Saturday, 25 January 2020

पूर्वोत्तर की लक्ष्मीबाई " रानी माँ गाइडिन्ल्यू "


देश की स्वतन्त्रता के लिए ब्रिटिश जेल में भीषण यातनाएँ भोगने वाली "गाइडिन्ल्यू" का जन्म 26 जनवरी, 1915 को नागाओं की रांगमेयी जनजाति में हुआ था. वे अपने चचेरे बड़े भाई "जादोनांग" से बहुत प्रभावित थीं. जादोनांग ब्रिटिश सेना में में भर्ती हुए थे लेकिन अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति व्यवहार देखकर वे बाग़ी हो गए थे. वे प्रथम विश्व युद्ध में लड़ चुके थे.
युद्ध के बाद "जादोनांग" ने अपने गाँव आकर तीन नागा कबीलों जेमी, ल्यांगमेयी और रांगमेयी में एकता स्थापित करने हेतु "हरक्का" पन्थ की स्थापना की. आगे चलकर ये तीनों सामूहिक रूप से "जेलियांगरांग" कहलाये। इन्होने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रान्ति प्रारम्भ कर दी जिसमे कई अंग्रेज और उनके भारतीय चापलूस मारे गए.
उधर इस इलाके में ईसाई मिशनरियां काफी सारे नागा लोगों को ईसाई बना चुकी थी. उन कन्वर्टेड ईसाईयो की मुखबिरी से "जादोनांग" को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें 29 अगस्त 1931 को फाँसी दे दी. लेकिन "जादोनांग" के बलिदान के बाद नागाओं का संघर्ष थमा नहीं बल्कि उनकी 17 बर्षीय बहन "गाइडिन्ल्यू" के नेतृत्व में और भी तेज हो गया.
गाइडिन्ल्यू अपनी नागा संस्कृति को सुरक्षित रखना चाहती थीं। उन्होंने "हराक्का" पर जोर दिया और नागाओं को ईसाइयत से दूर रहने को कहा. "हराक्का" का अर्थ है "पवित्र". उनकी नेतृत्वक्षमता को देखकर लोग उन्हें देवी मानने लगे. उनका प्रभाव उत्तरी मणिपुर, खोनोमा तथा कोहिमा तक फैल गया। नागाओं के अन्य कबीले भी उन्हें अपना नेता मानने लगे.
अब अंग्रेज गाइडिन्ल्यू के पीछे पड़ गये. उनके प्रभाव क्षेत्र के गाँवों में उनके चित्र वाले पोस्टर दीवारों पर चिपकाये तथा उन्हें पकड़वाने वाले को 500 रु. पुरस्कार देने की घाषिणा की पर कोई इस लालच में नहीं आया. अंग्रेजों ने आन्दोलनरत गाँवों पर सख्त कार्यवाहियां शुरू कर दीं. उन पर सामूहिक जुर्माना लगाकर उनकी बन्दूकें रखवा लीं.
अंग्रेजों ने अनेकों नागाओं को गिरफ्तार किया और उनसे गाइडिन्ल्यू के बारे में जानकारी देने को कहा. न बताने पर अंग्रेजों उन बेकसूर नागाओं को यातनाये देकर मार डाला. 1932 में गाइडिन्ल्यू ने पोलोमी गाँव में एक विशाल काष्ठदुर्ग का निर्माण शुरू किया, जिसमें 40,000 योद्धा रह सकें। उन्होंने अन्य जनजातीय नेताओं से भी सम्पर्क बढ़ाया.
गाइडिन्ल्यू ने अपना खुफिया तन्त्र भी स्थापित कर लिया। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी. अंग्रेजों ने डिप्टी कमिश्नर जे.पी.मिल्स को उन्हें पकड़ने की जिम्मेदारी दी। असम के गवर्नर ने ‘असम राइफल्स’ की दो टुकड़ियाँ उनको और उनकी सेना को पकड़ने के लिए भेजा। साथ ही गाइदिनल्यू को पकड़वाने के लिए इनाम भी घोषित कर दिया.
