Tuesday, 26 July 2022

अमरनाथ तीर्थयात्रा : फैलाए गए भ्रम और उनका जबाब

आज से इस बर्ष की अमरनाथ यात्रा प्रारम्भ हो गई है. कल पहला जत्था "बाबा बर्फानी" के दर्शन करेगा. अमरनाथ यात्रा को लेकर यह भ्रम फैलाया गया है कि- अमरनाथ की गुफा की खोज सन 1850 में एक मुसलमान गडरिये बूटा मालिक ने की थी. और ऐसा कहकर बाबा बर्फानी में में आये चढ़ावे का एक हिस्सा उसके वंशजों को दिया जाता है.

अमरनाथ यात्रा प्रारम्भ होते ही फर्जी सेक्युलरिज्म के झंडाबरदार बूटा मालिक द्वारा गुफा की खोज की कहानी सुनाना शुरू कर देते है जबकि वास्तविकता यह है कि- अमरनाथ की पवित्र गुफा में बाबा बर्फानी की पूजा सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों साल से हो रही है. हम सभी को यह सत्य जानना चाहिए और सभी को बताना भी चाहिए.
श्रीनगर से 141 किलोमीटर दूर 3888 मीटर की उंचाई पर स्थित अमरनाथ गुफा को, भारतीय पुरातत्व विभाग ही 5 हजार वर्ष से भी ज्यादा प्राचीन मानता है. अमरनाथ की गुफा प्राकृतिक है न कि मानव नर्मित, इसलिए पुरातत्व विभाग की यह गणना भी कम ही पड़ती है, क्योंकि हिमालय के पहाड़ लाखों वर्ष पुराने माने जाते हैं.
कश्मीर के इतिहास पर कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ और नीलमत पुराण से सबसे अधिक प्रकाश पड़ता है. ‘राजतरंगिणी’ मे ऊलेख है कि- कश्मीर के राजा सामदीमत (34 इ.पू.) शैव थे और वह पहलगाम के वनों में स्थित बर्फ के शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने जाते थे. सभी जानते हैं कि- बर्फ का शिवलिंग अमरनाथ को छोड़कर और कहीं नहीं है..
बृंगेश संहिता में अमरनाथ यात्रा का पूरा वर्णन है. उसमे लिखा है कि- अमरनाथ की गुफा की ओर जाते समय अनंतनया (अनंतनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी, सुशरामनगर (शेषनाग), पंचतरंगिरी (पंचतरणी) और अमरावती में तीर्थयात्री धार्मिक अनुष्ठान करते थे.
छठी सदी में लिखे गये "नीलमत पुराण" में अमरनाथ यात्रा का स्पष्ट उल्लेख है. नीलमत पुराण में कश्मीर के इतिहास, भूगोल, लोककथाओं, धार्मिक अनुष्ठानों की विस्तृत रूप में जानकारी उपलब्ध है. नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गये वर्णन से पता चलता है कि- छठी शताब्दी में लोग अमरनाथ यात्रा किया करते थे.
अमित कुमार सिंह द्वारा लिखित ‘अमरनाथ यात्रा’ नामक पुस्तक के अनुसार, पुराण में अमरगंगा का भी उल्लेख है, जो सिंधु नदी की एक सहायक नदी थी. अमरनाथ गुफा जाने के लिए इस नदी के पास से गुजरना पड़ता था. ऐसी मान्यता था कि बाबा बर्फानी के दर्शन से पहले इस नदी की मिट्टी शरीर पर लगाने से सारे पाप धुल जाते हैं.
"बर्नियर ट्रेवल्स" में भी बर्नियर ने इस शिवलिंग का वर्णन किया है. विंसेट-ए-स्मिथ ने बर्नियर की पुस्तक के दूसरे संस्करण का संपादन करते हुए लिखा है कि अमरनाथ की गुफा आश्चर्यजनक है, जहां छत से पानी बूंद-बूंद टपकता रहता है और जमकर बर्फ के खंड का रूप ले लेता है. हिंदू बर्फ के इस पिंड को शिव प्रतिमा के रूप में पूजते हैं.
