Friday, 29 May 2020

रेलगाड़ियों के रास्ता भटकने का सच

कई लोग जो ट्रेन के रास्ता भटक जाने की बात कर रहे हैं, उनमे से अनपढ़ों को तो छोड़ दीजिये लेकिन पढ़े लिखे लोगों तो कम से कम बिना पूरी जानकारी लिए भ्रम नहीं फैलाना चाहिए. ऐसा भ्रम फैलाकर वे समाज का कोई भला नहीं कर रहे है बल्कि नुकशान पहुंचा रहे हैं.

उनको सोंचना चाहिए कि - क्या कोई ट्रेन पटरी छोड़कर रास्ता बदल सकती है ? क्या कोई ट्रेन वास्तव में रास्ता भटक सकती है ? क्या कोई एक व्यक्ति अपनी मर्जी से ट्रेन को कहीं लेजा सकता है ? ट्रेन चलाने का आदेश देने के अलावा क्या मंत्रालय का इसमें कोई हस्तक्षेप रहता है ?

इस समय तो कोई यात्री गलती से भी किसी गलत ट्रेन में नहीं बैठ सकता है क्योंकि स्टेशन पर एक समय में केवल एक ही ट्रेन खड़ी होती है और वही यात्री उनमे बैठते हैं जिनको अनुमति मिली होती है. उनको भी ट्रेन में बैठे से पहले बहुत लम्बी प्रिक्रिया से गुजरना पड़ता है.
मेरा एक परिचित लुधियाना से मझोला (पीलीभीत) गया. उसने ऑन लाइन बुकिंग कराई थी, जिसमे कोई पैसे नहीं लगे. 21 मई को सुचना मिली कि- 23 मई को ट्रेन जायेगी और इसके लिए पहले लुधियाना के "स्प्रिंग डेल" स्कूल पहुंचना है. वे लोग निश्चित समय पर वहां पहुंचे.
वहां उनको आवश्यक निर्देश दिए गए, सैनिटाइज किया गया और बस में बिठाकर "गुरु नानक स्टेडियम" भेज दिया गया. वहां उनकी स्कैनिंग हुई, उनको टिकट दी गई (बिना पैसे के), खाना दिया गया, पानी की बोतल दी गई. उसके बाद उन्हें रेलवे स्टेशन पहुंचा दिया गया.
एक एक यात्री का नाम पता नोट कर उनको वहां पर पहले से खड़ी ट्रेन में बिठाया गया. ट्रेन चली अम्बाला, सहारनपुर, मुरादाबाद रुकी लेकिन न किसी सवारी को वहां उतरने की इजाजत थी और न चढ़ने की, सिर्फ प्लेटफार्म से पानी , चिप्स आदि खरीद सकते थे.
ट्रेन को सीतापुर रोक कर सवारियां उतारी गइ. बरेली / शाहजहांपुर वालों को भी सीतापुर में ही उतारा गया जबकि ट्रेन वहां से होकर ही आई थी. सीतापुर में अलग अलग जिलों की बस लगी हुई थी, जिनमे बिठाकर उनको बरेली, शाहजहांपुर, लखीमपुर, पीलीभीत, आदि भेजा गया.
पीलीभीत में बस उनको लेकर "ड्रमंड राजकीय इंटर कालेज" में ले गई. वहां उनकी सारी जानकारी लेकर नोट की गई और उनको खाना / पानी दिया गया और उनके हाथ पर होम कोरन्टाइन की मोहर लगा दी. वहां कुछ समय रुकने के बाद एक बस द्वारा मझोला उनके घर भेज दिया गया.
क्या ऐसी व्यवस्था में आपको लगता है कि - कोई ट्रेन रास्ता भटक सकती है या कोई यात्री किसी गलत दिशा में जाने वाली ट्रेन में बैठ सकता है ? दरअसल अंधबिरोधियों ने यह भ्रम ट्रेन पर लगी हुई तख्तियों को लेकर फैलाया है, जिस पर ट्रेन का रूट लिखा होता है.
किसी विशेष मौके पर जो स्पेशल ट्रेन चलाई गई हैं वो वही रैक (रेलगाड़ियां) हैं जो पहले किसी न किसी अन्य रूट पर चलते थे. उनमे उनके वास्तविक रूट की तख्तियां लगी हुई हैं. ट्रेन की तख्तियों को अक्सर ही नहीं उतारा जाता है. इसी को लेकर अंधबिरोधी ऐसे भ्रम पैदा करते हैं
जैसे कोई ट्रेन लुधियाना से सीतापुर गई हो और उसके डिब्बों पर तख्ती अमृतसर से दिल्ली की लगी हुई थी और अंधबिरोधी पत्तलकार हल्ला मचाने लग जाए कि - अमृतसर से दिल्ली जाने वाली ट्रेन रास्ता भटककर सीतापुर पहुँच गई. जबकि उसका रास्ता बिलकुल सही था.
माना कि - आपको भाजपा या मोदी पसंद नहीं है लेकिन इसका अर्थ ये तो नहीं कि आप झूठी अफवाहें फैलाकर देश में भ्रम की स्थिति पैदा करें. इससे रेलमंत्री प्रधानमंत्री का कुछ नहीं बिगड़ेगा क्योंकि उन्होंने केवल ट्रेन चलाने का आदेश दिया है, वो ट्रेन नहीं चला रहे है.
रेल मंत्रालय द्वारा केवल यह आदेश दिया गया है कि - कहाँ से कहाँ को ट्रेन भेजनी है. उसके बाद कौन सा रैक जाएगा, किस रूट से जाएगा, कहाँ कहाँ ड्राइवर / गार्ड बदलने होंगे, कहाँ फ्यूल लेना होगा, कहाँ बीच में बोगियों में पानी भरा जाएगा, आदि देखना रेल प्रचालन विभाग का काम है.
जिस रूट से ट्रेन गुजरती है उस रूट पर हर स्टेशन मास्टर के पास सूचना होती है, हर ट्रेन के गुजरने की पूर्व सुचना होती है और ट्रेन गुजरने का रिकार्ड रखा जाता है. रास्ते में पड़ने वाले फाटकों को बंद करना / खोलना पड़ता है. लाइन क्लियर होने पर ही वह ट्रेन को आगे जाने का सिग्नल देता है
ट्रेन का स्टीयरिंग ड्राइवर के हाथ में नहीं होता है बल्कि रेलवे स्टेशन पैड बदलकर रास्ता बदलते हैं. किसी भी स्तर पर गलती होने पर ट्रेन ज्यादा से ज्यादा एक दो स्टेशन पार कर सकती है. किसी ट्रेन द्वारा 1500 किलोमीटर की दूरी पार करने में तो सैकड़ों लोग इन्वाल्व रहते हैं.

