Wednesday, 29 August 2018

पानीपत का तीसरा युद्ध और "NOTA"

आज मकर संक्रांति का दिन है. यह भारत का बहुत बड़ा पर्व है जो किसी किसी न किसी रूप में सारे भारत में मनाया जाता है. इस दिन का एक और भी महत्त्व है. आज के दिन (14 जनवरी) ही सन 1661 में पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई थी. उत्तर भारतीय राजाओं द्वारा मराठों का साथ न देने के कारण इसमें अब्दाली की जीत हुई थी.
शिवाजी महाराज के समय से ही मराठा शक्ति का उदय हो चूका था जिसे पेशवा बाजीराव ने बहुत आगे बढाया था. मुघलो कि शक्ति बहुत क्षीण हो चुकी थी. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, ब्रज प्रदेश, मालवा, बुंदेलखंड, उडीसा, आदि की भी जियादातर रियासते अपने आपको मुघलों के प्रभुत्व से आजाद कर चुकी थी
ऐसे समय में अफगानिस्तान का शासक बना अहेमद शाह दुर्रानी, जिसको अहेमद शाह अब्दाली भी कहा जाता है. अब्दाली बहुत विशाल सेना लेकर भारत पर हमला करने निकल पड़ा. उत्तर भारत में उस समय हिन्दू राजाओं की छोटी छोटी रियासतें थीं. अहेमद शाह अब्दाली का सामना करना उनके अकेले के बस की बात नहीं थी.
तब पेशवा बालाजी बाजीइराव (नाना साहब प्रथम) ने सदाशिव राव भाऊ को एक मजबूत सेना देकर अब्दाली का सामना करने भेजा. उनकी रणनीति थी कि -अब्दाली को दिल्ली पहुँचने से पहले रोका जाए. इसके अलावा नाना साहब ने उत्तर भारत से सभी हिन्दू राजाओं को सन्देश भेजा कि - मिलकर अब्दाली का सामना किया जाये.
लेकिन पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हिन्दू राजाओं को लगा कि - अगर मराठे अब्दाली को हराने में कामयाब हो गए तो उत्तर भारत में भी उनका प्रभुत्व बढ़ जाएगा. उत्तर भारत के राजाओं ने अब्दाली और मराठों की लड़ाई से तटस्थ रहने का फैसला कर लिया. जिसे आज की भाषा में नोट दबाना कह सकते हैं.
Image may contain: 2 people, beardअवध के नबाब शुजाजुद्दौला ने इस्लाम की रक्षा के लिए काफिरों से जेहाद घोषित कर दिया. शुजाजुद्दौला ने - मुस्लिम रियासतों से आव्हान किया कि - आलमगीर (औरंगजेब) के न रहने के बाद, काफिरों का जोर बढ़ गया है ऐसे में अहमद शाह अब्दाली इस्लाम का रक्षक बन कर आ रहा है. हम सभी को उसका साथ देना चाहिए.
देखते ही देखते छोटी बड़ी मुस्लिम राजाओं और नबाबों की सेना अब्दाली का साथ देने को निकल पडी. अब्दाली के पास 60,000 की सेना थी और पेशवा के पास पास लगभग 40,000. पेशवा को उम्मीद थी कि - राजपूत, जाट, सिक्ख एवं स्थानीय हिन्दू उनका साथ देंगे लेकिन इन सब ने पानीपत की लड़ाई से किनारा कर लिया.
स्थानीय हिन्दू राजाओं ने उनको साथ देना तो दूर भोजन और गर्म कपडे तक उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया.पानीपत की वह लड़ाई 14 जनवरी 1761 मकरसंक्रांति के बेहद सर्द दिन लड़ी गई थी. महाराष्ट्र / गुजरात / मध्य प्रदेश के रहने वाले मराठा उस ठण्ड के आदी नहीं थे और न ही उनके पास गर्म कपडे थे.

