Friday, 27 September 2024

पुष्कर का गौ घाट का युद्ध

हरिद्वार की तरह पुष्कर भी हिन्दुओं का बहुत बड़ा तीर्थस्थल है. पुष्कर सरोवर में कुल 52 घाट बने हुए है, जिनमे सबसे बड़ा गऊघाट है. पुष्कर में भगवान ब्रह्मा का प्रशिद्ध मंदिर है. ऐसा माना जाता है कि चारों धाम (बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वरम और द्वारका) के दर्शन कर लिए हैं, लेकिन आपने पुष्कर का दर्शन नहीं किया है तो आपकी यात्रा सफल नहीं मानी जाएगी.

मेड़ता की हार से बौखलाए हुए, औरंगजेब के सिपहसालार "तहव्वुर खान" ने विक्रम संवत 1737 भाद्रपद की जन्माष्टमी के अवसर पर, पुष्कर के वराह मंदिर को खंडित करने, 101 गौमाताओं का पुष्कर घाट पर क़त्ल करने और वहां के पुजारियों की हत्या करने की घोषणा कर दी. सप्तमी से पहले 101 स्वस्थ गायें पुष्कर के घाट पर लाकर बाँध दी गईं.
जब यह सूचना कुंवर राज सिंह को मिली तब कुंवर राज सिंह के विवाह की तैयारी चला रही थी. कुंवर राज सिंह ने विवाह मंडप छोड़कर पुष्कर की ओर कूच करने का निर्णय लिया और अपने साथ 700 योद्धाओं को लेकर पुष्कर की ओर चल दिये. दरअसल उन दिनों पूरे राजस्थान में ओरंगजेब की सेनाओ और राजपूतो के बीच जगह जगह युद्ध चल रहे थे.
इसका मुख्य कारण यह था कि औरंगजेब ने विष देकर जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह को धोखे से मरवा दिया था और मारवाड में अपनी सेना भेजकर उस पर अपना अधिकार कर लिया था. बालक महाराज अजीत सिंह को वीरवर दुर्गादास राठौर, आदि स्वामिभक्त सरदारो की संरक्षण मे सुरक्षित करके राठौड सरदारो ने मुगलो के थानो पर आक्रमण शुरू कर दिया था.
राजपूत योद्धाओं ने जोधपुर, सोजत, डीडवाना, सिवाना, आदि पर हमला कर शाही खजाने लूट लिए थे. इसके अलावा कुवंर राजसिंह ने अपने मेडतिया साथियों के साथ मेडता पर हमलाकर वहां के शाही हकीम सदुल्लाह खान को मार दिया. उस समय मेडता अजमेर सूबे मे था. इस खबर से बौखलाए हुए तहव्वुर खान हिन्दुओं को अपमानित करने का निर्णय लिया.
उसने अपनी सेना पुष्कर भेजने की तैयारी कर ली. इस खबर को सुनकर पुष्कर के ब्राह्मणो मे त्राहि त्राहि मच गई. उन्होंने अपना सन्देश कुवंर राजसिंह जी तक भेजा. वे अपने साथ एक 700 वीर योद्धाओं की छोटी से सेना लेकर पुष्कर जी पहुँच गए. उन्होंने वाराह जी के मंदिर में माथा टेकने कर आशीर्वाद लेने के बाद शाही सेना पर हमला कर दिया
उनको हराने के बाद उन्होंने घाट के पास लाकर बाँधी गई गायो को बंधन मुक्त करा दिया और मुगलो की दूसरी टुकडी पर रात्री मे ही हमला कर दिया. सप्तमी की सारी रात और अष्टमी के पूरे दिन यह युद्ध होता रहा. पुष्कर की मिट्टी रक्त से लाल हो गई. इस लड़ाई में पुष्कर में पूरी मुघल सेना का सफाया कर दिया गया. लेकिन नवमी के दिन और बड़ी मुग़ल सेना वहां पहुँच गई.
नवमी को भी भयानक युद्ध हुआ. मुग़ल सेना का सफाया हो गया लेकिन इस लड़ाई में कुंवर राजसिंह, केशरसिंह, सुजाणसिंह, चातरसिंह, रूपसिंह हठी सिंह गोकुल सिंह, आदि भी वीरगति को प्राप्त हो गए. राठौरों के भय से तहव्वुरखां भागकर तारागढ में छुप गया. इस प्रकार वीर राजपूतों ने अपना बलिदान देकर गायों, ब्राह्मणो, मंदिरों एवं पुष्कर तीर्थ की रक्षा की.
आजादी के बाद नेहरू सरकार ने पुष्कर के गौ घाट का नाम गौ घाट से बदलकर महात्मा गांधी घाट कर दिया. उनका तर्क यह था कि यहाँ पर महात्मा गांधी की चिता की राख का कुछ अंश विसर्जित किया गया था. लेकिन सभी यह मानते है कि महात्मा गांधी घाट नाम रखने की मंशा केवल यह थी कि लोग गायो की हत्या और राजपूतों के बलिदान की बात भूल जाएँ.
इसलिए सरकारी कागजों में इस घाट का नाम भले ही महात्मा गांधी घाट कर दिया हो लेकिन सभी इसे गौघाट ही कहते है

Saturday, 7 September 2024

मार्कण्डेय ऋषि

सनातन धर्मावलम्बियों के घरों में आपने अक्सर ही एक चित्र देखा होगा, जिसमें एक किशोर शिवलिंग से भावपूर्वक लिपटा हुआ है और पीछे खड़े भगवान शिव उस किशोर के प्राण हरने को उद्यत यमराज पर प्रहार कर रहे हैं. यही किशोर आगे चलकर चिरंजीवी महामुनि मार्कण्डेय के रूप में प्रसिद्ध हुआ.