Tuesday, 26 May 2020

अगर "नेहरु" ने गलती न की होती तो "नेपाल" आज भारत का एक प्रांत होता

1947 में भारत आज़ाद हुआ और "नेहरु" भारत के प्रथम प्रधान मंत्री बने. उस समय हमारे पड़ोसी राज्य नेपाल में "त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह" का राज था. वहां राजशाही थी लेकिन वहाँ के एक नेता "मातृका प्रसाद कोइराला" के पास राजा से भी अधिक जन समर्थन था, जिनका वाराणसी में जन्म और परवरिश के कारण भारत से बहुत लगाव था.
"मातृका प्रसाद कोइराला" ने भारतीय प्रधानमंत्री " जवाहर लाल नेहरू" से बात की और कहा कि - नेपाल में राजशाही है, यदि आप कूटनीतिक और सैन्य मदद करें तो नेपाल में भी लोकतंत्र आ जायेगा और हम भारत में एक राज्य की तरह शामिल हो जायेंगे. परन्तु "नेहरू" ने "कोइराला" के अनुरोध को ठुकराकर हस्तक्षेप करने से साफ़ मना कर दिया.
बात यहीं पर ख़त्म नहीं होती है, अब आगे सुनिए. 1950 में नेपाल में एक और बड़े नेता का प्रभाव बढ़ा. उनका नाम "मोहन शमशेर राणा" था. वे भी नेपाल से राजशाही ख़त्म करना चाहते थे और उनको चीन से समर्थन और मदद भी मिल रही थी. अब घबराकर भारत से मदद मांगने के लिए हाथ बढाया, नेपाल नरेश "त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह" ने.
त्रिभुवन को डर था कि - उनका तख्तापलट कर दिया जायेगा और उनको बंदी बना लिया जायेगा या उनकी हत्या भी हो सकती है. 1951 में त्रिभुवन भागकर भारत आ गए और प्रधानमंत्री नेहरू से मुलाकात की. त्रिभुवन ने नेहरू से मदद मांगी और अनुरोध किया कि - भारत यदि राजपरिवार की सहायता करे, तो हम नेपाल का भारत में विलय कर देंगे.
नेपाल को वे भारत का हिस्सा बनवा देंगे, उनको बस एक गवर्नर की तरह नेपाल में राज करने दिया जाये. लेकिन नेहरु ने राजा का भी आफर ठुकरा दिया. नेपाल नरेश "त्रिभुवन शाह" नेहरु से निराश होकर, वापस नेपाल चले गए. बाद में नेपाल नरेश खुद ही कूटनीति से राजतंत्र बिरोधी ताकतों को परास्त करने में कामयाब रहे.
नेपाल नरेश "त्रिभुवन शाह" किसी तरह से दोनों बड़े नेताओं "मातृका प्रसाद कोइराला" और "मोहन शमशेर राणा" को काबू करने में कामयाब रहे. राजा ने दोनों बड़े नताओं को बारी बारी से प्रधानमंत्री बनाया और उनके परिवार के सदस्यों को भी सत्ता में स्थान देकर, असंतोष को दबा दिया और अपनी राज सत्ता को भी बचा लिया.
आज "नेहरू" के मौका गंवाने के कारण नेपाल भारत का हिस्सा नहीं है. भारत ने नेपाल के प्रधानमत्री और राजा दोनों की ओर से मिले मौके को गँवा दिया, वरना नेपाल आज भारत का एक प्रांत होता. 1962 में भारत से युद्ध के बाद चीन ने नेपाल से नजदीकी बनाना शुरू कर दिया और आर्थिक मदद के बहाने नेपाल में अपनी पकड मजबूत की.
आज नेपाल में बहुत सारी आर्थिक गतिबिधिया चीन के सहयोग से चलती हैं और इनकी आड़ में नेपालियों को भारत बिरोध के लिए भी उकसाया जाता है. भारत और नेपाल दोनों के माओ वादियों को भी चीन पूरी मदद देता है. चीन के उकसावे और आर्थिक मदद के कारण कई बार तो भारत से नेपाल के रिश्ते भी ख़राब हो जाते हैं.
हमारा घर नेपाल से नजदीक होने के कारण हम बचपन से वहां जाते रहे हैं. नेपाली मित्र भी रहे हैं. बिजनेस के काम से भी नेपाल जाना होता है, इस बजह से इन घटनाओं के बारे में सुना हुआ है, वरना भारत में तो इन बातों की कभी चर्चा ही नहीं होती है. नाम और बर्ष में थोड़ी बहुत गलती हो सकती है यदि किसी को दिखे तो सही तथ्य बताने की कृपा करे.

