इस चट्टान पर स्वामी विवेकानन्द ने तीन दिनों तक ध्यानस्थ होकर साधना की थी और यही पर उनका सत्य से साक्षात्कार हुआ था. स्वामी विवेकानंद जी की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में केरल के प्रसिद्ध समाजसेवी व नायर समुदाय के नेता श्री मन्नथ पद्मनाभन के नेतृत्व में कन्याकुमारी स्थित "विवेकानन्द रॉक मेमोरियल समिति' की स्थापना की गई.
वे उस चट्टान पर भव्य स्मारक और चट्टान तक पहुँचने के लिए एक पैदल पुल बनाना चाहते थे. लेकिन 1962 नेहरु का दौर था और स्थानीय आबादी में एक बड़ी संख्या कैथोलिक ईसाई मछुआरों की थी. ईसाई मछुआरों को जब इस बात का पता चला तो वे पहले ही उस पर कब्ज़ा करने की कोशिश करने लगे. इन कैथोलिक समूहों ने चट्टान को सैंट ज़ेवियर रॉक बुलाना शुरू कर दिया.
ईसाई मछुआरों ने वहां एक बड़ा सा क्रॉस बनाकर उस चट्टान पर लगा दिया. इसका हिन्दुओं ने विरोध किया. हिन्दुओं का दावा था कि ये विवेकानन्द रॉक है इसलिए वहाँ क्रॉस लगा देना अवैद्ध घुसपैठ है. हिन्दुओं के विरोध को देखते हुए न्यायिक जांच के आदेश दिए. श्री पद्मनाभन जी जानते थे जांच और समिति के नाम पर केवल मामले को लटकाया जा रहा है.
उनको पता था कि सरकार की उदासीनता के बावजूद दादरा, नगर हवेली, गोवा, दमन और द्वीव को आजाद कराने के लिए राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ आगे आया था. उसे देखते हुए श्री पद्मनाभन ने इस स्मारक के काम के लिए संघ के सहयोग की मांग की. पू. गुरुजी रामकृष्ण मिशन के दीक्षाप्राप्त संन्यासी थे. गुरुजी ने इस कार्य के लिए एकनाथ रानाडे की जिम्मेदारी लगाईं.
गुरूजी के आदेश पर एकनाथ रानाडे जी कन्याकुमारी पहुंचे और वहां पर लोगों से मिले. उन्होंने स्थानीय लोगों से मिलकर विवेकानंद मेमोरियल को लेकर कई बैठकें कीं. तभी एक रात अचानक वह क्रॉस गायब हो गया और स्थिति विस्फोटक हो गई. तब कांग्रेसी मुख्यमंत्री एम. भक्तवत्सलम ने विवेकानन्द रॉक को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित करके वहाँ हथियारबंद सिपाहियों का पहरा लगा दिया.
मामला केंद्र की सरकार पर छोड़कर राज्य सरकार निश्चिन्त हो गयी. केंद्र में उस समय संस्कृति मंत्री थे हुमांयू कबीर. उन्होंने मामले को यह कहकर ठन्डे बास्ते में डाल दिया कि चट्टान पर निर्माण से तो चट्टान की शोभा चली जाएगी. इस बीच कन्याकुमारी के स्थानीय लोगों ने संघ के नेता एकनाथ रानाडे जी को विवेकानन्द मेमोरियल रॉक मिशन का प्रमुख बना दिया.
हुमांयू कबीर का चुनावी क्षेत्र कोलकाता था. एकनाथ जी ने कूटनीति से काम लेते हुए हुमांयू कबीर के क्षेत्र में यह खबर फैला दी कि हुमांयू कबीर बंगाल के सबसे विख्यात पुत्र स्वामी विवेकानन्द का स्मारक नहीं बनने दे रहे. ऐसा करने से पूरे बंगाल में हुमांयू कबीर का विरोध होने लगा, जिसके सामने हुमायूं कबीर को झुकना पड़ा. लेकिन वे केवल एक स्टोन स्लैब लगाने को राजी हुए.
इस तरह 17 जनवरी 1963 तक वहाँ केवल एक स्टोन स्लैब लग गया. एकनाथ रानाडे लाल बहादुर शास्त्री जी के संपर्क में थे और दोनों नेताओं ने समझ लिया था कि नेहरु के आदेश के बिना काम नहीं होगा. तीन दिन तक एकनाथ रानाडे दिल्ली में ही रुके और विवेकानंद मेमोरियल रॉक पर स्मारक के समर्थन में उन्होंने सांसदों के हस्ताक्षर इकठ्ठा करने शुरू किये.
तीन दिन के अन्दर उन्होंने 323 सांसदों का समर्थन जुटा लिया. तब कहीं जाकर कांग्रेसी सरकार थोड़ी ढीली पड़ी. कांग्रेसी मुख्यमंत्री एम. भक्तवत्सलम ने इसके बाद भी केवल पंद्रह फीट बाय पंद्रह फीट का स्मारक बनाने की आज्ञा दी. तब एकनाथ जी कांची कामकोटी पीठ के 68वें शंकराचार्य जगद्गुरु श्री चंद्रशेखर सरस्वती महास्वमिंगल के पास जा पहुंचे.
कांची पीठ के शंकराचार्य महापेरियावर ने 130 फीट डेढ़ इंच बाय छप्पन फीट का नक्शा सुझाया और उस पर रानाडे, भक्तवत्सलम को मनाने में कामयाब रहे. अब सवाल यह था कि स्मारक बनाने के लिए पैसे कहाँ से आयेंगे ? नेहरू सरकार ने 1962 के युद्ध का हवाला देकर, स्मारक के लिए, कोई भी आर्थिक मदद देने इंकार कर दिया परन्तु एकनाथ जी ने हार नहीं मानी.
एकनाथ रानाडे ने विश्व भर के हिन्दुओं को एक-एक रुपये की राशि समर्पण करने का आव्हान किया. जैसे अभी राम जन्मभूमि मंदिर हिन्दुओं के समर्पण से बना है उस समय ठीक वैसे ही विवेकानन्द रॉक पर स्मारक बनाया गया. स्वामी विवेकानन्द की 108वीं जयंती (हिन्दू पंचांग के हिसाब से) 7 जनवरी 1972 को यहाँ भगवा ध्वज यहाँ फहराकर इसे राष्ट्र को समर्पित किया गया.
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