"अहेमद शाह अब्दाली" ने महाराष्ट्र में नहीं बल्कि पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश में भयानक कत्लेआम किया था. अपने पिछले आक्रमणों में उसने कुरुक्षेत्र, पेहोवा, दिल्ली, मथुरा, वृन्दावन, आगरा आदि में कत्लेआम किया था और मंदिर तोड़े थे. यहीं की औरतों के साथ बलात्कार किया. लेकिन उससे लड़ रहे थे मराठा और यहाँ वाले देख रहे थे तमाशा

इसके विपरीत अब्दाली द्वारा जेहाद का नारा देते ही अवध का नवाव सुजा उद दौला, रोहिलखण्ड का नबाब नजीबुद्दीन एवं स्थानीय छोटी छोटी मुस्लिम रियासते और जागीरदार अब्दाली के साथ मिल गये. अब्दाली की साठ हजार की सेना सवा लाख हो गई. और 40,000 मराठा सैनिक खाली पेट युद्ध लड़ रहे थे. परिणाम आपको पता ही है.
भूखे पेट और बिना गर्म कपड़ों के सर्द मौसम में लड़ाई लड़ते हुए मराठों ने अब्दाली को कड़ी टक्कर दी. इस लड़ाई सदाशिवराव भाऊ, पेशवा बालाजी बाजीराव के पुत्र विश्वासराव, ग्वालियर के राजघराने के जानकोजी शिंदे और तुकोजी शिंदे ( सिंधिया ), इंदोर राजघराने के होल्कर, धार और देवास घराने के यशवंतराव पवार आदि ने अपना बलिदान दिया.
पानीपत की इस लड़ाई में मराठा सेना की करारी हार हुई. जो हिन्दू राजा यह सोंचते हुए लड़ाई से अलग हो गए थे कि - यह तो मराठों और अब्दाली की लड़ाई है सबसे ज्यादा नुकशान उनका ही हुआ. पानीपात की लड़ाई जीतने के बाद अब्दाली ने उस इलाके में भयानक कत्लेआम किया, मंदिर तोड़े और महिलाओं की इज्ज़त लूटी.
"अहेमद शाह अब्दाली" ने महाराष्ट्र में नहीं बल्कि पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश में भयानक कत्लेआम किया. कुरुक्षेत्र, पेहोवा, दिल्ली, मथुरा, वृन्दावन, आदि के मंदिर तोड़े. यहीं की औरतों के साथ बलात्कार किया और अपने साथ गुलाम बनाकर ले गया. जबकि महाराष्ट्र वालों का वो कुछ नुकशान नहीं कर सका.
पानीपत का युद्ध जीतने के बाद अब्दाली और भारत के स्थानीय मुसलमानों ने मराठों से ज्यादा स्थानीय हिन्दुओं और सिक्खों को नुकशान पहुंचाया था. याद रखिये जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते है वो मिट्टी में मिल जाते हैं. धर्मयुद्ध में कोई तटस्थ नहीं रह सकता, जो धर्म के साथ नहीं वह धर्म के बिरुद्ध माना ही जाएगा.
आज के नोटा छाप हिन्दुओं को भी इससे सबक लेना चाहिए. आज भी यही हो रहा है. देश भर के 99% मुसलमान भाजपा के खिलाफ एक जुट है और हिन्दू नोटा नोटा खेलने में व्यस्त है.

Monday, 27 August 2018

राजमाता कर्णावती की राखी और हुमायूं द्वारा चित्तौड़ की मदद का झूठ

हमारे इतिहास में मुघलों को महान दिखाने वाली, कैसी कैसी झूठी कहानिया भर दी गई हैं कि- बचपन से स्कूल में पढ़ते आने के कारण हम सहज ही उन बातों पर विशवास कर लेते हैं. ऐसी ही एक झूठी कहानी है कि - बहादुर शाह के मेवाड़ पर हमले के समय, राजमाता कर्णावती ने हुमायूं को राखी भेजी और हुमायूं ने मेवाड़ की मदद की.