भारत और नेपाल के सम्बन्ध

भारत और नेपाल के बीच हजारों साल से धार्मिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक और राजनैतिक रिश्ते रहे हैं. लाखों नेपाली मूल के लोग भारत में स्थाई रूप से रहते है और लाखों भारतीय भी नेपाल में रहकर अपना कारोबार कर रहे हैं. नेपाल और भारत के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता है.
हमारे आराध्य भगवान् श्रीराम का विवाह नेपाल की राजकुमारी सीता (माता) के साथ हुआ था. भगवान् बुद्ध का जन्म नेपाल के लुंबनी में हुआ था और उनकी कर्मभूमि भारत थी. भगवान् बुद्ध का सारा जीवन नेपाल और भारत की सीमावर्ती क्षेत्र से सम्बद्ध रहा है.
भारत नेपाल सीमा दोनों तरफ उनसे सम्बंधित लुंबनी, देवदह, कपिलवस्तु, ठूठीबाड़ी, कुशीनगर, कौशाम्बी, आदि अनेकों स्थल है जिनमे दोनों की श्रद्धा है. नेपाल में भी भगवान् शिव, माता पार्वती (शक्ति) और भगवान् विष्णु की उतनी ही महिमा है जितनी भारत में.
नेपाल के काठमांडू में स्थित भगवान् पशुपतिनाथ का मन्दिर 12 ज्योतिर्लिंग में से एक है. नेपाल के लगभग हर जिले में भगवान् शिव, भगवान् विष्णु और माता शक्ति से सम्बंधित मंदिर है, जिनमे पशुपतिनाथ, मुक्तिनाथ, मनकामना, वराह क्षेत्र, दक्षिण काली, चांगुनारायण मन्दिर, दन्तकाली, बज्रयोगिनी, आदि बहुत प्रशिद्ध हैं.
सनातन धर्म और बौद्ध धर्म के कारण, नेपाल और भारत के लोग भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं. भारत में इस्लामी आक्रमणकारियों और अंग्रेजी शासन में भी भारत और नेपाल का रिश्ता कमजोर नहीं हुआ. अनेकों क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ कार्यवाही करने के बाद नेपाल में छुपते थे.
यह भी कहा जाता है कि - भारत के आजाद होने के बाद नेपाल ने भारत से जुड़ने की इच्छा व्यक्त की थी, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ने इसको नकार दिया था. फिर भी भारत नेपाल रोटी -बेटी का रिश्ता बनाते हुए साथ चलते रहे. इन संबंधों में खटास आने की शुरुआत राजीव गांधी के समय में हुई.
1985 तक नेपाल अपना विदेश व्यापार का लगभग 95% व्यापार भारत के साथ करता था और लगभग 5% व्यापार चीन के साथ करता था. राजीव गांधी सरकार ने नेपाल के साथ रिश्तों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और मौके का फायदा उठाकर चीन ने नेपाल में घुसपैठ बढ़ा दी.
चीन ने अपने खर्च पर नेपाल में सड़कें और इंडस्ट्रीज आदि बनाना प्रारंभ किया. इनको बनाने का धन तो लगाया ही, साथ ही अधिकारियों और प्रभवशाली नेताओं को भी रिशवत के रूप में काफी धन दिया. साथ की कम्युनिस्ट नेताओं को आगे बढाकर माओवाद का प्रसार किया.
1985 में चीन ने नेपाल के पोखरा शहर से तिब्बत के जियांग को सड़क से जोड़ने का समझौता किया. 1987 में चीन ने नेपाल की सीमा पर ल्हासा से दज्हू तक एक सड़क का निर्माण शुरू कर दिया. 1988 में चीन और नेपाल में ऐसे कई करार हुए, जिनसे भारत के सुरक्षा हितों की उपेक्षा हुई.
ऐसे में नेपाल से फिर से सम्बन्ध मजबूत करने के उद्देश्य से राजीव गांधी ने नेपाल की यात्रा की. वहां सबकुछ फिर से अच्छा हो गया था लेकिन एक छोटी सी बात पर राजीव गांधी नेपाल नरेश से नाराज हो गए और उनकी यह व्यक्तिगत नाराजगी भारत नेपाल संबंधों के लिया खराब साबित हुई.
काठमांडू के पशुपतिनाथ मंदिर में केवल हिन्दू ही दर्शन कर सकते है. राजीव गांधी अपनी धार्मिक पहचान को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से वहां जाना चाहते थे. लेकिन वहां के पुजारियों ने इस पर ऐतराज जताया. राजा के समझाने पर वे राजीव के लिए तो तैयार हो गए परन्तु सोनिया के लिए तैयार नहीं हुए.
राजीव की इस यात्रा के बाद दोनों देशों के संबंध सुधरने के बजाय और बिगड़ गए. राजीवगांधी ने इसे अपना व्यक्तिगत अपमान माना और नेपाल की आर्थिक नाकाबंदी कर दी. इसके अलावा रॉ के द्वारा नेपाल से राजशाही को समाप्त करने का अभियान चलाया.
"रॉ" के पूर्व स्पेशल डायरेक्टर अमर भूषण ने अपनी किताब "इनसाइड नेपाल" में लिखा है कि- राजीव गांधी के निर्देश पर "कोवर्ट ऑपरेशन्स लॉन्च" किया गया और नेपाल के विपक्षी दलों का साथ मिलाकर गुप्त तरीके से नेपाल के राजशाही सिस्टम को ध्वस्त करने का अभियान चलाया.
अपने अपमान का बदला लेने के लिए राजीव गांधी ने नेपाल को लेकर भारत की परंपरागत नीति में बदलाव करते हुए रॉ को नेपाल में विरोधी नेताओं को एकजुट करने के लिए उपयोग किया. इसे उन्होंने राजशाही के ख़िलाफ़ लोकतंत्र को समर्थन देना बताया
भारत सरकार के इस रवैये के कारण भारत और नेपाल राजपरिवार के बीच हालात इतने असामान्य हो गये कि स्वयं नेपाल नरेश चीन से मदद मांगने पहुंच गये. नर्सिम्हाराव की सरकार में संबंध थोड़ी बहुत कोशिश हुई लेकिन बहुत ज्यादा नहीं क्योंकि तब भी नेपथ्य में सोनिया गांधी थी.
दूसरी तरफ तब तक चीन में नेपाल में अपनी पैठ बना चूका था. माओवादियों का प्रभाव बढ़ चुका था. चीन के सहयोग से नेपाल के माओवादी भारत समर्थकों पर हमले कर रहे थे. इसी बीच नेपाल नरेश की सपरिवार हत्या ने नेपाल को और अधिक अस्थिर कर दिया.
भारत में अटल बिहार बाजपेई की सरकार आने के बाद भारत ने नेपाल से रिश्ते सुधारने शुरू किये तथा कई सांस्कृतिक और आर्थिक समझौते किये लेकिन दुसरी तरफ से चीन अपने समर्थकों के दम से रिश्ते में खटास डालने का प्रयास करता रहा. इसी बीच 2004 में अटल सरकार चली गई.
अब भारत में मनमोहन सिंह की सरकार थी जिस अप्रत्यक्ष रूप से सोनिया गांधी का नियंत्रण था. दुसरी तरफ नेपाल में सशस्त्र माओंवादी हावी हो चुके थे. नेपाल पर चीन हावी होता जा रहा था और भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा था. इन दस साल में नेपाल के व्यापार पर भी चीन का कब्ज़ा हो गया.
2014 में भारत में सत्ता परिवर्तन हुआ और नरेंद्र मोदी की सरकार आई. नरेंद्र मोदी ने भारत का प्रधानमंत्री बनते ही सबसे पहले नेपाल से सम्बन्ध सुधारने का प्रयास किया. उन्होंने सबसे पहले नेपाल की यात्रा की भगवान् पशुपतिनाथ के दर्शन किये तथा बुद्ध और सीता माता को याद किया.

