अब्दाली ने अपने 1757 वाले चौथे हमले में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और पश्चमी उत्तर प्रदेश में भयानक तवाही मचाई थी. जब मराठों को इस घटना का पता चला तो उन्होंने 1758 उत्तर भारत की मुस्लिम रियासतों और अब्दाली के पिट्ठुओं पर हमला कर, अब्दाली के जुल्म का बदला लिया. इस काम में उत्तर भारत के अनेकों राजाओं ने भी उनका साथ दिया.
14 जनवरी 1761 की पानीपत के मैदान में मराठे भूखे पेट अब्दाली की सेना से लड़े परन्तु उनकी हार हुई. उत्तर भारत के राजाओं ने भले ही पानीपत के मैदान मराठो का साथ नहीं दिया और अब्दाली से युद्ध नहीं किया लेकिन अब्दाली ने सबसे ज्यादा तवाही उत्तर भारत में ही मचाई. अब्दाली के वापस जाने के बाद उत्तर भारत के मुस्लिम नबाब अपनी गैर मुस्लिम प्रजा पर और ज्यादा अत्याचार करने लगे थे.
अब पंजाब के सिक्ख सरदारों को भी समझ आ गया था कि- उस समय अब्दाली का सामना न करके बड़ी गलती की थी. नई रणनीति बनाने के उद्देश्य से सिक्ख मिसलों ने 27 अक्तूबर 1761 की दीवाली के शुभ अवसर पर श्री अमृतसर पहुंचने का आव्हान किया. सभी मिसलों के सरदार अपने साथियों सहित धार्मिक सम्मेलन के लिए वहां पहुंचे.
‘सरबत खालसा’ ने विचार किया कि- देश में अभी तक अब्दाली के एजेंट मौजूद हैं. जँडियाला, कसूर, पेसेगी, मलेरकोटला, सरहिन्द, आदि के नाम प्रमुख है. इनमे भी कसूर और मालेरकोटला के अफगान तो अहमदशाह अब्दाली की नस्ल के ही हैं. अतः पँजाब में सिक्खों के राज्य की स्थापना के लिए इन सभी विरोधी ताकतों पर काबू करना होगा.
इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर ‘गुरमता’ पारित किया गया कि- सभी सिक्ख योद्धा अपने परिवारों को पँजाब के मालबा क्षेत्र में पहुँचाकर उनकी ओर से निश्चिंत हो जाएँ और उसके बाद विरोधियों से सँघर्ष करने के लिए तैयार हो जाए. गुरमते के दूसरे प्रस्ताव में पँथ से गद्दारी करने वाले शत्रुओं से भी कड़ाई बरतने का निर्णय लिया गया.
जँडियाला का महंत आकिल दास हमेशा सिक्ख स्वरूप में ही रहता था परन्तु वह हमेशा सिक्ख विरोधी कार्यों में लगा रहता था. साथ ही वह पंथ और देश के शत्रुओं से मिलीभगत करके, कई बार पँथ को हानि पहुँचा चुका था. अतः सर्व सम्मति से निर्णय हुआ कि- सर्वप्रथम सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया जी, महंत आकिल दास से ही निपटेगें.
सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया ने जँडियाला नगर को घेर लिया, परन्तु शत्रु पक्ष ने तुरन्त सहायता के लिए अहमदशाह अब्दाली को पत्र भेजा. पत्र प्राप्त होते ही अब्दाली जंडियाला आने के लिए निकल पड़ा. वह सीधे जँडियाले पहुँचा परन्तु समय रहते सरदार जस्सा सिंह जी को अब्दाली के आने की सूचना मिल गई और उन्होंने घेरा उठा लिया.
उन्होंने अपने परिवार और सैनिकों को सतलुज नदी पार किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने का आदेश दिया ताकि निश्चिंत होकर अब्दाली से टक्कर ली जा सके. जब अहमदशह जँडियाला पहुँचा तो सिक्खों को वहाँ न देखकर बड़ा निराश हुआ. दूसरी ओर मलेरकोटला के नवाब भीखन खान को पता चल गया कि सिक्ख सतलुज पार करके उसकी तरफ आ रहे है.
भीखन खान ने सरहिन्द का सूबेदार जैन खान से मदद मांगी और साथ ही अब्दाली को भी यह सूचना भेज दी कि- सिक्ख इस समय उसके इलाके में इकट्ठे हो चुके हैं. अब्दाली ने 3 फरवरी 1762 की सुबह जंडियाला से मलेरकोटला को कूच कर दिया और बिना किसी स्थान पर पड़ाव डाले, सतलुज नदी को पार कर मलेरकोटला की तरफ चल दिया.
अब्दाली ने 4 फरवरी को सरहिन्द के फौजदार जैन खान को सँदेश भेजा कि वह 5 फरवरी को सिक्खों पर सामने से हमला कर दे. यह आदेश मिलते ही सरहिंद के जैन खान, मलेरकोटले का भीखन खान, मुर्तजा खान वड़ैच, कासिम खान मढल तथा अन्य अधिकारियों ने मिलकर अगले दिन सिक्खों की हत्या करने की तैयारी कर ली.
