Thursday, 2 February 2023

हरिशंकर परसाई (22 अगस्त 1924 - 10 अगस्त 1995)

देश आजाद होते ही नेहरु के राज में ऐसा माहौल बनाया गया जिसमे हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के खिलाफ लिखने वाले को ईनाम और सम्मान मिलता था तथा हिन्दूत्व और के समर्थन में लिखने वाले को तरह तरह से प्रताड़ित किया जाता था. उसी राष्ट्रवाद बिरोधी माहौल में एक बहुत सफल लेखक हुए थे, जिनका नाम था "हरिशंकर परसाई".

हरिशंकर परसाई की लेखन शैली और ज्ञान को लेकर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है. वे बहुत बड़े विद्वान् थे लेकिन उन्होंने अपने ज्ञान और व्यंग्य लेखन क्षमता का सारा इस्तेमाल केवल हिन्दुओं की मान्यताओं का मजाक बनाने में किया. हरिशंकर परसाई ने अपने व्यंग्य में हिन्दू धर्मग्रंथों और देवी -देवताओं का भी मजाक बनाया.

हिन्दुओं के देवी देवताओं का मजाक उड़ाने वाले हरिशंकर परसाई की कभी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि कभी अपने व्यंग्य में किसी अन्य धर्म की किताब, मान्यता या महापुरुष का मजाक उड़ा पाते. उस जमाने में सत्ता पर हिन्दू बिरोधियों का कब्ज़ा था और हिन्दूवादी काफी कमजोर थे इसलिए वे और उनके जैसे लेखक काफी मनमानी करते रहे.

अपने हिन्दू बिरोधी लेखन के कारण वे हमेशा सेकुलर सरकार और सेकुलर अधिकारियों के कृपा पात्र बने रहे. अंग्रेजों के समय में भी उनपर अंग्रेजी सरकार की कृपा बनी रही. 18 साल की आयु में ही उनको 1942 में उनको वनविभाग में सरकारी नौकरी मिल गई. सरकारी नौकरी करते करते ही उन्होंने शौकिया तौर पर लिखना शुरू कर दिया.

1957 में वे नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक लेखक बन गए. वे कई पत्र पत्रिकाओं में कालम लिखने लगे. जिनमे नई दुनिया में 'सुनो भइ साधो', नयी कहानियों में 'पाँचवाँ कालम' और 'उलझी–उलझी' तथा कल्पना में 'और अन्त में' इत्यादि जबलपुर व रायपुर से प्रकाशित अखबार देशबंधु में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे.

उनके कालम का नाम था - "पूंछो परसाई से" . इसके अलावा जबलपुर से 'वसुधा' नाम की साहित्यिक मासिकी निकाली. उनके हिन्दू बिरोधी लेखन को अंग्रेज और वामपंथियों के साथ साथ अंग्रेज टाइप भारतीय भी बहुत पसंद करते थे. उस दौर में हिन्दू बिरोधी लेखन, लेखक के रूप में सफल होने की गारंटी माना जाता था.

हरिशंकर परसाई ने राष्ट्रवादियों पर भ्रम फैलाते हुए व्यंग्य किया था कि- आजादी के बाद तो बहुत भारत माता की जय करते हैं लेकिन आजादी से पहले क्या करते थे ? लेकिन अपने खुद के बारे में यह नहीं बताया कि- 1942 में जहाँ देश के युवा आजादी की लड़ाई लड़ थे वहीँ इन्होने 1942 में खुद अंग्रेजों की नौकरी ज्वाइन की थी.

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