Monday, 18 May 2020

नाथूराम गोडसे

नाथूराम गोडसे का जन्म 19 मई 1910 को भारत के महाराष्ट्र राज्य में पुणे के निकट बारामती नमक स्थान पर चित्तपावन मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम विनायक वामनराव गोडसे था. नाथूराम गोडसे एक पत्रकार, हिन्दू राष्ट्रवादी और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे.
धार्मिक पुस्तकों में गहरी रुचि होने के कारण रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों के अतिरिक्त स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, बाल गंगाधर तिलक तथा महात्मा गान्धी के साहित्य का इन्होंने गहरा अध्ययन किया था. प्रारम्भ में वो गांधी जी के प्रबल समर्थक थे
अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए वे पहले कांग्रेस में शामिल हुए लेकिन गांधीजी के द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध भेदभाव पूर्ण नीति अपनाये जाने तथा मुस्लिम तुष्टीकरण किये जाने के कारण वे गांधीजी के विरोधी हो गये और कुछ समय के लिए आरएसएस से भी जुड़े।
आरएसएस उस समय अपने शैशव काल में था और उसके द्वारा अपना लक्ष्य पूरा कर पाना उन्हें मुश्किल लगा, इसलिए वे 1930 में हिन्दू महासभा में शामिल हो गए. उन्ही दिनों मुस्लिम लीग ने भारत के दो हिस्से कर मुसलमानो के लिए अलग देश बनाने की मांग शुरू कर दी.
1931 में त्रिमूर्ति की फांसी और आजादजी की मुठभेड़ में हुई हत्या के समय कांग्रेस की संदिग्ध भूमिका के कारण के वे पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ हो गए. उनका कहना था कि- जब हम मुस्लिम लीग की नीतियों का बिरोध करते है तो कांग्रेस को तकलीफ क्यों होती है ?
1940 में हैदराबाद के निजाम ने हैदराबाद में हिन्दुओं पर "जजिया कर" लगा दिया, जिसका हिन्दू महासभा ने विरोध करने का निर्णय लिया. हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं का पहला जत्था नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद गया, निजाम ने इन सभी को बन्दी बना लिया.
हिन्दू महासभा के प्रबल बिरोध के कारण निजाम को हिन्दुओ पर लगाए जजिया कर को वापस लेना पड़ा और सभी आंदोलनकारियों को रिहा करना पड़ा. इस घटना के बाद सारे भारत में हिन्दू महासभा का समर्थन बढ़ गया और यह बात कांग्रेस को भी नागवार गुजरने लगी.
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय गांधीजी द्वारा अंग्रेजो का साथ देने के आव्हान का भी हिन्दू महासभा ने बिरोध किया था. विश्वयुुद्ध में अंग्रेजो की कमर टूट जाने और आजाद हिन्द फ़ौज द्वारा भारत में क्रान्ति का ज्वार फैलाने के कारण अंग्रेज भारत छोड़ने को मजबूर हो गए.
ऐसे में 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने अलग पापिस्तान बनाने के लिए "डायरेक्ट एक्शन" का ऐलान कर दिया. डायरेक्ट एक्शन के नाम पर मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंदुओं का कत्लेआम होने लगा.कलकत्ता से शुरू हुआ यह अत्याचार धीरे धीरे सारे भारत में फ़ैल गया.
15 अगस्त 1947 को देश आजाद होने के साथ ही देश का धर्म के आधार पर बँटबारा हो गया मगर गांधीजी के द्वारा इसमें भी हिन्दुओं के साथ धोखा कर दिया गया. मुसलमानो को तो पापिस्तान मिल गया लेकिन हिन्दुओं को हिन्दुस्थान के बजाय सेकुलर इण्डिया मिला.
बंटबारे के समय पापीस्तानी इलाके में हिन्दुओं / सिक्खों के साथ भयानक कत्लेआम हुआ और उन्हें अपना सबकुछ छोकर अपनी जान और धर्म बचाकर शरणाथी बनकर भारत आना पड़ा. उन शरणार्थियों के खाने / कम्बल आदि की व्यवस्था में भी गोडसे ने बहुत काम किया.
इसी बीच पापिस्तान ने कबायलियों के साथ मिलकर भारत पर हमला कर दिया. इन सब कारणों से भारत में पापिस्तान के खिलाफ नफरत बढ़ती जा रही थी लेकिन इसके बाबजूद गांधीजी महात्मागिरी दिखाने के चक्कर में पापिस्तान पर मेहरबानियाँ लुटा रहे थे.
पापिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण करने के कारण केवल हिन्दू महासभाई या संघी ही पापिस्तान के खिलाफ नहीं थे बल्कि कांग्रेसी भी पापिस्तान को आर्थिक मदद देने के खिलाफ हो गए थे. यहाँ तक कि- नेहरू और पटेल ने भी पापिस्तान को 55 करोड़ रूपय देने से मना कर दिया।
परन्तु भारत सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध गांधीजी अनशन पर बैठ गये. ज्यादातर लोगों को लगने लगा कि - गांधीजी के अनशन के कारण बने दबाब में नेहरू और पटेल भी झुक सकते है. गांधी जी को लगता था कि- प्यार से समझाने पर पापिस्तान मान जाएगा.
गांधीजी ने पापीस्तानियों को भाईचारे की सीख देने के लिए पापिस्तान जाने का निर्णय लिया जिसमे वे पापिस्तान को पापिस्तान और बांग्लादेश को जोड़ने के लिए एक गलियारा देने का प्रस्ताव भी देने वाले थे. ऐसे नाथूराम और उनके साथियों ने महात्मा गांधी की हत्या करने का निर्णय लिया.
20 जनवरी 1948 को मदनलाल पाहवा ने गांधीजी की प्रार्थना-सभा में बम फेका, बम विस्फोट से उत्पन्न अफरा-तफरी के समय ही गांधी को मारना था परन्तु उस समय नाथूराम की पिस्तौल जाम हो गयी, इस कारण नाथूराम को वहां से भागना पड़ा जबकि मदनलाल पाहवा गिरफ्तार हो गए.
उसी दौरान उनको एक शरणार्थी मिला जिसके पास एक इतालवी कम्पनी की "बैराटा" पिस्तौल थी. नाथुराम ने उससे वह पिस्तौल खरीदी. उसी शरणार्थी शिविर में उन्होंने अपना एक फोटो खिंचवाया और उस चित्र को दो पत्रों के साथ अपने सहयोगी नारायण आप्टे को पुणे भेज दिया.
30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे दिल्ली के बिड़ला भवन में प्रार्थना-सभा से 40 मिनट पहले पहुँच गये. जैसे ही गान्धी जी प्रार्थना-सभा में आये उसने उन्हें प्रणाम किया और तुरंत अपनी पिस्तौल से तीन गोलियाँ मार दी. गोली मारने के बाद भागने का कोई प्रयास नहीं किया.
नथुराम एवं उनके अन्य 17 साथियों पर गांधीजी की हत्या और हत्या की साजिश का मुकदमा चला. लगभग डेढ़ साल चले मुकदमे के बाद 8 नवम्बर 1949 को फांसी की सजा सुना दी गई. 15 नवम्बर 1949 नाथूराम गोडसे को नारायण आप्टे के साथ अम्बाला जेल में फाँसी पर चढ़ा दिया गया.
मानव ह्त्या बहुत ही जघन्य अपराध है और गांधीजी की ह्त्या की भी निंदा की जानी चाहिए, लेकिन जरा सोंचो कि -कहीं अगर दस मील चौड़ा "पापिस्तान-बंगलादेश" गलियारा बन गया होता तो आज क्या स्थिति होती ? इस बात के लिए तो "नाथू राम गोडसे" को भी प्रणाम करने का दिल करता है.

Sunday, 10 May 2020

महाराजा सूरजमल की दिल्ली विजय दिवस (10 मई)