अहमदशाह 5 फरवरी, 1762 की सुबह मलेरकोटला के निकट "कुप्प" ग्राम में पहुँच गया. वहाँ लगभग 40,000 सिक्ख शिविर डाले बैठे थे. वे लोग अपने परिवारों सहित लक्खी जँगल की ओर बढ़ने के लिए विश्राम कर रहे थे. फौजदार जैन खान ने सुयोजनित ढँग से सिक्खों पर सामने से धावा बोल दिया और अहमद शाह अब्दाली ने पिछली तरफ से.
अब्दाली का अपनी सेना को यह भी आदेश था कि जो भी व्यक्ति भारतीय वेशभूषा में दिखाई पड़े, उसे तुरन्त मौत के घाट उतार दिया जाए. इसलिए जो मुसलमान भारतीय भेष भूषा में हैं, वो अपनी पगड़ियों में पेड़ों की हरी पत्तियाँ लटका लें, जिससे कि उनकी पहेचान हो सके. सिक्खों के लिए समस्या हो गई कि वे युद्ध करे या औरतों / बच्चों को बचाए.
फिर भी उनके सरदारों ने धैर्य नहीं खोया. सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया, सरदार शाम सिंह सिंधिया तथा सरदार चढ़त सिंह, आदि जत्थेदारों ने तुरन्त बैठक करके लड़ने का निश्चय कर लिया. सिक्खों के लिए सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि- उनका सारा सामान, हथियार, गोला बारूढ और खाद्य सामग्री वहाँ से चार मील की दूरी पर करमा गाँव में था.
सिक्ख सेनापतियों ने अपने घुड़सवारों को पटियाला और बरनाला की तरफ़ दौड़ाया कि - किसी तरह से वहां से मदद प्राप्त करने का प्रयास करें लेकिन उनको वहां से कोई मदद नहीं मिल सकी. तब उन्होंने निर्णय लिया कि- सबसे पहले सामग्री वाले दस्तों से सम्बन्ध जोड़ा जाए और बच्चों तथा औरतों को किसी तरह से बरनाला पहुँचाया जाए.
उन्होंने सिक्ख योद्धाओं का घेरा बनाकर औरतों और बच्चों को सुरक्षा देते हुए बरनाला की ओर बढ़ना शुरू कर दिया. इस प्रकार वे शत्रुओं से लोहा लेते हुए औरतों / बच्चों को बचाते हुए आगे बढ़ने लगे. मलेरकोटला और सरहिंद की सेना उन पर जगह जगह हमले हर रही थी मगर वे योद्धा किसी तरह से उनसे लड़ते हुए औरतो, बच्चों और बूढ़ो की रक्षा कर रहे थे.
जहाँ कहीं भी सिक्खों की स्थिति कमजोर दिखाई देती, सरदार जस्सा सिंह उनकी सहायता के लिए अपना विशेष दस्ता लेकर तुरन्त पहुँच जाते. इस प्रकार सरदार चढ़त सिंह और सरदार शाम सिंह नारायण सिंघिया ने भी अपनी वीरता के चमत्कार दिखाए. अहमदशाह अब्दाली का लक्ष्य युद्ध लड़ना नहीं था बल्कि सिक्खों के परिवारों को समाप्त करने का था.
अब्दाली ने सैयद वली खान को विशेष सैनिक टुकड़ी दी और उसे आदेश दिया कि सिक्ख सैनिकों के घेरे को तोड़कर उनके परिवारों को कुचल दिया जाए. लेकिन सैय्यद वली खान इस कार्य में सफल नहीं हो सका और बहुत से सैनिक मरवाकर लौट आया. तब अब्दाली ने जहान खान को आठ हजार सैनिक देकर सिक्खों की दीवार तोड़कर परिवारों पर धावा बोलने को कहा.
मुट्ठीभर सिक्ख योधा जहान खान की सेना से लड़ते हुए अपने परिवारों को बचाने का पूरा प्रयास कर रहे थे. अब्दाली ने जैन खान को सँदेश भेजा कि किसी भी हाल में अन्य सिक्ख योद्धाओं को रोके और उन्हें औरतों / बच्चों की रक्षा करने वाले जत्थे की मदद न करने दे. जैन खान ने अपना पूरा बल लगा दिया कि किसी न किसी स्थान पर सिक्खों को रूकने पर विवश कर दिया जाए.
वो सिक्ख योद्धा सर-धड की बाजी लगाकर लड़े परन्तु अब्दाली, मलेरकोटला और सरहिंद की संयुक्त सेना से आखिर कब तक लड़ते. आखिर अहमदशाह अब्दाली, सिक्ख योद्धाओं की उस दीवार को तोड़ने में सफल हो गया और उसके बाद संयुक्त सेना ने भीषण कत्लेआम मचा दिया. औरतों, बूढ़ों और बच्चों को भी नहीं बक्शा. जो भी दिखा उसे क़त्ल कर दिया.
कुछ लोगो वहां से भागकर आसपास के कुतबा और बाहमणी गाँवों में शरण लेनी चाही तो वहां के मुस्लिम (रंघड़ मुसलमान) शरण देने के बजाये उन पर हमला करने लगे. इस युद्ध में लगभग 35 हजार सिक्ख वीरगति को प्राप्त हुए थे. इसलिए इस घटना को सिक्ख इतिहास का दूसरा और बड़ा घल्लूघारा (महाविनाश) के नाम से याद किया जाता है.
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