Tuesday, 22 October 2019

प्राचीन भारत में सती प्रथा कभी थी ही नहीं.

The Padmini mystique: Is Padmavati just a myth? - Cover Story News ...प्राचीन भारत में कभी सति प्रथा थी ही नही. रामायण / महाभारत जैसे ग्रन्थ से लेकर आधुनिक काल तक के ग्रन्थ कौशल्या, कैकेई, सुमित्रा, मंदोदरी, तारा, सत्यवती, अम्बिका, अम्बालिका, कुंती, उत्तरा, दुर्गावती, अहिल्याबाई, लक्ष्मीबाई,आदि जैसी बिध्वाओं की गाथाओं से भरे हुए हैं. किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में सति-प्रथा का कोई उल्लेख नहीं है. यह प्रथा भारत में इस्लामी आतंक के बाद शुरू हुई थी. ये बात अलग है कि- बाद में कुछ लालचियों ने अपने भाइयों कि सम्पत्ति को हथियाने के लिए अपनी भाभियों की ह्त्या इसको प्रथा बनाकर की थी.
इस्लामी अत्याचारियों द्वारा पुरुषों को मारने के बाद उनकी स्त्रीयों से दुराचार किया जाता था, इसीलिये स्वाभिमानी हिन्दू स्त्रीयों ने अपने पति के हत्यारों के हाथो इज्जत गंवाने के बजाय अपनी जान देना बेहतर समझा था. भारत में जो लोग इस्लाम का झंडा बुलंद किये घूमते हैं, वो ज्यादातर उन वेवश महिलाओं के ही वंशज हैं जिनके पति की ह्त्या कर महिला को जबरन हरम में डाल दिया गया था. इनको तो खुद अपने पूर्वजों पर हुए अत्याचार का प्रतिकार करना चाहिए.
सेकुलर बुद्धिजीवी "सतीप्रथा" को हिन्दू समाज की कुरीति बताते हैं जबकि यह प्राचीन प्रथा है ही नहीं. रामायण में केवल मेघनाथ की पत्नी सुलोचना का और महाभारत में पांडू की दुसरी पत्नी माद्री के आत्मदाह का प्रसंग है. इन दोनो को भी किसी ने किसी प्रथा के तहत बाध्य नहीं किया था बल्कि पति के वियोंग में आत्मदाह किया था. इत्तेफाक से यह दोनों ही दक्षिण के लंका और तमिलनाडू की द्रविण महिलायें थी आर्य नहीं. अगर इसे प्रथा भी माना जाए तो यह आर्य संस्कृति का हिस्सा नहीं थी.
चित्तौड़गढ़ के राजा राणा रतन सेन की रानी "महारानी पद्मावती" का जौहर विश्व में भारतीय नारी के स्वाभिमान की सबसे प्रसिद्ध घटना है. ऐय्यास और जालिम राजा "अलाउद्दीन खिलजी" ने रानी पद्मावती को पाने के लिए, चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी थी , राजपूतों ने उसका बहादुरी से सामना किया. हार हो जाने पर रानी पद्मावती एवं सभी स्त्रीयों ने , अत्याचारियों के हाथो इज्ज़त गंवाने के बजाय सामूहिक आत्मदाह कर लिया था. जौहर /सती को सर्वाधिक सम्मान इसी घटना के कारण दिया जाता है.
What Is Jauhar and Why Did Rajput Queens Do It? - The Quintचित्तौड़गढ़, जो जौहर (सति) के लिए सर्वाधिक विख्यात है उसकी महारानी कर्णावती ने भी अपने पति राणा सांगा की म्रत्यु के समय (1528) में जौहर नहीं किया था, बल्कि राज्य को सम्हाला था. महारानी कर्णावती ने सात साल बाद 1535 में बहादुर शाह के हाथो चित्तौड़ की हार होने पर, उससे अपनी इज्ज़त बचाने की खातिर आत्मदाह किया था. औरंगजेब से जाटों की लड़ाई के समय तो जाट स्त्रियों ने युद्ध में जाने से पहले, अपने खुद अपने पति से कहा था कि उनकी गर्दन काटकर जाएँ.
गोंडवाना की रानी दुर्गावती ने भी अपने पति की म्रत्यु के बाद 15 बर्षों तक शासन किया था. दुर्गावती को अपने हरम में डालने की खातिर जालिम मुग़ल शासक "अकबर" ने गोंडवाना पर चढ़ाई कर दी थी. रानी दुर्गावती ने उसका बहादुरी से सामना किया और एक बार मुग़ल सेना को भागने पर मजबूर कर दिया था. दुसरी लड़ाई में जब दुर्गावती की हार हुई तो उसने भी अकबर के हाथ पकडे जाने के बजाय खुद अपने सीने में खंजर मारकर आत्महत्या कर ली थी.
जो स्त्रियाँ अपनी जान देने का साहस नहीं कर सकी उनको मुघलों के हरम में रहना पडा. मुग़ल राजाओं से बिधिवत निकाह करने वाली औरतों के बच्चो को शहजादा और हरम की स्त्रियों से पैदा हुए बच्चो को हरामी कहा जाता था और उन सभी को इस्लाम को ही मानना पड़ता था. जिनके घर की औरते रोज ही इधर-उधर मुह मारती फिरती हों, उन्हें कभी समझ नहीं आ सकता कि - अपने पति के हत्यारों से अपनी इज्ज़त बचाने के लिए, कोई स्वाभिमानी महिला आत्मदाह क्यों कर लेती थी.
जिन माता "सती" के नाम पर, पति की खातिर आत्मडाह करने वाली स्त्री को सती कहा जाता है उन माता सती ने भी अपने पति के जीते जी ही आत्मदाह किया था. सती शिव पत्नी "सती" द्वारा अपने पति का अपमान बर्दास्त नहीं करना और इसके लिए अपने पिता के यग्य को विध्वंस करने के लिए आत्मदाह करना , पति के प्रति "सती" के समर्पण की पराकाष्ठ माना गया था. इसीलिये पतिव्रता स्त्री को सती कहा जाता है. जीवित स्त्रियाँ भी सती कहलाई जाती रही है .
"सती" का मतलब होता है, अपने पति को पूर्ण समर्पित पतिव्रता स्त्री. सती अनुसूइया, सती सीता, सती सावित्री, इत्यादि दुनिया की सबसे "सुविख्यात सती" हैं और इनमें से किसी ने भी आत्मदाह नही किया था. हमें गर्व है भारत की उन महान सती स्त्रियों पर, जो हर तरह से असहाय हो जाने के बाद, अपने पति के हत्यारों से, अपनी इज्ज़त बचाने की खातिर अपनी जान दे दिया करती थीं.

