग नियमित अंतराल पर व्रत नहीं कर सकते उनके लिए कुछेक विशेष त्यौहार बना दिए, जिससे कि जो नियमित नहीं कर सकते वो कभी कभार ही कर लें.
जो लोग ज्यादा कठिनाइ झेल सकते हैं उनके लिए निर्जल व्रत, जो इतना नहीं सह सकते उनके लिए पानी और फल की छुट वाला व्रत भी है. जो यह भी नहीं कर सकते उनके लिए एक समय भोजन करने वाला व्रत भी है. जिनके लिए यह भी करना संभव नहीं है उनके लिए कुछ ऐसे सुपाच्य पदार्थ वैद्ध्य घोषित कर दिए हैं जिससे वो उनके साथ ही कर लें.
कहने का अर्थ यह कि- हमारे महान पूर्वजों ने अलग अलग लोगों की क्षमताओं को देखते हुए अलग अलग लेवल की कठिनाई वाले व्रत का प्रावधान बनाया. जिसकी जितनी क्षमता है वो उसके अनुसार अपने लिए उपवास चुन ले. अब बात करते है इस्लामी व्रत "रोजा" की. इस्लाम में एक माह का व्रत रखने का प्रावधान है.
इस्लाम का प्रारम्भ अरब में हुआ और शुरुआत में उसका प्रभाव उसके आस पास ही था. सभी को पता है उस क्षेत्र में पानी और फलदार पेड़ पौधों का अभाव है. हम जानते हैं कि- मानव शरीर की खाशियत है कि- इसको जैसा बना दिया जाए बन जाता है. रोजा के माध्यम से उनको ऐसा बनाने का प्रयास किया गया कि- बिना पानी / भोजन के भी दिन भर रह सकें.
अरब देशों में जो लोग, घर से बाहर निकलते थे, वे गरमी से बचने के लिए सुबह- सुबह निकलते थे और अपने दिन भर के काम निपटा कर शाम को वापस आते थे. कई बार दिन भर भोजन / पानी न मिल पाने के कारण बेचैन हो जाते थे. लोगों की इस परेशानी को देखते हुए मोहम्मद साहब ने दिनभर बिना पानी रहने का अभ्यस्त बनाने का प्रयास किया.
उन्होंने इसके लिए एक पूरा महीना चुना. उनका मानना था जो लोग लगातार एक महीने केवल सुबह / शाम भोजन करेंगे और दिन भर कुछ नहीं खायेंगे, तो उनका शरीर इसका इतना अभ्यस्त हो जाएगा कि- यदि बाद में भी किसी दिन उनको व्यापार / पर्यटन / युद्ध आदि के लिए बाहर रहना पड़े और भोजन / पानी न मिले, तो भी उनको तकलीफ न हो.
यदि किसी को ऐसे ही कहा जाए कि- तुम एक महीने तक दिन भर कुछ मत खाना, तो शायद कोई नहीं मानेगा. इसलिए उन्होंने इसे धर्म से जोड़ा और इसे अल्ला का आदेश बताया और सभी को ऐसा करने का निर्देश दिया. एक ऐसा माहौल बना दिया कि- सभी लोग यह अभ्यास करें. जब सभी लोग करेंगे तो सभी को एक दुसरे को देखकर हिम्मत मिलेगी.
कहने का तात्पर्य यह कि - हमारे महान पूर्वजों ने जो प्रावधान बनाए हैं हमें उनका पालन तो करना ही चाहिए और साथ साथ उनकी दूरदर्शी सोंच के लिए उनकी बुद्धिमानी की प्रशंशा भी करनी चाहिए. यह जितने भी प्रावधान है, उनका देश - काल - वातावरण के अनुसार बहुत महत्त्व है. इन परम्पराओं का पालन अवश्य करना चाहिए.

"वीर सावरकर"

विश्व का एकमात्र ऐसा परिवार (सावरकर बंधू), जिसमे तीन सगे भाई, अपने देश की आजादी के लिए 12 सालों से ज्यादा समय तक विभिन्न जेलों में रहे. 'नारायण राव सावरकर', 'गणेश राव सावरकर', 'विनायक दामोदर सावरकर'.
'विनायक दामोदर सावरकर' विश्व के एकमात्र व्यक्ति थे, जिनको बैरिस्टर की पढ़ाई पूरी करने के बाद और एग्जाम पास करने के बाद भी, अंग्रेजों ने बैरिस्टर की डिग्री नहीं दी गई. जबकि तथाकथित महान (?) लोगों को बड़े आराम से दे दी.
'वीर सावरकर' विश्व के एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिनके बारे में ब्रिटिश सरकार ने बाकायदा राजपत्र निकालकर, उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे बड़ा दुश्मन घोषित किया था और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ, दुनिया को भड़काने वाला कहा था.
'वीर सावरकर' पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को विश्व मंच पर स्वाधीनता संग्राम घोषित किया था. उल्लेखनीय है कि- 50 साल तक उस संग्राम को ग़दर और स्वाधीनता सेनानियों को राजद्रोही कहा जाता था.
'वीर सावरकर' पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिनकी किताब "1857- प्रथम स्व्तान्त्र्य समर" प्रकाशित होने के पहले ही, अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई थी. उनकी यह किताब चोरी से छपवाना और वितरित करना भी क्रांतिकारी कार्य माना जाता था.
'वीर सावरकर' पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिनकी किताब ने "1857 के क्रांतिकारियों" को सम्मान दिलाया था और उनकी भुला दी गई गाथा को जन जन तक पहुंच्या था. इसके अलावा देश को आजादी की दुसरी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार किया था.
'वीर सावरकर' पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने देश में विदेशी सामान की होली जलाई थी ( जी हाँ गांधी से कई साल पहले 1905 में). सशस्त्र क्रान्ति करने वालों का दल "अभिनव भारत" बनाया था. जिसके क्रांतिकारी ब्रिटिश अधिकारियों को निशाना बनाते थे.
'विनायक दामोदर सावरकर' विश्व के एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी थे जिनको दो जन्म के कारावास की सजा सुनाई गई थी. जिसने किताब लिखने के अपराध में अपने जीवन के बहुमूल्य 13 साल ( 10 साल कालापानी और 3 साल रत्नागिरी) जेल में बिताये.
'विनायक दामोदर सावरकर' एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी थे, जिनको देश आजाद होने के बाद भी दो बार जेल भेजा गया. एक बार गांधी की ह्त्या के बाद संदेहास्पद मानकर और दुसरी बार लाखों हिन्दुओं के हत्यारे "लियाकत खान" की भारत यात्रा का बिरोध करने पर.
' स्वतंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर' जी की जयंती पर कोटि कोटि नमन

