सोमनाथ मंदिर की गिनती, 12 ज्योतिर्लिंगों में होती हैं ज्योतिर्लिंगों की गणना करते समय इसे प्रथम स्थान पर रखा जाता है. यह गुजरात के सौराष्ट्र के प्रभास क्षेत्र के वेरावल में स्थित है. इसका जिक्र ऋग्वेद में भी है. इस प्राचीन मंदिर की सेवा, पुनरुद्धार और सौंदर्यीकरण प्राचीन राजा तथा सेठ लोग सहस्त्राब्दियों से करते आ रहे थे.
Tuesday, 26 July 2022
सोमनाथ मंदिर
ज्ञात इतिहास की बात करें तो मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया था. इसकी भव्यता और महत्वता के कारण इस मन्दिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी. तब आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर "जुनायद" ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी और मंदिर को काफी क्षति पहुंचाई.
उसके बाद प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निमाण किया. अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विस्तार से वर्णन किया. अलबरुनी से मंदिर की भव्यता और महिमा की बात सुनकर, खुद को इस्लाम का प्रचारक कहने वाले "महमूद गजनवी" ने सन् 1024 में मन्दिर पर हमला कर दिया.
महमूद गजनवी की सेना ने मंदिर का सारा धन, सोना, जवाहरात, लूट लिए और हजारों शिवभक्तों का क़त्ल कर दिया तथा मंदिर को तोड़ दिया. महमूद गजनवी के मन्दिर लूटने के बाद, राजा भीमदेव ने पुनः उसकी प्रतिष्ठा की. सन् 1093 में सिद्धराज जयसिंह ने भी मन्दिर की प्रतिष्ठा और उसके पवित्रीकरण में भरपूर सहयोग किया.
1168 ई. में विजयेश्वर कुमारपाल और सौराष्ट्र के राजा खंगार ने भी सोमनाथ मन्दिर का सौन्दर्यीकरण करवाया था. सन् 1297 में जब दिल्ली सल्तनत के सुलतान अलाऊद्दीन खि़लजी ने गुजरात पर कब्जा किया, तो उसने भी इस मंदिर को भारत में इस्लाम के प्रचार बाधा कहते हुए, सोमनाथ पर हमला किया और मंदिर को तोड़ डाला.
उसके सेनापति नुसरत खां ने जी भरकर मन्दिर को लूटा और कत्लेआम किया. उसके बाद फिर हिन्दुओ ने इसका पुनर्निर्माण किया. सन् 1395 ई. में गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह ने भी मन्दिर को विध्वंस किया. अपने पितामह के पद चिह्नों पर चलते हुए उसके पोते अहमदशाह ने पुनः सन् 1413 ई. में सोमनाथ मन्दिर को तोड़ डाला.
तब तक भारत की अनेको रियासतों पर मुस्लिम राजाओं का कब्जा हो चुका था. जगह जगह मंदिर तोड़े जाने लगे थे. हिन्दुओं को अपनी जान, इज्ज़त और धर्म को बचाना मुस्किल पड़ रहा था. फिर भी हिन्दुओ ने मंदिर को बचाय रखा और पूजन करते रहे. धीरे धीरे यह मंदिर फिर भव्य हो गया और प्राचीन गौरव को पा गया.
लेकिन इसी बीच आगरा में, अपने भाइयों और भतीजों की ह्त्या कर तथा अपने पिता और बहन को कैद में डालकर "औरंगजेब" राजा बन गया. उसने अपने परिवार पर किये गए अत्याचारों को ढांकने के लिए, कट्टर इस्लाम का सहारा लिया. अपने भाइयों भतीजों को काफिर तथा आपको इस्लाम का प्रचारक बताया, जिससे लोग उसके अपराधों को भूल जाए.
इसके लिए वो कभी टोपियाँ सिलने का, तो कभी कुरआन की कापियां लिखने नाटक करता और लोगों को यह जताता कि- वह आपना जीवन यापन इनको बेचकर करता है. अपनी कट्टरता को साबित करने के लिए उसने देशभर में सैकड़ों मंदिरों को नष्ट कर दिया. औरंगजेब ने 1706 ई में सोमनाथ पर हमला किया और उसे पूरी तरह से नष्ट कर दिया.
इससे पहले सोमनाथ पर जितने हमले हुए उनमे मंदिर को लूटा गया था लोगों का क़त्ल हुआ था, लेकिन ज्योतिर्लिंग को नुकशान नहीं पहुंचाया गया था. लेकिन औरंगजेब ने मंदिर को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया और शिवलिंग को भी खण्डित कर दिया. औरंगजेब ने वहां पर एक चौकी बनवा दी , जिससे कोई हिन्दू उस स्थान पर जाकर पूजा न कर सके.