Wednesday, 16 October 2019

मुमताज और ताजमहल


मुमताज महल का जन्म अप्रैल 1593 में आगरा में हुआ था. मुमताज महल का वास्तविक नाम "अर्जुमंद बानो" था. वे शाहजहां के सगे मामा "अब्दुल हसन असफ़ ख़ान" की पुत्री थीं. 19 वर्ष की उम्र में मुमताज का निकाह शाहजहाँ से 10 मई, 1612 को हुआ था.
मुमताज शाहजहाँ की तीसरी पत्नी थी और उनके साथ निकाह हो जाने के बाद भी शाहजहाँ 4 निकाह और किये, जिनमे से एक निकाह तो मुमताज की मौत के बाद शाहजहाँ मुमताज की छोटी बहन से इसलिए किया कि वह मुमताज जैसी लगती थी.
शाहजहां की इतनी सारी बीबिया होने के बाद भी कहा जाता है कि - मुमताज महल शाहजहां की सबसे पसंदीदा पत्नी थी. ऐसा शायद इसलिए भी कहा जाता है कि - 19 साल के दाम्पत्य जीवन में हर साल-डेढ़ साल में एक बच्चे को जन्म देती रहीं थी.
मुमताज की इससे ज्यादा कोई कहानी नहीं है कि - शाहजहां मुमताज से अपनी बाक़ी पत्नियों / रखैलों से ज्यादा प्रेम करता था. वह जब डेक्कन में खानजहां लोदी के विद्रोह को काबू करने के लिए गया था तब भी मुमताज को साथ ले गया था.
लगभग हर साल -डेढ़ साल में बच्चे (कुल 14 बच्चे : 8 लड़के 6 लडकियां) को जन्म देने के कारण मुमताज पहले ही कमजोर हो चुकी थी, इस लम्बी यात्रा ने उसको और भी थका दिया था. 14 वें बच्चे को जन्म देते समय उसकी हालत खराब हो गई.
16 जून, 1631 को उसे प्रसव पीड़ा प्रारम्भ हुई. 30 घंटे असहनीय पीड़ा झेलने के बाद उसने 17 जून, 1631 को बेटी "गौहर आरा" को जन्म दिया और खुद मौत के आगोश में चली गई. मुमताज के शव को ताप्‍ती नदी के किनारे जैनाबाग में दफन कर दिया गया.
इतिहासकार अब्‍दुल हमीद लाहौर और आमिर सालेह ने इस मार्मिक घटना को बादशानामा में दर्ज किया है. दासियों और हकीमो ने शाहजहाँ को कई बार मुमताज की पीड़ा की खबर दी. मगर शाहजहाँ मुमताज के पास नहीं गया. वह रणनीति बनाने में व्यस्त रहा.
12 साल बाद शाहजहाँ ने बुरहानपुर से मुमताज की कब्र को खुदवाकर, उसके अवशेषों को निकवाया और आगरा लाकर दोबारा दफनाया. किसी इंसान की कब्र में से 12 साल बाद क्या निकला होगा इसका अंदाजा तो आप खुद ही लगा सकते हैं.
मुगल इतिहास में बताया गया है कि - मुमताज के उन अवशेसों को आगरा में यमुना के किनारे दुबारा दफनाकर उसके ऊपर ताजमहल भवन का निर्माण कर दिया गया. लेकिन तथ्यों की छानवीन करने और इमारत का विश्लेष्ण करने पर कुछ मतभेद हैं.
आगरा के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी संतानों को बताते आ रहे हैं कि- ताजमहल पहले अग्रेश्वर महादेव का भव्य मंदिर था. मंदिर पर कब्जा करने के लिए मूर्तियों को हटाकर इसमें मुमताज की कब्र से निकाले अवशेष दफनाकर इसको मकबरे का रूप दे दिया.
कुछ दक्षिणपंथी इतिहासकारों ने इस पर काफी शोध किया है और इसको तथ्यों के द्वारा शिव मंदिर साबित किया है, लेकिन उनके इस बिश्लेषण को पुरात्विक मान्यता नहीं मिली है. इन भ्रम को दूर करने के लिए ताजमहल की वैज्ञानिक / पुरात्विक जांच होनी चाहिए.
ताजमहल परिसर में ऐसे कई कमरे और तहखाने हैं जो सैकड़ों साल से बंद पड़े हैं, उनको खुलवाकर उनको भी वैज्ञानिक तरीके से चेक करना चाहिए, उनमे मिलने वाले सामान भी ताजमहल के निर्माण के रहस्य को खोलने में सहायक साबित हो सकते हैं.
ताजमहल परिसर की वैज्ञानिक और पुरात्विक तरीके से जांचकर सही तथ्यों को जनता के सामने रखना बहुत जरुरी है. जिससे विवाद यहीं ख़त्म हो जाए. यदि यह विवाद यूं ही बढ़ता रहा तो एक दिन यह साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने का कारक बन जाएगा.
मुमताज़ और शाजहाँ की सन्तानो के नाम
1. बेटी हुरलनिसा बेग़म (30 मार्च 1613 - 14 जून 1616)
2. बेटी जहाँनारा बेग़म (2 अप्रैल1614 - 16 सितंबर 1681)
3. बेटा दारा शिकोह (30 मार्च, 1615 - 8 सितंबर 1659)
4. बेटा मोहम्मद सुल्तान शाह शुजा बहादुर (3 जुलाई1616 - 1660)
5. बेटी रोशनआरा बेग़म (3 सितंबर 1617 - 1671)
6. बेटा औरंगज़ेब (3 नवंबर, 1618 - 21 फरवरी, 1707)
7. बेटा सुल्तान उम्मीद बख़्श (18 दिसंबर, 1619 - मार्च, 1622)
8. बेटा सुरैय्या बानो बेग़म (10 जून, 1621 - 28 अप्रैल, 1628)
9. बेटी
10 . बेटा सुल्तान मुराद बख़्श (8 सितंबर, 1624 - 14 दिसंबर, 1661)
11 . बेटा सुल्तान लुफ़्ताल्ला (4 नवंबर, 1626 - 14 मई, 1628)
12 . बेटा सुल्तान दौलत अफ़ज़ा (9 मई, 1628 - ?)
13 . बेटी हुस्नारा बेग़म (23 अप्रैल, 1630 - ?)
14 . बेटी गौहर आरा बेग़म (17 जून, 1631 - 1706)

