वे आठ चिरंजीवी महामानवों में से एक हैं. अर्थात अश्वत्थामा, दैत्यराज बली, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि सदैव जीवित हैं. इन सबमें भी मार्कण्डेय ऋषि आयु में शेष सभी से बड़े हैं. मार्कण्डेय ऋषि के चिरंजीवी बनने की कथा पद्मपुराण के उत्तरखंड में है.
जब मार्कण्डेय का सोलहवां वर्ष प्रारम्भ हुआ तो पिता शोक से भर गए. कारण पूछने पर पिता ने अल्पायु की कथा बताई तो वे माता-पिता की आज्ञा लेकर केरल के त्रिप्रंगोड में समुद्र के तट पर गए और वहां शिवलिंग स्थापित कर आराधना में जुट गए. उन्होंने महामृत्युञजय मन्त्र की रचना की और जाप करने लगे.
तय समय पर काल उनके प्राण हरने आ पहुंचा. तब किशोर मार्कण्डेय ने कहा कि मैं भगवान् शिव के महामृत्युंजय मन्त्र का जाप कर रहा हूं, इसे पूरा कर लूं, तब तक ठहर जाओ. मगर काल नहीं माना और बलपूर्वक मार्कण्डेय को ग्रसना चाहा. भक्त की पुकार पर उसी समय शिवलिंग से महादेव प्रकट हुए.
कुछ विद्वानों का मानना है कि यह घटना कैथी (वाराणसी जिला) में गोमती नदी के तट पर हुई थी, जहाँ गंगा नदी और गोमती नदी का संगम होता है. इस स्थल पर एक प्राचीन मंदिर मार्कंडेय महादेव मंदिर बना हुआ है. गंगा नदी और गोमती नदी संगम क्षेत्र होने के कारण इसकी पवित्रता और भी बढ़ जाती है.
हरियाणा के लोगों का मानना है कि यह घटना अम्बाला और कुरुक्षेत्र के बीच स्तिथ शाहबाद मारकंडा कसबे में मारकंडा नदी के किनारे की है. यहाँ भी मारकंडा नदी के किनारे, राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे, मारकंडेश्वर महादेव का भव्य मंदिर बना हुआ है. बड़ी संख्या में भक्त या पूजा करने आते हैं.
गायत्री मंत्र की भांति महामृत्युंजय मंत्र को भी अत्यंत प्रभावी मन्त्र माना जाता है. विद्वानों का कहना है कि यह मंत्र सबसे पहले ऋग्वेद के सातवें मंडल के 59वें सूक्त में आया. रुद्र देवता के प्रति ऋषि वसिष्ठ द्वारा अनुष्टुप छंद में कृत यह इस सूक्त का बारहवां मंत्र है, जो बाद में यजुर्वेद से होते हुए अन्यत्र पहुंचा.
वाल्मीकि रामायण के अनुसार मार्कण्डेय महाराज दशरथ के ऋत्विज (यज्ञ कराने वाला) थे और भगवान श्रीराम के विवाह में बराती बन मिथिला भी गए थे. राजा बनने के बाद श्रीराम के आमंत्रण पर ये उनकी सभा में पधारे थे और केवल इतना ही नहीं, मार्कण्डेय जी सीता के रसातल में प्रवेश के भी साक्षी बने थे.
महाभारत के वनपर्व में 51 अध्यायों का एक समूचा उपपर्व मार्कण्डेय मुनि को ही समर्पित है. इस अवसर पर काम्यकवन में पाण्डवों के पास उपस्थित स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने मार्कण्डेय का पूजन किया था. इस विस्तृत उपपर्व में मार्कण्डेय मुनि ने कर्मफल सहित अनेक प्रश्नों पर जो उपदेश दिया.
लगभग सभी पुराणों में मार्कण्डेय ऋषि का सादर स्मरण किया गया है. स्वयं मार्कण्डेय के नाम से एक ‘मार्कण्डेय पुराण’ है. देवी पार्वती ने भी उन्हें एक पाठ लिखने का वरदान दिया था, उनके द्वारा लिखा गया यह पाठ "दुर्गा सप्तशती" के रूप में जाना जाता है, जो मार्कंडेय पुराण में एक मूल्यवान भाग है.
मार्कण्डेय इतने महिमावान हैं कि उनकी ख्याति उत्तर से दक्षिण तक फैली हुई है. उत्तर से लेकर दक्षिण तक के लोग उन्हें अपना मानते है और उनकी विरासत पर दावा करते हैं. सत्य तो यह है कि मार्कण्डेय ऋषि का वास्तविक जन्म या तपस्थल अज्ञात है लेकिन उनका व्यक्तित्व और कृतित्व सर्वज्ञात है.
जिस प्रकार शिवभक्ति कर उन्होंने चिरंजीवी जीवन पाया, उसका प्रतीक यह है कि भाव प्रबल हो तो पत्थर से भी परमात्मा प्रकट हो जाता है. अपने उपदेशों में हर युग में मार्कण्डेय सिखाते हैं कि जो व्यक्ति तन व मन से जितना अधिक सात्विक जीवन जीता है, वही व्यक्ति दीर्घायु और मृत्युंजयी होता है.
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