औरंगजेब वहां मस्जिद बनाना चाहता था. उसने मंदिर तोड़ने के बाद उसपर मस्जिद जैसा गुम्मद बनवा भी दिया था, परन्तु कुछ महीने बाद (मार्च 1707) ही "औरंगजेब" की दर्दनाक मौत हो गई थी. इसी बीच राजपूतों, मराठों और बुंदेलों की ताकत इतनी बढ़ गई कि - औरंगजेब के वारिस वहां पर मस्जिद का निर्माण करने कोशिश भी न कर सके.
औरंगजेब की मौत के बारे में कहा जाता है हैं कि - वीर छत्रसाल से हुई एक लड़ाई में, छत्रसाल ने अपने गुरु "प्राणनाथ" के दिए हुए, एक विशेष दवा लगे हुए खंजर से "औरंगजेब" को एक घाव दिया था जो उस दबा के कारण बाद में नासूर बन गया था और जिसके कारण "औरंगजेब" की कइ माह तक तड़पते हुए मौत हुई.
औरंगजेब की म्रत्यु के बाद इंदौर की शिवभक्तन महारानी अहिल्याबाई बाई होलकर में सन् 1783 ने सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण कर " ज्योतिर्लिंग पूजा" प्रारंम्भ करवाई. उसके बाद से सोमनाथ मंदिर में पूजा अनवरत चल रही है. लेकिन वहां पर भव्य मंदिर के बजाय टुटा -फूटा मंदिर और भग्नावशेष ही बचे थे.
15 अगस्त 1947 को देश के आजाद होते ही प्रथम राष्ट्रअध्यक्ष डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने देश के स्वाभिमान को जाग्रत करने के लिए ध्वस्त पड़े हुए "सोमनाथ मन्दिर" के स्थान पर, भव्य मंदिर के पनर्निर्माण का संकल्प लिया और बहुत ही कम समय में अत्यन्त भव्य निर्माण करवा दिया.
1970 में जामनगर की राजमाता ने अपने स्वर्गीय पति "दिग्विजय सिह" की स्मृति में मंदिर के आगे पूर्व दिशा में उनके नाम पर भव्य एवं सुन्दर दिग्विजय द्वार बनवाया. बाद में दिग्विजय द्वार के सामने थोड़ी दूरी पर सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा भी स्थापित की गई. आज यह मंदिर, भारत और भारतीयों की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा प्रतीक है.
सरदार पटेल उन सभी मंदिरों के पुनरुद्धार के इच्छुक थे, जो गुलामी के समय में तोड़ दिए गए थे. यदि नेहरु के बजाय सरदार पटेल भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने होते अथवा उनकी असमय (संदिग्ध) म्रत्यु नहीं हुई होती तो आज भारत की एक अलग ही गौरवशाली तश्वीर होती. अयोध्या, मथुरा, काशी, इत्यादि के लिए इतना संघर्ष नहीं करना पड़ता.
भगवान् की अस्थाई मूर्तियां और उसका विसर्जन
सनातन संस्क्रति में भगवान् की मूर्ति को भगवान् का साक्षात रूप माना जाता है. भगवान् की मूर्ति के सामने बैठकर पूजा करते समय, ऐसा महेसूस करते हैं कि - हम वास्तव में भगवान् के सामने ही बैठे हैं. ईश्वर के प्रति ध्यान लगाने की यह एक
अच्छी विधि है.
अच्छी विधि है.
भगवान् की मूर्तियाँ दो प्रकार की बनाई जाती हैं. एक स्थाई और दुसरी अस्थाई. स्थाई मूर्तियाँ पत्थर अथवा कंक्रीट की बनाई जाती है और उनको मंदिर में स्थापित कर दिया जाता है. उनकी प्राण प्रतिष्ठा (विशेष पूजा) के बाद उनकी नियमित पूजा की जाती है.
दूसरे प्राकार की मूर्तियाँ होती हैं अस्थाई मूर्तियाँ. किसी पर्व विशेष के लिए मिटटी की मूर्तियों का निर्माण किया जाता है, उनको स्थापित कर भगवान् का आव्हान किया जाता है और उत्सव के चलने तक उस देवता / भगवान् की विधि बिधान के साथ पूजा की जाती है
उत्सव की समाप्ति पर शास्त्रोक्त विधि से भगवान् को विदा कर दिया जाता है. अब वह मूर्ति देवता न रहकर मात्र निर्जीव मूर्ति रह जाती है. भगवान् का रूप रह चुकी उस मूर्ति का निरादर न हो, इसलिए उस मूर्ति का नदी अथवा समुद्र में विसर्जन कर दिया जाता है.
मिट्टी की उस मूर्ति की मिट्टी पानी में घुल जाती है. यह परम्परा पिछले सैकड़ों साल से चली आ रही है और इससे किसी को कोई परेशानी नहीं थी. इसमें समस्या प्रारम्भ हुई 20 - 25 साल पहले. जब लोगों में सम्पन्नता आई तो वह उनकी पूजा में भी दिखने लगी.