Monday, 14 October 2019

अकबर की लव स्टोरीज

बॉलीबुड ने अपनी फिल्मो में मुग़लों की प्रेम कहानियों को ऐसे दिखाया है जैसे मुग़ल बहुत ही महान प्रेमी और कला प्रेमी हुआ करते थे. जबकि वास्त्विकता या है कि ये केवल ऐय्यास थे और अपनी ऐय्यासी के लिए रिश्ते और आयु का भी मान नहीं करते थे.
अकबर का पहला निकाह :
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10 साल की उम्र में अकबर का पहला निकाह 1552 में उसके अपने चाचा की लड़की रुकैया बेगम से हुआ था
अकबर का दूसरा निकाह :
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15 साल की उम्र में अकबर का दूसरा निकाह 1557 उसके अपने दरबारी अब्दुल्ला ख़ान की लड़की से से हुआ
अकबर का तीसरा निकाह :
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19 साल की आयु में अकबर ने तीसरा निकाह 1561 में सलीमा बेगम से किया. सलीमा बेगम अकबर को राजा बनाने वाले बैरम खां की बेगम थी. सलीमा अकबर से उम्र में बड़ी थी और अकबर की फुफेरी बहन भी थी. इसके अलावा वे उन बैरम खान की पत्नी थी जिसको वह चाचा कहा करता था.
कहा जाता है कि सलीमा ही अकबर का पहला इश्क़ थी और सलीमा को पाने की खातिर ही अकबर ने बैरम खान की हत्या करवा दी थी. इन्ही सलीमा बेगम और बैरम खान का बेटा था - अब्दुल रहीम (अब्दुर्रहीम) ख़ानख़ाना था. यह वही रहीम दास जी हैं जिनके दोहे आप स्कुल में किताबों में पढ़ते आये हैं.
अकबर का चौथा निकाह :
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अकबर ने 20 साल की उम्र में 1562 में चौथा निकाह किया मरियम उज जमानी से हुआ था जिसे स्कूली किताबों और बॉलीबुड फिल्मो में "जोधा बाई" भी बताया गया है. अकबर जोधा की फर्जी प्रेम कहानी पर फिल्म भी बनाई गई है. पहली बात तो यह कि जोधाबाई की कहानी ही झूठ है लेकिन अगर सच भी मान लेते हैं तो वह एक ताकतवर राजा से कमजोर राजा का समझौता मात्र रहा होगा
अकबर का पांचवा निकाह :
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अकबर ने 21 साल की उम्र में 1563 में पांचवा निकाह अपने दरबारी अब्दुल शाद की बीबी दौलत शाद से किया. कहा जाता है कि अब्दुल शाद की बीबी दौलत शाद बहुत ज्यादा खूबसूरत थी. अकबर की निगाह उस पर पद गई तो अकबर ने अब्दुल शाद को बहुत सारा धन देकर उसका तलाक करवाया और फिर उससे निकाह किया
अकबर का छठा निकाह :
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अकबर ने छठा निकाह 1564 में खानदेश की शहज़ादी से किया
अकबर का सातवा निकाह :
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अकबर ने 1569 में सातवा निकाह किया कश्मीर के सुल्तान की लड़की से