सन 1750 तक हिन्दू ह्रदय सम्राट, भारतपुर के महाराजा "सूरजमल" अपनी बहादुरी और समझदारी से एक विशाल साम्राज्य बना चुके थे. उन्होंने अनेकों रुहेलो, अफगानो, मेव लुटेरों (मुस्लिम) और मुगलों की चापलूसी करने वाले अनेकों धर्मविहीन हिन्दू राजाओं को हराकर पीछे हटने को मजबूर कर दिया था. इसके अलावा दिल्ली के अनेकों प्रभावशाली लोगों को भी अपनी तरफ कर लिया था.
सन 1752 में दिल्ली के मुगल सुल्तान अहमद शाह (सुन्नी) और उसके वजीर सफदरजंग (शिया) के बीच गृह युद्ध छिड़ गया. जल्दी ही यह लड़ाई शिया और शुन्नी की लड़ाई में बदल गई. सफ़दरजबग ने महाराजा सूरजमल से मदद मांगी. महाराज सूरजमल को ऐसे ही किसी मौके की तलाश थी. उन्होंने 30 अप्रैल 1753 को सफदरजंग में पक्ष में दिल्ली पर आक्रमण कर दिया.
जब महाराजा सूरजमल दिल्ली पहुंचे तो सफदरजंग के 23000 मुस्लिम सैनिक धोखा देकर दिल्ली के सुल्तान से मिल गए, परन्तु महाराजा सूरजमल को खुद पर भरोसा था इसलिए इससे ज़रा भी बिचलित नहीं हुए. महाराजा सुरजमल के हौसले को देखकर मुगल बादशाह घबरा गया और उसने अपने एक वकील महबूबद्दीन को औरंगाबाद से मलहराव होल्कर को बुला लाने के लिए भेजा.
लेकिन पलवल के निकट रास्ते मे ही उसे महाराजा सूरजमल के सैनिको ने पकड़ लिया, इसी बीच नागा योद्धाओं का बड़ा दल महाराजा के साथ आ मिला.
महाराजा के एक उपसेनापति राजेन्द्र गिरी गोंसाई खुद एक साधु थे और उनकी ही बजह से नागा बाबाओं की सेना महाराजा सूरजमल के दल में शामिल हुई थी. महाराजा सूरजमल ने उनके इस दल "रामदल सेना" नाम दिया.
महाराजा सूरजमल ने सफदरजंग को उकसाया कि 15000 रूहेलो के साथ आ रहे नजीब को रास्ते मे पकड़ ले लेकिन सफदरजंग इसमे कामयाब न हो सका. फिर महाराजा सूरजमल ने स्वयं ही मोर्चा संभाला और 9 मई को पुरानी दिल्ली की अनाज मंडी पर हमला कर दिया. राजेन्द्र गिरी गोंसाई के साथ नागा साधु व जाट सैनिकों ने प्रातः 10 मई को अनाज मंडी पर कब्जा कर लिया.
महाराजा सूरजमल की सेना ने लाल दरवाजे के पास शहर के पूर्वी हिस्से, सैयद्द बाड़ा, पँचकुई, अब्दुल्ला नगर, तारक गंज व बिजल मस्जिद के आस पास के इलाकों, चुनरिया, वकिलपुरा पर कब्जा कर लिया. अब दिल्ली के ज्यादातर हिस्से पर भगवा छा चुका था. इसी जीत की खुशी में हर वर्ष दिल्ली विजय दिवस मनाया जाता है. इस खौफ भरे दिन को मुगल इतिहास में जाटगर्दी के नाम से जाना जाता है.
अहमद शाह ने अपना दूत भेजकर महाराजा को सन्देश दिया कि- वो अगर दिल्ली से चले जाएँ तो दरबार मे भारी सम्मान के साथ साथ आसपास की जागीरें भी देगा. लेकिन सूरजमल ने कहा कि - अहमद शाह, अपनी कायरता को छुपाना छोड़ दो, अगर बाजुओं में दम है तो मैदान में आकर सीधे लड़ो. 17 मई को महाराजा सूरजमल ने मुगलो को गाजर मूली की तरह काटकर फिरोजशाह कोटला किले पर कब्जा कर लिया.
इसी बीच छोटे मोटे हमले चलते रहे. 12 जून को ईदगाह के पास एक मुठभेड़ हुई जिसमे निहत्थे हिन्दू सैनिकों पर मुगलो ने अचानक हमला कर दिया. इस युद्ध मे कई हिन्दू वीर जाट सैनिक बलिदान हुए. अहमद शाह ने नारा दिया कि- "सुरजमल दिल्ली में है और इस्लाम खतरे में है". उसने सभी धर्मगुरुओं को भी यह नारा लगाने को कहा कि- इस्लाम खतरे में है इन निर्दयी जाटो को सबक सिखाओ.
इस नारे के बाद सफदरजंग की सेना के बहुत से सैनिक व उसके रिश्तेदार महाराजा सूरजमल को छोड़कर शहंशाह की सेना में चले गए. 14 जून को तालकटोरा की लड़ाई हुई, उसमे भी मुगलों की हार हुई परन्तु इस लड़ाई में सूरजमल के वीर उपसेनापति राजेंद्रगिरी गौसाई और एक अन्य सेनापति सुरतिराम बलिदान हो गए. तालकटोरा की लड़ाई में जीत के बाबजूद उनके लिए बहुत बड़ा झटका था.
इसी बीच एक जुलाई को एक घमासान युद्ध हुआ. बलिदानी सुरतिराम का भाई गौकुलराम अपने भाई की मौत का बदला लेना चाहता था. गौकुलराम ने जाट सेना के साथ मुगलो पर हमला कर दिया. इस भयंकर युद्ध मे मुगल भाग खड़े हुए लेकिन गौकुलराम को एक गोला लगा जिसमे वह बुरी तरह से घायल हो गया. उसने महाराजा सूरजमल की गोद में दम तोड़ते समय कहा- महाराज उनका पीछा करो, वे बचने नहीं चाहिए.
महाराजा सूरजमल ने मुगलो का पीछा किया और अनेकों मुगल सैनिको को काटकर फेंक दिया. सूरजमल 16 जुलाई को वीर भूमि तिलपत पहुंच गए. इसी बीच मुगलों की रूहेला फौज ने दिल्ली के पास के कुछ इलाकों में रात्रि को आम नागरिकों पर हमला कर दिया. उनकी दौलत लूटी और औरतों का अपमान किया. सूरजमल को पता चला तो उन्होंने अपने बेटे जवाहर सिंह, बल्लभगढ के राजा बलराम सिंह को भेजा.
वीर जवाहर सिंह ने रुहेलों के किले गढ़ी मैदान पर हमला कर, रुहेलो को गाजर मूली की तरह काटकर हिन्दुओ के अपमान का बदला लिया. 30 जुलाई रमजान के दिन महाराजा सूरजमल व शाही सेना के बीच झड़प हुई जिसमे मुगलो को भागना पड़ा. लेकिन मुगल सेनापति इमाद ने 1 करोड़ रुपए व अवध और इलाहाबाद की सूबेदारी देने का वादा कर होल्कर व शिन्दों को अपने साथ मिला लिया.
19 जुलाई को जाट सेनापति शिवसिंह व मुगल सेना समर्थित मराठे आमने सामने हो गए. एक दिन के इस युद्ध में बहुत से जाट व मराठे मारे गए. हिन्दू वीर शिवसिंह के पांव में एक भाला लग गया जिसके कारण वे घायल हो गए. शिवसिंह का यह घाव संक्रमित हो गया जिस कारण उनकी मृत्यु हो गयी. 5 / 6 सितंबर को 5000 जाट सैनिक फरीदाबाद में मुगलो से भिड़ गए.
मुगलिया सेना को मैदान छोड़कर भागना पड़ा लेकिन इस कार्यवाही में वीर जाट सरदार मोहकम सिंह भी बलिदान हो गए. तगलकाबाद के यमुना तट पर भी मराठों व जाटों के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ. जिसमे दोनों और से हिन्दू ही मारे गए. यहां महाराजा सूरजमल के वीर पुरोहित घमंडीराम (ब्राह्मण) जी घायल हो गए थे. मुगल सेनापति इमाद की ताकत बढ़ती जा रही थी और इस बात सूरजमल से ज्यादा अहमदशाह परेशान था.
वीर जवाहर सिंह ने 29 सितंबर प्रातःकाल मुगल सेना मुगलों पर एक जोरदार आक्रमण कर दिया. महाराजा सूरजमल स्वयं इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे. हिन्दू वीर जाटों ने पूर्ण वेग से मुगलई सेना पर प्रहार शुरू कर दिए. बहुत से मुगल और मुग़ल समर्थक मराठा सैनिक मारे गए. तभी अबू तुराब खां, हमीदुद्दौला, हाफिज खां व जमिलुद्दीन बड़ी तोपें लेकर आये व मुगल सेना में मिल गए.
भयंकर तीपो के प्रहार चल रहे थे. मुगल सेनापति इमाद के हाथी को एक गोला लगा. हाथी मर गया लेकिन इमाद हाथी से कूदकर भाग गया. अगली सुबह 30 सितंबर को मुगल सेनापति इमाद व नजीब खां ने अचानक मन्जेसर सीही ग्राम पर आक्रमण कर दिया और उस पर कब्जा कर लिया लेकिन कुछ समय बाद ही महान यौद्धा राजा बल्लू सिंह(बल्लभगढ) व जाट यौद्धाओ ने मुगल सैनिक को खदेड़ दिया.
दिल्ली के शहंशाह अहमदशाह ने जयपुर नरेश माधोसिंह कच्छवाहा से मदद मांगी. महाराजा सूरजमल भी उनका सम्मान करते थे.जयपुर नरेश माधोसिंह वहां पहुंच गए. इमाद व मुगल सम्राट ने उनकी आवभगत की और उनसे आग्रह किया कि वे महाराजा सूरजमल को सन्धि के लिए समझाये. राजा माधोसिंह हरसौली गढ़ी पहुंचे और सूरजमल के साले कृपाराम व दानिराम जी से मिले और सन्धि का प्रस्ताव दिया.
महाराजा सूरजमल को लगा कि - महाराजा माधोसिंह की बात न स्वीकारी गयी तो यह उनका अपमान होगा और वे सीधे तौर पर नहीं तो पीछे से मुगल सत्ता का साथ देंगे. इसके अलावा शिंदे और होल्कर भी दिल्ली का साथ दे रहे है. इस तरह हिंदुओ में एकता में कमी रहने के कारण महाराजा सूरजमल ने सन्धि प्रस्ताव मान लिया. इस प्रकार महाराजा सूरजमल दिल्ली जीतकर भी दिल्ली के सम्राट न बन पाए.
लेकिन इस युद्ध के बाद पूरे भारत व आस पास के देशों मे महाराजा सुरजमल की ख्याति फैल गयी. उन्होंने दिल्ली के बहुत से हिस्सो को आजाद करवा लिया. हिन्दूओ में एकता न होने के कारण दिल्ली के सिंहासन पर भगवा झंडा लहराते-लहराते रह गया. हिन्दू ह्र्दय सम्राट महाराजा सूरजमल की जय