भक्तों में सम्पन्नता और आधुनिकता आ जाने के बाद, धनवान लोग मिटटी की साधारण मूर्ति के बजाय प्लास्टर आफ पेरिस की भव्य मूर्तिया बनबाने लगे, जिनको और भी ज्यादा आकर्षक बनाने के लिए, उनमे केमिकल युक्त रंगों का प्रयोग किया जाने लगा.
इसके अलावा पहले जहाँ पूरे शहर में दो - चार जगह सामूहिक रूप से पूजा होती थी, वहीँ अब हर गली मोहल्ले में पूजा होने लगी. मूर्तियों की संख्या बढ़ जाने और केमिकल्स का ज्यादा इस्तेमाल होने के कारण इन मूर्तियों का विसर्जन भी आज एक समस्या बन गई है.
सबसे पहले तो लोगों को बिचार कर, ऐसे उत्सव को हर गली मोहल्ले में मनाने के बजाय शहर में दो चार जगह पर ही, सामूहिक रूप से मनाना चाहिए. मूर्ति भी साधारण मिटटी की बनानी चाहिये और उनमे रंग भी प्राक्रतिक ही इस्तेमाल करने चाहिए,
हमें समझना चाहिए कि- भव्य उत्सव को मनाना ही काफी नहीं है . उत्सव के बाद भगवान् के रूप का निरादर न हो और नदिया तथा पर्यावरण अशुद्ध न हो इसका भी ध्यान रखना चाहिए. इस बिषय में मैं आप लोगों से भी आपके सुझाव आमंत्रित करता हूँ .
अमरनाथ तीर्थयात्रा : फैलाए गए भ्रम और उनका जबाब
आज से इस बर्ष की अमरनाथ यात्रा प्रारम्भ हो गई है. कल पहला जत्था "बाबा बर्फानी" के दर्शन करेगा. अमरनाथ यात्रा को लेकर यह भ्रम फैलाया गया है कि- अमरनाथ की गुफा की खोज सन 1850 में एक मुसलमान गडरिये बूटा मालिक ने की थी. और ऐसा कहकर बाबा बर्फानी में में आये चढ़ावे का एक हिस्सा उसके वंशजों को दिया जाता है.
अमरनाथ यात्रा प्रारम्भ होते ही फर्जी सेक्युलरिज्म के झंडाबरदार बूटा मालिक द्वारा गुफा की खोज की कहानी सुनाना शुरू कर देते है जबकि वास्तविकता यह है कि- अमरनाथ की पवित्र गुफा में बाबा बर्फानी की पूजा सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों साल से हो रही है. हम सभी को यह सत्य जानना चाहिए और सभी को बताना भी चाहिए.
श्रीनगर से 141 किलोमीटर दूर 3888 मीटर की उंचाई पर स्थित अमरनाथ गुफा को, भारतीय पुरातत्व विभाग ही 5 हजार वर्ष से भी ज्यादा प्राचीन मानता है. अमरनाथ की गुफा प्राकृतिक है न कि मानव नर्मित, इसलिए पुरातत्व विभाग की यह गणना भी कम ही पड़ती है, क्योंकि हिमालय के पहाड़ लाखों वर्ष पुराने माने जाते हैं.
कश्मीर के इतिहास पर कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ और नीलमत पुराण से सबसे अधिक प्रकाश पड़ता है. ‘राजतरंगिणी’ मे ऊलेख है कि- कश्मीर के राजा सामदीमत (34 इ.पू.) शैव थे और वह पहलगाम के वनों में स्थित बर्फ के शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने जाते थे. सभी जानते हैं कि- बर्फ का शिवलिंग अमरनाथ को छोड़कर और कहीं नहीं है..
बृंगेश संहिता में अमरनाथ यात्रा का पूरा वर्णन है. उसमे लिखा है कि- अमरनाथ की गुफा की ओर जाते समय अनंतनया (अनंतनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी, सुशरामनगर (शेषनाग), पंचतरंगिरी (पंचतरणी) और अमरावती में तीर्थयात्री धार्मिक अनुष्ठान करते थे.
छठी सदी में लिखे गये "नीलमत पुराण" में अमरनाथ यात्रा का स्पष्ट उल्लेख है. नीलमत पुराण में कश्मीर के इतिहास, भूगोल, लोककथाओं, धार्मिक अनुष्ठानों की विस्तृत रूप में जानकारी उपलब्ध है. नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गये वर्णन से पता चलता है कि- छठी शताब्दी में लोग अमरनाथ यात्रा किया करते थे.
अमित कुमार सिंह द्वारा लिखित ‘अमरनाथ यात्रा’ नामक पुस्तक के अनुसार, पुराण में अमरगंगा का भी उल्लेख है, जो सिंधु नदी की एक सहायक नदी थी. अमरनाथ गुफा जाने के लिए इस नदी के पास से गुजरना पड़ता था. ऐसी मान्यता था कि बाबा बर्फानी के दर्शन से पहले इस नदी की मिट्टी शरीर पर लगाने से सारे पाप धुल जाते हैं.