इनके साथ आकबर का निकाह हुआ था लेकिन अकबर के हरम में लगभग 500 के आसपास रखैल थी जिनमे से कुछ को खरीदकर और कुछ को लड़ाई में जीत के बाद जीत का ईनाम समझ कर उठा लिया गया था. मुगले आजम में जिस सलीम अनारकली की प्रेम कहानी के खिलाफ अकबर विलेन बना था वह अनारकली भी अकबर की रखैल थी
अगर विदेशी इतिहासकारों की लिखी बातों को माने तो, लिखित इतिहास में अनारकली का पहला जिक्र एक ब्रिटिश घुम्मकड़ व व्यापारी "विलियम फिंच" के संस्मरणों में मिलता है. फिंच ने 1608 से 1611 तक में नील का व्यापार करने के लिये लाहौर की यात्रा की थी. उसने लिखा है कि ‘अनारकली बादशाह अकबर की बीबियों में से एक थी जो अकबर के पुत्र दानियाल शाह की मां थी.
लेखक "नूर अहमद चिश्ती" ने 1860 में अपनी किताब ‘तहक़ीक़ात-ए-चिश्तिया’ में "अनारकली का नाम लिया था. उसने लिखा था कि - ‘अकबर बादशाह की सबसे खूबसूरत और पसंदीदा रखैल अनारकली थी, जिसका असली नाम शरफ़-उन-निस्सा था. अनारकली को बेटे सलीम को अपने इश्क में फंसाने का गुनेहगार मानते हुए अकबर ने, अनारकली की ज़िंदा दीवार में चुनाव दिया था.
अकबर को यह शक हो गया था कि- अनारकली का उसके बेटे सलीम (जो उस वक्त करीब 30 साल का और तीन बच्चों का बाप था ) के साथ नाजायज सम्बन्ध हैं. इसी बात पर अब्राहम रैली ने 2000 में प्रकाशित अपनी किताब "द लास्ट स्प्रिंग: द लाइव्स एंड टाइम्स ऑफ द ग्रेट मुग़लस" में लिखा है - "ऐसा लगता है कि अकबर और सलीम के बीच "ओएडिपालकॉन्फ्लिक्ट"(सौतेली माँ और पुत्र के बीच अवैद्ध सम्बन्ध को लेकर संघर्ष) था.
रैली ने अपनी बात को सिद्ध करने के लिये अब्दुल फजल द्वारा उल्लेखित एक घटना को आधार बनाया है. जिसमे वो लिखते है कि- एक शाम शाही हरम के पहरेदारों ने हरम में पकड़े जाने पर सलीम को पीटा था. कहानी यह बताई जाती है कि- एक पागल शाही हरम में घुस आया था और सलीम उसको पकड़ने के लिए हरम में घुस आया था लेकिन पहरेदारों ने उसी को ही पकड़ लिया था.
यह सुनकर बादशाह अकबर गुस्से में खुद वहां पहुंच गये और तलवार से उसका गला काटने जारहे थे कि उन्होंने सलीम का चेहरा देख कर अपना हाथ रोक लिया. 16वी शताब्दी में जन्मी और मरी अनारकली, 5 शताब्दियों की कहानी की यात्रा में 21वी शताब्दी में अकबर की बीबी से रखैल और फिर अकबर के दरबार की बांदी बन चुकी है.जो सलीम की प्रेमिका बन गई.
आज कई लोग अनारकली को काल्पनिक भी बताते है. लाहौर में अनारकली का मकबरा और उस पर "सलीम" के इश्क में डूबी हुई पंक्तिया सबूत के तौर पर लिखी होने के बाद भी, लोग उसको क्यों भुला देना चाहते हैं ? ऐसा तो नहीं कि- मुग़लिया शासन के दौर के सत्य को शर्मिंदगी से बचाने के लिए अनारकली के अस्तित्व को नकारा जा रहा है ?

