Thursday, 22 July 2021

"गोत्र" का अर्थ वंश परम्परा नहीं बल्कि गुरुवंश परम्परा है

प्राचीन काल में सात प्रमुख गुरु हुए हैं. गौतम ऋषि, भारद्वाज ऋषि, विश्वामित्र ऋषि, जमदग्नि ऋषि, वसिष्ठ ऋषि, कश्यप ऋषि और अत्रि ऋषि. इनके आश्रम आजकल की यूनिवर्सिटी की तरह थे. जिनके साथ अन्य गुरुकुल जुड़े रहते थे. जिस गुरु के आश्रम या उस आश्रम से जुड़े गुरुकुल से आप शिक्षा प्राप्त करते थे उसे आपका गोत्र कहा जाता था.

जिस गोत्र (गुरु परम्परा) वाला शिष्य आगे चलकर आचार्य बनकर, किसी को शिक्षा देता था या उसके वंशज जो अपनी वंश परम्परा के रूप में शिक्षा प्राप्त करते थे, उसका वह गोत्र हो जाता था. इसमें जाती अथवा खानदानी पेशा कोई मायने नहीं रखता था. गुरुओं के आश्रमों और उनसे जुड़े गुरुकुलों में शिक्षार्थी शास्त्रों का अध्यन करते थे.
सभी गुरुओं, उनके आश्रमों, उनसे जुड़े गुरुकुलो की अलग अलग बिशेश्ताएं थी. लोग अपनी रूचि के अनुसार आश्रम को चुनते थे. ऋषि गौतम के आश्रम में वैदिक शिक्षा का विद्वान् बनाया जाता था , ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में शस्त्र (युद्ध) विद्या भी शिखाई जाती थी. ऋषि भारद्वाज का आश्रम विज्ञान और इंजीनियरिंग शिक्षा का केंद्र था.
ऋषि कश्यप का आश्रम एक ओपन यूनिवर्सिटी की तरह था जिसमे कोई भी व्यक्ति, जब चाहे जितने भी दिन के लिए जाकर (शार्टटर्म कोर्स) शिक्षा ले सकता था और उनके आचार्य घूम घूम कर, प्रवचन द्वारा भी, आम लोगों को शिक्षा दिया करते थे. इसलिए कहा जाता है कि- जिसको अपने गोत्र का पता न हो उसे अपना गोत्र "कश्यप" मानना चाहिए.
जिस तरह आज किसी से यह पूंछा जाता है कि - आपने किस यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है. उसी तरह उस काल में "गोत्र" पूंछने का तात्पर्य उनकी गुरु परम्परा को जानना होता था. गोत्र पूंछने से यह पता चलता था कि- सामने वाला व्यक्ति किस प्रकार की जानकारी रखता होगा. जैसे वेदों की, विज्ञान की, खगोल की, शास्त्रों की, आयुर्वेद की या इतिहास की

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