"बर्नियर ट्रेवल्स" में भी बर्नियर ने इस शिवलिंग का वर्णन किया है. विंसेट-ए-स्मिथ ने बर्नियर की पुस्तक के दूसरे संस्करण का संपादन करते हुए लिखा है कि अमरनाथ की गुफा आश्चर्यजनक है, जहां छत से पानी बूंद-बूंद टपकता रहता है और जमकर बर्फ के खंड का रूप ले लेता है. हिंदू बर्फ के इस पिंड को शिव प्रतिमा के रूप में पूजते हैं.
इतिहासकार जोनराज ने लिखा है कि - कश्मीर में बादशाह जैनुलबुद्दीन का शासन (1420-70) था. उस समय बादशाह जैनुलबुद्दीन ने भी अमरनाथ यात्रा की थी. 16 वीं शताब्दी में मुगल बादशाह अकबर के समय के इतिहासकार "अबुल फजल" ने अपनी पुस्तक ‘आईने-अकबरी’ में में अमरनाथ का जिक्र एक पवित्र हिंदू तीर्थस्थल के रूप में किया है.
अबुल फजल ने अपने ग्रन्थ "आईने-अकबरी’ में लिखा है. हिमालय की एक गुफा में बर्फ का एक बुलबुला बनता है, जिसे हिन्दू शिवलिंग कहते हैं. यह थोड़ा-थोड़ा करके 15 दिन तक रोजाना बढ़ता है और यह दो गज से अधिक उंचा हो जाता है. चंद्रमा के घटने के साथ यह भी घटना शुरू हो जाता है. जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है.
अब सवाल यह उठता है कि - जब अमरनाथ यात्रा इतनी पुरानी है तो 14वीं से लेकर 19वीं सदी तक यह यात्रा बाधित क्यों रही. दरअसल 14वीं सदी तक कश्मीर सहित उत्तर भारत के काफी बड़े क्षेत्र में इस्लामी आक्रमणकारियों का राज हो गया था. और उनके राज में हुए हिन्दुओं पर अत्याचार पर हजारों ग्रन्थ लिखे जा चुके है.
जिन लोगों ने अमरनाथ यात्रा की है वे जानते हैं कि- यह यात्रा इतनी कठिन है कि- बिना राजकीय सहयोग के संपन्न होना संभव नहीं है. इस्लामी आक्रमणकारियों के राज में जब अपने घर और आस पास के मंदिर में भी पूजा करना मुश्किल होता था उस समय अमरनाथ जैसी तीर्थयात्रा के लिए तो उनसे सहयोग की उम्मीद ही नहीं कर सकते थे.
इस काल में हजारों मंदिर तोड़े गए थे और हिन्दुओं पर धार्मिक अनुष्ठान करने तथा धार्मिक प्रतीक धारण करने के लिए कर (जजिया कर) लगाया गया था. हिन्दुओं का जबरन धर्मपरिवर्तन कराया गया और बिरोध करने बड़ी संख्या में हिन्दुओं की हत्यायें हुई. उस समय जब जान बचाना मुश्किल था तब ऐसे मुश्किल यात्रा तो क्या ही कर पाते.
इतिहास में 14वीं शाताब्दी के मध्य के बाद अमरनाथ यात्रा का उल्लेख नहीं मिलता है. यह यात्रा लगभग चार शताब्दी के बाद 1872 में प्रारम्भ हुई. इसी अवसर का लाभ उठाकर कुछ हिन्दू बिरोधी इतिहासकारों ने बूटा मलिक को 1850 में अमरनाथ गुफा का खोजकर्ता साबित कर दिया और इसे लगभग मान्यता के रूप में स्थापित कर दिया..
जनश्रुति भी लिख दी गई कि- एक गडरिया "बूटा मलिक" को एक साधू मिला. साधु ने बूटा को कोयले से भरा एक थैला दिया. घर पहुंचने पर बूटा ने जब थैला खोला तो उसमें से एक उसने चमकता हुआ हीरा निकला. वह खुश होकर साधू को धन्यवाद देने जब उस साधु के पास पहुंचा तो वहां साधु नहीं था, बल्कि सामने अमरनाथ का गुफा थी.
वह वामपंथी इतिहासकार, जो हिन्दुओं के देवी देवताओं के आस्तित्व तक को नहीं मानते हैं, उन्होंने उस मामले को लेकर घोषणा कर दी कि - बूटा मलिक को साक्षात "भगवान शिव" के दर्शन हुए थे. इसी बजह से आज भी अमरनाथ यात्रा में हिन्दू तीर्थयात्री जो चढ़ावा चढ़ाते हैं, उसका एक भाग बूटा मलिक के परिवार को दिया जाता है.