जिस तरह से अलाउद्दीन खिलजी ने महारानी पद्मिनी को पाने के लिए चित्तौड़ पर हमला किया था उसी तरह दुष्ट अकबर ने रानी दुर्गावती को पाने के लिए गोंडवाना पर भी हमला किया था. जिस समय अकबर ने दुर्गावती को पाने की खातिर गोंडवाना पर चढाई की थी उस समय रानी दुर्गावती की आयु 40 बर्ष थी और अकबर की मात्र 22 साल. अकबर के एक दरवारी ने जब अकबर से यह कहा कि - वो तो आपके सामने बुढ़िया है तो अकबर का जबाब था कि - मुझे लड़कियों की कमी नहीं है , मुझे तो इन हिन्दुस्थानियों के स्वाभिमान को मसलना है. और ऐसे नीच इंसान को भी कुछ लोग महान कहते हैं. उल्लेखनीय है कि रानी दुर्गावती ने युद्ध में हार के बाद अकबर से बचने के लिए आत्महत्या कर ली थी

Pravesh Bhardwaj
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Thursday, 10 October 2019

दिल्ली का लाल किला


स्कूली किताबों में बताया जाता है कि- दिल्ली को शाहजहां ने बसाया था और उसी ने दिल्ली में लाल किले का निर्माण कराया था. वामपंथी इतिहासकार ऐसे झूठ कैसे बोल लेते हैं, सोंचकर आश्चर्य होता है. दिल्ली कब और कैसे तथा उजड़ी इस पर बाद में विस्तार से लिखूंगा, फिलहाल इस पर संक्षिप्त चर्चा कर "लाल किले" पर मुख्य चर्चा करते हैं.
बताया जाता है कि- अकबर के पोते शाहजहाँ ने अपनी राजधानी को आगरा से दिल्ली स्थानांतरित किया और उसका नाम शाहजहानाबाद रखा, लेकिन यह नहीं बताया जाता है कि- आखिर उसने राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित क्यों किया था ? अगर शाहजहाँ ने ही दिल्ली को बसाया था तो सैकड़ों साल पहले तैमूर ने आखिर किसको लूटा था ?
वास्तविकता यह है कि - दिल्ली का इतिहास बहुत पुराना है. दिल्ली को सबसे पहले इच्छ्वाकू वंश के राजा "महाराज दिलीप" ने बसाया था. उनके नाम से ही इसका नाम "दिल्ली" पडा था. उनके वंशजो द्वारा अपनी राजधानी अयोध्या ले जाने के बाद दिल्ली उजड़ गई, द्वापर युग में पांडवों ने इसे पुनः बसाया और नाम दिया "इन्द्रप्रस्थ".
कालान्तर में दिल्ली और अयोध्या दोनों ही उजड़ गए. तब प्राचीन काहनियों के आधार पर, उज्जैन के राजा वीर विक्रमादित्य ने दिल्ली और अयोध्या को पुनः खोजा और उनको फिर से बसाया. उन्होंने अयोध्या को खुबसुरत नगर बनाया तथा दिल्ली के पास महरोली में विशाल बेधशाला स्थापित की, जहाँ वराहमिहर तारों का अध्ययन करते थे.
उनके कुछ बर्षों के बाद 9 वीं शाताब्दी में, तोमर वंश के राजाओं ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया. तोमर वंश का राज 900 से 1200 ई. तक माना जाता है. यह तोमर राजा अपने आपको अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का वंशज मानते थे. महरोली (लाल कोट) महाराजा अनंगपाल की राजधानी थी. उन्होंने लाल किले के रूप में नई राजधानी बनाना प्रारम्भ किया
परन्तु लाल किला बनाने का पूरा नहीं सका. पहले जयचन्द और पृथ्वीराज के विवाद के कारण और उसके बाद मोहम्मद गौरी के हमले के बाद वहां कुरुबुदीन का राज हो गया. काफी समय तक लालकिला अधूरा पड़ा रहा. लालकिले को बाद में औरंगजेब ने पूरा किया और मुगलों की राजधानी बनाया लेकिन इसे अपने पिता का सपना कहकर प्रचारित किया. 
इसका प्रमाण "तारीखे फिरोजशाही" है. इसके के पृष्ट संख्या 160 (ग्रन्थ-3 ) में लेखक लिखता है कि- सन 1296 के अंत में जब "अलाउद्दीन खिलजी" अपनी सेना लेकर "दिल्ली" आया, तो वह अधूरे पड़े "कुश्क-ए-लाल" ( लाल किला) में ही ठहरा. अकबरनामा और अग्निपुराण में भी लिखा है कि- महाराज अनंगपाल ने एक भव्य "दिल्ली" का निर्माण करवाया था.