कन्वर्टेड ईसाई नागाओं की मुखबिरी से 17 अक्टूबर 1932 को रानी और उनके कई समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया. रानी गाइदिनल्यू को इम्फाल ले जाया गया जहाँ उनपर 10 महीने तक मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। तथा उनके ज्यादातर सहयोगियों को मौत की सजा दी या जेल में डाल दिया.
सन 1933 से लेकर सन 1947 तक रानी गाइदिनल्यू गौहाटी, शिल्लोंग, आइजोल और तुरा जेल में कैद रहीं. 1937 में अपने असम प्रवास के दौरान अपने एक भाषण में जवाहर लाल नेहरू ने जेल में बंद क्रांतिकारी "गाइडिन्ल्यू" को "नागाओं की रानी' कहकर सम्बोधित किया था. तब से यह सम्बोधन उनकी पहचान बन गया.
1947 भारत को अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद 'गाइडिन्ल्यू" को जेल से रिहा कर दिया गया. जेल से रिहाई के बाद वे अपने लोगों के उत्थान और विकास के लिए कार्य करती रहीं. उन्होंने पूर्वोत्तर में धर्मांतरण को रोकने के लिए आरएसएस के अनुषांगिक संगठन वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद् का सहयोग लिया तथा इनको अपना सहयोग दिया.
वे वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यक्रमों में जाती थी. आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक के. एस सुदर्शन ने उन्हें पूर्वोत्तर की रानी लक्ष्मीबाई कहकर सम्बोधित किया. धर्मांतरण का बिरोध करने तथा आरएसएस की बिचारधारा का समर्थन करने के कारण धीरे धीरे सरकार की निगाह में उनका महत्त्व काम होता चला गया.
1958 में कुछ नागा संगठनों ने विदेशी ईसाई मिशनरियों की शह पर नागालैण्ड को भारत से अलग करने का हिंसक आन्दोलन चलाया. रानीमाँ "गाइडिन्ल्यू"ने उसका प्रबल विरोध किया। इस पर वे उनके प्राणों के प्यासे हो गये. इस कारण रानी माँ को छह साल तक भूमिगत रहना पड़ा. इसके बाद वे भी शान्ति के प्रयास में लगी रहीं।
1972 में भारत सरकार ने उन्हें ताम्रपत्र और फिर ‘पद्मभूषण’ देकर सम्मानित किया. वे अपने क्षेत्र के ईसाइकरण की विरोधी थीं. वे आजीवन अविवाहित रहीं और नागा जाति, हिन्दू धर्म और भारत देश की सेवा करती रहीं। रानी माँ गाइडिन्ल्यू ने 17 फरवरी, 1993 को 78 बर्ष की आयु में शरीर और संसार छोड़ दिया.
आज रानीमाँ "गाइडिन्ल्यू" की जयन्ति पर उन्हें बारम्बार नमन करते हुए उनकी यश गाथा को सोशल मीडिया के माध्यम से आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूँ. देश के ऐसे अन्य गुमनाम नायक / नायिकाओं की गाथा को आपके सामने लाने का हमारा प्रयास ऐसे ही चलता रहेगा. आशा है आप भी शेयर, कमेंट, लाइक कर हमारा उत्साह बढ़ाते रहेंगे.

