Monday, 27 August 2018

राजमाता कर्णावती की राखी और हुमायूं द्वारा चित्तौड़ की मदद का झूठ

हमारे इतिहास में मुघलों को महान दिखाने वाली, कैसी कैसी झूठी कहानिया भर दी गई हैं कि- बचपन से स्कूल में पढ़ते आने के कारण हम सहज ही उन बातों पर विशवास कर लेते हैं. ऐसी ही एक झूठी कहानी है कि - बहादुर शाह के मेवाड़ पर हमले के समय, राजमाता कर्णावती ने हुमायूं को राखी भेजी और हुमायूं ने मेवाड़ की मदद की.
जबकि वास्तविकता यह है कि - महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) के शासन काल के समय सभी मुस्लिम हमलावर और शासक ( बाबर, इब्राहिम लोदी, बहादुर शाह, आदि) मेवाड़ के राजपूत राजाओं से दुश्मनी रखते थे और अपनी जीत तथा इस्लाम के प्रचार प्रसार में उनको ही अपनी सबसे बड़ी बाधा मानते थे.
राणा सांगा ने मेवाड़ पर 1509 से 1527 तक शासन किया. इन 18 बर्षो के शासन में उन्होंने दिल्ली, गुजरात, मालवा एवं मुगल आक्रमणकारियों के आक्रमणो से अपने राज्य की ऱक्षा की. उन्होंने कुल 18 बड़े युद्ध लड़े थे. अप्रेल 1527 में बाबर के साथ हुई खानवा की लड़ाई में, कुछ गद्दारों के कारण राणा सांगा की हार हुई थी.
राणा सांगा ने दोबारा युद्ध की घोषणा की, लेकिन कुछ गद्दारों ने उनके भोजन में विष मिलाकर उनकी हत्या कर दी. युद्ध में जीत के बाद बाबर ने हिन्दुओं का भयानक कत्लेआम किया. उसने हिन्दुओं के कटे हुए सिरों का एक पिरामिड बनवाया. खानवा की जीत के बाद बाबर ने खुद को "गाज़ी" का खिताब दे दिया.
राणा सांगा की म्रत्यु के बाद राजमाता कर्णावती ने अपने दोनों बच्चो ( विक्रमादित्य और उदय सिंह ) में से बड़े बेटे विक्रमादित्य को राजा घोषित किया और खुद मेवाड़ का शासन सम्हाल लिया. परन्तु अब मेबाड़ को अनाथ समझकर मालवा का राजा बहादुर शाह और बाबर दोनों ही मेबाड़ पर कब्जा करने की कोशिश में लग गए थे.
इसी बीच 27 दिसंबर 1530 को बाबर की आगरा में मौत हो गई और उसकी जगह उसके बेटे हुमायूँ ने सत्ता सम्हाल ली. अब हुमायूं भी अपनी ताकत बढाने लगा. पहले उसने 1531 में कालिंजर के शासक "रूद्र प्रताप" से संधि की और उनके सहयोग से 1532 में लखनऊ के पास (सईं नदी के पास) महमूद लोदी को पराजित किया.
चुनार का युद्ध जीतने के बाद "हुमायूं" ने दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया. अब उसकी नजर मेवाड़ पर थी. मालबा का राजा बहादुर शाह भी मेवाड़ पर कब्ज़ा करना चाहता था. चित्तौड़गढ़ में किशोर राणा विक्रमादित्य के नाम पर राजमाता कर्णावती शासन कर रहीं हैं. बहादुर शाह ने चित्तौड़ के चारो ओर घेरा डाल दिया.
राणा सांगा की मौत के बाद मेबाड़ की सैन्य शक्ति काफी कमजोर हो चुकी थी. लेकिन राजमाता ने झुकने के बजाय दुश्मनों से संघर्ष करने का रास्ता चुना. राजमाता के ऊपर मेवाड़ के अलावा विक्रमादित्य और उदयसिंह की भी जिम्मेदारी थी. बहादुर शाह को चित्तौड़ में उलझा देखकर हुमायु भी मालबा पर हमला करने के लिए निकल पड़ा.
हुमायूं अभी सारंगपुर में ही था तभी उसे बहादुर शाह का सन्देश मिला, जिसमें उसने लिखा था - " चित्तौड़ के विरुद्ध मेरा यह अभियान विशुद्ध जेहाद है. जब तक मैं काफिरों के विरुद्ध जेहाद पर हूँ, तब तक आपके द्वारा मुझपर हमला करना गैर-इस्लामिल है. अतः हुमायूँ को चाहिए कि- वह अपना मालवा अभियान रोक दे".