अकबरनामा में, 1398 ईस्वी में "तैमूरलंग" द्वारा आलीशान दिल्ली को लूटने का जिक्र है. उसमे लिखा है कि -15 दिनो तक दिल्ली में लूटमार करने के बाद "तैमूर" हरिद्वार को लूटने निकल पडा था. तैमूर का दिल्ली पर हमला शाहजहाँ से लगभग ढाई सौ साल पहले हुआ था. इससे साफ़ पता चलता है कि - दिल्ली और लालकिला शाहजहाँ से पहले भी थे.
शाहजहाँ ने राजधानी, आगरा से दिल्ली लाते समय केवल थोड़े से फेर बदल ही किये थे. लालकिले के एक खास महल मे वराह (सुअर) के मुँह वाले, चार प्राचीन नल आज भी लगे हुए हैं. किले के एक द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति है क्योंकि राजपूत राजा हाथियों के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थे. जबकि इस्लाम जीवित प्राणी के मूर्ति का विरोध करता है.
लालकिला के दीवाने खास मे केसर कुंड नाम का एक कुंड बना हुआ है, जिसके फर्श पर हिंदुओं मे पूज्य कमल पुष्प अंकित है. पूरे लालकिले में कही भी गुंबद या मीनार का कोई अस्तित्व तकनही है जो मुस्लिमों ख़ास प्रिय होते हैं. दीवाने ख़ास और दीवाने आम की मंडप शैली पूरी तरह से 984 ईस्वी के अंबर के भीतरी महल (आमेर-पुराना जयपुर) से मिलती है.
लालकिले से कुछ ही दूरी दो देवालय बने हुए हैं जो कि शाहजहाँ से कई शताब्दी पहले राजपूत राजाओं के बनवाए हुए है. जिनमे से एक लाल जैन मंदिर और दूसरा गौरीशंकार मंदिर है. पुरानी दिल्ली के आसपास की आवादी हिन्दू ही थी / है, जिनके पूर्वज शाहजहा के दिल्ली आने से भी पहले से ही वहां बसे हुए थे.
प्रथ्वी राज चौहान के साथी, कवि चंदबरदाई के प्रशिद्ध ग्रन्थ " प्रथ्वीराज रासो" में लालकिले और पुरानी दिल्ली का जिक्र बारबार आया है. शाहजहाँ काल के केवल एक शिलालेख जिसमे कुछ स्पष्ट भी नहीं है उसके आधार पर वामपंथी इतिहासकारों ने लालकिले को "शाहजहां द्वारा निर्मित करार दे दिया गया है.
"गर फ़िरदौस बरुरुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्ता,हमीं अस्ता, हमीं अस्ता"
अर्थात-- "इस धरती पे अगर कहीं स्वर्ग है तो यही है, यही है, यही है"
इस अनाम शिलालेख के आधार पर लालकिले को शाहजहाँ द्वारा बनवाया साबित करना उन तथाकथित इतिहासकारों की नीयत को प्रदर्शित करता है. जो निर्माताओं के नाम को छुपाते है तथा लुटेरों और विध्वंशको को निर्माता बताते हैं. लालकिले में ही आज भी अनेकों ऐसे प्रमाण है जो चीख-चीख कर इसके लाल कोट होने का प्रमाण देते है.
दरअसल राजा अनंगपाल तोमर की असमय मृत्यु के कारण किले का निर्माण कार्य रुक गया था और किला अधूरा रह गया था. राजा अनंगपाल के कोई बेटा नहीं था बल्कि दो बेटियां थी. बड़ी बेटी का बेटा था कन्नौज का राजा जयचंद और छोटी बेटी का बेटा था अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान. अनंगपाल के बाद पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली का राजा घोषित किया गया परन्तु उनका मौसेरा बड़ा भाई कन्नौज का राजा जयचंद दिल्ली का राजा बनना चाहता था.
कुछ समय तक दिल्ली पृथ्वीराज और जयचंद के विवाद में उलझी रही. इसी बीच मोहम्मद गौरी ने हमला कर दिया. जयचंद को मार दिया गया और पृथ्वी राज को बंदी बना लिया गया। गांधार में पृथ्वीराज और गौरी दोनों मारे गए. अब दिल्ली पर कुतुबुद्दीन का शासन हो गया। उसके बाद के शासक ज्यादातर आंतरिक संघर्षों में उलझे रहे. बाबर अपनी राजधानी आगरा ले गया.
अपने पिता को कैद करने अपर अपने भाइयों और भतीजो की ह्त्या करने के कारण आगरा की जनता ने औरंगजेब को कभी सम्मान नहीं दिया। तब औरंगजेब ने अपनी राजधानी को दिल्ली ले जाने का निर्णय लिया. औरंगजेब दिल्ली वालों को यह जता रहा था कि अपने पिता का कितना आदर करता है और अपने पिता के आदेश पर किले को तैयार कर रहा है.