Tuesday, 5 May 2020

महाभारत के युद्ध के 18 दिन का घटनाक्रम


Bhagavad Gita Shlok: Bhagwat Geeta Saar In Hindi - Bhagwat Geeta ...मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष 14 को महाभारत का युद्ध प्रारम्भ हुआ था और यह युद्ध लगातार 18 दिनों तक चला था. युद्ध प्रारम्भ होने से पहले अर्जुन मोह का शिकार हो गए थे कि - अपने पितामह, गुरुओं और सम्बन्धियों से कैसे लड़ूँ ? तब भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को "गीता" के उपदेश देकर, उसको उसके कर्तव्य का अहसास कराया था.

1. पहला दिन - युद्ध के पहले दिन पांडव पक्ष को भारी नुकशान हुआ था. युद्ध के पहले दिन ही विराट नरेश के दोनों पुत्र (उत्तर और श्वेत) वीरगति को प्राप्त हुए थे, जिनका बध क्रमशः मद्र नरेश शल्य और पितामह भीष्म ने किया था. पाण्डव सेना की भी भारी क्षति हुई थी. पहला कौरवों के लिए उत्साह बढ़ाने वाला तथा पांडवो के लिए निराशाजनक था.

2. दूसरा दिन :- युद्ध के दूसरे मुकाबला लगभग बराबर का रहा. द्रोणाचार्य और धृष्टधुम्न का कई बार सामना हुआ और हर बार द्रोणाचार्य धृष्टधुम्न पर हावी रहे. भीष्म के वाणों ने भी अर्जुन के साथ साथ श्रीकृष्ण को घायल किया लेकिन फिर भी अर्जुन ने भीष्म को रोके रखा. दूसरी तरफ भीम ने कलिंगराज भानुमान्, केतुमान और निषादराज को उनकी सेना के साथ मार गिराया.
3. तीसरा दिन :- तीसरे दिन भी भीष्म पांडव सेना का काफी नुकशान करते हैं. श्रीकृष्ण द्वारा बार बार उत्साह बढ़ने के बाद भी अर्जुन पूरे मन से युद्ध नहीं लड़ पाते है. तब श्रीकृष्ण भीष्म को मारने के लिए दौड़ पड़ते हैं लेकिन अर्जुन उनको रोक लेते हैं और पूरी क्षमता से न लड़ने के लिए क्षमा मांगते है. दुसरी तरफ भीम और घटोत्कच दुर्योधन को भागने पर मजबूर कर देते हैं.
श्रीकृष्ण और भीष्म में ये थी समानता ...4. चौथा दिन :- इस दिन पांडव, कौरवों पर भारी पड़ते है. आज अर्जुन को भीष्म भी नहीं रोक पाते है. दूसरी तरफ भीम और घटोत्कच कौरव सेना में तवाही मचा देते है. दुर्योधन अपनी हस्ति वाहिनी को भीम को मारने के लिए भेजता है लेकिन भीम और घटोत्कच उन सबको मार गिराते है. दुर्योधन भीष्म और द्रोणाचार्य पर मन से युद्ध न लड़ने का आरोप लगाता है.
5. पांचवां दिन :- युद्ध के पांचवें दिन पितामह भीष्म पांडव सेना का बहुत नुक्सान करते है. तब अर्जुन और भीम मिलकर भीष्म को रोकने का प्रयास करते हैं. दूसरी तरफ पांडव सेना के एक योद्धा सात्यकि गुरु द्रोणाचार्य से पूरा दिन युद्ध करते है और पूरा दिन रोके रखते हैं. तब भीष्म द्रोणाचार्य की मदद को आते है और सात्यिकी को भागने पर मजबूर करते हैं.
6. छठा दिन :- युद्ध के छठे दिन भी दोनों पक्षों के बीच भयंकर युद्ध होता है. अर्जुन भीष्म को आगे नही बढ़ने देता है. तब दुर्योधन क्रोधित होकर भीष्म पर फिर पक्षपात का आरोप लगाता है. भीष्म कहते हैं कि - किसी तरह अर्जुन को रोको. तब द्रोणाचार्य अर्जुन को रोकते है और दूसरी तरफ भीष्म पितामह लगभग सारी पांचाल सेना का सफाया कर देते हैं.
7. सातवां दिन :- सातवें दिन अर्जुन फिर कौरव सेना पर हावी हो जाता है. दुसरी तरफ धृष्टधुम्न दुर्योधन को भागने पर मजबूर कर देता है. अर्जुन और नागकन्या अलूपी का पुत्र "इरावान", युद्ध में केकेय राजकुमार "विन्द" और "अनुविन्द" को हरा देता है. परन्तु दिन के अंत होते-होते पितामह भीष्म फिर से पांडव सेना पर हावी हो जाते हैं.
Bhishma Ashtami 2020 Date Muhurat And Bhishma Ashtami Katha ...8. आठवाँ दिन :- आठवें दिन युद्ध के प्रारम्भ होते ही भीम, धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध कर देता है. तब दुर्योधन अपने मित्र राक्षस अम्बलुष (बकासुर के पुत्र) को भीम को रोकने भेजता है लेकिन अर्जुन पुत्र इरावान, अम्बलुष को भीम तक नहीं पहुँचने देता है. युद्ध के अंत में अम्बलुष इरावान को मार देता है.तब क्रोधित भीम 9 और कौरवों को मार डालता है.
दूसरी तरफ अर्जुन पितामह भीष्म को रोके रखते है हालांकि भीष्म भी पांडव सेना को मुश्किल में डाले रहते हैं. इधर घटोत्कच दुर्योधन को अपनी माया से उलझा के रखता है. लेकिन तब कौरब पक्ष का एक योद्धा भगदत्त आ जाता है और प्रचंड युद्ध करते हुए घटोत्कच, भीम, युधिष्ठिर व अन्य पांडव सैनिकों को पीछे हटने को मजबूर कर देता है.
9. नौवां दिन :- युद्ध के निर्णायक स्तिथि में न पहुँचने से नाराज होकर दुर्योधन भीष्म से कहते है कि - अंगराज कर्ण को भी युद्ध में शामिल करने को कहता है. तब भीष्म उसे आश्वासन देते हैं कि - आज या तो वो श्रीकृष्ण को युद्ध में शस्त्र उठाने के लिए विवश कर देंगे या फिर किसी एक पांडव का वध कर देंगे. नौवे दिन पितामह ने "सर्वतोभद्र व्यूह" की रचना करते है.