वे आठ चिरंजीवी महामानवों में से एक हैं. अर्थात अश्वत्थामा, दैत्यराज बली, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि सदैव जीवित हैं. इन सबमें भी मार्कण्डेय ऋषि आयु में शेष सभी से बड़े हैं. मार्कण्डेय ऋषि के चिरंजीवी बनने की कथा पद्मपुराण के उत्तरखंड में है.
ऋषि मृकंदु और उनकी पत्नी मरुदमती ने शिव की तपस्या की और उनसे पुत्र प्राप्त करने का वरदान मांगा. शिव ने मृकंदु से पूछा था कि ‘तुम्हें दीर्घ आयु वाला गुणहीन पुत्र चाहिए या अल्प आयु वाला गुणवान पुत्र ? तब मृकण्डु ने गुणवान पुत्र की कामना की. भगवान शिव ने मार्कण्डेय की आयु 16 वर्ष निश्चित की.
जब मार्कण्डेय का सोलहवां वर्ष प्रारम्भ हुआ तो पिता शोक से भर गए. कारण पूछने पर पिता ने अल्पायु की कथा बताई तो वे माता-पिता की आज्ञा लेकर केरल के त्रिप्रंगोड में समुद्र के तट पर गए और वहां शिवलिंग स्थापित कर आराधना में जुट गए. उन्होंने महामृत्युञजय मन्त्र की रचना की और जाप करने लगे.
तय समय पर काल उनके प्राण हरने आ पहुंचा. तब किशोर मार्कण्डेय ने कहा कि मैं भगवान् शिव के महामृत्युंजय मन्त्र का जाप कर रहा हूं, इसे पूरा कर लूं, तब तक ठहर जाओ. मगर काल नहीं माना और बलपूर्वक मार्कण्डेय को ग्रसना चाहा. भक्त की पुकार पर उसी समय शिवलिंग से महादेव प्रकट हुए.
भगवान् शिव ने हुंकार भरकर काल की छाती पर चरण से प्रहार किया. इसी घटना के बाद शिवजी का नाम कालान्तक पड़ा. भगवान् शिव ने न केवल मार्कण्डेय के प्राणों की रक्षा की बल्कि उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें सदा सर्वदा के लिए काल-मुक्त कर चिरंजीवी होने का वरदान दे दिया,
कुछ विद्वानों का मानना है कि यह घटना कैथी (वाराणसी जिला) में गोमती नदी के तट पर हुई थी, जहाँ गंगा नदी और गोमती नदी का संगम होता है. इस स्थल पर एक प्राचीन मंदिर मार्कंडेय महादेव मंदिर बना हुआ है. गंगा नदी और गोमती नदी संगम क्षेत्र होने के कारण इसकी पवित्रता और भी बढ़ जाती है.
हरियाणा के लोगों का मानना है कि यह घटना अम्बाला और कुरुक्षेत्र के बीच स्तिथ शाहबाद मारकंडा कसबे में मारकंडा नदी के किनारे की है. यहाँ भी मारकंडा नदी के किनारे, राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे, मारकंडेश्वर महादेव का भव्य मंदिर बना हुआ है. बड़ी संख्या में भक्त या पूजा करने आते हैं.
गायत्री मंत्र की भांति महामृत्युंजय मंत्र को भी अत्यंत प्रभावी मन्त्र माना जाता है. विद्वानों का कहना है कि यह मंत्र सबसे पहले ऋग्वेद के सातवें मंडल के 59वें सूक्त में आया. रुद्र देवता के प्रति ऋषि वसिष्ठ द्वारा अनुष्टुप छंद में कृत यह इस सूक्त का बारहवां मंत्र है, जो बाद में यजुर्वेद से होते हुए अन्यत्र पहुंचा.

विद्वानों का कहना है कि मार्कण्डेय ने केवल इस मन्त्र का केवल जाप किया था लेकिन लोक-विश्वास है कि महामृत्युंजय मंत्र की रचना भी मार्कण्डेय ने ही की और इसी के बल पर स्वयं को मृत्यु से बचाकर चिर जीवन पाया, इसीलिए प्रियजनों को जीवनदान के निमित्त लोग इसका जाप कराते हैं.
वाल्मीकि रामायण के अनुसार मार्कण्डेय महाराज दशरथ के ऋत्विज (यज्ञ कराने वाला) थे और भगवान श्रीराम के विवाह में बराती बन मिथिला भी गए थे. राजा बनने के बाद श्रीराम के आमंत्रण पर ये उनकी सभा में पधारे थे और केवल इतना ही नहीं, मार्कण्डेय जी सीता के रसातल में प्रवेश के भी साक्षी बने थे.
इन्होंने नचिकेता से शिव सहस्रनाम का उपदेश ग्रहण कर उसे उपमन्यु को दिया था. महाभारत के अनुसार महामुनि मार्कण्डेय ने धृतराष्ट्र को त्रिपुराख्यान सुनाया था. वे युधिष्ठिर की राजसभा में भी आए थे और भीष्म के शरशय्याशायी होने पर अनेक ऋषि-मुनियों के साथ उनके पास खड़े हुए थे.
महाभारत के वनपर्व में 51 अध्यायों का एक समूचा उपपर्व मार्कण्डेय मुनि को ही समर्पित है. इस अवसर पर काम्यकवन में पाण्डवों के पास उपस्थित स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने मार्कण्डेय का पूजन किया था. इस विस्तृत उपपर्व में मार्कण्डेय मुनि ने कर्मफल सहित अनेक प्रश्नों पर जो उपदेश दिया.
लगभग सभी पुराणों में मार्कण्डेय ऋषि का सादर स्मरण किया गया है. स्वयं मार्कण्डेय के नाम से एक ‘मार्कण्डेय पुराण’ है. देवी पार्वती ने भी उन्हें एक पाठ लिखने का वरदान दिया था, उनके द्वारा लिखा गया यह पाठ "दुर्गा सप्तशती" के रूप में जाना जाता है, जो मार्कंडेय पुराण में एक मूल्यवान भाग है.
मार्कण्डेय इतने महिमावान हैं कि उनकी ख्याति उत्तर से दक्षिण तक फैली हुई है. उत्तर से लेकर दक्षिण तक के लोग उन्हें अपना मानते है और उनकी विरासत पर दावा करते हैं. सत्य तो यह है कि मार्कण्डेय ऋषि का वास्तविक जन्म या तपस्थल अज्ञात है लेकिन उनका व्यक्तित्व और कृतित्व सर्वज्ञात है.
जिस प्रकार शिवभक्ति कर उन्होंने चिरंजीवी जीवन पाया, उसका प्रतीक यह है कि भाव प्रबल हो तो पत्थर से भी परमात्मा प्रकट हो जाता है. अपने उपदेशों में हर युग में मार्कण्डेय सिखाते हैं कि जो व्यक्ति तन व मन से जितना अधिक सात्विक जीवन जीता है, वही व्यक्ति दीर्घायु और मृत्युंजयी होता है.

Friday, 23 August 2024

देश भर में लगभग सारे ही चोर बाजार मुस्लिम बहुल इलाकों में ही क्यों है ?

मुंबई का चोर बाजार
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भारत के प्रमुख चोर बाजारों में से एक है.. मुंबई का यह चोर बाजार, दक्षिणी मुंबई के मटन स्ट्रीट, मोहम्मद अली रोड के
पास है और मौलाना शौकत अली रोड के बीच स्थित है. इसका निकटतम स्थानीय रेलवे स्टेशन ग्रांट रोड है.

दिल्ली का चोर बाजार
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पुरानी दिल्ली लालकिले और जामा मस्जिद के क्षेत्र में यह साप्ताहिक चोर बाजार लगता है. प्रत्येक रविवार को लगने वाले इस चोर बाजार में आपको ब्रांडेड आयटम लगभग एक चौथाई कीमत में भी मिल जाएंगे। यहाँ घरेलू सामान ज्यादा मिलता है.