अमरनाथ यात्रा के प्राचीन साक्ष्यों को छुपाकर, बूटा मलिक की कहानी को प्रचारित करने के पीछे अंग्रेज, वामपंथी और नेहरूवादी इतिहासकारों का उद्देश्य, केवल यह साबित करना था कि- कश्मीर में मुसलमान हिंदुओं से ज्यादा पुराने निवाशी हैं. उन अधर्मियों की इन्ही गलत नीतियों के कारण कश्मीर में आज अलगाववाद फैला हुआ है.
Monday, 25 July 2022
कारगिल युद्ध का घटनाक्रम, कब क्या हुआ ?
जब सर्दियों में कारगिल सेक्टर में LOC पर भयंकर बर्फबारी होती है तो अग्रिम सीमा चौकी पर तैनात दोनों देशों के फौजी निचले स्थानों पर चले आते है और जब बर्फ पिघलती है तो फिर से अपने स्थानों पर पहुँच कर मोर्चे संभाल लेते है. 1999 में भी ऐसा ही हुआ. भारत पापिस्तान दोनों की सेना नीचे आ गई.
पापिस्तान ने अपनी सेना को आधिकारिक तौर पर वहां से हटा लिया लेकिन जेहादियों के भेष में अपने कुछ सैनिको को वहां पर बिठा दिया. इन पापीस्तानियों का नियंत्रण पापिस्तान की कुख्यात एजेंसी ISI कर रही थी, जिसे पापिस्तान की सेना और उसके संसाधनों का भी पूरा साथ मिल रहा था
अब उसके बाद का घटनाक्रम
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03 मई 1999 : एक बकरी चराने वाले ने भारतीय फ़ौज इस बात की जानकारी दी
05 मई 1999 : इस सूचना के बाद जब भारतीय फ़ौज की पेट्रोलिंग पार्टी जानकारी लेने वहां पहुंची तो पाकिस्तानियों ने उन्हें पकड़ लिया और उनमे से 5 की हत्या कर दी
09 मई 1999 : पाकिस्तानियों की गोला बरी से भारतीय फ़ौज का कारगिल स्थित गोला बारूद का स्टोर बर्बाद हो गया10 May 1999 : पहली बार द्रास, काकसार और मुश्कोह सेक्टर में पाकिस्तानी घुसपैठियों की उपस्थि देखी गई
15 मई 1999 : भारतीय फ़ौज को कश्मीर वैली से कारगिल सेक्टर के तरफ भेजा गया
26 मई 1999 : भारतीय वायु सेना को कार्यवाही के लिए कहा गया
27 मई 1999 : इस कार्यवाही में भारतीय वायु सेना के MiG-21 और MiG-27 मार गिराए गए और फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता को बंदी बना लिया गया
28 मई 1999 : एक MI-17 हैलीकॉप्टर पाकिस्तान द्वारा मार गिराया गया और चार भारतीय फौजी मरे गए
01 जून 1999 : NH 1A पर पकिस्तान द्वारा भरी गोला बरी की गई
05 जून 1999 : तीन पाकिस्तानी सैनिकों से प्राप्त कागजातों को भारतीय सेना ने अखबारों के लिए जरी किया जिसमे पाक सेना का शामिल होना प्रमाणित होता था
06 जून 1999 : अब भारतीय सेना ने जवाबी कार्यवाही पूरी ताकत से आरम्भ कर दी
09 जून 1999 : बाल्टिक क्षेत्र की 2 अग्रिम चौकियों पर भारतीय सेना ने पुनः कब्जा लिया
11 जून 1999 : भारत ने जनरल परवेज मुशर्रफ जब वह चीन में थे और आर्मी चीफ लेफ्टीनेंत जनरल अजीज खान जो रावल पिंडी में थे उनकी बातचीत का रिकॉर्डिंग जरी की जिससे पता चलता था कि इस घुसपैंठ में आर्मी का हाथ है
13 जून 1999 : भारतीय फ़ौज ने द्रास सेक्टर में तोलिंग पर पुनः कब्ज़ा किया
15 जून 1999 : अमेरिकी प्रेसिडेंट बिल किलिंटन ने परवेज मुशर्रफ से फोन पर कहा कि वह अपनी फौजों को कारगिल सेक्टर से बहार बुलाये
29 जून 1999 : भारतीय फ़ौज ने Tiger Hill के नजदीक दो महत्त्वपूर्ण चौकियों Point 5060 और Point 5100 को पुनः कब्जाया
02 जुलाई 1999 : भारतीय फ़ौज ने कारगिल पर तीन ओर से हमला किया
04 जुलाई 1999 : भारतीय फ़ौज ने 11 घंटों के भयानक हमले में Tiger Hill पर पुनः कब्ज़ा कर लिया
05 जुलाई 1999 : जैसे ही भारतीय फ़ौज ने द्रास सेक्टर पर पुनः कब्ज़ा किया पाकिस्तानी प्रधान मंत्री शरीफ ने तुरंत बिल किलिंटन से कहा कि वह कारगिल से अपनी फ़ौज को हटा रहें है
07 जुलाई 1999 : भारतीय फ़ौज ने बटालिक में स्तिथ जुबर हिल पर कब्ज़ा किया
11 जुलाई 1999 : पाकिस्तानियों ने एक तरह से बटालिक से भागना शुरू कर दिया
14 जुलाई 1999 : भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपाई ने आपरेशन विजय की जीत का ऐलान कर दिया
महान स्वाधीनता सेनानी नीरा आर्य
नीरा आर्य (नीरा नागिनी) का जन्म 5 मार्च 1902 को उत्तरप्रदेश राज्य में बागपत जिले के खेकड़ा नगर में हुआ था. इनके पिता सेठ छज्जूमल अपने समय के एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे, जिनका व्यापार देशभर में फैला हुआ था. खासकर कलकत्ता में इनके पिताजी के व्यापार का मुख्य केंद्र था, इसलिए इनकी शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता में ही हुई.