Sunday, 19 January 2020

कौन थे जगमोहन मल्होत्रा

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कौन थे जगमोहन मल्होत्रा
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कल कश्मीर में हुए हिन्दुओं के कत्लेआम की 30 वी बरसी थी. इस अवसर पर अनेकों लोगों ने विभिन्न माध्यमो से इस घटना को याद किया. सोशल मिडिया पर भी उसको लेकर ही चर्चा चलती रही. लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले काग्रेसी, सपाइ, आपिये, कम्युनिस्ठ आदि कश्मीरी मुसलमानों की करतूत पर पर्दा डालते दिखे.
ये लोग लिख रहे थे कि उस समय वी.पी. की सरकार थी और उस सरकार को बीजेपी भी बाहर से समर्थन दे रही थी इसलिए उस हिंसा के लिए बीजेपी जिम्मेदार हुई. जब इनसे पूंछा कि - उन हिन्दुओं को अचानक उनके पड़ोसी मुस्लमान मारने लगे थे या कोई बाहरी हमला हुआ था तो वो इस सवाल से बचकर भागते दिखाई दिए.
उनसे पूंछा कि - चलो उस कत्लेआम के लिए कश्मीरी मुसलमानो के बजाये सरकार को ही जिम्मेदार मान लिया जाए तो क्या सरकार और सरकार में शामिल नेताओं को जिम्मेदार मानने के बजाय बाहर से समर्थन देने वाली पार्टी को जिम्मेदार माना जाए ? तब वो इस सवाल से भागते हुए कहने लगे कि- संघी राज्यपाल जगमोहन की गलती थी.
उनका कहना था कि- भाजपा के नेता और कश्मीर के राज्यपाल "जगमोहन" ने कश्मीरी हिन्दुओं को बहला - फुसलाकर उनसे कश्मीर खाली करवाया और शरणार्थी कैंपों में रखा, जिससे उनको दिखाकर शेष भारत के हिन्दुओं के वोट ले सकें. तब उनको "जम्मू एवं कश्मीर" के तत्कालीन राज्यपाल "जगमोहन मल्होत्रा" के बारे में भी बताया.
मेरा ख़याल है कि सभी को "जगमोहन" जी के बारे में भी जानकारी होनी चाहिए जिससे ऐसे लोगों को जबाब दिया जा सके. सबसे पहले तो यह जानना चाहिए कि - कश्मीर के तत्कालीन राजयपाल "जगमोहन" जी थे कौन ? जगमोहन कोई नेता नहीं बल्कि आईएएस के उच्चाधिकारी थे जिनकी पहुँच कांग्रेस कार्यकाल में सीधे प्रधानमंत्री तक थी.
"जगमोहन" प्रधानमंत्री "इंदिरा गांधी" के बहुत खास ब्यूरोक्रेट थे. इंदिरा ने आपात काल (1975 से 1977) में उनके हाथ में काफी शक्तियां प्रदान की थी, आपातकाल के दिनों में ब्योरोकेशी के ऊपर उनका सीधा नियंत्रण था और वे इंदिरा गांधी / संजय गांधी को सीधे रिपोर्ट करते थे. "कनाट प्लेस" को बनाने का जिम्मा उनके पास था.
1977 में भारत सरकार द्वारा प्रशासकीय सेवा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. इसका एकमात्र कारण था आपातकाल में इंदिरा और संजय के आदेशों को देश में लागू कराने में उनकी तत्परता. परन्तु 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद उनको खुड्डे लाइन लगा दिया गया.
जनता पार्टी की सरकार आने पर उन्हें रिटायर कर दिया गया लेकिन 1980 में फिर से कांग्रेस की सरकार बनने पर "इंदिरा" ने "जगमोहन" को बहुत बड़ी जिम्मेदारियां दी थीं. रिटायर हो जाने के बाद उनको पहले गोवा -दमन-दीव का और फिर उनको दिल्ली का राज्यपाल बनाया. एशियाड -82 के आयोजन की भी सारी जिम्मेदारी उनके पास थी.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने उनके पुत्र राजीव गांधी भी उनको अपना नजदीकी मानते थे. उनके शासन काल में ही जगमोहन (26 अप्रैल 1984 से लेकर जुलाई 1989 तक ) "जम्मू एवं कश्मीर" के राज्यपाल रहे. "जगमोहन" जी जब तक "जम्मू एवं कश्मीर" के राज्यपाल थे, उनका तब तक भारतीय जनता पार्टी से कोई भी वास्ता नहीं था.