इतिहासकार जोनराज ने लिखा है कि - कश्मीर में बादशाह जैनुलबुद्दीन का शासन (1420-70) था. उस समय बादशाह जैनुलबुद्दीन ने भी अमरनाथ यात्रा की थी. 16 वीं शताब्दी में मुगल बादशाह अकबर के समय के इतिहासकार "अबुल फजल" ने अपनी पुस्तक ‘आईने-अकबरी’ में में अमरनाथ का जिक्र एक पवित्र हिंदू तीर्थस्थल के रूप में किया है.
अबुल फजल ने अपने ग्रन्थ "आईने-अकबरी’ में लिखा है. हिमालय की एक गुफा में बर्फ का एक बुलबुला बनता है, जिसे हिन्दू शिवलिंग कहते हैं. यह थोड़ा-थोड़ा करके 15 दिन तक रोजाना बढ़ता है और यह दो गज से अधिक उंचा हो जाता है. चंद्रमा के घटने के साथ यह भी घटना शुरू हो जाता है. जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है.
अब सवाल यह उठता है कि - जब अमरनाथ यात्रा इतनी पुरानी है तो 14वीं से लेकर 19वीं सदी तक यह यात्रा बाधित क्यों रही. दरअसल 14वीं सदी तक कश्मीर सहित उत्तर भारत के काफी बड़े क्षेत्र में इस्लामी आक्रमणकारियों का राज हो गया था. और उनके राज में हुए हिन्दुओं पर अत्याचार पर हजारों ग्रन्थ लिखे जा चुके है.
जिन लोगों ने अमरनाथ यात्रा की है वे जानते हैं कि- यह यात्रा इतनी कठिन है कि- बिना राजकीय सहयोग के संपन्न होना संभव नहीं है. इस्लामी आक्रमणकारियों के राज में जब अपने घर और आस पास के मंदिर में भी पूजा करना मुश्किल होता था उस समय अमरनाथ जैसी तीर्थयात्रा के लिए तो उनसे सहयोग की उम्मीद ही नहीं कर सकते थे.
इस काल में हजारों मंदिर तोड़े गए थे और हिन्दुओं पर धार्मिक अनुष्ठान करने तथा धार्मिक प्रतीक धारण करने के लिए कर (जजिया कर) लगाया गया था. हिन्दुओं का जबरन धर्मपरिवर्तन कराया गया और बिरोध करने बड़ी संख्या में हिन्दुओं की हत्यायें हुई. उस समय जब जान बचाना मुश्किल था तब ऐसे मुश्किल यात्रा तो क्या ही कर पाते.
इतिहास में 14वीं शाताब्दी के मध्य के बाद अमरनाथ यात्रा का उल्लेख नहीं मिलता है. यह यात्रा लगभग चार शताब्दी के बाद 1872 में प्रारम्भ हुई. इसी अवसर का लाभ उठाकर कुछ हिन्दू बिरोधी इतिहासकारों ने बूटा मलिक को 1850 में अमरनाथ गुफा का खोजकर्ता साबित कर दिया और इसे लगभग मान्यता के रूप में स्थापित कर दिया..
जनश्रुति भी लिख दी गई कि- एक गडरिया "बूटा मलिक" को एक साधू मिला. साधु ने बूटा को कोयले से भरा एक थैला दिया. घर पहुंचने पर बूटा ने जब थैला खोला तो उसमें से एक उसने चमकता हुआ हीरा निकला. वह खुश होकर साधू को धन्यवाद देने जब उस साधु के पास पहुंचा तो वहां साधु नहीं था, बल्कि सामने अमरनाथ का गुफा थी.
वह वामपंथी इतिहासकार, जो हिन्दुओं के देवी देवताओं के आस्तित्व तक को नहीं मानते हैं, उन्होंने उस मामले को लेकर घोषणा कर दी कि - बूटा मलिक को साक्षात "भगवान शिव" के दर्शन हुए थे. इसी बजह से आज भी अमरनाथ यात्रा में हिन्दू तीर्थयात्री जो चढ़ावा चढ़ाते हैं, उसका एक भाग बूटा मलिक के परिवार को दिया जाता है.

अमरनाथ यात्रा के प्राचीन साक्ष्यों को छुपाकर, बूटा मलिक की कहानी को प्रचारित करने के पीछे अंग्रेज, वामपंथी और नेहरूवादी इतिहासकारों का उद्देश्य, केवल यह साबित करना था कि- कश्मीर में मुसलमान हिंदुओं से ज्यादा पुराने निवाशी हैं. उन अधर्मियों की इन्ही गलत नीतियों के कारण कश्मीर में आज अलगाववाद फैला हुआ है.

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