नीरा आर्य हिन्दी, अंग्रेजी, बंगाली के साथ-साथ कई अन्य भाषाओं में भी प्रवीण थीं. इनकी शादी ब्रिटिश भारत में सीआईडी इंस्पेक्टर श्रीकांत जयरंजन दास के संग हुई थी. श्रीकांत जयरंजन दास अंग्रेज सरकार के स्वामीभक्त अधिकारी थी. श्रीकांत जयरंजन दास को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जासूसी करने और उसे मौत के घाट उतारने की जिम्मेदारी दी गई.
एक बार अवसर पाकर श्रीकांत जयरंजन दास ने नेताजी को मारने के लिए गोलियां दागी उस फायरिंग में नेताजी सुभाषचंद्र बोस तो बच गए पर उनका ड्राइवर शहीद हो गया. इसी दौरान नीरा आर्य ने अपने पति श्रीकांत जयरंजन दास के पेट में संगीन घोंपकर उसे परलोक पहुंचा दिया था. अपने पति की हत्या करने के कारण नेताजी ने उन्हें नागिनी कहा था.
विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद आजाद हिन्द फौज पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चला तो ज्यादातर बंदी सैनिकों को छोड़ दिया गया, लेकिन इन्हें पति की हत्या के आरोप में काले पानी की सजा हुई थी. वहां इन्हे कठोर यातनाये दी गईं. उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि - नेताजी का पता पिंछने के उनको अमानवीय यातनाये दी जाती थी.
उन्होंने लिखा है कि - जेलर ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘तुम्हें छोड़ दिया जाएगा, यदि तुम बता दोगी कि तुम्हारे नेताजी सुभाष कहाँ हैं. मैंने जबाब दिया कि - ‘वे तो हवाई दुर्घटना में चल बसे. तो जेलर ने कहा - तुम झूठ बोलती हो तुम कि वे हवाई दुर्घटना में मर गए, सारी दुनिया जानती है कि- वो जिंदा है, . इस पर मैंने कहा - ‘हाँ नेताजी जिंदा हैं, वो मेरे दिल में जिंदा हैं’
जैसे ही मैंने यह कहा तो जेलर को गुस्सा आ गया था और बोला- "तो तुम्हारे दिल से हम नेताजी को निकाल देंगे’’ और फिर उसने मेरे आँचल पर हाथ डाल दिया और मेरी आँगी को फाड़ते हुए लुहार की ओर कुछ संकेत किया. लुहार ने एक बड़ी से सँडसी और बगीचे में पत्तियाँ काटने बाली कैची उठा लाया. और उस से दाए स्तन को दबाने लगा.
मुझे अत्यंत पीड़ा हो रही थी. दूसरी तरफ से जेलर ने मेरी गर्दन पकड़ते हुए कहा, ‘‘अगर फिर जबान लड़ाई तो तुम्हारे ये दोनों गुब्बारे छाती से अलग कर दिए जाएँगे". उनसे बार बार नेताजी का पता पूँछा जाता था अर्थात अंग्रेज भी हवाई दुर्घटना वाली थ्योरी को नहीं मानते थे. इनके भाई बसंत कुमार भी स्वतंत्रता सेनानी थे, जो आजादी के बाद संन्यासी बन गए थे
भारत को आजादी मिलने के बाद इन्हे भी जेल से आजादी मिल गई परन्तु इन्होने अपना जीवन ज्यादातर वास्तविक क्रांतिकारियों की तरह अत्यंत गरीबी में गुजारा क्योंकि सत्ता पर तो चरखा छाप देशभक्तों का कब्ज़ा हो गया था. इन्होंने अपना जीवन फूल बेचकर गुजारा किया और फलकनुमा, हैदराबाद में एक झोंपड़ी में रही.
उनके अंतिम दिनों में सरकारी जमीन पर बनी उनकी झोपड़ी को भी अतिक्रमण कह कर तोड़ दिया था. उस समय हिन्दी दैनिक स्वतंत्र वार्ता के पत्रकार तेजपाल सिंह धामा को उनके बारे में पता चला. उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर में चारमीनार के पास उस्मानिया अस्पताल में भर्ती कराया जहाँ उन्होंने 26 जुलाई, 1998 को मौत का आलिंगन कर लिया.
