
सन 1752 में दिल्ली के मुगल सुल्तान अहमद शाह (सुन्नी) और उसके वजीर सफदरजंग (शिया) के बीच गृह युद्ध छिड़ गया. जल्दी ही यह लड़ाई शिया और शुन्नी की लड़ाई में बदल गई. सफ़दरजबग ने महाराजा सूरजमल से मदद मांगी. महाराज सूरजमल को ऐसे ही किसी मौके की तलाश थी. उन्होंने 30 अप्रैल 1753 को सफदरजंग में पक्ष में दिल्ली पर आक्रमण कर दिया.
जब महाराजा सूरजमल दिल्ली पहुंचे तो सफदरजंग के 23000 मुस्लिम सैनिक धोखा देकर दिल्ली के सुल्तान से मिल गए, परन्तु महाराजा सूरजमल को खुद पर भरोसा था इसलिए इससे ज़रा भी बिचलित नहीं हुए. महाराजा सुरजमल के हौसले को देखकर मुगल बादशाह घबरा गया और उसने अपने एक वकील महबूबद्दीन को औरंगाबाद से मलहराव होल्कर को बुला लाने के लिए भेजा.
लेकिन पलवल के निकट रास्ते मे ही उसे महाराजा सूरजमल के सैनिको ने पकड़ लिया, इसी बीच नागा योद्धाओं का बड़ा दल महाराजा के साथ आ मिला.
महाराजा के एक उपसेनापति राजेन्द्र गिरी गोंसाई खुद एक साधु थे और उनकी ही बजह से नागा बाबाओं की सेना महाराजा सूरजमल के दल में शामिल हुई थी. महाराजा सूरजमल ने उनके इस दल "रामदल सेना" नाम दिया.
महाराजा सूरजमल ने सफदरजंग को उकसाया कि 15000 रूहेलो के साथ आ रहे नजीब को रास्ते मे पकड़ ले लेकिन सफदरजंग इसमे कामयाब न हो सका. फिर महाराजा सूरजमल ने स्वयं ही मोर्चा संभाला और 9 मई को पुरानी दिल्ली की अनाज मंडी पर हमला कर दिया. राजेन्द्र गिरी गोंसाई के साथ नागा साधु व जाट सैनिकों ने प्रातः 10 मई को अनाज मंडी पर कब्जा कर लिया.
महाराजा सूरजमल की सेना ने लाल दरवाजे के पास शहर के पूर्वी हिस्से, सैयद्द बाड़ा, पँचकुई, अब्दुल्ला नगर, तारक गंज व बिजल मस्जिद के आस पास के इलाकों, चुनरिया, वकिलपुरा पर कब्जा कर लिया. अब दिल्ली के ज्यादातर हिस्से पर भगवा छा चुका था. इसी जीत की खुशी में हर वर्ष दिल्ली विजय दिवस मनाया जाता है. इस खौफ भरे दिन को मुगल इतिहास में जाटगर्दी के नाम से जाना जाता है.
अहमद शाह ने अपना दूत भेजकर महाराजा को सन्देश दिया कि- वो अगर दिल्ली से चले जाएँ तो दरबार मे भारी सम्मान के साथ साथ आसपास की जागीरें भी देगा. लेकिन सूरजमल ने कहा कि - अहमद शाह, अपनी कायरता को छुपाना छोड़ दो, अगर बाजुओं में दम है तो मैदान में आकर सीधे लड़ो. 17 मई को महाराजा सूरजमल ने मुगलो को गाजर मूली की तरह काटकर फिरोजशाह कोटला किले पर कब्जा कर लिया.
इसी बीच छोटे मोटे हमले चलते रहे. 12 जून को ईदगाह के पास एक मुठभेड़ हुई जिसमे निहत्थे हिन्दू सैनिकों पर मुगलो ने अचानक हमला कर दिया. इस युद्ध मे कई हिन्दू वीर जाट सैनिक बलिदान हुए. अहमद शाह ने नारा दिया कि- "सुरजमल दिल्ली में है और इस्लाम खतरे में है". उसने सभी धर्मगुरुओं को भी यह नारा लगाने को कहा कि- इस्लाम खतरे में है इन निर्दयी जाटो को सबक सिखाओ.
इस नारे के बाद सफदरजंग की सेना के बहुत से सैनिक व उसके रिश्तेदार महाराजा सूरजमल को छोड़कर शहंशाह की सेना में चले गए. 14 जून को तालकटोरा की लड़ाई हुई, उसमे भी मुगलों की हार हुई परन्तु इस लड़ाई में सूरजमल के वीर उपसेनापति राजेंद्रगिरी गौसाई और एक अन्य सेनापति सुरतिराम बलिदान हो गए. तालकटोरा की लड़ाई में जीत के बाबजूद उनके लिए बहुत बड़ा झटका था.
इसी बीच एक जुलाई को एक घमासान युद्ध हुआ. बलिदानी सुरतिराम का भाई गौकुलराम अपने भाई की मौत का बदला लेना चाहता था. गौकुलराम ने जाट सेना के साथ मुगलो पर हमला कर दिया. इस भयंकर युद्ध मे मुगल भाग खड़े हुए लेकिन गौकुलराम को एक गोला लगा जिसमे वह बुरी तरह से घायल हो गया. उसने महाराजा सूरजमल की गोद में दम तोड़ते समय कहा- महाराज उनका पीछा करो, वे बचने नहीं चाहिए.
