तीर्थयात्रा दो प्रकार की होती है. पहली तीर्थयात्रा यात्रा वह है जिसमे श्रद्धालु तीर्थयात्रा के उद्देश्य से ही निकलते है और किसी भी प्रकार की परेशानी की परवाह किये बिना मंदिरो और तीर्थीं में दर्शन करने जाते हैं. जबकि दूसरी प्रकार की तीर्थयात्री वह होती है जब कोई व्यक्ति किसी अन्य उद्देश्य से किसी अन्य शहर जाता है और समय मिलने पर वहां के मंदिरों में दर्शन कर लेता है.
तीर्थयात्रा के उद्देश्य से निकले तीर्थयात्री छोटीमोटी परेशानी अथवा समय लगने की परवाह नहीं करते है लेकिन दुसरी प्रकार के तीर्थयात्री जो किसी अन्य काम से उस शहर में आये होते हैं और अपने वास्तविक काम से थोड़ा समय निकालकर उस शहर में मंदिरों के दर्शन करना चाहते है, उनको समय की बहुत चिंता होती है और कम समय में ज्यादा से ज्यादा मंदिरों में जाना चाहते है.
ज्यादा भीड़ और लम्बी लाइन देखकर वे या तो बिना मंदिर में दर्शन किये वापस आ जाते है या फिर कोई जुगाड़ ढूंढते है. किसी पुलिस वाले / मिलिट्री वाले / पुजारी / दलाल आदि को पैसे देकर शॉर्टकट से मंदिर में दर्शन करते हैं. उस श्रद्धालु के पसे देने से मंदिर को कोई लाभ नहीं होता था, इसलिए ऐसे श्रद्धालुओं के लिए ज्यादातर मंदिरों में सुगम दर्शन की सुविधा उपलब्ध कराई है.
अलग अलग शहर के अलग अलग बड़े मंदिरो में अलग अलग शुल्क है जो 50 से लेकर 300 रुपय तक है. इसके अलावा कुछ विशेष मंदिरों में कुछ विशेष पूजा / हवन / अनुष्ठान आदि भी कराये जाते हैं जिनका शुल्क कुछ सौ रुपय से लेकर कई लाख तक भी हो सकता है. जिनको वे अनुष्ठान कराने होते हैं, वे बुकिंग कराने के बाद निर्धारित समय पर वह अनुष्ठान करते है.
दलाल को दिया पैसा दलाल की जेब में जाता है जबकि इस प्रकार का निश्चित शुल्क सीधे मंदिर प्रशासन के पास आता है, जो मंदिर को चलाने और अन्य कार्यक्रमों में काम आता है. इस लिए श्रद्धालुओं को पेड तीर्थयात्रियों से नाराज नहीं होना चाहिए. यदि मंदिर प्रबंधन ऐसे तीर्थयात्रियों से कोई शुल्क लेकर उनको सुगम दर्शन की सुविधा प्रदान करता है तो क्या यह गलत होगा ?
वह किसी को रिश्वत देकर मंदिर जाए या बिना दर्शन किया वापस चला जाए, क्या उससे अच्छा यह नहीं है कि वह शुल्क देकर पूजा करले और वह शुल्क भी मंदिर के काम आये ? मैं अगर अपनी बात करूँ तो काम के सिलसिले भारत / नेपाल के विभिन्न हिस्सों में जाने का अवसर मिला है. सैकड़ों मंदिरों में जाकर भगवान् के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है.
किसी भी जगह जाने पर वहां के प्रशिद्ध मंदिर में जाने की इच्छा रहती है परन्तु सीमित समय होता है. अधिक भीड़ होने की स्तिथि में कई बार तो दर्शन करने और पूजा आदि में में शामिल होने का जुगाड़ हो जाता है और कई बार मंदिर जाने का इरादा छोड़ना पड़ता है. तब मैं हमेशा यही सोंचता हूँ कि ऐसे तीर्थयात्रियों को शुल्क लगाकर दर्शन कराने की व्यवस्था कराई जानी चाहिए.
हालांकि मेरा खुद यह मानना है कि भक्तों को अधिक समय तक कतार में खड़े रहने और जयकारे लगाने में ज्यादा पुण्य मिलता है और साथ ही मन ज्यादा देर तक भगवान् में लीन रहता है. लेकिन दूर से आने वाले भक्त जिनके पास समय कम होता है और कम समय में अधिक मंदिरो में जाना चाहते हैं. उनको ऐसी सुविधा मिलने पर किसी को ऐतराज नहीं करना चाहिए.
अगर मंदिर प्रशासन ऐसी कोई व्यवस्था करते हैं तो अच्छी बात है वरना जुगाड़ तो चलता ही रहेगा. जुगाड़ लगाने में खर्च किये गए पैसे पुलिसवालों के या दलालों की जेब में जाते है जबकि शुल्क लगाने से वह पैसे मंदिर को मिलते हैं. वैसे मैंने देखा है कि मंदिरों की किसी भी व्यवस्था के खिलाफ प्रलाप करने वाले लोग ज्यादातर ऐसे लोग होते है जो कभी खुद मंदिर नहीं जाते.
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