तेजपाल सिंह धामा ने ही अपने साथियों साथ मिलकर उनका अंतिम संस्कार किया. उनका अस्थिकलश, डायरी, कुछ पुराने फोटोज एवं अन्य सामान हैदराबाद के एक मंदिर में रखे हुए स्मारक की प्रतीक्षा आज भी देख रहे हैं. गौरतलब है कि - ये तेजपाल सिंह धामा वही पत्रकार है जो भारत माता की नग्न पेंटिंग बनाने पर एमएफ हुसैन से भिड़े थे.
महान स्वाधीनता सेनानी नीरा आर्या आजाद हिन्द फ़ौज में जासुस का काम करतीं थी. उनके जीवन के बारे में मुझे अभी बहुत कुछ लिखना है. परन्तु जेलर द्वारा उनके स्तन काटने की बात लिखते लिखते मन विचलित हो गया और ज्यादा नहीं लिख पा रहा हूँ. कोशिश करूँगा कि - उनकी पुण्यतिथि तक अपने लेख को पूरा कर के पोस्ट कर सकूँ
अगर ब्रांडेड देशी शराब की कीमत बढ़ती रही तो, नकली जहरीली शराब गरीब मजदूरों की जान लेती रहेगी
अक्सर सरकारें अपने आपको शराब विरोधी दिखाने के लिए शराब पर अंधाधुंध टैक्स लगा देती है और कई बार तो इसे अपने अपने राज्यों में प्रतिबंधित कर देती है. शराब को महंगा करने या प्रतिबंधित करने का सबसे ज्यादा असर मजदूत वर्ग पर ही पड़ता है.
आप चाहे कुछ भी कर लें लेकिन मजदूर वर्ग को शराब पीने से नहीं रोक सकते. वो कुछ भी करके किसी भी तरह से नशा करने का जुगाड़ कर ही लेता है. उसकी इस लत का फायदा माफिया तथा भ्रष्ट नेता और पुलिस वाले अक्सर उठाते रहते हैं.
शराब की मैन्युफैचरिंग कास्ट ज्यादा नहीं होती है बल्कि ब्रांडेड शराब पर बहुत ज्यादा टैक्स हैं जिसके कारण यह बहुत महंगी मिलती है. गरीब लोग सस्ती शराब के लिए कच्ची शराब बनाने वालों के पास से शराब खरीद कर पीते हैं जो कई बार जहरीली भी बन जाती है.
शराब एल्कोहल से बनती है. शराब बनाने के अलाबा इंडस्ट्रियल और लैब यूज के लिए जो स्प्रिट बेचीं जाती है उसमे एल्कोहल में कॉपर सल्फेट (तूतिया) नाम का जहरीला पदार्थ मिला दिया जाता है जिससे कि लोग उसका शराब की तरह उपयोग न करे.
दबंद लोग इसी स्प्रिट से सस्ती शराब बना कर बेचते हैं. यह लोग नौशादर से स्प्रिट को फाड़कर, उसे निथार लेते है और उसमे पानी मिलाकर बेचते हैं. इनके पास कोई टेस्टिंग सिस्टम तो होता नहीं है, बस इतना देखते है कि नीला रंग ख़त्म हो जाये.
ऐसे में कई बार नीला रंग तो ख़त्म हो जाता है लेकिन कॉपर सल्फेट (तूतिया) पूरी तरह से समाप्त नहीं होता है. तब वह शराब जहरीली रह जाती है. अक्सर शराब पीकर मरने की जो खबर आती है वो ऐसी ही जहरीली शराब के कारण आती है.
अंग्रेजी शराब पर भले ही ज्यादा टैक्स रखा जाये लेकिन अगर आप गरीब मजदूरों की जान वास्तव में बचाना चाहते हो तो ब्रांडेड देसी शराब पर से टैक्स कम करना चाहिए और उसे कम कीमत में शराब के ठेकों पर उपलब्ध कराना चाहिए.
इसके अलाबा सस्ती शराब बनाने के लिए कुछ लोग इसमे नशीली गोलियां और ज्यादा पानी मिला देते हैं. ब्रांडेड देशी शराब की कीमत ऐसे ही बढ़ती रही तो नकली जहरीली शराब से होने वाली मौतों की संख्या सम्हाले नहीं सम्हलेगी
क्या सचमुच "ज्वाला माता" के मंदिर में अकबर ने सोने का छत्र चढ़ाया था ?
मां भगवती के 51 शक्तिपीठों में से एक, यह "ज्वालामुखी मंदिर" हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिले में स्थित है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस स्थान पर माता सती की जीभ गिरी थी. यहां माता ज्वाला के रूप में विराजमान हैं और भगवान शिव यहां उन्मत भैरव के रूप में स्थित हैं. मुख्य मंदिर में माता की कोई मूर्ति नहीं है.