जबकि वास्तविकता यह है कि - महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) के शासन काल के समय सभी मुस्लिम हमलावर और शासक ( बाबर, इब्राहिम लोदी, बहादुर शाह, आदि) मेवाड़ के राजपूत राजाओं से दुश्मनी रखते थे और अपनी जीत तथा इस्लाम के प्रचार प्रसार में उनको ही अपनी सबसे बड़ी बाधा मानते थे.
राणा सांगा ने मेवाड़ पर 1509 से 1527 तक शासन किया. इन 18 बर्षो के शासन में उन्होंने दिल्ली, गुजरात, मालवा एवं मुगल आक्रमणकारियों के आक्रमणो से अपने राज्य की ऱक्षा की. उन्होंने कुल 18 बड़े युद्ध लड़े थे. अप्रेल 1527 में बाबर के साथ हुई खानवा की लड़ाई में, कुछ गद्दारों के कारण राणा सांगा की हार हुई थी.
राणा सांगा ने दोबारा युद्ध की घोषणा की, लेकिन कुछ गद्दारों ने उनके भोजन में विष मिलाकर उनकी हत्या कर दी. युद्ध में जीत के बाद बाबर ने हिन्दुओं का भयानक कत्लेआम किया. उसने हिन्दुओं के कटे हुए सिरों का एक पिरामिड बनवाया. खानवा की जीत के बाद बाबर ने खुद को "गाज़ी" का खिताब दे दिया.
राणा सांगा की म्रत्यु के बाद राजमाता कर्णावती ने अपने दोनों बच्चो ( विक्रमादित्य और उदय सिंह ) में से बड़े बेटे विक्रमादित्य को राजा घोषित किया और खुद मेवाड़ का शासन सम्हाल लिया. परन्तु अब मेबाड़ को अनाथ समझकर मालवा का राजा बहादुर शाह और बाबर दोनों ही मेबाड़ पर कब्जा करने की कोशिश में लग गए थे.
इसी बीच 27 दिसंबर 1530 को बाबर की आगरा में मौत हो गई और उसकी जगह उसके बेटे हुमायूँ ने सत्ता सम्हाल ली. अब हुमायूं भी अपनी ताकत बढाने लगा. पहले उसने 1531 में कालिंजर के शासक "रूद्र प्रताप" से संधि की और उनके सहयोग से 1532 में लखनऊ के पास (सईं नदी के पास) महमूद लोदी को पराजित किया.
चुनार का युद्ध जीतने के बाद "हुमायूं" ने दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया. अब उसकी नजर मेवाड़ पर थी. मालबा का राजा बहादुर शाह भी मेवाड़ पर कब्ज़ा करना चाहता था. चित्तौड़गढ़ में किशोर राणा विक्रमादित्य के नाम पर राजमाता कर्णावती शासन कर रहीं हैं. बहादुर शाह ने चित्तौड़ के चारो ओर घेरा डाल दिया.
राणा सांगा की मौत के बाद मेबाड़ की सैन्य शक्ति काफी कमजोर हो चुकी थी. लेकिन राजमाता ने झुकने के बजाय दुश्मनों से संघर्ष करने का रास्ता चुना. राजमाता के ऊपर मेवाड़ के अलावा विक्रमादित्य और उदयसिंह की भी जिम्मेदारी थी. बहादुर शाह को चित्तौड़ में उलझा देखकर हुमायु भी मालबा पर हमला करने के लिए निकल पड़ा.
हुमायूं अभी सारंगपुर में ही था तभी उसे बहादुर शाह का सन्देश मिला, जिसमें उसने लिखा था - " चित्तौड़ के विरुद्ध मेरा यह अभियान विशुद्ध जेहाद है. जब तक मैं काफिरों के विरुद्ध जेहाद पर हूँ, तब तक आपके द्वारा मुझपर हमला करना गैर-इस्लामिल है. अतः हुमायूँ को चाहिए कि- वह अपना मालवा अभियान रोक दे".