उनके बाद जुलाई 1989 को के. वी. कृष्णा राव को जम्मू कश्मीर का राजयपाल बनाया गया. जब फारुख अब्दुल्ला सरकार को बर्खास्त करने के बाद 19 जनवरी 1990 को जेहादियों ने हिन्दुओं का कत्लेआम शुरू कर दिया था तब केंद्र सरकार ने 19 जनवरी 1990 को ही जगमोहन जी को फिर से जम्मू & कश्मीर का राजयपाल नियुक्त किया।
परन्तु "जम्मू एवं कश्मीर" के राज्यपाल रहने के दौरान उन्होंने जब वहां हिन्दुओं की दुर्दशा देखी, तब उन्होंने कश्मीर में आतंकियों पर सख्ती करनी चाही लेकिन उस समय कांग्रेस की अपनी ही सरकार से उन्हें कोई सहयोग नहीं मिला. तुष्टीकरण की नीति के कांग्रेस कारण पीछे हट गई लेकिन भाजपा ने उनके नजरिये का समर्थन किया.
जेहादियों द्वारा पूरी तैयार करने के बाद 19 जनवरी 1990 को एक साथ पूरी कश्मीर घाटी में हिन्दुओं का कत्लेआम किया जाने लगा. उनकी ह्त्या करने वाले कोई विदेशी हमलावर नहीं थे बल्कि उनके अपने पड़ोसी मुस्लमान थे और कश्मीर की सभी राजनैतिक पार्टियां जेहादियों के साथ खड़ी दिखाई दे रही थी और केंद्र किम्कर्व्यविमूढ़ बैठा था.
तब कोई चारा न देखकर, राजयपाल जगमोहन ने उस समय किसी तरह उन हिन्दुओं को, कश्मीर घाटी के मुस्लिम बहुल इलाके से निकालकर, हिन्दू बहुल सुरक्षित स्थान तक पहुंचाने का फैसला किया और लाखों हिन्दुओं को जेहादियों से बचाकर हिन्दू बहुल जम्मू में पहुंचाया. वहां उनके रुकने रहने खाने की अस्थाई व्यवस्था की.
अगर कोई कहता है कि - कश्मीर के विशाल इलाके में दूर -दूर रहने वाले लाखों हिन्दू, केवल एक गवर्नर के फुसलाने पर अपना घरवार छोड़कर कैंपों में रहने के लिए चले आये, तो यह बिचार ही केवल उनके मानसिक दिवालियेपन का सबूत है. ये लोग मुस्लिम वोट के लालच में इतना गिर चुके हैं कि - उन्हें हिन्दुओं की दुर्दशा दिखाई ही नही देती है.
मुझे पक्का यकीन है कि - इनमे से कोई भी तथाकथित सेकुलर, कभी किसी ऐसे बिस्थापित कश्मीरी हिन्दू से नहीं मिला होगा. अगर ये लोग कश्मीर से विस्थापित किसी हिन्दू से वास्तव में मिले होते और वहां के वास्तविक हालात के बारे में सुना होता तो ये लोग भी कभी "कश्मीरी मुसलमानों" का पक्ष लेने की भूल हरगिज नहीं करते .
कश्मीर में बे-हिसाब हिन्दुओं का लूटा व मारा गया और उनकी स्त्रियों को बे-आबरू किया किया. हिन्दुओं के घरों पर नोटिस लगा दिया जाता था कि - अपनी औरतों को छोड़ कर कश्मीर से चले जाओ. उस समय हिन्दुओं को जेहादियों से बचाने वाले जगमोहन, बाद में भी लगातार सरकारों से अपील करते रहे कि कश्मीर में सख्त कार्यवाही की जाय.
वी पी सिंह सरकार और चंद्र शेखर सरकार से तो कोई उम्मीद रखना ही बेकार था लेकिन बाद पी वी नरसिंहाराव (कांग्रेस) सरकार भी कश्मीर के हालात से उदासीन बनी रही. जगमोहन हर मंच से कश्मीर के हालात पर आवाज उठाते रहे लेकिन उनको नजरअंदाज किया जाता रहा, उस समय केवल भाजपा ने उनके नजरिये का समर्थन किया।
तब उन्होंने 1995 में "कांग्रेस" छोड़कर, "भाजपा" ज्वाइन की थी. इसलिए उनके "जम्मू एवं कश्मीर" का राज्यपाल रहते हुए किसी भी कार्यवाही को भाजपा से जोड़ना केवल बात को घुमाना है. "जम्मू एवं कश्मीर" का राज्यपाल रहते हुए उनका भाजपा से कोई सम्बन्ध नहीं था. वे तो बाद में राष्ट्रवादी नीतियों के कारण कई साल बाद भाजपा में आये थे.