शाहजाहा आगरा का राजा था. शाह्जहां अपने बाद अपने बड़े बेटे "दारा" को आगरे का राजा बनाना चाहता था. 1652 में शाहजहाँ बहुत ही गंभीर रूप से बीमार हो गया था और ऐसा लगने लगा कि बचना मुश्किल है, तब दारा और औरंगजेब में सत्ता के लिए संघर्ष शुरू हो गया. 1658 में औरंगजेब ने अपने भाई और भतीजों को क़त्ल करके पिता शाहजहाँ को कैद कर दिया. और खुद आगरे का राजा बन गया.

आगरे में औरंगजेब को कभी सम्मान नहीं मिला. तब उसने अपनी राजधानी को दिल्ली ले जाने का निर्णय लिया और पुराने लालकिले का जीर्णोद्धार कराया. आगरा से 21 साल शासन चलाने के बाद औरंगजेब 1679 में अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली ले गया.दिल्ली वालों की नजर में अपने आपको अपने पिता का आज्ञाकारी बेटा साबित करने के लिए ऐसा कर रहा था जबकि उनदिनों उसका बाप आगरे के लालकिले में कैद था और पानी को भी तरस रहा था

Sunday, 6 October 2019

जिन्ना का डायरेक्ट एक्शन और गोपाल पाठा का प्रतिकार

जो एक बार धोखा खा जाये उसे धोखा कहा जा सकता है लेकिन अगर कोई कौम बार बार धोखा खाकर भी वही मूर्खता दोहराता रहे, तो उसे सुतियापा कहते हैं. हिन्दुओ पर यह बात पूरी तरह से लागू होती है. बार बार विधर्मियों के धोखे और अत्याचार झेलने के बाद भी उनसे भाई-चारे की उम्मीद करते रहना मूर्खता नहीं तो और क्या है ?
द्वितीय विश्वयुद्ध भले ही इंग्लैण्ड और उसके मित्र देशों ने जीत लिया था परन्तु विश्वयुद्ध ने अंग्रेजों की कमर तोड़कर रख दी थी. आजाद हिन्द फ़ौज के सेनानियों ने अंग्रेजी सेना को कमजोर बना दिया था, भारत के लोग अपने गाँव कस्बो में भी खुदको आजाद हिन्द फ़ौज का सदस्य करते हुए, अंग्रेजों और उनके भारतीय चमचो पर लगातार हमले कर रहे थे.
भारत का ब्रिटिश शासन से आजाद होना तय हो चुका
था. ऐसे में जिन्ना ने मुसलमानो के लिए अलग देश की मांग को और तेज कर दिया. मुस्लिम लीग के लोग सरे देश में हिन्दुओं और हिन्दुस्थान को लेकर जहर उगलते घूम रहे थे. अंग्रेज सरकार भी ऐसे मुसलमानो को शह दे रही थी कि - जो हिन्दुओं के खिलाफ अनाप शनाप बोल रहे थे.
उस समय बंगाल का मुख़्यमंयत्री था सोहरवर्दी और उसका दाहिना हाथ था शेख मुजीबुर्रहमान, वही शेख मुजीबुर्रहमान जिसको 1971 में उसके सहधर्मी पापीस्तानियों से भारत ने बचाया था. बंगाल की अंग्रेजी पुलिस में 50% मुस्लिम थे. उस समय कोलकाता का मेयर था शरीफ खान, जो केवल नाम का ही शरीफ था काम का नहीं.
24 में से 22 पुलिस मुख्यालयों में मुस्लिम अधिकारी रख दिए गए थे और 2 में भी हिन्दू के बजाय एंग्लो इंडयन को बिठा दिया था. 16 अगस्त को मुस्लिम लीग ने पापिस्तान बनाने के लिए "डायरेक्ट एक्शन" अभियान की घोषणा कर दी, जिन्नाह ने कहा था कि- हमने संवैधानिक रास्ते को छोड़ दिया है हमारी जेब में पिस्तौल है.
16 अगस्त की सुबह मुस्लिम लीग ने विशाल जुलुस निकाला. मुख्यमंत्री सुहरावर्दी के नेतृत्व में विशाल सभा हुई. हर व्यक्ति ने भीड़ को हिन्दुओं के खिलाफ उकसाया. सभा के बाद लौटती हुई मुसलमानो की भीड़ ने हिन्दुओं की दुकानों पर लूटपाट तथा हिन्दुओं की हत्या करना शुरू कर दी. बड़े पैमाने पर आगजनी और बलात्कार किये गए.
हावड़ा में तो दंगाइयों का नेतृत्व ही शरीफ खान कर रहा था. मुख्यमंत्री सुहरावर्दी और गवर्नर ऍफ़. बेरोज मजे से तमाशा देख रहे थे. कुछ ही घंटों में 10 हजार से ज्यादा हिन्दुओं की लाशें सडकों पर पडी थी. कटे पिटे हिन्दुओं की तो कोई गिनती ही नहीं थी. एक लाख से ज्यादा लोग बेघर हो गए, चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था.
स्टेटमैन के संवाद दाता ने इस घटना पर लिखा था कि-- विश्वयुद्ध के अनुभव ने मुझे कठोर बना दिया था, लेकिन इस हत्याकाण्ड ने मुझे भी बिचलित कर दिया है. न यह युद्ध है और न ही यह दंगा है, इसके लिए मध्ययुग से कोई शब्द खोजना होगा. तथाकथित अहिंसावादी महान आत्मा के मुँह से भी उस हत्याकांड के बिरोध में एक शब्द नहीं निकला
दो दिन तक हिन्दुओं का कत्लेआम और बलात्कार चलता रहा. अब हिन्दुओं को समझ आ चूका था कि - ये सब सरकार के इशारे पर हो रहा है इसलिए सरकार से मदद की उम्मीद करने के बजाये खुद ही मुकाबला करना पड़ेगा. हिन्दू महासभा के नेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिन्दुओं से आव्हान किया कि मरना ही है तो लड़कर मरो. उन्होंने कलकत्ता के एक आपराधिक रिकार्ड वाले हिन्दू बाहुवली गोपाल दास मुखर्जी (गोपाल पाठा) से भी मदद मांगी.