राजमाता कर्णावती ने कुछ राजपूत नरेशों से सहायता मांगी. कुछ पड़ोसी राजा ( बूंदी नरेश) उनकी मदद को आये भी मगर ज्यादातर राजाओं ने साथ देने से इनकार कर दिया. कुछ राजपूत योद्धाओं ने रात के अँधेरे में बालक युवराज उदयसिंह को चितातौड़ से निकालकर गुप्त रास्ते से पन्ना धाय के साथ बूंदी पहुंचा दिया.
कहा जाता है कि- जब राजमाता कर्णावती को हुमायूं द्वारा मालवा पर हमला करने जाने की खबर मिली तो उन्होंने "हुमायु" को सन्देश भेजा था, जिसमे उन्होंने सामूहिक दुश्मन बहादुर शाह के खिलाफ हुमायूं के अभियान में अपना सहयोग देने की बात कही थी. इसी सन्देश को राजमाता द्वारा हुमायूं को राखी भेजकर मदद माँगना प्रचारित किया गया.
अगर इसे राजमाता द्वारा राखी भेजकर हुमायूं से मदद मांगना मान भी ले, तो भी हुमायूं ने राजमाता की कोई मदद नहीं की थी. हुमायूं ने उस युद्ध में शामिल होने के बजाय सारंगपुर में बैठकर राजपूतों और बहादुर शाह के युद्ध के परिणाम को देखना ज्यादा उचित समझा. अब राजपूतों के पास एक ही विकल्प बचा था - शाका और जौहर.
8 मार्च 1535 को राजपूत योद्धा केसरिया पगड़ी बांधे शाका के लिए किले से बाहर निकल पड़े. बहादुर शाह की सेना के सामने, राजपूतो योद्धाओं की संख्या बहुत कम थी, लेकिन दो घंटे तक चले इस युद्ध में राजपूत योद्धाओं ने अपने से चार गुना ज्यादा दुश्मनों को मारा. इधर किले के भीतर राजपूतानियों ने राजमाता के नेत्रत्व में जौहर कर लिया.
किले के बाहर राजपूत योद्धाओं का रक्त बिखरा हुआ था और किले के भीतर स्वाभिमानी हिन्दू महिलाओं के जीवित जलने की महक आ रही थी. युद्ध में जीत के बाद बहादुरशाह ने अगले तीन दिन तक चित्तौड़ दुर्ग और उसके आसपास भयानक लूटपाट की. सारे चित्तौड़ को बुरी तरह से तहस नहस कर दिया गया
असैनिक कार्य करने वाले लुहार, कुम्हार, पशुपालक, व्यवसायी, इत्यादि पकड़ पकड़ कर काट डाला. उनकी स्त्रियों की इज्जत को लूटी गई. उनके बच्चों को भाले की नोक पर टांग कर खेल खेला गया. जिस हुमायूं को राखी का बचन निभाने वाला बताया जाता है, वह हुमायूं सारंगपुर में बैठा हुआ इस जेहाद को मजे से देख रहा था.
इस लड़ाई के बाद चित्तौड़ पर बहादुर शाह का कब्ज़ा हो गया. यहाँ एक बात बताना और जरुरी है. सती प्रथा के लिए अक्सर हिन्दुओं पर इल्जाम लगाया जाता है कि - पति के मरने पर पत्नी को जिन्दा जला दिया जाता था. यह भी उतना ही झूठ है जितना हुमायूं द्रारा राजमाता कर्णावती कोबहन मानकर मदद करना.