महाराजा सूरजमल ने मुगलो का पीछा किया और अनेकों मुगल सैनिको को काटकर फेंक दिया. सूरजमल 16 जुलाई को वीर भूमि तिलपत पहुंच गए. इसी बीच मुगलों की रूहेला फौज ने दिल्ली के पास के कुछ इलाकों में रात्रि को आम नागरिकों पर हमला कर दिया. उनकी दौलत लूटी और औरतों का अपमान किया. सूरजमल को पता चला तो उन्होंने अपने बेटे जवाहर सिंह, बल्लभगढ के राजा बलराम सिंह को भेजा.
वीर जवाहर सिंह ने रुहेलों के किले गढ़ी मैदान पर हमला कर, रुहेलो को गाजर मूली की तरह काटकर हिन्दुओ के अपमान का बदला लिया. 30 जुलाई रमजान के दिन महाराजा सूरजमल व शाही सेना के बीच झड़प हुई जिसमे मुगलो को भागना पड़ा. लेकिन मुगल सेनापति इमाद ने 1 करोड़ रुपए व अवध और इलाहाबाद की सूबेदारी देने का वादा कर होल्कर व शिन्दों को अपने साथ मिला लिया.
19 जुलाई को जाट सेनापति शिवसिंह व मुगल सेना समर्थित मराठे आमने सामने हो गए. एक दिन के इस युद्ध में बहुत से जाट व मराठे मारे गए. हिन्दू वीर शिवसिंह के पांव में एक भाला लग गया जिसके कारण वे घायल हो गए. शिवसिंह का यह घाव संक्रमित हो गया जिस कारण उनकी मृत्यु हो गयी. 5 / 6 सितंबर को 5000 जाट सैनिक फरीदाबाद में मुगलो से भिड़ गए.
मुगलिया सेना को मैदान छोड़कर भागना पड़ा लेकिन इस कार्यवाही में वीर जाट सरदार मोहकम सिंह भी बलिदान हो गए. तगलकाबाद के यमुना तट पर भी मराठों व जाटों के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ. जिसमे दोनों और से हिन्दू ही मारे गए. यहां महाराजा सूरजमल के वीर पुरोहित घमंडीराम (ब्राह्मण) जी घायल हो गए थे. मुगल सेनापति इमाद की ताकत बढ़ती जा रही थी और इस बात सूरजमल से ज्यादा अहमदशाह परेशान था.
वीर जवाहर सिंह ने 29 सितंबर प्रातःकाल मुगल सेना मुगलों पर एक जोरदार आक्रमण कर दिया. महाराजा सूरजमल स्वयं इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे. हिन्दू वीर जाटों ने पूर्ण वेग से मुगलई सेना पर प्रहार शुरू कर दिए. बहुत से मुगल और मुग़ल समर्थक मराठा सैनिक मारे गए. तभी अबू तुराब खां, हमीदुद्दौला, हाफिज खां व जमिलुद्दीन बड़ी तोपें लेकर आये व मुगल सेना में मिल गए.
भयंकर तीपो के प्रहार चल रहे थे. मुगल सेनापति इमाद के हाथी को एक गोला लगा. हाथी मर गया लेकिन इमाद हाथी से कूदकर भाग गया. अगली सुबह 30 सितंबर को मुगल सेनापति इमाद व नजीब खां ने अचानक मन्जेसर सीही ग्राम पर आक्रमण कर दिया और उस पर कब्जा कर लिया लेकिन कुछ समय बाद ही महान यौद्धा राजा बल्लू सिंह(बल्लभगढ) व जाट यौद्धाओ ने मुगल सैनिक को खदेड़ दिया.
दिल्ली के शहंशाह अहमदशाह ने जयपुर नरेश माधोसिंह कच्छवाहा से मदद मांगी. महाराजा सूरजमल भी उनका सम्मान करते थे.जयपुर नरेश माधोसिंह वहां पहुंच गए. इमाद व मुगल सम्राट ने उनकी आवभगत की और उनसे आग्रह किया कि वे महाराजा सूरजमल को सन्धि के लिए समझाये. राजा माधोसिंह हरसौली गढ़ी पहुंचे और सूरजमल के साले कृपाराम व दानिराम जी से मिले और सन्धि का प्रस्ताव दिया.
महाराजा सूरजमल को लगा कि - महाराजा माधोसिंह की बात न स्वीकारी गयी तो यह उनका अपमान होगा और वे सीधे तौर पर नहीं तो पीछे से मुगल सत्ता का साथ देंगे. इसके अलावा शिंदे और होल्कर भी दिल्ली का साथ दे रहे है. इस तरह हिंदुओ में एकता में कमी रहने के कारण महाराजा सूरजमल ने सन्धि प्रस्ताव मान लिया. इस प्रकार महाराजा सूरजमल दिल्ली जीतकर भी दिल्ली के सम्राट न बन पाए.
लेकिन इस युद्ध के बाद पूरे भारत व आस पास के देशों मे महाराजा सुरजमल की ख्याति फैल गयी. उन्होंने दिल्ली के बहुत से हिस्सो को आजाद करवा लिया. हिन्दूओ में एकता न होने के कारण दिल्ली के सिंहासन पर भगवा झंडा लहराते-लहराते रह गया. हिन्दू ह्र्दय सम्राट महाराजा सूरजमल की जय
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