मेरठ का चोर बाजार
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चोरी की गाड़ियों और गाड़ियों के स्पेयर पार्ट के लिए पुरे भारत में मेरठ का सोती गंज चोर बाजार सबसे ज्यादा कुख्यात है. यह मेरठ में जकारिया मस्जिद, अनारवाली मस्जिद और मीनार मस्जिद के बीच का
इलाका है. यह ऐसा इलाका है जहाँ पुलिस भी जाने से डरती है.

बंगलुरु का चोर बाजार
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ये मार्केट बेंगलुरु में चिकपेट नामक जगह पर, बीवीके अयंगर रोड पर, नालडवाडी मस्जिद के पास लगती है. यह साप्ताहिक बाजार है जो केवल सन्डे को लगता है. यहां सेकेंड हैंड गुड्स, चोरी के गैजेट्स, कैमरा, इलेक्ट्रॉनिक आइटम और सस्ते जिम इक्विपमेंट मिलते हैं.

चेन्नई का चोर बाजार
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चेन्नई का चोर बाजार, सेन्ट्रल चेन्नई के ऑटो नगर इलाके में स्थित है. कहने को तो ये लोग कारों को मॉडिफाई करने का काम करते हैं लेकिन ये लोग गाड़ियों के ऑरिजनल पार्ट्स और कार को बदलने के लिए कुख्यात है. ये मार्केट एग्मोर ट्रेन स्टेशन से 1 किलोमीटर दूर है.
इन प्रशिद्ध चोर बाजारों के अलाबा भी विभिन्न शहरों के चोर बाजार पर नजर डालेंगे तो वहां भी ऐसे ही नज़ारे दिखाई देंगे, आसपास कोई मुस्लिम बस्ती होगी या उस शहर की कोई ख़ास मस्जिद होगी.
कोलकता मे मल्लिक बजार, लखनऊ का नख्खासा बाजार, रामपुर का रजा बाजार, आदि भी ऐसे ही चोर बाजार है. बाक़ी अपने अपने शहर के चोर बाजार के बारे में आप कमेंट बॉक्स में बताने की कृपा करे, जिससे उनका नाम भी पोस्ट में जोड़ा जा सके.

क्या अंग्रेजों ने भारत पर 200 साल तक शासन किया

 अक्सर लोग बोलते हैं कि अंग्रेजों ने भारत पर 200 साल तक राज किया. मुझे तो यह बात एकदम झूठ लगती है. मुझे आजतक समझ नहीं आया कि आखिर अंग्रेजों ने भारत पर 200 साल तक राज कैसे किया ? भारत पर अंग्रेजों के 200 तक राज करने का अर्थ है कि अंग्रेजों ने 1747 के आसपास के समय से लेकर 1947 तक भारत पर राज किया हो.

जहाँ तक मेरी जानकारी है उसके अनुसार 1857 तक देश के ज्यादातर क्षेत्र में मुस्लिम, हिन्दू एवं सिख राजाओं का राज रहा. जब 1757, 1761, 1762 में अफगान हमलाबर अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर हमला किया उस इतिहास में भी कहीं अंग्रेजों का जिक्र नहीं आता है. उसकी लड़ाई जाटों (1757), मराठों (1761) और सिखों (1762) से हुई थी
अंग्रेजों ने 1757 में ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में बंगाल के तत्कालीन नवाब सिराज़ुद्दौला से लड़ाई हुई थी जिसमें क्लाइव ने मीर जाफर की गद्दारी के कारण प्लासी के युद्ध में नबाब सिराजुद्दौला को हरा दिया था. उस लड़ाई के बाद अंग्रेजों का मुर्शीदाबाद पर अधिकार हो गया था. लेकिन एक मुर्शीदाबाद को तो भारत नहीं माना जा सकता है.
उसके बाद भी लम्बे समय तक कहीं हिन्दू, कहीं मुस्लिम, कहीं सिक्ख राजाओं का अधिकार बना रहा. राजस्थान, बुंदेलखंड, असम, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, हरियाणा, आदि पर हिन्दुओं का राज रहा. दिल्ली, हैदराबाद, अवध, रुहेलखंड, मैसूर, आदि पर मुस्लिम नबाबों का भी कब्ज़ा बना रहा. महाराजा रणजीत सिंह ने भी पंजाब पर 1801 से 1839 तक शासन किया.
1858 के बाद अवश्य भारत पर अंग्रेजों (ब्रिटिश संसद) का कब्ज़ा हो गया. तब कुछ भारतीय राजाओं और नबाबों ने भी अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली लेकिन उसके बाद भी भारत की देशभक्त जनता ने अंग्रेजों को आराम से शासन नहीं करने दिया गया. अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी अभियान लगातार चलते रहे, जिसमे कभी भारतीय जीते और कभी अंग्रेज.
पंजाब में नामधारी समुदाय के सतगुरु रामसिंह जी महाराज ने अंग्रेजों के खिलाफ अभियान चलाया, बिहार के वनवासी क्षेत्र में विरसा मुंडा के नेतृत्व में भी क्रान्ति चलती रही. उत्तर प्रदेश और बंगाल में भी अंग्रेजों को कभी चैन से नहीं बैठने दिया गया. तब अंग्रेजों ने भारतीयों के बीच पैठ बनाने के लिए अंग्रेज टाइप भारतीयों को लेकर कांग्रेस पार्टी की स्थापना की.
1885 में अंग्रेजों द्वारा कांग्रेस पार्टी बनाने से भारतीय भ्रमित हो गए और लगभग 20 के तक क्रांतिकारी अभियानों में कमी आ गई. लेकिन जल्द ही भारतीय अंग्रेजों की इस चाल को लोग समझ गए और उन्होंने अंग्रेजों और कांग्रेस के खिलाफ अपने संगठन ( युगांतर, अनुशीलन समिति, अभिनव भारत, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग, आदि) बनाने प्रारम्भ कर दिए.
1907 में आई वीर सावरकर की किताब (1857:प्रथम स्वातंत्र्य समर) के बाद तो देश में जैसे क्रान्ति का ज्वार ही उठ पड़ा हुआ. 1857 में जो क्रान्ति हुई थी उसमे अंग्रेजों के खिलाफ या तो अंग्रेजी सेना के बागी भारतीय सैनिक थे या भारतीय राजा और नबाब, लेकिन 1907 के बाद आम भारतीय नागरिक भी अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी कार्यवाहियां करने लगे.
1907 से लेकर 1915 तक पूरे देश में अनेकों क्रांतिकारी घटनाएं हुई जिसमे अनेकों अंग्रेज और अंग्रेजों के चापलूस भारतीय गद्दार मारे गए. इस दौर में अनेकों क्रांतिकारियों को फांसी और कालापानी की सजा हुई. तब 1915 में कांग्रेस द्वारा गांधी जी को भारत में लाया गया और उनके आने के बाद एक बार फिर कुछ समय के लिए क्रांतिकारी अभियानों में कमी आ गई.
लेकिन 1919 से एक बार फिर भारतीय पूरी ताकत के साथ अंग्रेजों से लड़ने लगे और 1947 में अंग्रेजों को भारत से भगाने के बाद ही दम लिया. अब मुझे कोई बताये कि अंग्रेजो ने कैसे भारत पर 200 साल राज किया क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार तो ये 90 साल से ज्यादा नहीं बैठता है और इन 90 साल में भी देशभक्त भारतीयों ने उन्हें कभी चैन नहीं लेने दिया.
अंग्रेज भारत से जाते जाते, अपनी बनाई पार्टी कांग्रेस को भारत की सत्ता सौंप गए. कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुगलों के पाप को छुपाने के लिए ऐसे लोगों पर ठीकरा फोड़ा जा रहा है जो कि भारत से जा चुके थे और भारत की दुर्दशा का जिम्मेदार मुगलों को बताने के बजाए अंग्रेजों को बताने के लिए अंग्रेजों का कार्यकाल बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाता है.
क्योंकि अगर अंग्रेजों का कार्यकाल कम करके बताया जाएगा तो कोई भी प्रश्न कर देगा कि महज 90 साल में ही अंग्रेजों ने इतना कैसे लूट लिया जबकि इन 90 वर्षों में भी लगातार आजादी की लड़ाई चल ही रही थी. इसके बाद फिर भारत के बर्बादी की सारी जिम्मेदारी मुगलों पर आ जायेगी जो तथाकथित सेक्युलरो को मंजूर नहीं है.