Thursday, 9 January 2020

अगर कोई प्रचार की चाहत में भी अच्छा काम करता है तो वह साधुवाद का पात्र है

Image may contain: 14 people, including Manmeet Singh Chawla, people standingआजकल फेसबुक पर एक फोटो वायरल हो ही है जिसे 5 लोग किसी गरीब को कम्बल देते हुए फोटो खिंचवा रहे है. इस फोटो को लेकर उनका मजाक उड़ाया जा रहा है कि- दान करने का दिखावा किया जा रहा है. उस घटना को लेकर मेरा तो यही मानना है कि अगर कोई प्रचार पाने के लिए भी कोई समाज सेवा कर रहा है तो इसमें कोई बुराई नहीं है ?
बैसे फोटो से जाहिर है कि - इन 5 लोगों ने केवल एक ही कम्बल नहीं बांटा होगा बल्कि इन लोगों ने ऐसे अनेकों गरीब लोगों को कई कम्बल बांटे होंगे और उनमे से कोई एक फोटो पोस्ट किया होगा. ऐसे लोगों का मजाक बनाने के बजाय, इनसे प्रेरणा लेकर खुद भी ऐसा ही कोई सार्थक कार्य करना चाहिए, चाहे लोग कुछ भी कहते रहें.
बैसे भी बुजुर्गो का कहना है कि- समाज सेवा करने के लिए जरुरी नहीं है कि- हम बहुत अमीर हो और लाखों रुपय दान कर सकने में समर्थ हों तब ही किसी की मदद करें. अगर 5 सामान्य लोग मिलकर भी किसी एक जरुरतमंद गरीब को एक कम्बल उपलब्ध करा देते है तो मेरी नजर में वे मजाक के नहीं बल्कि साधुवाद के पात्र हैं.
अगर 5 सामान्य लोग मिलकर भी, किसी एक आदमी की कोई छोटी सी जरूरत को पूरा कर देते हैं तो यह उनकी अच्छी बात है. दान करने का महत्व केवल तब ही नहीं है जब कोई लाखों रुपय दान करे. दूसरों की छोटी छोटी मदद करना भी मामूली काम नहीं है. अगर कोई किसी अन्य के कार्य में श्रमदान भी करता है तो वह साधुवाद का पात्र है.
कुछ महीने पहले भी ऐसी ही एक फोटो पर मजाक उड़ाया जा रहा था जिसमे चार लोग किसी बुजुर्ग को केले दे रहे थे. कुछ लोग उस फोटो को लेकर उन चार लोगों का मजाक बना रहे है कि- चार लोग मिलकर एक आदमी को दो केले दे रहे हैं. फोटो को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि- चार लोग किसी हस्पताल में फल वितरित कर रहे हैं.
उस फोटो में हस्पताल के बेड पर बैठे एक ब्रद्ध व्यक्ति को फल देते समय की फोटो है. जाहिर सी बात है कि- उन चार लोगों ने केवल एक व्यक्ति को दो केले नहीं दिए होंगे बल्कि हर बेड पर जाकर मरीजों को फल बांटे होंगे. मेरी नजर में तो यह चार व्यक्ति साधुवाद के पात्र हैं. इनका मजाक बनाने के बजाय इनकी तरह बन्ने का प्रयास करना चाहिए.
प्रचार की चाहत में भी लोग अगर समाज सेवा के काम करते हैं. तो भी कोई बुराई नहीं है, तब भी लोगों का भला ही होता है. जिस जमाने में मीडिया या सोशल मीडिया नहीं था उस जमाने में भी लोग अगर किसी मंदिर, धर्मशाला, स्कूल, हस्पताल, सार्वजानिक भवन, आदि को कुछ दान देते थे तो वहां अपने नाम का पत्थर लगवाते थे
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अगर किसी के फोटो खिंचाने की चाहत से भी किसी गरीब जरूरत मंद का कुछ मदद मिल जाती है तब भी उस जरूरत मंद गरीब का भला ही है. बैसे अगर फोटो वाले उन 5 लोगों ने उस दिन 100 गरीबो को 100 कम्बल भी बांटे होंगे तो उन सभी सौ के सौ फोटुओं में यही दिख रहा होगा कि - 5 लोग एक गरीब को कम्बल दे रहे हैं.
बैसे भी आज के दौर में लोग अपनी छोटी से छोटी घटना की फोटो सोशल मीडिया में डालते है. जब चार मित्र किसी रेस्टोरेंट में खाना खाते है तो उसकी फोटो डालते, चार मित्र कहीं घुमने जाते हैं तो उसकी फोटो डालते है, चार लोग मिलकर एक पौधा लगाते हैं तो उसकी फोटो डालते है, तो फिर ऐसे काम की फोटो डालना कोई अपराध थोड़े ही कहलायेगा

