आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय का जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. में जैसोर ज़िले के ररौली गांव में हुआ था. यह स्थान अब बांग्लादेश में है तथा खुल्ना ज़िले के नाम से जाना जाता है. उनके पिता हरिश्चंद्र राय इस गाँव के प्रतिष्ठित ज़मींदार थे, उनका का अपना पुस्तकालय था
प्रफुल्लचंद्र राय ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने पिता के बनाये स्कूल में की. 1879 में उन्होंने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की उसके बाद आगे की पढ़ाई मेट्रोपोलिटन कॉलेज (अब विद्यासागर कॉलेज) में शुरू की. यहाँ इनका झुकाव रसायन विज्ञान में हुआ.इसके बाद उन्हे लंदन में छात्रवृत्ति मिली और वे उच्च शिक्षा के लिए लन्दन चले गए. वर्ष 1885 में उन्होंने पी.एच.डी का शोधकार्य पूरा किया. उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें एडिनबरा विश्वविद्यालय की रसायन सोसायटी ने उनको अपना उपाध्यक्ष चुना.
कुछ समय बाद वे भारत आ गए. 1889 में प्रेसिडेंसी कॉलेज में रसायनविज्ञान के सहायक प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए और 911 में वे प्रोफेसर बने. 1916 में वे प्रेसिडेंसी कॉलेज से रसायन विज्ञान के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए.
अपने अध्यन अध्यापन के समांतर में उन्होंने 1892 में अपने रहने के कमरे में ही, विलायती ढंग से अंग्रेजी एवं देशी ओषधियाँ को तैयार करने के लिये "बंगाल कैमिकल ऐंड फार्मास्युटिकल वक्र्स" का कार्य आरंभ किया. यह भारत में दवा उद्योग का प्रारम्भ था.
उन्होंने आधुनिक विज्ञान के साथ, आयुर्विज्ञान की प्राचीन भारतीय पुस्तकों का अध्यन किया. उन्होंने नागार्जुन की पुस्तक "रसेन्द्रसारसंग्रह" पर आधारित "प्राचीन हिन्दू रसायन" के विषय में एक लम्बा लेख लिखा जिसे "जर्नल डे सावंट" ने प्रकाशित किया.
इससे उत्साहित होकर आचार्य ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री" को लिखा. उनकी यह किताब विश्वविख्यात हुई. इस किताब के माध्यम से ही सारी दुनिया प्राचीन भारत के समृद्ध रसायन ज्ञान और चिकित्सा ज्ञान से पहली बार परिचित हुई.
इस किताब का दुनिया की अनेकों भाषाओं में गया. इसके बाद सारी दुनिया के रसायन विद और चिकित्सा विद प्राचीन हिन्दू ग्रंथो को मंगवाकर उनका विटार से अध्ययन करने लगे. रसायन के क्षेत्र में आचार्य के लगभग 120 शोध-पत्र प्रकाशित हुए.
उन्होने मरक्यूरस नाइट्रेट एवं अमोनियम नाइट्राइट नामक नए यौगिकों का निर्माण किया और इनकी मदद से 80 नए यौगिक तैयार किए. रिटायर होने के बाद उन्होंने अपना सारा समय "बंगाल कैमिकल ऐंड फार्मास्युटिकल वक्र्स" को देना प्रारम्भ कर दिया.
यहाँ उन्होंने आयुर्वेद और एलोपैथी का मिश्रण करते हुए दवाइयों का निर्माण शुरू कर दिया, इनकी यह कम्पनी सफलता के नए आयाम स्थापित करने लगी. उनकी कम्पनी द्वारा "हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन" के अविष्कार ने बड़ी कम्पनी बना दिया था.
वे गांधी जी और मालवीय जी का भी बहुत सम्मान करते थे. जब BHU द्वारा उन्हें डी.एस-सी की मानद उपाधि से विभूषित किया गया, तो उन्होंने कहा था कि - यह मेरे जीवन का सर्वश्रेष्ठ पुरुष्कार है, जबकि उन्हें देश विदेश के अनेकों बड़े बड़े सम्मान मिल चुके थे.
सन् 1922 में उन्होंने नागार्जुन के नाम पर वार्षिक पुरस्कार शुरू करने के लए दस हज़ार रुपये दिए. उन्होंने 1936 में डा. आशुतोष मुखर्जी के नाम पर भी शोध-पुरस्कार शुरू करने के लिए उनके डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी दस हज़ार रुपया दिए थे.
उन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया था. संयमित तथा कर्मण्य जीवन जीने के कारण, उन्होंने 83 वर्ष की दीर्घ आयु पाई. 16 जून 1944, को आपका निधन हो गया. उनका कोई उत्तराधिकारी न होने के कारण उनकी कम्पनी राष्ट्र की सम्पत्ति घोषित हो गई
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