आज का दिन बहुत भयानक युद्ध होता है. वीर अभिमन्यु राक्षस अलम्बुष को घायल कर भागने पर मजबूर कर देते है. सात्यिकी अश्वत्थामा को और द्रुपद द्रोणाचार्य को घेर लेते हैं. तब पितामह भीष्म भीषण युद्ध करते हुए पांडव सेना का संहार करते हुए आगे बढ़ते है. भीष्म का रौद्ररूप देखकर भगवान् श्रीकृष्ण भीष्म के ऊपर चक्र उठा लेते है.
दूषित अन्न खाने से भीष्म पितामह की ...10. दशवाँ दिन :- 9 वे दिन की समाप्ति पर श्रीकृष्ण अर्जुन को पितामह भीष्म के पास भेजते है. अर्जुन के पूंछने पर पितामह भीष्म अपनी मृत्यु का रहस्य अर्जुन को बता देते है. भीष्म कहते हैं कि - अगर तुम शिखंडी को अपने आगे खड़ा कर लो तो मैं उसपर वाण नहीं चलाऊंगा. 10 वे दिन के युद्ध में अर्जुन अपने रथ पर शिखंडी को भी अपने साथ ले लेते हैं.
शिखंडी की आड़ लेकर अर्जुन पितामह भीष्म पर वाणो की बर्षा कर देते है. पितामह भीष्म अपने रथ से नीचे गिर पडते हैं लेकिन उनका शरीर भूमि का स्पर्श नहीं करता है क्योंकि अर्जुन के बाण उनके समस्त शरीर में समाये हुए थे, जिस कारण वे बाणों की शैय्या पर पड़ जाते है. उनके गिरते ही कौरव और पांडव दोनों शिविरों में शोक छा जाता है.
11. ग्यारहवा दिन :- भीष्म के बाद द्रोणाचार्य कौरवो के सेनापति बनते हैं. वे कर्ण को युद्ध की अनुमति दे देते हैं. द्रोण कहते है कि- किसी भी तरह अर्जुन को दूर रखो तो मैं युधिष्ठिर को बंदी बना लूँगा. कर्ण अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारता है. कर्ण और अर्जुन में घमाशान युद्ध होता है. इधर द्रोणाचार्य युधिष्ठिर को बंदी बनाने का प्रयास करते हैं.
युधिष्ठिर को बचाने की कोशिश में द्रोणाचार्य के हाथों विराट वीरगति को प्राप्त हो जाते है. कर्ण लगातार अर्जुन को उलझाए रखता है परन्तु श्रीकृष्ण किसी तरह से रथ लेकर युधिष्ठिर के पास पहुँच जाते हैं. अर्जुन को आते देखकर द्रोणाचार्य युधिष्ठिर को बंदी बनाने की योजना को छोड़ देते हैं. कर्ण इस दिन पाण्डव सेना का भारी संहार करता है.
12. बारहवा दिन :- बारहवे दिन त्रिगध नरेश, अर्जुन को दूर युधिष्ठिर से ले जाने में कामयाब हो जाते है. इधर सात्यकी युधिष्ठर की रक्षा करते है और जलसंधि, सुदर्शन, म्लेच्छ सेना, भूरिश्रवा, कर्णपुत्र प्रसन का बध करते हुए खुद भी घायल हो जाते हैं. इससे पहले कि द्रोण युधिष्ठिर को बंदी बनाये अर्जुन त्रिगध नरेश का बध करके वापस आ जाते हैं.
अभिमन्यु की मृत्यु - महाभारत में ...13. तेरहवां दिन :- इस दिन द्रोणाचार्य चक्र्व्यूह की रचना करते है और कहते हैं कि - किसी भी तरह अर्जुन वापस यहाँ नहीं आना चाहिए. प्राग्ज्योतिषपुर (असम) के राजा भगदत्त अर्जुन को ललकारते है और लड़ते लड़ते बहुत दूर निकल जाते हैं. इधर अर्जुन पुत्र अभिमन्यु अकेला चक्र्व्यूह में प्रवेश कर जाता है, अकेला अभिमन्यु बहादुरी से लड़ता है.
अभिमन्यु के शौर्य को देखकर द्रोणाचार्य तक घबरा जाते है. कर्ण के कहने पर सात महारथी ( कर्ण, जयद्रथ, द्रोण, अश्वत्थामा, दुर्योधन, लक्ष्मण तथा शकुनि) एकसाथ अकेले अभिमन्यु पर आक्रमण कर देते है. अभिमन्यु का रथ टूट जाता है और निहत्था हो जाता है. तब सातों उसे घेर लेते है. अभिमन्यु रथ का पहिया उठाकर सातों से मुकाबला करता है.
लक्ष्मण गदा फेंक कर अभिमन्यु के सर पर मारता है. अभिमन्यु उसकी ही गदा उठाकर उसे मारता है जिससे लक्ष्मण के प्राण पखेरू उड़ जाते है लेकिन अभिमन्यु भी होश खो बैठता है ऐसे में जयद्रथ पीछे से तलवार का बार करता है और अन्य पाँचों महारथी भी उस निहत्थे और घायल पर वार करते हैं जिससे अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हो जाता है.
उधर अर्जुन के ऊपर भगदत्त वैष्णवास्त्र का प्रहार करता है लेकिन उसे श्रीकृष्ण अपने ऊपर लेकर अर्जुन की रक्षा करते है. भगदत्त का बध करने के बाद अर्जुन और कृष्ण लौट आते है. जब उनको अभिमन्यु की हत्या का पता चलता है तो अर्जुन कसम खाते हैं कि - कल सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का बध कर दूंगा यदि नहीं कर पाया तो अग्नि समाधि ले लूँगा.
जयद्रथ वध - Krishnakosh14. चौदहवा दिन :- अर्जुन की अग्नि समाधि वाली बात सुनकर कौरव जयद्रथ को बचाने योजना बनाते हैं. द्रोण जयद्रथ को बचाने के लिए उसे सेना के पिछले भाग मे छिपा देते है. श्रीकृष्ण समझ जाते हैं कि - ऐसे में जयद्रथ तक पहुंचना आसान नहीं होगा. तब वे अपनी माया द्वारा समय से पूर्व अंधकार कर देते है जिससे सभी लोग युद्ध समाप्त कर सामने आ जाते है.
