लेबनान की बैंकिंग दुनिया की श्रेष्ठ बैंकिंग वस्थाओं में मानी जाती थी और वहां पर तेल न होने के बाबजूद शानदार अर्थव्यवस्था थी. लेबनान का समाज कितनी खुली सोंच वाला था इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 60 के दशक में बहुचर्चित हिंदी फिल्म "एन इवनिंग इन पेरिस' की शूटिंग पेरिस में नहीं बल्कि लेबनान में की गई थी.
60 के दशक के आखिरी बर्षों में वहाँ जेहादी ताकतों ने सिर उठाना शुरू किया और वे लोग लेवनान की ईसाई आवादी के खिलाफ दंगा फसाद करने लगे. 70 में लेबनान ने फिलिस्तीनी शरणार्थियों के लिए दरवाज़े खोल दिए. वो गरीब भूखे फलीस्तीनी शरणार्थी लेवनान के अमीर ईसाईयों के यहाँ नौकरी करने लगे. उन लोगों को सस्ती लेवर मिल गई.
लेकिन कुछ ही साल में फिलिस्तीनी शरणार्थी लेबनान के ईसाईयों को मारने और परेशान करने लगे. लेवनान के मुसलमान जो उन अमीर ईसाईयों से जलते थे, ये देखकर भी खामोश रहे. दंगे फसाद में उन भूखे नंगे शरणार्थी फलीस्तीनियों ने धनवान ईसाईयों कत्लेआम कर दिया. कोई उनको बचाने नहीं आया. लेवनानी इस पर भी खामोश रहे.
लेकिन कुछ ही साल में कटटर पंथी जेहादी लेवनान में हावी हो गए और आज लेवनान की क्या हालत है यह सबको पता ही है. सारा लेवनान कटटरपंथी जेहादियों के कब्जे में हैं. प्रगतिशील लोग मार दिए गए या भगा दिए गए. जिस लेवनान की बराबरी कभी पेरिस से होती थी, आज वह सीरिया, ईराक, नाइजीरिया और सूडान के समकक्ष बन चूका है.
लेबनान के इतिहास से भारत को बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है. *रोहिंग्याओं, बाँग्लादेशी घुसपैठियों* और *सीमान्त प्रदेशों* में पल रहे जेहादियों से सतर्क रहने की ज़रूरत है. ऐसी ताकतों के विरूद्ध एकजुट होइये . इनका समर्थन कर रही पार्टियों , संस्थाओ, औऱ इनसे जुड़े लोगों का बहिष्कार करिये, चुप मत बैठिये.
खुद भी समझिये और दूसरों को भी समझाइये.
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