सावरकर का माफीनामा : कांग्रेस का एक मिथ्याप्रचार

देश आजाद होने के बाद देश की सत्ता पर कांग्रेस का कब्जा हो गया था. देश की आजादी के असली नायक या तो फांसी चढ़ चुके थे या सत्ता के षड्यंत्र का शिकार होकर गुमनाम सी जिन्दगी जीने को मजबूर हो गए थे. नेहरू ने, सुभाषचन्द्र बोस जैसे महानायक को, विश्वयुद्ध का अपराधी मानते हुए, पकड़कर अंग्रेजों के हवाले करने का बचन दिया था.
भगत सिंह के साथी "बटुकेश्वर दत्त" साइकिल पर घूम-घूमकर सिगरेट बेंचकर अपना गुजारा करते थे. पाठ्य पुस्तकों में गांधीवादी नेताओं की गाथाओं की भरमार होती थी और अपनी जानपर खेलकर क्रान्ति करने वाले और अंग्रेजो को नाकों चने चबबाने वाले क्रान्तिवीरों की गाथाओं को दो-चार लाइन में समेटकर समाप्त कर दिया जाता था.
ऐसे ही "वीर सावरकर" के बारे में कांग्रेस ने भ्रामक बातें फैलाकर उनकी महानता को धूमिल करने का प्रयास किया. 1857 की क्रान्ति की असफलता के बाद जो देश गुलामी को अपनी किस्मत मानकर पचास साल खामोश पडा रहा, उस देश के निराश नागरिकों को जाग्रत करने वाले व्यक्ति के खिलाफ अपशब्द बोलना देशद्रोह माना जाना चाहिए.
"सावरकर" ने 1904 में "अभिनव भारत" नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की, 1905 में उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई (गांधीजी से बहुत पहले) . 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई और "गदर" को "भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम" सिद्ध किया.
उन्होंने "1857 - प्रथम स्वातंत्र समर" नाम का ग्रन्थ लिखकर देशवाशियों में क्रान्ति की ज्वाला को भड़का दिया. जिसके बाद अंग्रेजों ने उन्हें दोहरे कालापानी की सजा सुनाकर अंडमान की सेल्युलर जेल में भेज दिया. जहाँ उन्हें किसी राजनैतिक कैदी की तरह नहीं रखा गया बल्कि बहा उनपर खूंखार कैदियों की तरह अमानवीय अत्याचार किये जाते थे.
सावरकर 4- जुलाई, 1911 से लेकर 21 मई, 1921 तक दस साल पोर्ट ब्लेयर की "कालापानी" जेल में रहकर अमानवीय यातनाएं झेलते रहे. लेकिन नीचता की पराकाष्ठा को पार करने वाले कांग्रेसी 1913 में अंग्रेजों को लिखे गए उनके एक पत्र को उनका "माफीनामा" बताकर, भ्रामक प्रचार के सहारे उनका चरित्र हनन करने का प्रयास करते हैं.
सावरकर ने अक्तूबर 1913 में, चार अन्य कैदियों के साथ एक खुली याचिका दी थी, जिसमे उन्होंने उन पर किए जा रहे नृशंस अत्याचारों का वर्णन किया था. उन्होंने जेलर से सभ्य बर्ताव की मांग की थी और लिखा था कि - या तो उन्हें रिहा कर दिया जाए अन्यथा कालापानी से निकालकर भारत की किसी अन्य जेल में रख दिया जाए.
वे एक कवि और लेखक थे. उन्होंने लुभावनी शैली में लिखा था कि -यदि उन्हें रिहा किया जाता है तो वे सरकार के आभारी रहेंगे और किसी भी आतंकी कार्यवाही में हिस्सा नहीं लेंगे. यह एक राजनैतिक कैदी का मानवीय व्यवहार का मांगपत्र था कोई माफीनामा नहीं और न ही अंग्रेजों ने उसे स्वीकार किया. वे उसके आठ साल बाद तक कालापानी रहे.
गवर्नर जनरल के प्रतिनिध "आर.एच. क्रेडोक" ने उनकी याचिका के बारे में टिप्पणी लिखी कि - ‘सावरकर को अपने किए पर पश्चाताप या खेद नहीं है और वह अपने हृदय परिवर्तन का सिर्फ ढोंग कर रहा है." क्रेडोक ने यह भी लिखा कि - सावरकर को यदि किसी भारतीय जेल में रखा गया तो यूरोप के अराजकतावादी उस जेल को तोड़कर उसे फरार कर देंगे.
सावरकर की उस याचिका को 1913 में ही खारिज कर दिया गया था और उन्हें 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में ही रखा गया. सावरकर द्वारा "1857 - प्रथम स्वातंत्र समर" ग्रन्थ लिखने के कारण अंग्रेज नाराज थे और उन्हें बड़ी और कड़ी सजा देना चाहते थे. लेकिन किताब लिखना कोई इतना बड़ा गुनाह नहीं था कि उन्हें फांसी या उम्रकैद दी जा सके.
इसके अलाबा सरकार को तब उन्हें राजनैतिक कैदी का दर्जा देकर, सारी सुबिधायें भी देनी पड़ती इसलिए उन्हें नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के षडयंत्र का आरोप लगाकर कालापानी की सजा सुनाई गई थी , लेकिन अंग्रेजी सरकार लम्बे समय तक केस चलाने के बाबजूद उन्हें गुनाहगार साबित नही कर सकी और रिहा करना पडा.
ऐसी याचिकाए न्यायिक प्रिक्रिया का हिस्सा होती थी. राम प्रसाद विस्मिल और अशफाक उल्ला खान दारा भी ऐसी दया याचिकाए दी गई थी. अशफाक के परिवार ने यहाँ तक लिखा था कि - उनका लड़का निर्दोष था और विस्मिल के चक्कर में पड़कर फंस गया था. लेकिन इससे उनकी महानता कोई कम नहीं हो जाती.
नासिक षड्यंत्र में बेगुनाह साबित होने के कारण , अंग्रेजी सरकार को उन्हें 1921 में रिहा करना पडा, लेकिन बहां से आने के बाद भी उन्हें नजरबंद रखा गया. उनकी हर गतिबिधि पर कड़ी नजर रखी जाती थी.1921-24 में मालावार, कोहाट, मुल्तान, में हुए दंगे में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार ने उनकी सोंच की दिशा ही बदल दी थी.
1921 ई. में अंग्रेजो ने तुर्की के सुल्तान को गद्दी से उतार दिया था. इस घटना के खिलाफ भारत के मुसलमानों ने जगह-जगह आन्दोलन हुए. अंग्रेजों के सामने तो उनकी चली नहीं परन्तु उनका कहर टूटा देश की निर्दोष और असहाय हिंदू जनता पर. इस हिंसक बबाल में बड़ी संख्या में हिंदुओं का कत्ल हुआ और स्त्रियों की इज्जत लूटी गई.
हिन्दुओं का सबसे ज्यादा बुरा हाल किया गया था केरल के मालाबार जिले में. मालाबार के दंगे, जिन्नाह द्वारा अलग पापिस्तान की मांग, अपने को महात्मा साबित करने की खातिर गांधी द्वारा हिन्दुओं के अधिकार लुटवाने ने की घटनाओं ने उनकी ने उनकी सोंच का रुख हिन्दुओं की सुरक्षा और अधिकार की और कर दिया.
गांधीजी द्वारा हिन्दुओं के अधिकार लुटवाने पर सावरकर गांधी से नाराज थे और गांधी भी सावरकर हिंदुत्ववादी विचारों से घबराते थे. सावरकर अखंड भारत के पक्षधर थे लेकिन उनका यह भी मानना था कि - अंग्रेजों के जाने और मुसलमानों को मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान दिए जाने के बाद शेष भारत को हिन्दुराष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए था.