क्या शाहजहाँ ने दिल्ली को मुघलो की राजधानी बनाया था ?

Image result for लालकिलाशाहजहाँ का जन्म हुआ - 5 जनवरी 1592 को लाहौर (पाकिस्तान)
शाहजहाँ राजा बना -14 फ़रवरी 1628 ( भाई खुसरो से सत्ता संघर्ष के बाद)
शादियाँ की - 9 ( कन्दाहरी बेग़म, कबराबादी महल, मुमताज महल, हसीना बेगम, 
मुति बेगम, कुदसियाँ बेगम, फतेहपुरी महल, सरहिंदी बेगम, मनभाविथी
बच्चे - 14 बच्चे तो केवल मुमताज़ से ही थे, बाक़ी का आप खुद पता करें
शाहजहा का राज - 1628 से 1658 हमेशा आगरा में ही रहा
आगरे के लालकिले में कैद -1658 से 1666 म्रत्यु तक
शाहजहाँ की म्रत्यु - 22 जनवरी 1666
दिल्ली मुघलों की राजधानी बनी - 1679 में (शाहजहाँ का राज जाने के 21 साल बाद)
स्कूल की किताबों में दिल्ली का इतिहास बताते समय यह बताया जाता है कि- दिल्ली को शाहजहाँ ने बसाया, वहां लालकिला बनाया और दिल्ली को मुघल सल्तनत की राजधानी बनाया. यह बिलकुल झूठ है क्योंकि दिल्ली को मुघल सल्तनत की राजधानी शाहजहाँ ने नहीं बल्कि शाहजहा की सत्ता जाने के 21 साल बाद औरंगजेब ने बनाया था.
दिल्ली किसने बसाई और कितनी बार उजड़ी इसके बारे में विस्तार से अगली पोस्ट में लिखूंगा, यहाँ इस पोस्ट में केवल दिल्ली को मुघलों की राजधानी बनाने की बात पर चर्चा करते हैं. बाबर से लेकर शाहजहाँ तक आगरा ही मुघल सत्ता का केन्द्र रहा था और सभी ने आगरा से ही अपने राज का संचालन किया था.
शाहजहाँ अपने बड़े बेटे "दारा शिकोह" को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था लेकिन उसके छोटे बेटे औरंगजेब ने कट्टरपंथियों को साथ मिलाकर अपने भाईयों और भतीजों की हत्या कर दी तथा अपने पिता और बहन को कैद में डालकर 1658 में आगरा का राजा बन गया. औरंगजेब ने भी 21 साल तक आगरा से ही शासन चलाया.
दरअसल अपने पिता-बहन को कैद करने, अपने भाई - भतीजों को क़त्ल करने के कारण औरंगजेब को आगरा में कभी सम्मान नहीं मिला. क्योंकि इस्लाम में भले ही अपने पिता, चाचा, भाई, आदि की हत्या कर सत्ता हाशिल करने की परम्परा रही हो लेकिन भारत में पिता, भाई का सम्मान और त्याग करने वाले को ही सम्मान दिया जाता है.
आगरा की जनता अत्याचारी औरंगजेब से डरती अवश्य थी लेकिन सम्मान नहीं देती थी. इसके अलावा औरंगजेब के जुल्मो से परेशान होकर इलाके की जनता (खासकर जाट, गूजर, अहीर) बाग़ी हो गये थे. गोकुला जाट का विद्रोह उसने भले ही कुचल दिया था लेकिन उस विद्रोह के कारण मुग़ल सत्ता भीतर से दहल गई थी.
दिल्ली पहले भी कई बार भारत की सत्ता का केन्द्र रह चुकी थी. वहां काफी बड़ी आवादी भी रहती थी और अनेकों ऐतिहासिक इमारते मौजूद थी. अपनी सत्ता जाने से 4 साल पहले 1652 में शाहजहाँ ने दिल्ली की कुछ पुरानी इमारतों और उजाड़ पड़े हुए किले की मरम्मत करने में रूचि दिखाई थी, लेकिन सत्ता जाने के बाद वह काम आगे नहीं बढ़ा.
जब आगरा में औरंगजेब मुश्किल का सामना कर रहा था तब उसने अपनी राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित करने का निर्णय लिया. उसने दिल्ली की इमारतों और किले की मरम्मत पर काफी धन व्यय किया और इसे अपने पिता का सपना कह कर प्रचारित किया. ऐसा करने से दिल्ली के लोग उसे अपने पिता का भक्त मानकर सम्मान देने लगे.
औरंगजेब जानता था कि - भारत की जनता माता,पिता, भाई, बहन को सताने वाले को कभी सम्मान नहीं देती है इसलिए उसने अपने आपको सच्चा पितृभक्त दिखाते हुए अपने कार्यों को पिता के सपने के रूप में प्रचारित किया. लालकिले की मरम्मत और जीर्णोद्धार हो जाने के बाद वह 1679 में अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली ले आया.
दिल्ली में औरंगजेब ने यह दिखाया कि - वह अपने पिता की इच्छा के अनुसार लालकिले को मरम्मत कर तैयार कर रहा है. दिल्ली में राज करते हुए औरंगजेब ने अपने पिता का खूब गुणगान किया जिससे दिल्ली के लोग उसे अपने पिता का लायक बेटा मान लिया जबकि आगरा के लोग उसे कभी लायक बेटा नहीं मान सकते थे.
आजादी के बाद पहले शिक्षामंत्री बने मौलाना आजाद ने भी किताबों में यही लिखबाया. देश की जनता भी धीरे धीरे वही मानने लगी जो ये लोग मनवाना चाहते थे. मुग़ल शासको का क्रम लिखते समय बाबर, हुमायूं, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब, आदि लिखते समय ऐसे जताया जाता था जैसे इन सबके के केवल एक एक बेटा ही रहा हो.
बाबर, हुमायूं, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब, आदि नाम लिखने से ऐसा लगता है कि बहुत ही शरीफ खानदान था जहाँ बड़े आराम से सत्ता पिता से पुत्र को ट्रांसफर हो जाती थी. इनके अन्य बच्चों के सत्ता संघर्ष, षड्यंत्र, हत्याओं, आदि की घटनाओं को छुपाकर इनकी महानता को प्रचारित इनके धर्म को महान दिखाने की कोशिश की गई .