महराणा सांगा की म्रत्यु अप्रेल 1527 में हुई थी. अगर विधवा होने पर सती होने की परम्परा होती, तो वे उस समय सती हो गई होतीं. लेकिन उन्होंने 1527 से 1535 तक मेवाड़ पर राज किया. बहादुर शाह के हमले में पराजित होने के बाद उसके हाथों से अपनी इज्ज़त लुटने से बचाने के लिए 1535 में आत्मदाह (जौहर) किया था.
चित्तौड़ को जीतने के बाद बहादुर शाह वापस मालवा चला गया. हुमायूं और बहादुरशाह के बीच लड़ाई, इसके कई माह बाद सितम्बर 1535 में हुई थी, वह भी चित्तौड़ में नहीं बल्कि मंदसौर में. मंदसौर की इस लड़ाई में हुमायूं ने बहादुर शाह को पराजित किया था. इसी लड़ाई को राजमाता कर्णावती की खातिर लड़ी गई लड़ाई कहकर प्रचारित किया गया.
इसलिए याद रहे भारत की मिट्टी देशभक्तों के खून से आज भी सनी हुई है, देश की हवाओं में वीरान्गनाओं के जीवित जलने की महक आज भी विधमान है. इसलिए अत्याचारियों के चापलूसों द्वारा फैलाई गई झूठी कहानियों के षड्यंत्र में फंसकर उन अत्याचारियों को महान समझने की भूल कदापि मत कर बैठना. वे हमलावर नीच ही थे.

Thursday, 9 August 2018

डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार

डा. हेडगेवार का जन्म भारतीय कैलेण्डर के अनुसार वर्ष प्रतिपदा के दिन हुआ था. डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं प्रचण्ड क्रान्तिकारी थे. वे डॉक्टरी पढ़ने के लिये कलकत्ता गये और वहाँ से उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से प्रथम श्रेणी में डॉक्टरी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की, परन्तु घर वालों की इच्छा के विरुद्ध देश-सेवा के लिए नौकरी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया.
केशव चूँकि कलकत्ता में अपने बडे भाई महादेव के मित्र श्याम सुन्दर चक्रवर्ती के घर रहते थे अत: वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें केशव चक्रवर्ती के नाम से ही जानते व सम्बोधित करते थे. केशव बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी विचारों के थे. कलकत्ते में पढाई करते हुए उनका मेल-मिलाप बंगाल के क्रान्तिकारियों से हुआ. उनकी असाधारण योग्यता को मद्देनजर रखते हुए उन्हें अनुशीलन समिति का अन्तरंग सदस्य भी बना लिया गया.
उनकी तीव्र नेतृत्व प्रतिभा को देख कर उन्हें हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष बनाया गया. लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद केशव कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में काम करते रहे. सन् 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में लखनऊ गये, वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क में आये. गांधीजी के अहिंसक असहयोग आन्दोलन / सविनय अवज्ञा आन्दोलनों में भाग लिया.
भारत में गांधी के बाद से ही मुस्लिम सांप्रदायिकता ने अपना सिर उठाना प्रारंभ कर दिया था. 1920ई. में अंग्रेजो ने तुर्की के सुल्तान को गद्दी से उतार दिया, उसके बिरोध में भारत में जगह-जगह आन्दोलन हुए. अंग्रेजों के सामने तो मुसलमानों की चली नहीं, लेकिन उन्होंने मुस्लिम बहुसंख्यक इलाकों में इसका गुस्सा असहाय हिन्दू जनता पर निकाला. बड़ी संख्या में हिंदुओं का कत्ल हुआ और स्त्रियों की इज्जत लूटी गई.
मालाबार, मुल्तान, कोहाट, आदि में हजारों हिन्दू मारे गए, लेकिन कांग्रेस उस हिंसा पर खामोश बनी रही. इस घटना ने उन्हें बिचलित कर दिया था. मालाबार हिंसा पर कांग्रेस के दोगलेपन को देखते उहोने कांग्रेस छोड़ दी और तो आजाद जी के गुट से भी जुड़े. यहाँ उनका क्षद्म नाम केशव चक्रवर्त्ती था. काकोरी ट्रेन काण्ड (9 अगस्त -1925) के फरार आरोपी केशव चक्रवर्त्ती कोई और नहीं बल्कि डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार जी ही थे.