गोपाल पाठा, तत्कालीन कलकत्ता का एक मशहूर बाहुबली था, लगभग 800 लड़के उसके आदेश पर मरने-मारने के लिए तैयार रहते थे. उन दिनों कोलकाता में अमेरिकी छावनी भी जिसके नीग्रो सैनिक चोरी से हथियार बेचते थे. गोपाल पाठा ने डा. मुखर्जी से हथियारों के लिए धन की व्यवस्था करने को कहा.  डा. मुखर्जी ने अपने साधनो एवं अनेकों मारवाड़ी व्यापारियों से काफी धन जुटाया.  उस धन से गोपाल पाठा ने अमेरिकी नीग्रोज़ से हथियार खरीदे.  

इसके बाद गोपाल ने दंगाइयों को उन्ही की भाषा में जवाब देना प्रारम्भ किया. देखते ही देखते बंगाल, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हिन्दू सड़कों पर निकल आये और मुसलंमानो द्वारा किये गए उस हत्याकांड की प्रतिक्रिया देने लगे. केवल हिन्दू महासभा और आरएसएस के सदस्य ही नहीं बल्कि कांग्रेस के भी अनेकों हिन्दू साथ आ गए. हत्यारो को ढूढ़ ढूंढ कर निकाल कर सजा दी जाने लगी.

बाजी पलटते ही सरकार भी दंगा रोकने में सक्रीय हो गई और गांधीजी की भी महात्मागिरी जाग उठी. जब तक हिन्दू मरते रहे सरकार और गांधीजी शांत रहे लेकिन जैसे ही इसका उलट होना शुरू हुआ, फौरन वे लोग दंगा रोकने की अपील करने लगे. सरकार ने कई जगहों पर तो हिन्दुओं के ऊपर हेलीकाप्टर से भी फायरिंग की.
उस समय पूर्वी भारत की हिन्दू जनता ने "गोपाल पाठा" को अपना नेता मान लिया. गोपाल पाठा के आदेश पर हर हिन्दू मरने मारने को तैयार था. इधर गांधीजी आमरण अनशन पर बैठ गए और हिन्दुओं से हथियार डालने की अपील करने लगे. गांधी ने खुद दो बार गोपाल पाठा को मिलने के लिए बुलाया मगर वे गांधी से मिलने नहीं गए.
तब एक स्थानीय कांग्रेसी नेता ने गोपालजी से कहा कि - बापू का मान रखने के लिए ही एक दो हथियार उनके सामने डाल दो. इस पर गोपालजी ने कहा - जब हिन्दुओं की हत्या हो रही थी तब आपके बापू कहां थे ? मैंने इन हथियारों से हिन्दुओ की जान और हिन्दू महिलाओं की इज्जत्त की रक्षा की है, इन्हे किसी के पैरों में नहीं डाल सकता।
उसने अपने लडको को स्पष्ट आदेश दिया कि - तुम्हे एक के बदले 10 की हत्या करनी है. दरससल वह दंगा हिन्दुओं को मारकर / भगाकर कलकत्ता को पूर्वी पापिस्तान में मिलाने की साजिश थी. आज अगर कोलकाता भारत में है तो इन्ही गोपाल पाठा के कारण है. अब आप खुद बताइये, हिन्दुओं के लिए गांधी पुज्य्नीय होने चाहिए या गोपाल पाठा ?