Monday, 3 June 2024

कांग्रेसी प्रोपेगण्डे की पोल

जब सोशल मीडिया नहीं था और सरकारी मीडिया कांग्रेस सरकार के नियंत्रण में था, तब कांग्रेस ने सत्ता और धन की ताकत के बल पर बहुत सारे प्रोपेगण्डे चला लिए. हिंदू महासभा / हिन्दुस्तान सोशलिष्ट रिपब्लिक आर्मी / आजाद हिन्द फ़ौज / आरएसएस / बीजेपी जिस पर जो चाहा वो आरोप लगा लिया तथा अपनी कायरता को अहिंसा साबित कर लिया.

लेकिन अब सोशल मिडिया के जमाने में उनका हर प्रोपोगंडा फेल हो जाता है. सोशल मीडिया पर कांग्रेस के प्रोपोगंडों की पोल देश की जनता ही खोल देती है. भाजपा या संघ को कुछ कोई जबाब देने की जरूरत ही नहीं पड़ती. ऐसा ही एक प्रोपोगंडा कांग्रेस ने चलाया था कि - जब देश अंग्रेजों से लड़ रहा था तब आरएसएस वाले रानी को सलामी दे रहे थे
आरएसएस के एक कार्यक्रम की फोटो को उठाकर उसमे फोटोशॉप द्वारा इंग्लैण्ड की रानी को जोड़ दिया और यह जताने की कोशिश की कि - जिस समय अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई चल रही थी उस समय इंग्लैण्ड की रानी एलिजावेथ भारत में आई थी और आरएसएस वालों ने इंग्लैण्ड की रानी एलिजावेथ को शाखा में बुलाकर सलामी दी थी.
उस फोटो को दिखाकर परिवार विशेष के गुलाम लोग, स्वयंवकों को बदनाम करने की कोशिश करते हैं. लेकिन जब इनसे पूंछा जाता है कि- क्या यह बता सकते हो कि इंग्लैण्ड की कौन सी रानी किस सन में भारत में आई थी और किस शहर की किस शाखा में गई थी ? तब ये लोग जबाब देने के बजाये इधर उधर भागने लगते है.
सबसे पहले तो यह जान ले कि- इंग्लैण्ड की रानी एलिजाबेथ द्वितीय की ताजपोशी 6 फरवरी,1952 को हुई थी और तब तक भारत को ब्रिटिश शासन से आजाद हुए लगभग साढ़े चार साल हो चुके थे. एलिजाबेथ द्वितीय पहली बार 1961 में भारत आई थीं और उस समय उसका स्वागत कांग्रेस ने किया था और वे उन्हें किसी शाखा में लेकर नहीं गए थे.
दरअसल जिस फोटो से एलिजावेथ द्वितीय की फोटो को उठाकर आरएसएस की फोटो में जोड़ा गया है, वह 1956 में नाइजीरिया की फोटो है. फोटो में सलामी देते लोग संघ स्वयंवक नहीं बल्कि नाइजीरियाई सैनिक हैं. एलिजाबेथ द्वितीय 1956 में काडुना एयरपोर्ट पहुंची थीं तो नाइजीरियाई सैनिकों ने उन्हें सलामी दी थी.

Saturday, 1 June 2024

विवेकानन्द रॉक

प्रधानमंत्री मोदी के कन्याकुमारी में “विवेकानन्द रॉक” पर ध्यान करने पर विवाद शुरू हो गया है. आज लोग इस कारण विवेकानन्द रॉक के बारे में जानना चाह रहे है और गूगल पर सर्च कर रहे हैं. दरअसल “विवेकानन्द रॉक” कन्याकुमारी के निकट समुद्र के भीतर तीन सागरों के संगम पर एक द्वीप के रूप में स्तिथ है. यहाँ स्वामी विवेकानन्द जी 24 दिसम्बर 1892 को पहुंचे थे.