अर्जुन को अग्नि समाधि के लिए जाते देख जयद्रथ सामने आकर अर्जुन का उपहास उड़ाने लगता है. तभी श्रीकृष्ण माया को समाप्त कर अन्धकार को दूर कर देते है और अर्जुन से कहते है कि - "हे पार्थ प्राण पालन करो, देखो अभी दिन शेष है" और अर्जुन अपने वाण से जयद्रथ का सर काट देता है. इसी दिन युद्ध में द्रोणाचार्य भी द्रुपद का बध कर देते है.
15. पन्द्रहवाँ दिन :- युद्ध के पन्द्रहवें दिन द्रोणाचार्य पांडव सेना का बुरी तरह से संहार करने लगते है. तब श्रीकृष्ण भीम को आदेश देते हैं कि अवन्तिराज के हाथी "अश्वत्थामा" को मार दे और इस बात का शोर मचा दें कि - अश्वत्थामा मारा गया. भीम ऐसा ही करते हैं. अश्वत्थामा के मारे जाने का शोर सुनकर द्रोणाचार्य व्याकुल हो जाते है.
वे युधिष्ठिर से पूंछते है कि - क्या यह सत्य है कि अश्वत्थामा मारा गया. तो युधिष्ठिर कहते है कि - हाँ, अश्वत्थामा मारा गया है, परन्तु हाथी. इसी समय श्रीकृष्ण शंखनाद कर देते हैं जिससे द्रोणाचार्य "हाथी" शब्द नहीं सुन पाते है और शोकाकुल होकर अपने शस्त्र रख देते है. तभी मौक़ा देखकर धृष्टधुम्न अपनी तलवार से द्रोणाचार्य का सर काट देता है.
Mahabhart Karn Arjun War - कहानी महाभारत की, इन ...16 . सोलहवां दिन :- द्रोणाचार्य के बाद "कर्ण" को सेनापति बनाया जाता है. कर्ण पांडव सेना पर पूरी तीव्रता से हमला कर देता है. श्रीकृष्ण जानते थे कि- कर्ण के पास इन्द्र की दी हुई अमोघ शक्ति है इसलिए वे अर्जुन को उसके सामने नहीं आने देते है बल्कि घटोत्कच को कर्ण का मुकाबला करने भेजते हैं. घटोत्कच कौरव सेना का सफाया करना शुरू कर देता है.
तब दुर्योधन कर्ण से आग्रह करता है कि - वह अपनी अमोघ शक्ति का प्रयोग घटोत्कच पर करे. कर्ण उसका प्रयोग नहीं करना चाहता है पर दुर्योधन के बार- बार कहने पर उसे घटोत्कच घटोत्कच पर चला देता है. घटोत्कच वीरगति को प्राप्त हो जाता है. दुसरी तरफ भीम दुशासन का बध कर देता है और उसकी छाती के खून से द्रोपदी के केस धोता है.
17. सत्रहवां दिन :- सत्रहवें दिन शल्य कर्ण के सारथी बनते है. कर्ण भीम और युधिष्ठिर को हरा देता है, लेकिन कुंती को दिए वचन के कारण उन्हें मारता नहीं है. युद्ध में कर्ण के रथ का पहिया भूमि में धंस जाता है. जब शस्त्र रखकर कर्ण पहिया निकालने के लिए नीचे उतरता है और उसी समय श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन कर्ण का वध कर देता है.
Mahabharat, interesting fact of Mahabharata, Ashwaththama, Pandava ...इसके बाद कौरव अपना उत्साह हार बैठते हैं. उनका मनोबल टूट जाता है. फिर दुर्योधन मद्र नरेश "शल्य" को सेनापति घोषित करता है. लेकिन उसी दिन युद्ध की समाप्ति से पहले युधिष्ठिर के हाथों शल्य वीरगति को प्राप्त हो जाते है. इस दिन कौरव पक्ष को भारी हानि होती है. कर्ण और शल्य के अलावा दुर्योधन के 22 भाई भी इस दिन मारे जाते हैं.
18. अट्ठारहवां दिन :- अट्ठारवे दिन अपनी पराजय को निश्चित जानकर दुर्योधन एक सरोवर में छुप जाता है. सरोवर में छिपे हुए दुर्योधन को पांडवों द्वारा ललकारे जाने पर वह बाहर आ जाता है और भीम से गदा युद्ध करता है. भीम अपनी गदा के प्रहार से दुर्योधन की जंघा तोड़ देते है, जिसको तोड़ने की भीम ने तब कसम खाई थी जब दुर्योधन ने द्रोपदी को नंगा कर अपनी जंघा पर बैठने को कहा था. इस प्रकार 18 दिन चले इस युद्ध में पांडव विजयी होते हैं

अब कौरवों के केवल तीन योद्धा शेष बचते हैं- अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा. दुर्योधन मरने से पहले अश्वत्थामा को सेनापति घोषित कर देता है. अश्वथामा पांडवों का वध करने की प्रतिज्ञा करता है और रात्रि में ही सेनापति अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा पांडव शिविर पर हमला कर देता है जब पांडव सेना विश्राम कर रही होती है.
धोखे से किये गए इस हमले में अश्वत्थामा सभी पांचालों (द्रौपदी के पांचों पुत्रों, धृष्टद्युम्न तथा शिखंडी आदि) का सोते हुए वध कर देता है. अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर देता है. श्रीकृष्ण द्वारा फटकारने पर वह ब्रह्माश्त्र को रोक तो देता है परन्तु उसके दुष्प्रभाव को अभिमन्यु की गर्भवती पत्नी उत्तरा के गर्भ में उतार देता है.
Duryodhana Character Mahabharat Duryodhana : Know About Duryodhana ...श्रीकृष्ण अश्वत्थामा के माथे से उसकी जन्मजात मणि को निकाल कर उसे आजीवन उस घाव के साथ कलयुग के अंत तक तड़पते हुए जीने का शाप देते हैं.