राजमाता कर्णावती ने कुछ राजपूत नरेशों से सहायता मांगी. कुछ पड़ोसी राजा ( बूंदी नरेश) उनकी मदद को आये भी मगर ज्यादातर राजाओं ने साथ देने से इनकार कर दिया. कुछ राजपूत योद्धाओं ने रात के अँधेरे में बालक युवराज उदयसिंह को चितातौड़ से निकालकर गुप्त रास्ते से पन्ना धाय के साथ बूंदी पहुंचा दिया.
कहा जाता है कि- जब राजमाता कर्णावती को हुमायूं द्वारा मालवा पर हमला करने जाने की खबर मिली तो उन्होंने "हुमायु" को सन्देश भेजा था, जिसमे उन्होंने सामूहिक दुश्मन बहादुर शाह के खिलाफ हुमायूं के अभियान में अपना सहयोग देने की बात कही थी. इसी सन्देश को राजमाता द्वारा हुमायूं को राखी भेजकर मदद माँगना प्रचारित किया गया.
अगर इसे राजमाता द्वारा राखी भेजकर हुमायूं से मदद मांगना मान भी ले, तो भी हुमायूं ने राजमाता की कोई मदद नहीं की थी. हुमायूं ने उस युद्ध में शामिल होने के बजाय सारंगपुर में बैठकर राजपूतों और बहादुर शाह के युद्ध के परिणाम को देखना ज्यादा उचित समझा. अब राजपूतों के पास एक ही विकल्प बचा था - शाका और जौहर.
8 मार्च 1535 को राजपूत योद्धा केसरिया पगड़ी बांधे शाका के लिए किले से बाहर निकल पड़े. बहादुर शाह की सेना के सामने, राजपूतो योद्धाओं की संख्या बहुत कम थी, लेकिन दो घंटे तक चले इस युद्ध में राजपूत योद्धाओं ने अपने से चार गुना ज्यादा दुश्मनों को मारा. इधर किले के भीतर राजपूतानियों ने राजमाता के नेत्रत्व में जौहर कर लिया.
किले के बाहर राजपूत योद्धाओं का रक्त बिखरा हुआ था और किले के भीतर स्वाभिमानी हिन्दू महिलाओं के जीवित जलने की महक आ रही थी. युद्ध में जीत के बाद बहादुरशाह ने अगले तीन दिन तक चित्तौड़ दुर्ग और उसके आसपास भयानक लूटपाट की. सारे चित्तौड़ को बुरी तरह से तहस नहस कर दिया गया
असैनिक कार्य करने वाले लुहार, कुम्हार, पशुपालक, व्यवसायी, इत्यादि पकड़ पकड़ कर काट डाला. उनकी स्त्रियों की इज्जत को लूटी गई. उनके बच्चों को भाले की नोक पर टांग कर खेल खेला गया. जिस हुमायूं को राखी का बचन निभाने वाला बताया जाता है, वह हुमायूं सारंगपुर में बैठा हुआ इस जेहाद को मजे से देख रहा था.
इस लड़ाई के बाद चित्तौड़ पर बहादुर शाह का कब्ज़ा हो गया. यहाँ एक बात बताना और जरुरी है. सती प्रथा के लिए अक्सर हिन्दुओं पर इल्जाम लगाया जाता है कि - पति के मरने पर पत्नी को जिन्दा जला दिया जाता था. यह भी उतना ही झूठ है जितना हुमायूं द्रारा राजमाता कर्णावती कोबहन मानकर मदद करना.
महराणा सांगा की म्रत्यु अप्रेल 1527 में हुई थी. अगर विधवा होने पर सती होने की परम्परा होती, तो वे उस समय सती हो गई होतीं. लेकिन उन्होंने 1527 से 1535 तक मेवाड़ पर राज किया. बहादुर शाह के हमले में पराजित होने के बाद उसके हाथों से अपनी इज्ज़त लुटने से बचाने के लिए 1535 में आत्मदाह (जौहर) किया था.
चित्तौड़ को जीतने के बाद बहादुर शाह वापस मालवा चला गया. हुमायूं और बहादुरशाह के बीच लड़ाई, इसके कई माह बाद सितम्बर 1535 में हुई थी, वह भी चित्तौड़ में नहीं बल्कि मंदसौर में. मंदसौर की इस लड़ाई में हुमायूं ने बहादुर शाह को पराजित किया था. इसी लड़ाई को राजमाता कर्णावती की खातिर लड़ी गई लड़ाई कहकर प्रचारित किया गया.
इसलिए याद रहे भारत की मिट्टी देशभक्तों के खून से आज भी सनी हुई है, देश की हवाओं में वीरान्गनाओं के जीवित जलने की महक आज भी विधमान है. इसलिए अत्याचारियों के चापलूसों द्वारा फैलाई गई झूठी कहानियों के षड्यंत्र में फंसकर उन अत्याचारियों को महान समझने की भूल कदापि मत कर बैठना. वे हमलावर नीच ही थे.

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