इस चट्टान पर स्वामी विवेकानन्द ने तीन दिनों तक ध्यानस्थ होकर साधना की थी और यही पर उनका सत्य से साक्षात्कार हुआ था. स्वामी विवेकानंद जी की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में केरल के प्रसिद्ध समाजसेवी व नायर समुदाय के नेता श्री मन्नथ पद्मनाभन के नेतृत्व में कन्याकुमारी स्थित "विवेकानन्द रॉक मेमोरियल समिति' की स्थापना की गई.
वे उस चट्टान पर भव्य स्मारक और चट्टान तक पहुँचने के लिए एक पैदल पुल बनाना चाहते थे. लेकिन 1962 नेहरु का दौर था और स्थानीय आबादी में एक बड़ी संख्या कैथोलिक ईसाई मछुआरों की थी. ईसाई मछुआरों को जब इस बात का पता चला तो वे पहले ही उस पर कब्ज़ा करने की कोशिश करने लगे. इन कैथोलिक समूहों ने चट्टान को सैंट ज़ेवियर रॉक बुलाना शुरू कर दिया.
ईसाई मछुआरों ने वहां एक बड़ा सा क्रॉस बनाकर उस चट्टान पर लगा दिया. इसका हिन्दुओं ने विरोध किया. हिन्दुओं का दावा था कि ये विवेकानन्द रॉक है इसलिए वहाँ क्रॉस लगा देना अवैद्ध घुसपैठ है. हिन्दुओं के विरोध को देखते हुए न्यायिक जांच के आदेश दिए. श्री पद्मनाभन जी जानते थे जांच और समिति के नाम पर केवल मामले को लटकाया जा रहा है.
उनको पता था कि सरकार की उदासीनता के बावजूद दादरा, नगर हवेली, गोवा, दमन और द्वीव को आजाद कराने के लिए राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ आगे आया था. उसे देखते हुए श्री पद्मनाभन ने इस स्मारक के काम के लिए संघ के सहयोग की मांग की. पू. गुरुजी रामकृष्ण मिशन के दीक्षाप्राप्त संन्यासी थे. गुरुजी ने इस कार्य के लिए एकनाथ रानाडे की जिम्मेदारी लगाईं.
गुरूजी के आदेश पर एकनाथ रानाडे जी कन्याकुमारी पहुंचे और वहां पर लोगों से मिले. उन्होंने स्थानीय लोगों से मिलकर विवेकानंद मेमोरियल को लेकर कई बैठकें कीं. तभी एक रात अचानक वह क्रॉस गायब हो गया और स्थिति विस्फोटक हो गई. तब कांग्रेसी मुख्यमंत्री एम. भक्तवत्सलम ने विवेकानन्द रॉक को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित करके वहाँ हथियारबंद सिपाहियों का पहरा लगा दिया.
मामला केंद्र की सरकार पर छोड़कर राज्य सरकार निश्चिन्त हो गयी. केंद्र में उस समय संस्कृति मंत्री थे हुमांयू कबीर. उन्होंने मामले को यह कहकर ठन्डे बास्ते में डाल दिया कि चट्टान पर निर्माण से तो चट्टान की शोभा चली जाएगी. इस बीच कन्याकुमारी के स्थानीय लोगों ने संघ के नेता एकनाथ रानाडे जी को विवेकानन्द मेमोरियल रॉक मिशन का प्रमुख बना दिया.
हुमांयू कबीर का चुनावी क्षेत्र कोलकाता था. एकनाथ जी ने कूटनीति से काम लेते हुए हुमांयू कबीर के क्षेत्र में यह खबर फैला दी कि हुमांयू कबीर बंगाल के सबसे विख्यात पुत्र स्वामी विवेकानन्द का स्मारक नहीं बनने दे रहे. ऐसा करने से पूरे बंगाल में हुमांयू कबीर का विरोध होने लगा, जिसके सामने हुमायूं कबीर को झुकना पड़ा. लेकिन वे केवल एक स्टोन स्लैब लगाने को राजी हुए.
इस तरह 17 जनवरी 1963 तक वहाँ केवल एक स्टोन स्लैब लग गया. एकनाथ रानाडे लाल बहादुर शास्त्री जी के संपर्क में थे और दोनों नेताओं ने समझ लिया था कि नेहरु के आदेश के बिना काम नहीं होगा. तीन दिन तक एकनाथ रानाडे दिल्ली में ही रुके और विवेकानंद मेमोरियल रॉक पर स्मारक के समर्थन में उन्होंने सांसदों के हस्ताक्षर इकठ्ठा करने शुरू किये.
तीन दिन के अन्दर उन्होंने 323 सांसदों का समर्थन जुटा लिया. तब कहीं जाकर कांग्रेसी सरकार थोड़ी ढीली पड़ी. कांग्रेसी मुख्यमंत्री एम. भक्तवत्सलम ने इसके बाद भी केवल पंद्रह फीट बाय पंद्रह फीट का स्मारक बनाने की आज्ञा दी. तब एकनाथ जी कांची कामकोटी पीठ के 68वें शंकराचार्य जगद्गुरु श्री चंद्रशेखर सरस्वती महास्वमिंगल के पास जा पहुंचे.
कांची पीठ के शंकराचार्य महापेरियावर ने 130 फीट डेढ़ इंच बाय छप्पन फीट का नक्शा सुझाया और उस पर रानाडे, भक्तवत्सलम को मनाने में कामयाब रहे. अब सवाल यह था कि स्मारक बनाने के लिए पैसे कहाँ से आयेंगे ? नेहरू सरकार ने 1962 के युद्ध का हवाला देकर, स्मारक के लिए, कोई भी आर्थिक मदद देने इंकार कर दिया परन्तु एकनाथ जी ने हार नहीं मानी.
एकनाथ रानाडे ने विश्व भर के हिन्दुओं को एक-एक रुपये की राशि समर्पण करने का आव्हान किया. जैसे अभी राम जन्मभूमि मंदिर हिन्दुओं के समर्पण से बना है उस समय ठीक वैसे ही विवेकानन्द रॉक पर स्मारक बनाया गया. स्वामी विवेकानन्द की 108वीं जयंती (हिन्दू पंचांग के हिसाब से) 7 जनवरी 1972 को यहाँ भगवा ध्वज यहाँ फहराकर इसे राष्ट्र को समर्पित किया गया.

Tuesday, 28 May 2024

सुगम दर्शन के शुल्क से सबसे ज्यादा दुखी वो हैं जो कभी मंदिर जाते भी नहीं है

हमारे पूर्वजों ने भव्य मंदिर, तीर्थ, मेले, आदि की व्यवस्था इसलिए बनाई है जिससे लोग भव्य मंदिरो के दर्शन करने के वहाने से अपने घर से बाहर निकलें और पूरे देश को देखें, वरना पूजा तो आप अपने घर में भी कर सकते है. आपके घर के मंदिर में और भव्य मंदिरों में भगवान् एक ही है. इसलिए हमें अपने देश और देशवाशियों को समझने के लिए तीर्थयात्रा पर अवश्य जाना चाहिए.