Tuesday, 7 January 2020

वामपंथ ( कम्युनिज्म ) क्या है ?

Image may contain: one or more peopleमैंने सुना है कि कहीं बैचारिक मतभेद वालों के झगडे को निपटारा करने के लिए लोगों को अलग अलग बैठने को कहा तब कम्युनिस्ट बिचार वाले वाई ओर बैठ गए और राष्ट्रवादी बिचार वाले दाईं ओर बैठ गए और दोनों के बीच वाले बिचार रखने वाले बीच में बैठ गए. तब से इनके लिए वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी शब्द प्रयोग होने लगे.
भारत में बाएं को उल्टा भी कहते हैं और भारत में कम्युनिस्ट जिस तरह के काम करते रहे हैं उसे देखते हुए तो वामपंथ को उल्टा रास्ता (अर्थात सही रास्ते को छोड़कर उलटे रास्ते पर चलना) कहना ही ज्यादा उचित होगा क्योंकि ये लोग केवल उलटे काम ही करते हैं. इनके बिचार सुनने में तो अच्छे लगते हैं लेकिन बिलकुल अव्यवहारिक होते हैं.
वैसे तो वामपंथ (उलटा रास्ता) चीन और सोवियत संघ की पहेचान के रूप में जाना जाता है और मार्क्स / लेनिन / माओ इसके प्रणेता माने जाते हैं लेकिन वास्तव में इस "उलटे बिचार" का जन्म भी भारत में ही हुआ था और इसके जन्मदाता थे "चार्वाक". चार्वाक महाभारत काल में हुए थे. चार्वाक के बारे अगली किसी पोस्ट में अवश्य लिखुगा.
कम्युनिज्म और चार्वाक की बिचारधारा का सम्बन्ध साबित करने वाले तथ्यों के बारे में भी, मैं अपनी अगली किसी पोस्ट में अवश्य करूँगा. लेकिन यहाँ केवल आपको यह समझाना चाहता हूँ कि - कम्युनिज्म वास्तव में है क्या ? कम्युनिजम केवल लोगों को उलटे मार्ग पर ले जाने वाली ऐसी बिचारधारा है जो गलत बातों को सही कहती है. जैसे -
कोई आपके नौकर से यह कहे कि - तुम्हारा मालिक तुमसे ज्यादा सुविधाओं का उपभोग क्यों कर रहा है ? मालिक गाड़ियों में घूमता है और तुम पैदल चलते हो. तुमको अपने मालिक के बरावर अधिकार मिलना चाहिए. अगर वो तुमको बराबरी का हक़ न दे तो तुम मालिक के खिलाफ हथियार उठाओ और उससे सब छीन लो - यह है कम्युनिज्म.
आपकी फैक्ट्री के मजदूरों को यह कहकर भड़काए कि- तुम लोग दिन रात दिन काम करके उत्पादन करते हो और तुमको केवल तनखा मिलती है और सारा मुनाफा मालिक ले लेता है. मुनाफा मजदूरों में बरावर बांटना चाहिए. मालिक ने मिल लगाईं है, पूंजी निवेश किया है, सारा रिस्क मालिक का है तो भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता - यह है "कम्युनिज्म"
चाहे कोई व्यक्ति ज्यादा मेहनत करे या कम मेहनत करे लेकिन सबको बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए. अगर किसी को उसकी योग्यता और मेहनत के कारण ज्यादा तथा किसी को कम योग्य होने के कारण कम मिलता है तो यह भेदभाव है. जिनको कम मिलता है उनको ज्यादा वालों से लड़कर वो सब छीन लेना चाहिए - यह है "कम्युनिज्म"
अगर कोई यह कहे कि - स्कुल की परीक्षा में किसी को कम नंबर मिलते हैं और किसी को ज्यादा तो यह अन्याय है. सभी बच्चों को बराबर अंक मिलने चाहिए, चाहे किसी ने पढ़ाई की हो या न की हो. अगर स्कुल यह भेदभाव करते हैं तो ऐसे स्कूलों को नष्ट कर देना चाहिए और स्कूल के टीचरों को मारना चाहिए. यह है "कम्युनिज्म"
जमीदार ने भले ही कितने ही करोड़ रूपय में जमींन क्यों न खरीदी हो या महंगी मशीने ( ट्रेक्टर, कम्बाईन, ट्यूबवेळ, आदि) क्यों न खरीदी हो, पैदा होने वाली फसल पर जमींदार का हक़ नहीं होना चाहिए. खेत से अनाज उगाने में खेतिहर मजदूरों ने ज्यादा मेहनत की होती है इसलिए अनाज खेतिहर मजदूरो में बराबर बंटना चाहिए - यह है "कम्युनिज्म"
Image may contain: 1 person, beard and eyeglasses, possible text that says 'कार्ल मावर्स'जमीन की मिट्टी में मिले हुए खनिजों पर केवल उस इलाके में रहने वालों का हक़ होना चाहिए भले ही वो लोग उस मिट्टी से कोई खनिज अलग कर पाने में भी समर्थ न हों. लेकिन अगर कोई व्यापारी रायल्टी देने के बाद भी मिटटी से खनिज अलग करके बेंचता है तो वो व्यापारी चोर है उसको मारकर उसकी सम्पत्ति को छीनना - यह है "कम्युनिज्म"
देश की सरकार किसी को, अधिकारी कह कर ज्यादा तनखा देती है और किसी को मजदूर कहकर कम तनखा देती है. किसी को आदेश देने वाला बना अधिकारी देती है किसी को उनका आदेश मानने वाला गुलाम. ऐसी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहिये . चाहे इसके लिए हथियार ही क्यों न उठाना पड़े . यह सोंचना है "कम्युनिज्म"
अपने पूर्वजों के गौरवशाली अतीत की प्रसंशा करने के बजाय अपने पूर्वजों को मूर्ख तथा विदेशियों को महान बताना, चलते कारखानों को बंद कराना, समानता के अधिकार के नाम पर योग्य व्यक्तियों को प्रताड़ित करना, अमीर व्यक्ति को विलेन बताना, युवाओं को देशद्रोह के लिए उकसाना, राष्ट्रवाद का विरोध करना - यह है "कम्युनिज्म"