Wednesday, 9 May 2018

हुतात्मा गोडसे की अस्थियाँ को है विसर्जन का इन्तजार

शायद आप में से बहुत से लोगों को पता नहीं होगा कि - हुतात्मा नाथूराम नाथूराम गोडसे की अस्थियों को आजतक सुरक्षित रखा गया है, क्योंकि उनकी अंतिम इच्छा थी कि- मेरी अस्थियों को पवित्र सिन्धु नदी में, उस दिन प्रवाहित करना, जब सिन्धु नदी एक स्वतंत्र नदी के रूप में भारत के झंडे के नीचे वहने लगे. चाहे इसमें कितनी भी पीढियां लग जाएँ.
गौरतलब है कि - नाथूराम गोडसे को महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में फांसी की सजा हुई थी और उन्हें ब्रिटिश कानून के अनुसार 15 नबम्बर 1949 को अम्बाला जेल में फांसी पर लटका दिया गया था. ब्रिटिश कानून का जिक्र इसलिए किया है कि - तब तक भारत में ब्रिटिश कानून ही लागू था. भारतीय कानून 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था.
गोडसे की गांधी जी से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी और न ही लूट के लिए उसने ऐसा किया था. दरअसल बंटबारे के कारण हुए हिन्दुओं के कत्लेआम और बंटबारे में हुई बेईमानी के लिए अधिकाँश भारतीय गांधी जी को जिम्मेदार मानते थे, जो अपने आपको महान आत्मा साबित करने के चक्कर में हिन्दुओं के अधिकार लुटबाते जा रहे थे.
पिछले 500 साल से हिन्दुओं का पहले मुघलों से आजादी के लिए संघर्ष चल रहा था और उसके बाद अंग्रेजों से संघर्ष करना पड़ा. अंग्रेजों से संघर्ष के समय मुघलों के अत्याचार और हिन्दुस्थान की पूर्ण आजादी को भुला दिया गया था. हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग अलग देश की अवधारणा को मान लिया गया था, मगर इसमें भी बेइमानी हो गई.
मुसलमानों को तो अलग देश पापिस्तान दे दिया गया मगर हिन्दुओं को हिन्दुस्थान नहीं दिया गया. पापिस्तान में हिन्दुओं का भीषण कत्लेआम हुआ मगर गांधी उस पर खामोश रहे, लेकिन जब भारत में इसकी प्रतिक्रिया हुई तो गांधीजी हड़ताल पर बैठ गए. पापिस्तान की ऐसी हरकतों के बाबजूद गांधीजी ने पापिस्तान को 60 करोड़ रूपय भी दे दिए.
गांधीजी पापिस्तान को पूर्वी पापिस्तान को पश्चिमी पापिस्तान से जोड़नेवाला एक दस मील चौड़ा गलियारा भी देना चाहते थे. इन बातों के अलाबा गांधीजी का क्रांतिकारियों के प्रति जो व्यवहार था वह भी बहुत सारे लोगों को नागवार गुजरता था. इन्ही बातों को लेकर नाराज लोगों में से एक "नाथूराम गोडसे" ने गांधीजी की गोलीमारकर हत्या कर दी थी.
गांधी जी की हत्या करने के अपराध में गोडसे और नारायण आप्टे को 15 नबम्बर 1949 को अम्बाला जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया था. जिस तरह अंग्रेजो ने क्रांतिकारी त्रिमूर्ति का शव उनके परिजनो को नहीं सौपा था बल्कि खुद ही फिरोजपुर में सतलुज के किनारे तेल छिड़क कर जला दिया था, वही काम नेहरु सरकार ने भी इनके साथ किया.
सरकार ने गोडसे और आप्टे के शव को उनके परिजनों को नहीं सौपा बल्कि खुद ही चुपचाप अंतिम संस्कार कर दिया. अंतिम संस्कार करने के बाद, उनकी अस्थियों को एक कलस में डालकर, उसे अम्बाला - राजपुरा के मध्य में , बहने वाली घघ्घर नदी के पुल से नीचे फेंक दिया गया, संयोग से उन दिनों नदी में पानी बहुत कम था.
अस्थि कलश फेंककर आ रहे उन्ही जेलकर्मियों ने वापसी में, बातों बातों में यह बात अम्बाला के एक दुकानदार को बता दी. उस दुकानदार ने यह खबर हिन्दू महासभा के नेता और "दि ट्रिब्यून" अखबार के एक कर्मचारी "इंद्रसेन शर्मा" को खबर दे दी. "इंद्रसेन शर्मा" अपने दो साथियों के साथ दूकानदार द्वारा बताई हुई जगह पर पहुंच गए.
बरसात के मौसम के अलाबा घघ्घर नदी में पानी बहुत कम होता है. थोड़े से प्रयास के बाद नदी में से कलश को निकाल लिया गया. इसका पता चलते ही पुलिस भी वहां पहुँच गई लेकिन "दि ट्रिब्यून" जैसे प्रतिष्ठत अख़बार के कर्मियों से कलश छीनने की हिम्मत नहीं कर पाई. इन्द्रसेन जी ने वह कलश अम्बाला के प्रोफ़ेसर ओम प्रकाश कोहली को सौंप दिया.
प्रोफ़ेसर ओम प्रकाश कोहलीजी उस कलश को लेकर खुद नाशिक गए और उसे नाशिक में एल.वी.परांजपे को सौंप दिया. 1965 में नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे जब जेल से रिहा हुए तो परांजपे जी ने वह अस्थिकलश गोपाल गोडसे को सौप दिया. तब से लेकर आजतक यह अस्थिकलश उनके पूना स्थित आवास पर सुरक्षित रखा हुआ है.
प्रत्येक बर्ष 15 नबम्बर को उनके समर्थक पुना में इकठ्ठा होते हैं और गोडसे तथा आप्टे को श्रद्धांजली देकर अखंड भारत की कसम खाते हैं. गोपाल गोडसे का कहना था कि- जिस तरह यहूदियों ने 1600 साल बाद अपना यरुशलम वापस लिया था उसी तरह हम भी अपना अखंड भारत हाशिल करके रहेंगे. भारत माता की जय, वन्दे मातरम .

