नाथूराम गोडसे का जन्म 19 मई 1910 को भारत के महाराष्ट्र राज्य में पुणे के निकट बारामती नमक स्थान पर चित्तपावन मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम विनायक वामनराव गोडसे था. नाथूराम गोडसे एक पत्रकार, हिन्दू राष्ट्रवादी और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे.
धार्मिक पुस्तकों में गहरी रुचि होने के कारण रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों के अतिरिक्त स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, बाल गंगाधर तिलक तथा महात्मा गान्धी के साहित्य का इन्होंने गहरा अध्ययन किया था. प्रारम्भ में वो गांधी जी के प्रबल समर्थक थे
अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए वे पहले कांग्रेस में शामिल हुए लेकिन गांधीजी के द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध भेदभाव पूर्ण नीति अपनाये जाने तथा मुस्लिम तुष्टीकरण किये जाने के कारण वे गांधीजी के विरोधी हो गये और कुछ समय के लिए आरएसएस से भी जुड़े।
आरएसएस उस समय अपने शैशव काल में था और उसके द्वारा अपना लक्ष्य पूरा कर पाना उन्हें मुश्किल लगा, इसलिए वे 1930 में हिन्दू महासभा में शामिल हो गए. उन्ही दिनों मुस्लिम लीग ने भारत के दो हिस्से कर मुसलमानो के लिए अलग देश बनाने की मांग शुरू कर दी.
1931 में त्रिमूर्ति की फांसी और आजादजी की मुठभेड़ में हुई हत्या के समय कांग्रेस की संदिग्ध भूमिका के कारण के वे पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ हो गए. उनका कहना था कि- जब हम मुस्लिम लीग की नीतियों का बिरोध करते है तो कांग्रेस को तकलीफ क्यों होती है ?
1940 में हैदराबाद के निजाम ने हैदराबाद में हिन्दुओं पर "जजिया कर" लगा दिया, जिसका हिन्दू महासभा ने विरोध करने का निर्णय लिया. हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं का पहला जत्था नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद गया, निजाम ने इन सभी को बन्दी बना लिया.
हिन्दू महासभा के प्रबल बिरोध के कारण निजाम को हिन्दुओ पर लगाए जजिया कर को वापस लेना पड़ा और सभी आंदोलनकारियों को रिहा करना पड़ा. इस घटना के बाद सारे भारत में हिन्दू महासभा का समर्थन बढ़ गया और यह बात कांग्रेस को भी नागवार गुजरने लगी.
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय गांधीजी द्वारा अंग्रेजो का साथ देने के आव्हान का भी हिन्दू महासभा ने बिरोध किया था. विश्वयुुद्ध में अंग्रेजो की कमर टूट जाने और आजाद हिन्द फ़ौज द्वारा भारत में क्रान्ति का ज्वार फैलाने के कारण अंग्रेज भारत छोड़ने को मजबूर हो गए.
ऐसे में 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने अलग पापिस्तान बनाने के लिए "डायरेक्ट एक्शन" का ऐलान कर दिया. डायरेक्ट एक्शन के नाम पर मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंदुओं का कत्लेआम होने लगा.कलकत्ता से शुरू हुआ यह अत्याचार धीरे धीरे सारे भारत में फ़ैल गया.
15 अगस्त 1947 को देश आजाद होने के साथ ही देश का धर्म के आधार पर बँटबारा हो गया मगर गांधीजी के द्वारा इसमें भी हिन्दुओं के साथ धोखा कर दिया गया. मुसलमानो को तो पापिस्तान मिल गया लेकिन हिन्दुओं को हिन्दुस्थान के बजाय सेकुलर इण्डिया मिला.
बंटबारे के समय पापीस्तानी इलाके में हिन्दुओं / सिक्खों के साथ भयानक कत्लेआम हुआ और उन्हें अपना सबकुछ छोकर अपनी जान और धर्म बचाकर शरणाथी बनकर भारत आना पड़ा. उन शरणार्थियों के खाने / कम्बल आदि की व्यवस्था में भी गोडसे ने बहुत काम किया.