तीर्थयात्रा दो प्रकार की होती है. पहली तीर्थयात्रा यात्रा वह है जिसमे श्रद्धालु तीर्थयात्रा के उद्देश्य से ही निकलते है और किसी भी प्रकार की परेशानी की परवाह किये बिना मंदिरो और तीर्थीं में दर्शन करने जाते हैं. जबकि दूसरी प्रकार की तीर्थयात्री वह होती है जब कोई व्यक्ति किसी अन्य उद्देश्य से किसी अन्य शहर जाता है और समय मिलने पर वहां के मंदिरों में दर्शन कर लेता है.
तीर्थयात्रा के उद्देश्य से निकले तीर्थयात्री छोटीमोटी परेशानी अथवा समय लगने की परवाह नहीं करते है लेकिन दुसरी प्रकार के तीर्थयात्री जो किसी अन्य काम से उस शहर में आये होते हैं और अपने वास्तविक काम से थोड़ा समय निकालकर उस शहर में मंदिरों के दर्शन करना चाहते है, उनको समय की बहुत चिंता होती है और कम समय में ज्यादा से ज्यादा मंदिरों में जाना चाहते है.
ज्यादा भीड़ और लम्बी लाइन देखकर वे या तो बिना मंदिर में दर्शन किये वापस आ जाते है या फिर कोई जुगाड़ ढूंढते है. किसी पुलिस वाले / मिलिट्री वाले / पुजारी / दलाल आदि को पैसे देकर शॉर्टकट से मंदिर में दर्शन करते हैं. उस श्रद्धालु के पसे देने से मंदिर को कोई लाभ नहीं होता था, इसलिए ऐसे श्रद्धालुओं के लिए ज्यादातर मंदिरों में सुगम दर्शन की सुविधा उपलब्ध कराई है.
अलग अलग शहर के अलग अलग बड़े मंदिरो में अलग अलग शुल्क है जो 50 से लेकर 300 रुपय तक है. इसके अलावा कुछ विशेष मंदिरों में कुछ विशेष पूजा / हवन / अनुष्ठान आदि भी कराये जाते हैं जिनका शुल्क कुछ सौ रुपय से लेकर कई लाख तक भी हो सकता है. जिनको वे अनुष्ठान कराने होते हैं, वे बुकिंग कराने के बाद निर्धारित समय पर वह अनुष्ठान करते है.
दलाल को दिया पैसा दलाल की जेब में जाता है जबकि इस प्रकार का निश्चित शुल्क सीधे मंदिर प्रशासन के पास आता है, जो मंदिर को चलाने और अन्य कार्यक्रमों में काम आता है. इस लिए श्रद्धालुओं को पेड तीर्थयात्रियों से नाराज नहीं होना चाहिए. यदि मंदिर प्रबंधन ऐसे तीर्थयात्रियों से कोई शुल्क लेकर उनको सुगम दर्शन की सुविधा प्रदान करता है तो क्या यह गलत होगा ?
वह किसी को रिश्वत देकर मंदिर जाए या बिना दर्शन किया वापस चला जाए, क्या उससे अच्छा यह नहीं है कि वह शुल्क देकर पूजा करले और वह शुल्क भी मंदिर के काम आये ? मैं अगर अपनी बात करूँ तो काम के सिलसिले भारत / नेपाल के विभिन्न हिस्सों में जाने का अवसर मिला है. सैकड़ों मंदिरों में जाकर भगवान् के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है.
किसी भी जगह जाने पर वहां के प्रशिद्ध मंदिर में जाने की इच्छा रहती है परन्तु सीमित समय होता है. अधिक भीड़ होने की स्तिथि में कई बार तो दर्शन करने और पूजा आदि में में शामिल होने का जुगाड़ हो जाता है और कई बार मंदिर जाने का इरादा छोड़ना पड़ता है. तब मैं हमेशा यही सोंचता हूँ कि ऐसे तीर्थयात्रियों को शुल्क लगाकर दर्शन कराने की व्यवस्था कराई जानी चाहिए.
हालांकि मेरा खुद यह मानना है कि भक्तों को अधिक समय तक कतार में खड़े रहने और जयकारे लगाने में ज्यादा पुण्य मिलता है और साथ ही मन ज्यादा देर तक भगवान् में लीन रहता है. लेकिन दूर से आने वाले भक्त जिनके पास समय कम होता है और कम समय में अधिक मंदिरो में जाना चाहते हैं. उनको ऐसी सुविधा मिलने पर किसी को ऐतराज नहीं करना चाहिए.
अगर मंदिर प्रशासन ऐसी कोई व्यवस्था करते हैं तो अच्छी बात है वरना जुगाड़ तो चलता ही रहेगा. जुगाड़ लगाने में खर्च किये गए पैसे पुलिसवालों के या दलालों की जेब में जाते है जबकि शुल्क लगाने से वह पैसे मंदिर को मिलते हैं. वैसे मैंने देखा है कि मंदिरों की किसी भी व्यवस्था के खिलाफ प्रलाप करने वाले लोग ज्यादातर ऐसे लोग होते है जो कभी खुद मंदिर नहीं जाते.

Tuesday, 5 March 2024

खुबसूरत नार्थईस्ट

भारत का "नार्थ ईस्ट" जिसे सेवन सिस्टर्स भी कहा जाता है. इसमे सात छोटे छोटे राज्य हैं- असम, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड . सिक्किम के भारत में पूर्ण विलय के बाद सिक्किम भी इसी समूह का आठवा राज्य बन चुका है.