अंग्रेजी शासन के बफादार कौन थे ? कांग्रेसी या हिन्दू महासभाई

लन्दन के बकिंघम पैलेस में, ब्रिटेन की महारानी / महाराजा से ‘नाइटहुड’ (सर) की उपाधि लेने की प्रक्रिया अत्यन्त अपमानजनक है. यह उपाधि लेनेवाले व्यक्ति को ब्रिटेन के प्रति वफादारी की शपथ लेनी पड़ती है और इसके पश्चात् उसे महारानी / महाराजा के समक्ष सिर झुकाकर अपना दायाँ घुटना टिकाना पड़ता है.
ठीक इसी समय महारानी / महाराजा उपाधि लेनेवाले व्यक्ति की गरदन के पास दोनों कन्धों पर नंगी तलवार से स्पर्श करते हैं. उसके बाद महारानी / महाराजा उपाधि लेने वाले व्यक्ति को ‘नाइटहुड’ पदक देकर बधाई देते हैं. यह प्रक्रिया सैकड़ों वर्ष पुरानी है और भारत में जिस जिसको यह उपाधि मिली वो सभी ‘सर’ इस प्रक्रिया से गुजरे थे.
ब्रिटेन अपने देश और अपने उपनिवेशों में अपने चाटुकारों को ब्रिटेन के प्रति निष्ठवान बनाने के लिए ऐसी अनेक उपाधियाँ देता रहा है. नाइटहुड (सर) की उपाधि उनमें सर्वोच्च होती थी.अनेको राजा-महाराजा, सेठ-साहूकार, राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद् आदि ब्रिटेन के प्रति वफादार रहने की शपथ लेने के बाद ही ‘नाइटहुड’ से सम्मानित किए गए थे.
ब्रिटिश हुकूमत उसी को नाइटहुड (सर) की उपाधि से सम्मानित करती थी जिसे वो अपना वफादार मानती थी. हालांकि औपचारिक रूप से कहा यह जाता था कि व्यक्ति को अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए यह उपाधि दी जाती है. इसीलिए कभी कभी दिखावे के लिए कुछ वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, शिक्षाविदों को भी यह उपाधि दे देते थे.
जैसा कि- सभी जानते हैं कि एक अंग्रेज कलक्टर "ए. ऑ; ह्युम" ने रिटायर होने के बाद कुछ अंग्रेजो और कुछ अंग्रेज टाइप भारतीयों को लेकर एक पार्टी "कांग्रेस" का गठन किया था. इसका मकसद था अंग्रेजों और भारतीयों के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करना. इसने इतना जबरदस्त काम किया कि - अगले बीस साल तक क्रान्ति की कोई घटना नहीं हुई.
इस बजह से ब्रिटिश सरकार ने अनेकों कांग्रेसियों को सर की उपाधि से विभूषित किया. 1890 में कांग्रेस अध्यक्ष रहे "फिरोजशाह मेहता" को 1904 नाइटहुड (सर) की उपाधि दे गई. 1900 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे "नारायण गणेश चंदावरकर" को पहले 1901 में बोम्बे हाईकोर्ट का जज बनाया गया. उन्होंने जज रहते हुए क्रांतिकारियों को खूब सजाये सुनाई.
"नारायण गणेश चंदावरकर" के फैसलों का सबसे ज्यादा शिकार बने थे "अभिनव भारत" दल के कार्यकर्ता. नाशिक के कलक्टर "जैक्शन" की हत्या के मामले उन्होंने बहुत ज्यादा इंटरेस्ट लिया. इस मामले में अनेकों क्रांतिकारियों को फांसी, कालापानी से लेकर 3 से 7 साल की सजा दी गई थी, इससे खुश होकर 1910 में उन्हें सर की उपाधि दी गई.
1907 और 1908 में लगातार दो बार अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. रासबिहारी घोष (रास बिहारी बोस नहीं) को भी सन 1915 में नाइटहुड (सर) की उपाधि से सम्मानित किया था. 1897 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे "चेत्तूर संकरन नायर" को अंग्रेजों ने 1904 में "कम्पेनियन ऑफ इंडियन एम्पायर" की उपाधि दी.
इसके अलाबा "चेत्तूर संकरन नायर" को मद्रास हाईकोर्ट का जज नियुक्त किया और 1912 में उनको भी नाइटहुड (सर) की उपाधि दी. अंग्रेज राजा "जार्ज पंचम" के भारत आने पर उसकी तारीफ़ में जन -गन - मन लिखने वाले "रविन्द्र नाथ टैगोर" को तो नाइटहुड (सर) के अलाबा "नोबेल पुरुष्कार" तक दिया गया था.
यह तो हुए बड़े नाम और बड़े पुरष्कार. अंग्रेजों ने इससे कुछ छोटे स्तर की उपाधिया और पुरस्कार भी बनाए थे जैसे - खान साहिब, खान बहादुर, राय बहादुर, आदि. जिन लोगों को ऐसे पुरस्कार मिले थे. तमाम नबाब, राजाओं, जमीदारों, आदि को खान बहादुर, राय बहादुर की उपाधि दे गई. आजाद भारत में "नेहरु" " ने भी उनको बड़े पद दिए थे
ऐसा ही एक नाम है "फजल अली". अंग्रेजों ने पहले इसे खान साहिब, फिर खान बहादुर की उपाधि दी. इसने "अंग्रेजों भारत छोड़ो" आन्दोलन में मुसलमानों से आन्दोलन में शामिल न होने की अपील की थी, जिसके इनाम में इसे भी नाइटहुड (सर) से सम्मानित किया गया. आजादी के बाद नेहरु ने इन्हें पहले उड़ीसा का फिर असम का गवर्नर बनाया.
"एन. गोपालस्वामी अय्यंगर" नाम के एक नौकरशाह को अंग्रेजो ने 1941 में नाइटहुड (सर) की उपाधि के अलावा दीवान बहादुर, आर्डर ऑफ दी इंडियन एम्पायर, कम्पेनियन ऑफ दी ऑर्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इंडिया आदि 7 अन्य उपाधियों दी थीं, आजादी मिलते ही नेहरु ने उसे पहले बिना विभाग का मंत्री बनकर अपनी कैबिनेट में जगह दी.
उसके बाद फिर "अय्यंगर" को 1948 से 1952 तक देश का पहला रेलमंत्री नियुक्त किया और 1952 में उसे देश के रक्षामंत्री जैसा महत्वपूर्ण पद दिया. यह तो बस कुछेक उदाहरण हैं, अंग्रेजों के बफादारों को ब्रिटिश शासन में ऐसी उपाधियाँ मिलना तथा नेहरु के राज में उनको बड़े पद मिलना आम बात थी. ऐसे लोगों की संख्या हजारों में है.
अंग्रेजी राज में किसी का भी शासन के प्रति बफादार होना, भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के प्रति गद्दार माना जाना चाहिए. इसके बाबजूद सत्ता के दम पर अपने आपको क्रांतिकारी तथा हिन्दू महासभा / आरएसएस को अंग्रेजो का चापलूस कहकर प्रचारित किया. क्या कोई कांग्रेसी बतायेगा कि- किस हिन्दू महासभाई / संघी को ऐसे पुरस्कार दिए गए ?

जिन्ना की बेटी डीना वाडिया

देश का विभाजन और विभाजन के समय हुए लाखों लोगों के क़त्ल के जिम्मेदार "जिन्ना" पर सवाल उठने पर जिन्ना के समर्थक कैसे कैसे कुतर्क देते है , देखकर आश्चर्य होता है. सभी भारत वाशियों को चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, उसे जिन्ना की तश्वीर को सम्मान देने का बिरोध करना चाहिए था, मगर यहाँ लोग उसकी सफाई दे रहे है.
जब उनके सारे कुतर्क काट दिए गए और वे निरुत्तर हो गए तो अब अपनी शर्मिंदगी को छुपाने के लिए एक दो नए कुतर्क और लाये हैं , हालांकि उनको खुद पता है कि- अपने इन कुतर्कों पर भी दो तीन कमेन्ट से आगे जबाब नहीं दे पायेंगे. ऐसा ही एक कुतर्क जिन्ना की बेटी डीना वादया और जिन्ना के नाम की अन्य इमारतों को लेकर कर रहे हैं.
उनका कहना है कि- भारत में जिन्ना हाउस / जिन्ना टावर अदि जैसी जिन्ना के नाम की कई इमारते हैं उनको तोड़ क्यों नहीं देते ? तो इस पर मेरा जबाब है कि- इनको हम तोड़ें क्यों ? यह तो अब भारत की संपत्ति है. पापिस्तान से युद्ध के समय जो टैंक, गाड़ियाँ, हथियार आदि भारत ने छीने थे वो आज भारत की संपत्ति है न कि पापिस्तान की.
अंग्रेजों ने अपने शासन के समय जो इण्डिया गेट, गेट वे आफ इण्डिया, वायसराय हाउस, विक्टोरिया मेमोरियल, रेल नेटवर्क आदि बनाया था उस आज भारत का अधिकार है न कि अंग्रेजों का. इसी तरह जिन्ना की तथा जिन्ना के नाम की प्रत्येक प्रापर्टी पर सरकार का कब्जा होना चाहिए तथा उनका नाम भारतीय महापुरूषों के नाम पर रखा जाना चाहिए.
अब बात करते हैं जिन्ना की बेटी "डीना" की. उन कुतर्कियों (ज्यादातर मुस्लिम्स) का कहना है कि- वादिया ग्रुप का भी बिरोध होना चाहिए क्योंकि वो जिन्ना का दामाद है. इसका जबाब भी अलग अलग कई जगह दे चुका हूँ फिर भी सबको बताने के लिए यहाँ इस पोस्ट में इसका जबाब दे रहा हूँ. डीना वादिया उनका परिवार हमारी नफरत के नहीं बल्कि सम्मान के योग्य है.
डीना का जन्म 15 अगस्त 1919 में हुआ था. 1929 में उनकी माँ की म्रत्यु रहस्यमयी परितिथियों में हो गई थी. माँ की मौत के बाद 10 साल की बच्ची डीना आश्चर्यजंक रूप से अचानक ही अपने पिता से दूर रहने लगी थी. तब डीना की बुआ ने डीना को सम्हाला. इधर जिन्ना राजनीति और पापिस्तान की योजना में व्यस्त होकर बेटी को भूल गए.
उनको अपनी बेटी की याद 1937 में तब आई जब उनको पता चला कि - उनकी 17 साल की बेटी का एक पारसी व्यापारी के बेटे "निवेल वाडिया" से प्रेमप्रसंग चल रहा है. तब उन्होंने अपनी बहन को फटकार कर निकाल दिया और "डीना" पर सख्ती करने की कोशिश की, क्योंकि इससे उनकी कट्टर मुस्लिम धार्मिक राजनीति पर असर पड़ सकता था.
लेकिन डीना ने अपने पिता और मजहब को छोड़ दिया और 1938 में पारसी रीति रिवाज के साथ निवेल वाडिया से शादी कर ली. इससे उनके दो बच्चे हुए. एक नुस्ली वाडिया दुसरे का नाम अभी याद नहीं. नुस्ली वाडिया के दो बेटे हैं एक नेस वाडिया और दूसरा जहांगीर वाडिया. वाडिया परिवार भारत का बहुत बड़ा सफल औद्योगिक घराना है.
जिन्ना ने पापिस्तान बनाया लेकिन "डीना" ने न पापिस्तान से कोई मतलब रखा था और न अपने पिता से. शादी करने के बाद वह अपने पिता से कभी नहीं मिली. 1948 में जिन्ना की म्रत्यु के बाद वह अवश्य पापिस्तान गई. उसके बाद उन्होंने पापिस्तान से कोई मतलब नहीं रखा. 85 साल की आयु में वे दुसरी और आखिरा बार वह 2004 में पापिस्तान गईं.
2017 में 98 साल की आयु में उनकी म्रत्यु अमेरिका में हुई. अब आप ही बताइये "डीना वाडिया" को सच्ची भारतीय कहकर सम्मान देना चाहिए या उनको जिन्ना की बेटी कहकर नफरत करनी चाहिए ? नफरत तो हमें उन भारतीयों से है जो भारत के प्रधान मंत्री को तो गाली देते हैं और पापिस्तान के कायदे आजम की पूजा करते हैं . वंदेमातरम्