इसी बीच पापिस्तान ने कबायलियों के साथ मिलकर भारत पर हमला कर दिया. इन सब कारणों से भारत में पापिस्तान के खिलाफ नफरत बढ़ती जा रही थी लेकिन इसके बाबजूद गांधीजी महात्मागिरी दिखाने के चक्कर में पापिस्तान पर मेहरबानियाँ लुटा रहे थे.
पापिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण करने के कारण केवल हिन्दू महासभाई या संघी ही पापिस्तान के खिलाफ नहीं थे बल्कि कांग्रेसी भी पापिस्तान को आर्थिक मदद देने के खिलाफ हो गए थे. यहाँ तक कि- नेहरू और पटेल ने भी पापिस्तान को 55 करोड़ रूपय देने से मना कर दिया।
परन्तु भारत सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध गांधीजी अनशन पर बैठ गये. ज्यादातर लोगों को लगने लगा कि - गांधीजी के अनशन के कारण बने दबाब में नेहरू और पटेल भी झुक सकते है. गांधी जी को लगता था कि- प्यार से समझाने पर पापिस्तान मान जाएगा.
गांधीजी ने पापीस्तानियों को भाईचारे की सीख देने के लिए पापिस्तान जाने का निर्णय लिया जिसमे वे पापिस्तान को पापिस्तान और बांग्लादेश को जोड़ने के लिए एक गलियारा देने का प्रस्ताव भी देने वाले थे. ऐसे नाथूराम और उनके साथियों ने महात्मा गांधी की हत्या करने का निर्णय लिया.
20 जनवरी 1948 को मदनलाल पाहवा ने गांधीजी की प्रार्थना-सभा में बम फेका, बम विस्फोट से उत्पन्न अफरा-तफरी के समय ही गांधी को मारना था परन्तु उस समय नाथूराम की पिस्तौल जाम हो गयी, इस कारण नाथूराम को वहां से भागना पड़ा जबकि मदनलाल पाहवा गिरफ्तार हो गए.
उसी दौरान उनको एक शरणार्थी मिला जिसके पास एक इतालवी कम्पनी की "बैराटा" पिस्तौल थी. नाथुराम ने उससे वह पिस्तौल खरीदी. उसी शरणार्थी शिविर में उन्होंने अपना एक फोटो खिंचवाया और उस चित्र को दो पत्रों के साथ अपने सहयोगी नारायण आप्टे को पुणे भेज दिया.
30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे दिल्ली के बिड़ला भवन में प्रार्थना-सभा से 40 मिनट पहले पहुँच गये. जैसे ही गान्धी जी प्रार्थना-सभा में आये उसने उन्हें प्रणाम किया और तुरंत अपनी पिस्तौल से तीन गोलियाँ मार दी. गोली मारने के बाद भागने का कोई प्रयास नहीं किया.
नथुराम एवं उनके अन्य 17 साथियों पर गांधीजी की हत्या और हत्या की साजिश का मुकदमा चला. लगभग डेढ़ साल चले मुकदमे के बाद 8 नवम्बर 1949 को फांसी की सजा सुना दी गई. 15 नवम्बर 1949 नाथूराम गोडसे को नारायण आप्टे के साथ अम्बाला जेल में फाँसी पर चढ़ा दिया गया.
मानव ह्त्या बहुत ही जघन्य अपराध है और गांधीजी की ह्त्या की भी निंदा की जानी चाहिए, लेकिन जरा सोंचो कि -कहीं अगर दस मील चौड़ा "पापिस्तान-बंगलादेश" गलियारा बन गया होता तो आज क्या स्थिति होती ? इस बात के लिए तो "नाथू राम गोडसे" को भी प्रणाम करने का दिल करता है.
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