अच्छी विधि है.
भगवान् की मूर्तियाँ दो प्रकार की बनाई जाती हैं. एक स्थाई और दुसरी अस्थाई. स्थाई मूर्तियाँ पत्थर अथवा कंक्रीट की बनाई जाती है और उनको मंदिर में स्थापित कर दिया जाता है. उनकी प्राण प्रतिष्ठा (विशेष पूजा) के बाद उनकी नियमित पूजा की जाती है.
दूसरे प्राकार की मूर्तियाँ होती हैं अस्थाई मूर्तियाँ. किसी पर्व विशेष के लिए मिटटी की मूर्तियों का निर्माण किया जाता है, उनको स्थापित कर भगवान् का आव्हान किया जाता है और उत्सव के चलने तक उस देवता / भगवान् की विधि बिधान के साथ पूजा की जाती है
उत्सव की समाप्ति पर शास्त्रोक्त विधि से भगवान् को विदा कर दिया जाता है. अब वह मूर्ति देवता न रहकर मात्र निर्जीव मूर्ति रह जाती है. भगवान् का रूप रह चुकी उस मूर्ति का निरादर न हो, इसलिए उस मूर्ति का नदी अथवा समुद्र में विसर्जन कर दिया जाता है.
मिट्टी की उस मूर्ति की मिट्टी पानी में घुल जाती है. यह परम्परा पिछले सैकड़ों साल से चली आ रही है और इससे किसी को कोई परेशानी नहीं थी. इसमें समस्या प्रारम्भ हुई 20 - 25 साल पहले. जब लोगों में सम्पन्नता आई तो वह उनकी पूजा में भी दिखने लगी.
भक्तों में सम्पन्नता और आधुनिकता आ जाने के बाद, धनवान लोग मिटटी की साधारण मूर्ति के बजाय प्लास्टर आफ पेरिस की भव्य मूर्तिया बनबाने लगे, जिनको और भी ज्यादा आकर्षक बनाने के लिए, उनमे केमिकल युक्त रंगों का प्रयोग किया जाने लगा.
इसके अलावा पहले जहाँ पूरे शहर में दो - चार जगह सामूहिक रूप से पूजा होती थी, वहीँ अब हर गली मोहल्ले में पूजा होने लगी. मूर्तियों की संख्या बढ़ जाने और केमिकल्स का ज्यादा इस्तेमाल होने के कारण इन मूर्तियों का विसर्जन भी आज एक समस्या बन गई है.
सबसे पहले तो लोगों को बिचार कर, ऐसे उत्सव को हर गली मोहल्ले में मनाने के बजाय शहर में दो चार जगह पर ही, सामूहिक रूप से मनाना चाहिए. मूर्ति भी साधारण मिटटी की बनानी चाहिये और उनमे रंग भी प्राक्रतिक ही इस्तेमाल करने चाहिए,
हमें समझना चाहिए कि- भव्य उत्सव को मनाना ही काफी नहीं है . उत्सव के बाद भगवान् के रूप का निरादर न हो और नदिया तथा पर्यावरण अशुद्ध न हो इसका भी ध्यान रखना चाहिए. इस बिषय में मैं आप लोगों से भी आपके सुझाव आमंत्रित करता हूँ .
No comments:
Post a Comment