रायसेन का जौहर


हिन्दू राजाओं में राज्य के विस्तार के लिए लड़ाइयाँ होती रहती थी. उनकी आपस की लड़ाई के बाद भी राज्यों की सत्ता बदलती थी मगर इतिहास में ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जिसमे किसी जीते हुए राजा ने हारे हुए राजा के परिवार अथवा राज्य की स्त्रीयों को अपमानित किया हो, इसलिए ऐसे किसी युद्ध के बाद जौहर का जिक्र इतिहास में नहीं मिलता है.
जौहर की आवश्यकता केवल इस्लामी आक्रमणकारियों के हमले के बाद हुई क्योंकि यह अमानव हारे हुए राजा के परिवार और राज्य की स्त्रीयों को अपना गुलाम समझते थे और उनको उठाकर अपने हरम में ले जाते थे. इस्लामी आक्रमणकारियों से अपनी इज्ज़त बचाने के लिए भारत की अनेकों स्वाभिमानी स्त्रीयों ने जौहर (आत्मदाह) किये है.
चित्तौड़ और रणथमभौर ही नहीं भारत में अनेकों ऐसे स्थान हैं जहाँ जेहादियों से अपनी इज्ज़त बचाने के लिए स्वाभमानी महिलाओं ने जौहर किया था. ऐसा ही एक राज्य की गाथा है "रायसेन का जौहर". रायसेन का यह किला भोपाल के पास स्थित है. यह 1532ई. की घटना है जब रायसेन में "राजा शिलादित्य सेन" का राज था.
"राजा शिलादित्य सेन" का रायेसेंन, भोजपाल, विदिशा, आषटा, आदि तक राज था. मालवा (उज्जैन, इंदौर) में महमूद शाह खिलजी का शासन था तथा गुजरात में "बहादुर शाह द्वितीय" का शासन था. बहादुर शाह गुजरात के अलावा राजस्थान का भी कुछ भाग जीत चुका था और वह अपने शासन का मध्यप्रदेश भी विस्तार करना चाहता था.
उसने एक सन्देश रायसेन में "राजा शिलादित्य सेन" के पास भेजा कि- मेरी "महमूद शाह खिलजी" से दुश्मनी है. आप अगर हमारा साथ दें तो हम उसको पकड़कर सजा देना चाहते है बदले में मालवा आपका होगा. "राजा शिलादित्य सेन" भी महाकाल की नगरी उज्जैन को आजाद कराना चाहते थे इसलिए उन्होंने "बहादुरशाह द्वितीय" के प्रस्ताव को मान लिया.
जून 1531 ईस्वी मे "वहादुर शाह द्वितीय" ने मालवा पर आक्रमण कर दिया. रायसेन के राजा "राजा शिलादित्य सेन" ने भी दुसरी तरफ से मालवा पर हमला कर दिया. युद्ध जीतने के बाद "वहादुर शाह द्वितीय" "महमूद शाह खिलजी" को पकड़ ले गया और बाद में मार दिया. उज्जैन पर "राजा शिलादित्य सेन" का अधिकार हो गया,
"राजा शिलादित्य" को खबर लगी कि- शेरशाह सूरी रायसेन पर हमले की तैयारी कर रहा है. तो उन्होंने अपने बड़े बेटे "भूपति सेन" को बड़ी सेना देकर शेरशाह का रास्ता रोकने और राजस्थान के राजाओं से मिलने भेज दिया. साथ ही उन्होंने मित्र समझकर इसकी खबर "वहादुर शाह" को भी भेज दी, जिससे कि जरूरत पड़ने पर उसकी मदद मिल सके.
दिसंबर 1531 में "वहादुर शाह" ने अपने एक अमीर "नस्सन खान" को "राजा शिलादित्य सेन" के पास रायसेन दुर्ग में भेजा और कहलवाया कि - मैं आप से मिलकर रणनीति बनाना चाहता हूँ, मैं नालछा जा रहा हूँ आप वहां आकर मिलने की कृपा करें, "राजा शिलादित्य सेन" उसे मित्र समझकर मिलने चले गए मगर "वहादुर शाह" ने उनको बंदी बना लिया.
"शिलादित्य" के साथ गऐ कुछ सैनिको ने उज्जैन पहुंच कर "राजा शिलादित्य सेन" के छोटे बेटे "लक्ष्मण सेन" को सूचना दी. "लक्ष्मण सेन" ने इस घटना की जानकारी अपने बड़े भाई "भूपति सेन" को देने के लिए दूत चित्तौड़ की तरफ रवाना किये और स्वयं रायसेन की रक्षा के लिए निकल पड़ा. इधर बहादुर शाह ने उज्जैन पर आक्रमण कर दिया.
जनवरी 1532 में उसने सारंगपुर, आषटा और विदिशा पर भी कब्ज़ा कर लिया.उसने इस क्षेत्र के अनेकों मंदिरों सहित मूर्ति पूजा के समस्त चिन्हों को जमींदोज कर दिया गया. 17 जनवरी 1532 ई. को बहादुर शाह, रायसेन दुर्ग के सामने जा पहुंचा. उसने सन्देश दिया कि- तुम लोग आत्मसमर्पण कर दो अन्यथा कैद में "शिलादित्य" को मार दिया जाएगा.
"राजा शिलादित्य सेन" की पत्नी "रानी दुर्गावती" ने किले का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया और संघर्ष का ऐलान कर दिया. राजकुमार लक्षंमन सेन के नेत्रत्व में रायसेन युद्ध के लिए तैयार होने लगा. बहादुरशाह चाहता थ कि- भूपतिसेन के आने से पहले किले पर कब्ज़ा नहीं हुआ तो बाद में बहुत मुश्किल हो सकती है. इसलिए उसे रायसेन पर कब्जे की जल्दी थी.
बहादुर शाह ने "राजा शिलादित्य सेन" से कहा कि- अगर तुम इस्लाम कुबूल कर लो तो तुम्हारे राज्य को छोड़दूंगा. "राजा शिलादित्य सेन" उसके कमीनेपन से वाकिफ हो चुके थे, इसलिए उन्होंने चाल चलते हुए इस्लाम कुबूल करने के लिए हामी भर दी. इस्लाम कुबूल करने के बाद "शिलादित्य सेन" का नाम सलाहुद्दीन रख दिया गया.
बहादुर शाह ने "शिलादित्य सेन" से रानी और बेटे के नाम सन्देश लिखने को कहा कि- मैं इस्लाम कुबूल कर चूका हूँ और अब बहादूर शाह हमारे मित्र हैं, इसलिए इनके लिए किले के फाटक खोल दिए जाएँ. "शिलादित्य सेन" ने बहादुर शाह के सन्देश के साथ अपनी स्थिति भी सांकेतिक भाषा में लिख दी, जिसे बहादुर शाह समझ नहीं सका.