काकोरी ट्रेन कांड में चार क्रांतिकारियों ( राम प्रसाद विस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह) को फांसी की सजा सुनाई गई थी. 19 दिसम्बर 1927 को उन सभी को फांसी होनी थी. सभी फरार क्रांतिकारी किसी तरह उनको बचाना चाहते थे. केशव चक्रवर्ती के नेत्रत्व में बंगाल के क्रान्तिकारियो के फैजाबाद पहुँचने की खबर मिलने पर अंग्रेजों ने "राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी" को दो दिन पहले 17 दिसंबर को फांसी दे दी थी.
इसी बीच उनको मालाबार (केरल) जाने का अवसर मिला. बहा हिन्दुओं की हुई दुर्दशा को देखकर उन्होंने समझ लिया कि हिन्दूओं एकता ही उनकी सुरक्षा कर सकती है. उन्होंने एक हिंदू-मिलीशिया बनाने का निर्णय लिया. प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की असफल क्रान्ति और तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक अर्ध-सैनिक संगठन की नींव रखी. उन्होंने व्यक्ति की क्षमताओं को उभारने के लिये नये तरीके विकसित किये.
इस प्रकार 28/9/1925 (विजयदशमी दिवस) को डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे, उनके शिष्य डॉ. हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक क्लब की नींव डाली, जिसका नाम कालांतर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ हो गया. इस मिलीशिया का आधार बना - वीर सावरकर का राष्ट्र दर्शन ग्रन्थ (हिंदुत्व) जिसमे हिंदू की परिभाषा यह की गई थी कि - “भारत के वह सभी लोग हिंदू हैं जो इस देश को पितृभूमि-पुण्यभूमि मानते हैं”.
इनमे सनातनी, आर्यसमाजी, जैन , बौद्ध, सिख आदि पंथों एवं धर्म विचार को मानने वाले व उनका आचरण करने वाले समस्त जन को हिंदू के व्यापक दायरे में रखा गया था. मिलीशिया को खड़ा करने के लिए स्वंयसेवको की भर्ती की जाने लगी, सुबह व शाम एक-एक घंटे की शाखायें लगाई जाने लगी. इसे सुचारू रूप से चलाने के लिए शिक्षक, मुख्य शिक्षक, घटनायक आदि पदों का सृजन किया गया.
इन शाखायों में व्यायाम, शरारिक श्रम, हिंदू राष्ट्रवाद की शिक्षा के साथ- साथ वरिष्ठ स्वंयसेवकों को सैनिक शिक्षा भी दी जानी तय हुई. बाद में यदा कदा स्वंयसेवकों की गोष्ठीयां भी होती थी, जिनमें महराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी, वीर सावरकर, मंगल पांडे, तांत्या टोपे आदि की जीवनियाँ भी पढ़ी जाती थीं. वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तकों के अंश भी पढ़ कर सुनाये जाते थे.
उनके द्वारा खडा किया गया यह संगठन "राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ" आज दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है . देश की प्रत्येक समस्या का मुकाबला करने के लिए इसके स्वयं सेवक सदैव तैयार रहते हैं. प्राकृतिक आपदा हो या भीषण दुर्घटना, आतंकवाद हो या अराजक तत्वों का हमला, चीन से युद्ध हो या पापिस्तान से लड़ाई, स्वयंसेवकों ने सदैव आगे लोगों की रक्षा की और सेना को सहयोग दिया है.