"नार्थईस्ट" शेष भारत के लिए तथा नार्थईस्ट के लिए शेष भारत हमेशा एक रहस्य सा रहा है और दोनों के बीच हमेशा एक अद्रश्य दीवार बनी रही. दोनों तरफ के लोगों में एक दुसरे के प्रति ऐसी भ्रांतियां बनी रहीं जिसके कारण दोनों एक दुसरे को शंका से देखते आये हैं.
सौभाग्य से मुझे नार्थईस्ट जाने का अवसर मिला है. मुझे वहां रहने वहां के लोगों से मिलने उनके साथ खाने पीने का मौक़ा मिला है. जब 1993 में मुझे कम्पनी की तरफ से पहली बार तिनसुकिया (ईस्ट आसाम) जाने को कहा गया था तो मैंने पहले मना कर दिया था.
लेकिन दबाब पड़ने पर मुझे जाना पड़ा. बहा जाने पर पता चला कि - यहाँ के लोगों में हम में तो कोई फर्क ही नहीं है. वहां के लोग हम लोगों को शुरू में भले ही ज्यादा लिफ्ट न दें, लेकिन एक बार आप पर विशवास हो जाए तो आपके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं.
नार्थईस्ट के शेष भारत से न घुलमिल पाने की सबसे बड़ी बजह ईसाई मिशनरियों द्वारा पैदा की गई गलतफहमियां थी. ईसाई मिशनरियों ने नार्थईस्ट के लोगों के बीच अपने ईसाई धर्म के प्रचार के साथ उनके मन में शेष भारत के प्रति नफरत भरने का भी काम किया था.
आजादी के बाद भी हमारी सरकारों ने इसाई मिशनरियों द्वारा किये जाने वाले कुप्रचार पर कोई रोक नहीं लगाई. कांग्रेस तो बैसे भी हमेशा जाती / धर्म / क्षेत्र के ब्लोक बनाकर उनको एक दुसरे से डराकर राजनीति करती थी. इसी के कारण वहां अलगाववाद फैला.
जहाँ तक मेरा अनुभव है. मुझे लगता है नार्थईस्ट के लोग बहुत ही साफ़ दिल के होते हैं. वो न तो किसी से छल कपट करते हैं और न ही धोखे को बर्दाश्त करते है. कांग्रेस द्वारा वहां के लोगों से किये झूठे वादे और धोखे ने भी उनके मन में नफरत भरने का काम किया.
इसाई मिशनरियों का प्रपंच और कांग्रेस / क्षेत्रीय दलों की उठापटक ही कम नहीं थी कि - एक नही मुसीबत के रूप में बंगलादेशी मुसलमान वहां पहुँचने लगे. जब तक इनकी संख्या कम थी ये छोटे छोटे काम करते रहे, लेकिन संख्या बढ़ जाने पर यह अपराध करने लगे.
इन सभी कारणों से नार्थईस्ट में अलगाववाद और आतंकवाद फैलने लगा जिससे नार्थईस्ट और शेष भारत में और ज्यादा दूरी बढ़ गई. ऐसे समय समय में कुछ राष्ट्रवादी संगठनों ने उनके बीच जाकर काम करना तथा उनकी समस्याओं को समझना शुरू किया.
उनके बीच रहकर उनको शेष भारत से उनके जुडाब को समझाया. मणिपुर का अर्जुन से रिश्ता समझाया, माँ कामाख्या, शिवसागर और परशुराम कुण्ड जैसे पौराणिक तीर्थ स्थलों पर उनको भी जाने को प्रेरित किया, त्रिपुरा के उनाकोटि शिव मंदिरों की जानकारी दी.
इसका सुखद परिणाम बहुत जल्द सामने आया. नार्थईस्ट के लोग भी अपनी प्राचीन सनातन पद्धतियों से जुड़ने लगे और शेष भारत के लोग भी नार्थईस्ट जाने लगे. पर्यटन बढ़ने से उनकी आमदनी बढ़ने के साथ साथ नार्थईस्ट और शेष भारत में मेल बढ़ने लगा.
आज नार्थईस्ट की राजनीति में भी छल प्रपंच करने वाली पार्टियों का प्रभाव कम हो रहा है तथा राष्ट्रवादी पार्टियों का प्रभाव बढ़ रहा है. इसके साथ साथ सरकार को नार्थईस्ट में बंगलादेशी घुसपैठियों तथा इसाई मिशनरियों से कड़ाई से निपटना चाहिए.
हम उम्मीद करते है कि - वर्तमान सरकार नार्थईस्ट में धार्मिक पर्यटन को बढ़ाबा देने के लिए आवश्यक कदम उठाएंगी. इसके अलावा वहा के जंगल, पहाड़, नदी, नदीद्वीप, बागान, आदि में रिसार्ट्स बनाने के लिए निवेशकों को प्रोत्साहित करना चाहिए.
महाभारत काल से जुडी अनेकों गाथाये पूर्वोत्तर से जुडी हुई हैं. भगवान परशुराम ने कर्ण को अरुणाचल के क्षेत्र में शिक्षित किया था, अर्जुन की एक पत्नी चित्रांगदा मणिपुर की थी. असम में मकर संक्रांति की सुबह पवित्र अग्नि मेजी जलाने के बाद विहू पर्व प्रारम्भ करते हैं.
मेजी की अग्नि को भीष्म पितामह की चिता माना जाता है. जिन्होंने महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद, हस्तिनापुर को युधिष्ठिर के हाथों में सुरक्षित मानकर, सूर्य भगवान् के उत्तरायण में आने पर, मकर संक्रांति की सुबह अपनी इच्छा से अपना शरीर त्याग दिया था.