सन्देश लिखवाने के बाद बहादुर शाह ने "शिलादित्य" को मान्डू के किले में कैद कर दिया. जब रानी दुर्गावती को राजा शिलादित्य का सन्देश मिला, तो वे राजा के गुप्त सन्देश को भी समझ गई. उन्होंने सन्देश भेजा कि- यदि महाराज ने इस्लाम कबूल कर लिया है तो हम भी कबूल कर लेंगे लेकिन यह बात महाराज को यहाँ आकर खुद कहनी होगी.
बहादुर शाह को किले पर कब्जे की जल्दी थी क्योंकि उसे खबर लग चुकी थी कि-भूपति सेन अपनी सेना के साथ चित्तौड़ की सेना लेकर लौट रहा है. अगर उसके आने से पहले किले पर कब्ज़ा हो गया तो वह भूपति सेन को भी हरा देगा. बहादुर शाह ने कुछ सैनिको और अपने सिपहसलार "मलिक शेर" के साथ शिलादित्य को रायसेन किले में भेज दिया.
इधर शिलादित्य भी लगातार यही प्रदर्शित करता रहा कि-उसने दिल से इस्लाम काबुल लिया है और रायसेन पहुँचकर अपने अन्य लोगों से भी इस्लाम कुबूल करवा लेगा. किले में पहुँचते ही शिलादित्य ने महारानी दुर्गावती एवं लक्ष्मण सेन आदि से भैट की.उनसे मिलते राजा शिलादित्य ने ऐलान कर दिया कि हम अंतिम सांस तक युद्ध लड़ेंगे.
"राजकुमार लक्षमण सेन" ने पुरुषों से "शाका" करने तथा "रानी दुर्गावती" ने महिलाओं से जौहर के लिए तैयार होने को कहा. किले के फाटक खोल दिए गए और राजपूत योद्धा केसरिया बाना पहनकर अंतिमयुद्ध (शाका) के लिए निकल पड़े. किले के भीतर जौहर की अग्नि तैयार कर दी गई. भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया.
चार दिन तक चले इस युद्ध में मुट्ठीभर राजपूतों ने बहादुरशाह की आधी सेना को मार गिराया लेकिन साथ ही रायसेन का हर सैनिक मारा गया. बहादुर शाह ने उनकी महिलाओं को उठाने के लिए किले में प्रवेश किया तो वहां महिलाओं और बच्चों की केवल राख मिली. किले में मौजूद सभी स्तिरीयाँ अपने बच्चों को साथ लेकर जौहर कर चुकी थी.
महाराज शिलादित्य अंतिम समय तक सेना का नेतृत्व करते हुए 10 मई 1532 ई्. को वीरगति को प्राप्त हुऐ. बहादुर शाह ने उनके मृत्यु स्थल पर एक कब्र बनवा दी, जिसे आज भी सलाहुद्दीन की मजार कहा जाता है. यह समाधि दुर्ग के बारादरी महल के पास स्थित है. राजा के बड़े पुत्र भूपति सेन को यह समाचार मिला तो वह तेज गति से रायसेन को दौड़ा.
बहादुरशाह को भूपति सेन के आने की खबर मिली तो वह "आलम खां लोदी" को रायसेन का प्रशासक नियुक्त कर गुजरात को निकल गया. भूपति सेन ने रायसेन पहुंचकर "आलम खां लोदी" पर भीषण हमला किया और उसकी सेना के एक एक सैनिक को जान से मार दिया. आलम खां लोदी किसी तरह से जान बचाकर भाग गया.
भूपति सेन ने किले पर पुनः कब्ज़ा बहाल कर लिया. भूपति सेन ने किले को पुनः सुद्रढ़ किया. 10 साल भूपति सेन ने रायसेन पर राज किया लेकिन 1543 में हुमायूं ने रायसेन पर हमला कर दिया. तब राजा भूपति सेन ने शाका तथा रानी रत्नावती ने जौहर किया था, उसके बाद लम्बे समय तक रायसेन पर मुघलों का कब्ज़ा बना रहा.

खजुराहो

खजुराहो भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त में स्थित एक प्रमुख शहर है जो अपने प्राचीन एवं कलात्मक भवनों के लिये विश्वविख्यात है. खजुराहो का इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है. यह शहर चन्देल साम्राज्‍य की प्रथम राजधानी था. खजुराहो के मंदिरों का निर्माण 950 ईसवीं से 1050 ईसवीं के बीच चन्देल राजाओं द्वारा किया गया था.

खजुराहो में यूं तो अनेकों ऐसे प्राचीन भवन और मंदिर हैं जिनको वास्तुकला का असाधारण नमूना कहा जा सकता है, लेकिन खजुराहों की प्रसिद्धि की मुख्य बजह वह भवन हैं जिनमे संभोग की विभिन्न मुद्राओं को कलात्मक रूप से उभारा गया है. दुनिया भर के पर्यटक, "प्रेम" के इस अप्रतिम सौंदर्य के प्रतीक को देखने के लिए, निरंतर आते रहते है.

भारत और भारतीय संस्क्रति के दुश्मन, इन भवनों और उनमे बनाई गई मूर्तियों को लेकर, अक्सर भारतीय संस्क्रति का अपमान भी करते रहते हैं जबकि सारा विश्व इन्हें दुनिया को भारत की अनमोल देन मानता है. खजुराहो के भवनों में जो दिखाया गया है वह भी जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसको आमतौर पर खुले आम प्रदर्शन नहीं होता है.

तब इन भवनों को बनाने का आखिर क्या उद्देश्य रहा होगा ? हमें गर्व है कि भारत में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को जान्ने और समझने की निरंतर प्रिक्रिया चलती रहती आई है. हमारी संस्क्रति में "काम" को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है. इसको सबसे बड़े "पुरुषार्थ" में भी गिना जाता है और इसे जीवन की सबसे बड़ी "बुराई" भी माना जाता है.