इसके अलावा संघ के अनुसांगिक संगठन ( भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, दुर्गा वाहिनी, सिक्षा भारती, संस्कार भारती, सहकार भारती, वनवासी कल्याण मंच, राष्ट्र सेविका समिति, विश्व हिन्दू परिषद्, राष्ट्रीय सिक्ख संगत, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, ... आदि ) गरीबों, मजदूरों, किसानों, महिलाओं, वनवासियों, अल्पसंख्यको आदि की समस्याओं को दूर करने के प्रयास में निरंतर जुटे रहते हैं.
भारत पर मनमाने तरीके से बर्षों राज करती और देश को लूटती आ रही "कांग्रेस" को रोकने के लिए भी, राजनैतिक सोंच वाले स्वयंसेवकों ने "भारतीय जनसंघ" नाम की राजनैतिक पार्टी बनाई जो कालांतर में "भारतीय जनता पार्टी" में परीवर्तित हो गई . 2014 में "भारतीय जनता पार्टी" ने कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को पछाड़ कर पूर्णबहुमत से सरकार भी बना ली है . जय हिन्द, वन्दे मातरम, भारत माता की जय ,

Wednesday, 8 August 2018

अमर क्रांतिकारी ठाकुर रोशन सिंह

कान्तिकारी ठाकुर रोशन सिंह का जन्म 22 जनवरी 1892 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जनपद में, फतेहगंज कसबे के नजदीक गाँव नबादा में हुआ था. उनकी माता का नाम कौशल्या देवी एवं पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था. वे अपने पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे. उनका परिवार आर्य समाज का अनुयायी था.
गांधी जी द्वारा चलाये गए असहयोग आन्दोलन में ठाकुर रोशन सिंह ने बढचढ कर हिस्सा लिया था और शाहजहाँपुर, बरेली, पीलीभीत में असहयोग आन्दोलन को विस्तार दिया. बरेली में एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने आन्दोलन कारियों को गोली मारने की धमकी दी, तो उन्होंने पुलिस वाले से बंदूक छीन ली और उन पर फायरिंग कर दी.
पुलिस वाले उस समय तो भाग गए मगर बाद में उनपर मुकदमा चलाया जिसमें उन्हें 2 साल की सजा सुनाई गई. यह सजा उन्होंने बरेली की सेंट्रल जेल में काटी. वहां उनकी मुलाक़ात कानपुर निवासी पंडित रामदुलारे त्रिवेदी से हुई जो उन दिनों पीलीभीत के असहयोग आन्दोलन के लिए 6 महीने की सजा भुगतने बरेली जेल में रखे गये थे.
पंडित रामदुलारे त्रिवेदी ने ही उनको आजाद और विस्मिल के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित किया था. जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने आजाद और विस्मिल से मिले. असहयोग आन्दोलन की असफलता और गांधी द्वारा देश को धोखा देकर अचानक आन्दोलन वापस लेने से वे सभी जोशीले युवा गांधी जी के खिलाफ हो गए थे.
असहयोग आन्दोलन के अनेकों साथियों ने कांग्रेस का रास्ता छोड़कर क्रांतिकारी दल "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन" की स्थापना की. ठाकुर रोशन सिंह भी उनके साथ हो गए. वे बहुत अच्छे निशाने बाज थे. केशव चक्रवर्त्ती (छद्म नाम ) के आग्रह पर उन्होंने दल के अनेकों सदस्यों को बंदूक चलाना सिखाया.
यहाँ गांधी जी के असहयोग आन्दोलन का भी थोडा सा जिक्र करना आवश्यक है. जलियाँबाला बाग़ काण्ड, हिन्दू महासभा, अभिनव भारत और मुसलमानों के धार्मिक आन्दोलन "खिलाफत" के कारण अंग्रेजों के खिलाफ माहौल बना हुआ था . उस माहौल का लाभ उठाने के लिए गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन शुरू किया था.