Wednesday, 1 January 2020

श्री कृष्ण जन्मभूमि पर मंदिर के बनने टूटने और फिर बनने का इतिहास

Image result for श्री कृष्ण जन्मभूमि मथुराश्रीकृष्ण जन्म भूमि मथुरा का एक प्रमुख धार्मिक स्थान है जहाँ हिन्दू धर्म के अनुयायी कृष्ण भगवान का जन्म स्थान मानते हैं. यह विवादों में भी घिरा हुआ है क्योंकि इसके साथ ही एक ईदगाह भी बनी हुई है. आज वर्तमान समय में इस स्थान पर जो एक भव्य एवं आकर्षक मन्दिर स्थापित है उसको बनवाने में महामना मदनमोहन मालवीय का बड़ा योगदान है.
युधिष्ठर महाराज ने परीक्षित को हस्तिनापुर का राज्य सौंपकर, श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को मथुरा मंडल के राज्य सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया था. महाराज वज्रनाभ ने महाराज परीक्षित और महर्षि शांडिल्य के सहयोग से मथुरा मंडल की पुन: स्थापना करके उसकी सांस्कृतिक छवि का पुनरूद्वार किया और वहां अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया.
महाराज वज्रनाभ कंस के कारागार स्थल को तोड़कर वहां पर अपने परदादा (भगवान श्रीकृष्णचन्द्र) का भव्य मंदिर स्थापित किया. ज्ञात रहे - भरतपुर राजवंश अपने आपको इन्ही महाराजा बज्रभान का वंशज मानता है. समय समय पर अनेकों राजाओं ने इस मंदिर का विस्तार और सौन्दर्यकरण किया.
यहाँ कालक्रम में अनेकों गगनचुम्बी भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ. इनमें से कुछ तो समय के साथ नष्ट हो गये और कुछ को विधर्मियों ने नष्ट कर दिया। एक शिलालेख के अनुसार कोई राजा "वसु" ने वहां पर तोरण द्वार बनबाया। ज्ञात इतिहास के अनुसार यदुवंशी राजा ब्रजनाम (भरतपुर नरेश के पूर्वज) ने 80 वर्ष ईसा पूर्व यहाँ मंदिर का पुनरुयद्धार कराया था.
अपने भाई भर्तहरि के आदेश पर उज्जैन के राजा वीर विक्रमा दित्य ने भी अयोध्या, हरिद्वार और विष्णु स्तम्भ के साथ इसका विस्तार किया. उन्होंने हरिद्वार में गंगा नदी के किनारे हरि की पौड़ी, अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर, दिल्ली के निकट विष्णु स्तम्भ बेधशाला और मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थल पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया.
हूण और कुषाण के हमलों में इस मंदिर के ध्वस्त होने के बाद गुप्तकाल के सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने सन् 400 ई० में नए सिरे से एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था. इस मंदिर को महमूद गजनवी ने ध्वस्त कर दिया था. कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा में बने भव्य मंदिर को देखकर लुटेरा महमूद गजनवी भी आश्चर्यचकित रह गया था.
उसके मीर मुंशी अल उत्वी ने अपनी पुस्तक तारीखे यामिनी में लिखा है कि गनजवी ने मंदिर की भव्यता देखकर कहा था कि इस मंदिर के बारे में बखान करना नामुमकिन है. उसका अनुमान था कि वैसा भव्य मंदिर बनाने में दस करोड़ दीनार खर्च करने होंगे और इसमें दो सौ साल लगेंगे. सन् 1017-18 में महमूद गजनवी ने मथुरा के समस्त मंदिर तुड़वा दिए थे,
लेकिन उसके लौटते ही मंदिर बन गए. मथुरा के मंदिरों के टूटने और बनने का सिलसिला भी कई बार चला. बाद में इसे महाराजा विजयपाल देव के शासन में सन् 1150 ई. में "जज्ज" नामक किसी व्यक्ति ने बनवाया. यह मंदिर पहले की अपेक्षा और भी विशाल था, जिसे 16वीं शताब्दी के आरंभ में सिकंदर लोदी ने नष्ट करवा डाला।
ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जूदेव बुन्देला ने पुन: इस खंडहर पड़े स्थान पर एक भव्य और पहले की अपेक्षा विशाल मंदिर बनवाया. इसके संबंध में कहा जाता है कि यह इतना ऊंचा और विशाल था कि यह आगरा से दिखाई देता था लेकिन इसे भी औरंगजेब 1670 में नष्ट कर इसकी भवन सामग्री से ही वहां भव्य ईदगाह बनवा दी.
इस ईदगाह के पीछे ही महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी की प्रेरणा से पुन: एक मंदिर स्थापित किया गया है, इसके लिये मदनमोहन मालवीयजी ने जुगलाल किशोर बिड़ला जी सहित कई उद्योगपतियों सेआर्थिक सहयोग लिया. लेकिन अब यह विवादित क्षेत्र बन चुका है क्योंकि जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह है और आधे पर मंदिर.
Related imageहिन्दूओ की मांग है कि इस स्थान से ईदगाह को हटाकर पूरे श्रीकृष्ण जन्मभूमि स्थल पर भव्य श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर का निर्माण किया जाए. भरतपुर के राजवंशी (जो अपने आपको महाराजा बज्रभान का वंशज मानते हैं ) इस मामले को अदालत में भी ले गए थे मगर उनका दावा अदालत ने खारिज कर दिया.