हमारे पूर्वजों ने जीवन के प्रत्येक अंग का गहन अध्यन किया है. जीवन का विस्त्रत अध्यन करने के बाद उन मनीषियों ने प्रत्येक मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ ( धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष ) बताये हैं. "काम" के महत्त्व को समझते हुए इसे जीवन का एक महत्वपूर्ण पुरुषार्थ कहा गया है. क्योंकि काम के द्वारा ही स्रष्टि, आगे से आगे चलती है.

इसी प्रकार जिन चार बुराइयों ( काम, क्रोध, लोभ और मोह) को सबसे ज्यादा विनाशकारी बताया गया है उन चार महा बुराइयों मे भी "काम" को रखा गया है. अर्थात "काम" जब तक सृजन के लिए है तब तो वह एक पुरुषार्थ है और अगर यही "काम" अनियंत्रित होकर कामंधता में बदल जाए तो महाविनाशकारी भी हो जाता है.

खजुराहो के भवनों में इसी "कामकला" को सिखाया गया है. सभी बड़े भवनों को आमतौर पर मदिर भले ही कह दिया जाता हो लेकिन यह भवन वास्तव में कोई उपासना स्थल नहीं है और न ही यहाँ कोई पूजा पाठ करने जाता है. यह एक तरह से प्राचीन काल के "हनीमून प्वाइंट" जहां लोग "क्वालिटी टाइम" बिताने और कुछ सीखने आते थे.

इन भवनों के साथ मंदिर शब्द जोड़कर, वो असभ्य और बर्बर जातियां, भारतीय संस्क्रति का सबसे ज्यादा मजाक उडाती हैं जिनके यहाँ कामान्धता धर्म का हिस्सा है. जिनके यहाँ औरत को इंसान तक नहीं समझा जाता है. लड़ाई में शत्रु को हराने के बाद शत्रु के परिवार की स्त्रियों को सताना, जहां जीत की निशानी समझा जाता है.

खजुराहो के यह भवन दुनिया भर के लोगों को "कामज्ञान" देने और "छुट्टी मनाने" के लिए जाने के स्थल हैं न की कोई उपासना स्थल. यह मनोरंजन के स्थल है तीर्थस्थल नहीं है. इनका अपना बहुत बड़ा महत्त्व है. पति पत्नी को एक साथ एक बार यहाँ अवश्य जाना चाहिए और मनोरजन के साथ प्राचीन "काम ज्ञान" को समझना चाहिए.

इसका महत्त्व वो लोग नहीं समझ सकते जिनके यहाँ लोग सत्ता के लिए अपनी 9 साल की बेटी को 54 साल आदमी को सौंप देते हैं, इस बर्बर समुदाय के लोग भले ही खजुराहो के भवनों को लेकर भारतीय संस्क्रति का मजाक उड़ाते हो लेकिन यह हकीकत है कि - इंटरनेट पर अश्लील चित्र और फिल्मे देखने में भी यही लोग सबसे आगे हैं.