एक बड़े से हाल जैसे स्थान पर भूमि से अलग-अलग 9 स्थानों पर ज्वाला प्रकट हो रही है, उसे ही माँ का स्वरूप मान कर हिन्दू उनकी पूजा करते हैं. सबसे बड़ी ज्वाला को ज्वाला माता कहते है और अन्य 8 ज्वालाओं को अन्नपूर्णा, विध्यवासिनी, चण्डी देवी, महालक्ष्मी, हिंगलाज माता, सरस्वती, अम्बिका एवं अंजी माता का स्वरूप माना जाता है
कहा जाता है कि - बाबा गोरखनाथ ने यहाँ माता की साधना की थी. जब उनकी साधना से प्रसन्न होकर माता ने दर्शन दिए तो बाबा गोरखनाथ ने माता से कहा - आप पानी गर्म करके रखे तब तक मैं भोजन का प्रबंध करके आता हूँ. आप बचन दें कि जब तक मैं वापस नहीं आ जाता आप यहाँ से वापस नहीं जाएंगी माता ने उन्हें इसका बचन दे दिया.
लेकिन उसके बाद बाबा गोरखनाथ वहां वापस नहीं आये. तब से लेकर आज तक माता ज्वाला के रूप में वहां विराजमान है. इस स्थान के पास ही गोरखडिब्बी मंदिर है. यहाँ बने कुंड से भाप निकलती रहती मान्यता है कि कलयुग के अंत में गोरखनाथ मंदिर वापस लौटकर आएंग. तब तक गोरखनाथ को दिए बचन को निभाने के लिए ज्वाला माता यहीं तहेंगी
इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि- अकबर ने ज्वाला माता के मंदिर के पुजारियों को बहुत सताया और जलती ज्वाला को बुझाने की बहुत कोशिश की और जब वह अपने प्रयास में असफल रहा तो माता के चमत्कार से प्रभावित होकर नंगे पैर माँ के दर्शन करने आया और माता पर सोने का छत्र चढ़ाया साथ ही मंदिर को कई सौ बीघा भूमि दान दी.
जबकि ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार यह गलत है. अकबर मूर्ति पूजक नहीं बल्कि मूर्ति-भंजक था, उसने लाखों निर्दोष हिन्दुओं की हत्या करवाई और महिलाओं को बेइजजत किया. उसमे सनातन धर्म को मिटाने के अनेक प्रयास किये. जब कामयाब नहीं हुआ तो इस्लाम और हिन्दू के बीच का नया धर्म दीन इलाही चलाने की कोशिश की
ऐतिहासिक तथ्यो के अनुसार अकबर ने नगरकोट, नूरपुर और चम्बे पर हमला किया था. उसी दौरान अकबर ज्वाला मंदिर की ज्योति को बुझाने के प्रयास भी किये थे. इसमें असफल रहने के बाद वह मंदिर का विध्वंस करवा कर चला गया था. उसने वहां के सभी सेवादारों और पुजारियों की हत्या की और ज्योति स्थल को शिलाओं से ढंककर चला गया.
बाद में चंबा के राजा संसार चंद ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था. उसके बाद 1835 में महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर पर सोने का छत्र लगवाया था साथ ही महाराजा के पुत्र शेरसिंह ने मंदिर के मुख्य द्वार को चांदी से सजवाया. उसके बाद स्थानीय भक्तों और व्यापारियों ने समय समय पर इस स्थान का सौंदर्यकरण किया.
अकबर द्वारा माता के मंदिर में सोने का छत्र चढाने की कथा हिन्दू बिरोधियों ने हिन्दुओं को बहलाने के लिए शुरू कर दी और इस कथा के द्वारा अकबर की विध्वंशक कार्यवाहियों के बारे में तो बताया जाता है साथ ही उसका गलती मान लेना भी बताया जाता है. ऐसा बताने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि - अकबर की विध्वंशक कार्यवाहियों पर पर्दा डाला जा सके.
ज्वाला माता के मंदिर के विध्वंश को लेकर एक कहानी यह भी चलती है कि - मंदिर की ज्योति बुझाने में नाकाम रहने पर अकबर ने वहां के ध्यानु भगत के घोड़े की गर्दन कटवा दी और कहा कि ध्यानु अपनी माता से कहकर उसे जुड़वाये. तब ध्यानु भगत ने माता को अपनी गर्दन काट कर भेंट कर दी और माता ने ध्यानु और घोड़े दोनों को जिन्दा कर दिया.
जबकि अनेकों लोगों का यह मानना है कि - अकबर ने अपनी सेना द्वारा मंदिर के सभी पुजारियों और सभी सेवादारों की हत्या करवा दी थी. लेकिन बाद में अकबर के चापलूस हिन्दू दरबारियों ने अकबर के गुनाह पर पर्दा डालने के लिए यह कहानी प्रचारित कर दी कि - ध्यानु भगत ने खुद अपनी गर्दन काटकर चढ़ाई थी जिसे माता ने जोड़ भी दिया था.
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