गांधी जी तो अंग्रेजों से अंग्रेजी शासन के ही अधीन "सुराज" मांग रहे थे लेकिन देश की जनता इसको "स्वराज" का आन्दोलन समझ रही थी. देखते ही देखते गांधीजी का यह अहिंसक आन्दोलन हिंसक आन्दोलन में बदल गया और अंग्रेजों का गांधी परदबाब बढ़ने लगा. ऐसे में गांधी जी आन्दोलन को किसी तरह वापस लेने का बहाना ढूँढने लगे.
इसी बीच गोरखपुर पुर के पास चौरी चौरा में पुलिस ने अहिंसक आन्दोलन कारियों पर अंधाधुंध फायरिंग कर दी जिसमे लगभग 250 आन्दोलनकारी मारे गए और 400 से ज्यादा घायल हो गए. अपने साथियों का यह हाल देखकर आन्दोलनकारियों ने भी पुलिस पर हमला कर दिया और गोलीबाजी करने वाले पुलिस कर्मियों पर हमला कर दिया.
वो पुलिस वाले भागकर थाने में छुप गए तो आन्दोलनकारियों ने थाने को आग लगा दी. जिसमे वो खुनी 23 पुलिसवाले जिन्दा जल गए. गांधी जी तो जैसे ऐसा कोई बहाना ही खोज रहे थे. उन्होंने अंग्रेजों के सामने अपने आपको बेकसूर साबित करने के लिए, आंदोलकारियों को भर्त्सना की और उन्हें आन्दोलनकारी मानने से भी इनकार कर दिया.
आजाद, विस्मिल, रोशन, केशव, लाहिड़ी, आदि ने अंग्रेजों और अंग्रेजों के चापलूस भारतीयों को लूटने की योजना बनाई, जिससे धन की व्यवस्था कर क्रान्ति को व्यापक स्तर पर किया जा सके. इस कार्य को पार्टी की ओर से "ऐक्शन" नाम दिया गया. "एक्सन" के तहत पहली डकैती 25 दिसम्बर 1924 को पीलीभीत की एक खांडसारी में की गई
बमरौली खांडसारी का मालिक बलदेव प्रसाद, अंग्रेजों का बहुत बड़ा चमचा था. इस डकैती में 4000 रूपय नकद और कुछ सोना चांदी भी क्रांतिकारियों के हाथ लगा, लेकिन उनको रोकने की कोशिश करने वाला एक सुरक्षाकर्मी "मोहनलाल पहलवान" , ठाकुर रोशन सिंह की राइफल से निकली गोली से मारा गया.
9 अगस्त 1925 को काकोरी स्टेशन के पास जो सरकारी खजाना लूटा गया था. हालांकि उसमें ठाकुर रोशन सिंह शामिल नहीं थे लेलिन पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर 'केशव चक्रवर्त्ती" की गिरफ्तारी प्रदर्शित कर दी, जो उनके लगभग हमउम्र थे. परन्तु पुलिस उनको केशव चक्रवर्ती या उनका बंगाल से कोई सम्बन्ध साबित नहीं कर सकी.
लेकिन पीलीभीत खांडसारी की लूट और मोहनलाल पहलवान की हत्या के सूत्र मिलने पर, यह मामला और ठाकुर रोशन सिंह के केस को भी "काकोरी केस" से जोड़ दिया गया और उनको भी काकोरी के वीरों के साथ फांसी की सजा सुना दी गई. 19 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद की नैनी जेल में उन्होंने फांसी देकर अमर कर दिया गया
इलाहाबाद की नैनी स्थित मलाका जेल के फाँसी घर के सामने अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह की प्रतिमा लगायी गयी है. वर्तमान समय में इस स्थान पर अब एक अस्पताल स्थापित हो चुका है. जिसका नाम स्वरूप रानी अस्पताल है. मूर्ति के नीचे ठाकुर साहब की कही गयी ये पंक्तियाँ भी अंकित हैं -
जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान ऐ 'रोशन'
वरना कितने ही यहाँ रोज फना होते हैं