Wednesday, 2 May 2018

धर्म रक्षक महान सम्राट राजा सुहेल देव पासी

यह सत्य है कि- भारत में अधिकाँश समय और अधिकाँश स्थानों पर क्षत्रियों का राज रहा है लेकिन यह भी सत्य है कि - इसका कारण उनकी क्षमता थी न कि उनका क्षत्रीय होना. अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने पर यहाँ ब्राह्मणों, वैश्यों ने ही नही बल्कि शूद्र कहे जाने वाले समुदाय के लोगों ने भी राज किया है और सभी ने उनको पूरा सम्मान भी दिया है.
चन्द्रगुप्त मौर्य भी तथाकथित शुद्र जाति के थे जिन्होंने ब्राह्मण "चाणक्य" के मार्गदर्शन में एक शातिशाली साम्राज्य खडा किया था. मौर्य वंश के बाद "शुंग वंश" का शासन हुआ जो कि ब्राह्मण थे, राजा हेमचन्द्र विक्रमादित्य वैश्य थे. हिन्दूराष्ट्र का सपना साकार करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज भी कुर्मी (ओबीसी) थे जिनके अधीन पेशवा ब्राह्मण थे.
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि- किसी व्यक्ति में राज करने क्षमता हो तो जाति इसमें कोई बाधा नहीं आती है. 1027 ई. से 1077 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश में साजा सुहेलदेव पासी का साम्राज्य रहा है. आज के हिसाब से उनकी जाति अतिदलित कही जाती है. राजा सुहेलदेव पासी को इस क्षेत्र में जो सम्मान प्राप्त है वो इस क्षेत्र में आज तक किसी को नहीं है.
राजा सुहेलदेव पासी का अपने समय में इतना प्रभाव था कि - अयोध्या विध्वंश को आये गजनी के भतीजे "सालार मसूद" को रोकने के लिए हुई लड़ाई के समय में क्षेत्र के 17 अन्य राजाओं ने उनके नेत्रत्व में संयुक्त लड़ाई लड़ी थी. इस लड़ाई में सालार मसूद सहित उसकी सारी सेना को काट कर फेंक दिया गया था और किसी को भी वापस नहीं जाने दिया था.
इतिहास के अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी. महाराजा प्रसेनजित को माघ मांह की बसंत पंचमी के दिन 990 ई. को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम सुहेलदेव रखा गया. ऐ वे जाति के पासी थे, महाराजा सुहेलदेव का साम्राज्य पूर्व में गोरखपुर तथा पश्चिम में सीतापुर तक फैला हुआ था.
राजा सुहेलदेव के प्रताप और धर्मपरायणता को देखते हुए, गोंडा, लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद, उन्नाव, गोला व लखीमपुर आदि के राजाओं ने उनको अपना महाराजा मान लिया था. राजा सुहेल देव के दो भाई भी थे "बहरदेव" व "मल्लदेव". वे दोनों भी थे जो अपने बड़े भाई के समान वीर थे तथा अपने भाई का पिता की भांति सम्मान करते थे.
"महमूद गजनवी" गुजरात और मध्यप्रदेश पर हमला कर लूटा था और यहाँ के मंदिरों ( सोमनाथ, भोजशाला, आदि) का विध्वंश किया था और गाजी की उपाधि हाशिल की थी. "महमूद गजनवी" की मृत्य के पश्चात् उसके भतीजे "सैयद सालार मसूद" ने "गाजी" कहलवाने के लिए भारत पर हमला कर "अयोध्या" को विध्वंश करने का मंसूबा बनाया.
उसने दिल्ली पर आक्रमण किया. दिल्ली के राजा राय महीपाल व उनके भाई राय हरगोपाल ने उसको कड़ी टक्कर दी. लड़ाई के दौरान राय हरगोपाल ने अपनी गदा से मसूद पर प्रहार किया जिससे उसकी आंख पर गंभीर चोट आई तथा उसके दो दाँत टूट गए थे. मसूद हारकर लौटने ही वाला था कि - गजनी से उसके साथी बड़ी घुड़सवार सेना के साथ आ गए.
बख्तियार साहू, सालार सैफुद्ीन, अमीर सैयद एजाजुद्वीन, मलिक दौलत मिया, रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह आदि की धुड़सवार सेना का साथ मिलजाने से मसूद की ताकत बढ़ गई और वह दिल्ली को जीतने में कामयाब रहा. अब उसका लक्ष्य हिन्दू धर्म के केंद्र अयोध्या, सतरिख, वाराणसी, आदि को विध्वंश करना था.
उसकी विशाल सेना को देखकर मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं, कन्नौज, आदि के राजाओं ने उससे लड़ने के बजाय संधि कर ली और इस्लाम कबूल लिया. सालार मसूद ने कन्नौज को अपना केंद्र बनाकर हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएं भेजना प्रारंभ किया. उसने मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा अयोध्या की तरफ चल दिया.
जब मसूद दिल्ली को जीतकर आगे बढ़ा था तब ही "राजा सुहेल देव पासी" के गुप्तचरों ने खबर दे दी थी कि- मसूद का असली लक्ष्य अयोध्या है. सुहेलदेव अपने गुप्तचरों द्वारा "मसूद" की लगातार खबर ले रहे थे. उन्होंने बहराइच के आसपास के सभी राजाओं को समझाकर लामबंद करना शुरू कर दिया.
राजा रायब, राजा सायब, अर्जुन भीखन गंग, शंकर, करन, बीरबर, जयपाल, श्रीपाल, हरपाल, हरख्, जोधारी व नरसिंह महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में लामबंद हो गये. सुहेलदेव ने अपना दूत बाराबंकी और कन्नौज भी भेजा था. बाराबंकी का राजा उनके साथ शामिल नहीं हुआ तथा कन्नौज का राजा बाद में मसूद से मिल गया था.
कन्नौज के राजा ने इस्लाम कबूल करने के बाद मसूद को अयोध्या से पहले बहराइच पर आक्रमण करने के लिए उकसाया. उसने मसूद को समझाया कि- इस क्षेत्र में सबसे बड़ी बाधा "राजा सुहेल देव पासी" ही है. इसलिए अयोध्या से पहले बहराइच पर हमला करना चाहिए. साथ ही उसने सुहेलदेव को अपमानित करने की योजना बनाई.
कन्नौज से सालार मसूद ने अपना दूत सुहेलदेव के पास भेजा और यह सन्देश दिया कि- या तो इस्लाम कबुल कर हमारे साथ आ जाओ, या फिर अपनी पत्नी को मेरे हरम में भेज दो. वरना तुम्हारा सर्वनाश कर दिया जाएगा. कहते हैं कि- इस बात पर क्रोधित होकर सुहेलदेव ने तलवार के एक ही बार से दूत के सर से धड तक दो टुकड़ों में चीर दिया.
इसके बाद सालार मसूद ने पहले बाराबंकी पर हमला किया. बाराबंकी पर हमले की खबर मिलते ही सुहेल्देब ने सभी मित्र राजाओ को एकत्रित होने का सन्देश दिया. ये राजा बहराइच शहर के उत्तर की ओर आठ मील की दूर भकला नदी के किनारे अपनी सेना सहित उपस्थित हुए. कन्नौज के राजा को राजा सुहेलदेव की योजना का पता था.
सुहेलदेव व मित्र राजा अभी योजना बना ही रहे थे कि- मसूद की सेना ने उनकी सोई हुई सेना पर भीषण हमला कर दिया. उनको रात्री आक्रमण का अंदाजा नहीं था क्योंकि भारत में ऐसी कोई परम्परा तब तक नहीं थी. इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई मे सालार मसूद बिजयी रहा.
राजा सुहेलदेव ने आव्हान किया कि- यह धर्मयुद्ध है और हर किसी को अपना योगदान देना चाहिए, कहा जाता है कि - सुहेलदेव के आव्हान पर प्रत्येक घर से एक लड़का सेना में शामिल हो गया था. रात्री हमले की संभावना को देखते हुए सुहेलदेव ने मार्ग में जगह जगह बिषबुझी कीले बिछवा दीं, इसका लाभ उनको दूसरे रात्री हमले में मिला.
जून 1034 में दोनों और की सेनाये खुलकर आमने सामने आ गईं. लड़ाई का क्षेत्र चिंतौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था. सालार मसूद ने दाहिने पार्श्व (मैमना) की कमान मीरनसरूल्ला को तथा बाये पार्श्व (मैसरा) की कमान सालार रज्जब को सौपि तथा स्वयं केंद्र (कल्ब) की कमान संभाल कर आक्रमण करने का आदेश दिया.
इस बार सुहेलदेव की सेना पूरी तरह से तैयार थी. वे लोग भूखे शेरोन की तरह जेहादियों पर टूट पड़े. 8 जून, 1034 को हुई इस लड़ाई में मीर नसरूल्लाह को बहराइच के उत्तर में बारह मील की दूर स्थित ग्राम "दिकोली" के पास मार दिया गया और मसूद के भांजे सालार रज्जब को बहराइच के पूर्व में स्थित ग्राम शाहपुर जोत मे मार दिया गया.
राजा करण के नेतृत्व में हिन्दू सेना ने इस्लामी सेना के केंद्र पर आक्रमण किया जिसका नेतृत्व सालार मसूद स्वंय कर रहा था. उसने सालार मसूद को धेर लिया. सालार सैफुद्दीन उसकी सहायता को आगे बढ़ा लेकिन राजा करण ने उसे मार गिराया. बहराइच-नानपारा रेलवे लाइन के पास उत्तर बहराइच सैफुद्दीन कीमजार बनी हुई है.
10 जून, 1034 को महाराजा सुहेलदेव पासी के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया. इस युद्ध में सालार मसूद अधिक देर तक ठहर न सका. राजा सुहेलदेव ने युद्ध शुरू होते ही अपने बिषबुझे बाण का निशाना बना लिया. उसके मरते ही जेहादी सेना में भगदड़ मच गई.
हिन्दू सेना ने जेहादी सेना को गाजर मूली की तरह काटना शुरू कर दिया. दुसरे दिन सालार इब्राहीम ने सुहेलदेव के पास संधि का प्रस्ताव भेजा. मगर सुहेलदेव ने यह कहकर इनकार कर दिया कि- जो लोग सोते हुए सैनिको पर हमला कर सकते हैं, उनपर भरोसा नहीं किया जा सकता. सुहेल देव ने सालार इब्राहीम का भी बध कर दिया.
सुहेलदेव ने घोषणा कर दी कि- मैं भगवान् सूर्य का भक्त हूँ और इन म्लेच्छों ने सूर्यवंशी भगवान राम की नगरी पर गंदी नजर डाली है इसलिए इनको माफ़ नहीं किया जा सकता. अपनी सेना और प्रजा से सुहेलदेव ने आव्हान किया कि- एक भी दुश्मन ज़िंदा वापस नहीं जाना चाहिए. इनको मारकर इनके घोड़े, हथियार और धन छीन लो. .
उसके बाद सारी म्लेच्छ सेना को मारकर उनके हर सामान पर कब्ज़ा कर लिया गया. सुहेलदेव ने कहा म्लेच्छों से प्राप्त धन को वह अपने शाही खजाने में भी नहीं ले जायेंगे. इस धन से केवल जन कल्याण के कार्य किये जायेंगे और दुश्मन को मारकर छीना हुआ घोडा जिस किसी के भी पास है वो उसकी ही संपत्ति माना जाएगा.
सुहेलदेव ने उस धन से, मार्गों, पोखरों और कुओं का निर्माण कराया. इसके अलावा अयोध्या के "कनक भवन" सहित कई मंदिरों को स्वर्ण दान दिया. विजय की यादगार के रूप में वे एक विशाल ”विजय स्तंभ” का निर्माण कराना चाहते थे लेकिन वे इसे पूरा न कर सके. इस स्थान को इकोना-बलरामपुर राजमार्ग पर एक टीले के रूप में देखा जा सकता है.
महांराजा सुहेलदेव पासी "भगवान सूर्य" के उपासक थे. उनकी भावना को ध्यान में रखते हुए वर्तमान योगी सरकार ने बहराइच में, महांराजा सुहेलदेव पासी के नाम पर भव्य "सूर्य अन्दिर" के निर्माण का संकल्प लिया है.साथ ही हमारी मांग है कि- जिस विजय स्तम्भ को महाराज नहीं बनवा सके थे उसका निर्माण भी योगी सरकार करबाए.