Friday, 9 February 2024

मलेरकोटला का बड़ा घल्लूघारा

अब्दाली ने अपने 1757 वाले चौथे हमले में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और पश्चमी उत्तर प्रदेश में भयानक तवाही मचाई थी. जब मराठों को इस घटना का पता चला तो उन्होंने 1758 उत्तर भारत की मुस्लिम रियासतों और अब्दाली के पिट्ठुओं पर हमला कर, अब्दाली के जुल्म का बदला लिया. इस काम में उत्तर भारत के अनेकों राजाओं ने भी उनका साथ दिया.

जब अहमद शाह अब्दाली अपने पांचवें हमले के लिए 1760 में निकला उस समय भी मराठा उसका सामना करने निकल पड़े. मराठों को उम्मीद थी कि उत्तर भारत के हिन्दू और सिक्ख उनका साथ देंगे. लेकिन उन्हें हिन्दुओं / सिक्खों का साथ नहीं मिला और दुसरी तरफ भारत की ज्यादातर मुस्लिम रियासते अब्दाली के साथ खड़ी हो गई.
14 जनवरी 1761 की पानीपत के मैदान में मराठे भूखे पेट अब्दाली की सेना से लड़े परन्तु उनकी हार हुई. उत्तर भारत के राजाओं ने भले ही पानीपत के मैदान मराठो का साथ नहीं दिया और अब्दाली से युद्ध नहीं किया लेकिन अब्दाली ने सबसे ज्यादा तवाही उत्तर भारत में ही मचाई. अब्दाली के वापस जाने के बाद उत्तर भारत के मुस्लिम नबाब अपनी गैर मुस्लिम प्रजा पर और ज्यादा अत्याचार करने लगे थे.
अब पंजाब के सिक्ख सरदारों को भी समझ आ गया था कि- उस समय अब्दाली का सामना न करके बड़ी गलती की थी. नई रणनीति बनाने के उद्देश्य से सिक्ख मिसलों ने 27 अक्तूबर 1761 की दीवाली के शुभ अवसर पर श्री अमृतसर पहुंचने का आव्हान किया. सभी मिसलों के सरदार अपने साथियों सहित धार्मिक सम्मेलन के लिए वहां पहुंचे.
‘सरबत खालसा’ ने विचार किया कि- देश में अभी तक अब्दाली के एजेंट मौजूद हैं. जँडियाला, कसूर, पेसेगी, मलेरकोटला, सरहिन्द, आदि के नाम प्रमुख है. इनमे भी कसूर और मालेरकोटला के अफगान तो अहमदशाह अब्दाली की नस्ल के ही हैं. अतः पँजाब में सिक्खों के राज्य की स्थापना के लिए इन सभी विरोधी ताकतों पर काबू करना होगा.
इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर ‘गुरमता’ पारित किया गया कि- सभी सिक्ख योद्धा अपने परिवारों को पँजाब के मालबा क्षेत्र में पहुँचाकर उनकी ओर से निश्चिंत हो जाएँ और उसके बाद विरोधियों से सँघर्ष करने के लिए तैयार हो जाए. गुरमते के दूसरे प्रस्ताव में पँथ से गद्दारी करने वाले शत्रुओं से भी कड़ाई बरतने का निर्णय लिया गया.
जँडियाला का महंत आकिल दास हमेशा सिक्ख स्वरूप में ही रहता था परन्तु वह हमेशा सिक्ख विरोधी कार्यों में लगा रहता था. साथ ही वह पंथ और देश के शत्रुओं से मिलीभगत करके, कई बार पँथ को हानि पहुँचा चुका था. अतः सर्व सम्मति से निर्णय हुआ कि- सर्वप्रथम सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया जी, महंत आकिल दास से ही निपटेगें.
सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया ने जँडियाला नगर को घेर लिया, परन्तु शत्रु पक्ष ने तुरन्त सहायता के लिए अहमदशाह अब्दाली को पत्र भेजा. पत्र प्राप्त होते ही अब्दाली जंडियाला आने के लिए निकल पड़ा. वह सीधे जँडियाले पहुँचा परन्तु समय रहते सरदार जस्सा सिंह जी को अब्दाली के आने की सूचना मिल गई और उन्होंने घेरा उठा लिया.
उन्होंने अपने परिवार और सैनिकों को सतलुज नदी पार किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने का आदेश दिया ताकि निश्चिंत होकर अब्दाली से टक्कर ली जा सके. जब अहमदशह जँडियाला पहुँचा तो सिक्खों को वहाँ न देखकर बड़ा निराश हुआ. दूसरी ओर मलेरकोटला के नवाब भीखन खान को पता चल गया कि सिक्ख सतलुज पार करके उसकी तरफ आ रहे है.
भीखन खान ने सरहिन्द का सूबेदार जैन खान से मदद मांगी और साथ ही अब्दाली को भी यह सूचना भेज दी कि- सिक्ख इस समय उसके इलाके में इकट्ठे हो चुके हैं. अब्दाली ने 3 फरवरी 1762 की सुबह जंडियाला से मलेरकोटला को कूच कर दिया और बिना किसी स्थान पर पड़ाव डाले, सतलुज नदी को पार कर मलेरकोटला की तरफ चल दिया.
अब्दाली ने 4 फरवरी को सरहिन्द के फौजदार जैन खान को सँदेश भेजा कि वह 5 फरवरी को सिक्खों पर सामने से हमला कर दे. यह आदेश मिलते ही सरहिंद के जैन खान, मलेरकोटले का भीखन खान, मुर्तजा खान वड़ैच, कासिम खान मढल तथा अन्य अधिकारियों ने मिलकर अगले दिन सिक्खों की हत्या करने की तैयारी कर ली.
अहमदशाह 5 फरवरी, 1762 की सुबह मलेरकोटला के निकट "कुप्प" ग्राम में पहुँच गया. वहाँ लगभग 40,000 सिक्ख शिविर डाले बैठे थे. वे लोग अपने परिवारों सहित लक्खी जँगल की ओर बढ़ने के लिए विश्राम कर रहे थे. फौजदार जैन खान ने सुयोजनित ढँग से सिक्खों पर सामने से धावा बोल दिया और अहमद शाह अब्दाली ने पिछली तरफ से.
अब्दाली का अपनी सेना को यह भी आदेश था कि जो भी व्यक्ति भारतीय वेशभूषा में दिखाई पड़े, उसे तुरन्त मौत के घाट उतार दिया जाए. इसलिए जो मुसलमान भारतीय भेष भूषा में हैं, वो अपनी पगड़ियों में पेड़ों की हरी पत्तियाँ लटका लें, जिससे कि उनकी पहेचान हो सके. सिक्खों के लिए समस्या हो गई कि वे युद्ध करे या औरतों / बच्चों को बचाए.
फिर भी उनके सरदारों ने धैर्य नहीं खोया. सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया, सरदार शाम सिंह सिंधिया तथा सरदार चढ़त सिंह, आदि जत्थेदारों ने तुरन्त बैठक करके लड़ने का निश्चय कर लिया. सिक्खों के लिए सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि- उनका सारा सामान, हथियार, गोला बारूढ और खाद्य सामग्री वहाँ से चार मील की दूरी पर करमा गाँव में था.
सिक्ख सेनापतियों ने अपने घुड़सवारों को पटियाला और बरनाला की तरफ़ दौड़ाया कि - किसी तरह से वहां से मदद प्राप्त करने का प्रयास करें लेकिन उनको वहां से कोई मदद नहीं मिल सकी. तब उन्होंने निर्णय लिया कि- सबसे पहले सामग्री वाले दस्तों से सम्बन्ध जोड़ा जाए और बच्चों तथा औरतों को किसी तरह से बरनाला पहुँचाया जाए.
उन्होंने सिक्ख योद्धाओं का घेरा बनाकर औरतों और बच्चों को सुरक्षा देते हुए बरनाला की ओर बढ़ना शुरू कर दिया. इस प्रकार वे शत्रुओं से लोहा लेते हुए औरतों / बच्चों को बचाते हुए आगे बढ़ने लगे. मलेरकोटला और सरहिंद की सेना उन पर जगह जगह हमले हर रही थी मगर वे योद्धा किसी तरह से उनसे लड़ते हुए औरतो, बच्चों और बूढ़ो की रक्षा कर रहे थे.
जहाँ कहीं भी सिक्खों की स्थिति कमजोर दिखाई देती, सरदार जस्सा सिंह उनकी सहायता के लिए अपना विशेष दस्ता लेकर तुरन्त पहुँच जाते. इस प्रकार सरदार चढ़त सिंह और सरदार शाम सिंह नारायण सिंघिया ने भी अपनी वीरता के चमत्कार दिखाए. अहमदशाह अब्दाली का लक्ष्य युद्ध लड़ना नहीं था बल्कि सिक्खों के परिवारों को समाप्त करने का था.
अब्दाली ने सैयद वली खान को विशेष सैनिक टुकड़ी दी और उसे आदेश दिया कि सिक्ख सैनिकों के घेरे को तोड़कर उनके परिवारों को कुचल दिया जाए. लेकिन सैय्यद वली खान इस कार्य में सफल नहीं हो सका और बहुत से सैनिक मरवाकर लौट आया. तब अब्दाली ने जहान खान को आठ हजार सैनिक देकर सिक्खों की दीवार तोड़कर परिवारों पर धावा बोलने को कहा.
मुट्ठीभर सिक्ख योधा जहान खान की सेना से लड़ते हुए अपने परिवारों को बचाने का पूरा प्रयास कर रहे थे. अब्दाली ने जैन खान को सँदेश भेजा कि किसी भी हाल में अन्य सिक्ख योद्धाओं को रोके और उन्हें औरतों / बच्चों की रक्षा करने वाले जत्थे की मदद न करने दे. जैन खान ने अपना पूरा बल लगा दिया कि किसी न किसी स्थान पर सिक्खों को रूकने पर विवश कर दिया जाए.
वो सिक्ख योद्धा सर-धड की बाजी लगाकर लड़े परन्तु अब्दाली, मलेरकोटला और सरहिंद की संयुक्त सेना से आखिर कब तक लड़ते. आखिर अहमदशाह अब्दाली, सिक्ख योद्धाओं की उस दीवार को तोड़ने में सफल हो गया और उसके बाद संयुक्त सेना ने भीषण कत्लेआम मचा दिया. औरतों, बूढ़ों और बच्चों को भी नहीं बक्शा. जो भी दिखा उसे क़त्ल कर दिया.
कुछ लोगो वहां से भागकर आसपास के कुतबा और बाहमणी गाँवों में शरण लेनी चाही तो वहां के मुस्लिम (रंघड़ मुसलमान) शरण देने के बजाये उन पर हमला करने लगे. इस युद्ध में लगभग 35 हजार सिक्ख वीरगति को प्राप्त हुए थे. इसलिए इस घटना को सिक्ख इतिहास का दूसरा और बड़ा घल्लूघारा (महाविनाश) के नाम से याद किया जाता है.