Sunday, 25 July 2021

नेहरूजी की जेलयात्राओं का इतिहास

स्वातंत्र्यवीर सावरकर से तुलना करते समय, जवाहर लाल नेहरू जी को महान दिखाने के लिए कांग्रेसी अक्सर यह कहते हैं कि - नेहरू जी ने भी बहुत साल जेल में गुजारे थे. यह ठीक है कि नेहरू जी भी काफी दिन जेल में रहे पंरतु टुकड़ों मे. उन्होंने अपनी अधिकतर किताबे जेल में लिखी जबकि अन्य कैदियों को चिट्ठी लिखने की भी इजाजत नहीं होती थी. 


1. पहली बार (87 दिन) 6 दिसंबर 1921 से लेकर 3 मार्च 1922 तक ****************************************************************** 
नवंबर 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स का भारत दौरा हुआ. कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने प्रिंस के दौरे का बहिष्कार किया. 6 दिसंबर को पुलिस ‘आनंद भवन’ पहुंची और नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें लखनऊ डिस्ट्रिक्ट जेल में बंद किया गया. उन्हें छह महीने जेल और 100 रुपया जुर्माना भरने की सजा मिली. लेकिन मात्र 87 दिन बाद रिहा कर दिया गया. 

2. दूसरी बार (266 दिन) 11 मई 1922 से 31 जनवरी 1923 तक *************************************************************** 
कांग्रेस ने मुसलमानो के धार्मिक आंदोलन (खिलाफत) के समांतर में अपना असहयोग आंदोलन शुरू किया. यह आंदोलन असफल हो गया था. तब 4 फरबरी 1922 को गोरखपुर के चौरी-चौरा में में हुई हिंसा का बहाना बनाकर, कांग्रेस ने 8 फरबरी 1922 को अपना आंदोलन वापस ले लिया और हिंसक प्रदर्शन करने वालों को अपना कार्यकर्ता मानने से इंकार कर दिया. 

इस बात से नाराज होकर जोशीले देशभक्तों ने कांग्रेस को छोड़ना शुरू कर दिया था और युवा गांधी / नेहरू आदि नेताओं के खिलाफ आवाज उठाने लगे.  ऐसे माहौल में एक दिन अचानक 11 मई 1922 को नेहरू जी खुद ही, लखनऊ जेल में किसी से मिलने गए. वहां उनको गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया गया, जबकि उनके खिलाफ कोई मामला भी दर्ज नहीं था. 

कुछ समय बाद उनको इलाहाबाद जेल भेज दिया गया. नेहरू बिरोधियों का मानना यह था कि- चौरीचौरा काण्ड के आंदोलनकारियों का साथ न देने के कारण नेहरू / गांधी के खिलाफ रोष का माहौल था. इसलिए जनता के गुस्से से बचने के लिए खुद ही जेल चले गए थे. यह भी कहा गया कि- उन्हें 18 महीने सश्रम कारावास की सजा हुई है लेकिन वे नौ महीने में बाहर आ गए. 

3. तीसरी बार (12 दिन) 22 सितंबर 1923 से 4 अक्टूबर 1923 तक ****************************************************************** 
पंजाब की दो रियासतों नाभा और पटियाला में ठनी हुई थी. ब्रिटिश सरकार ने पटियाला का साथ देते हुए नाभा के राजा को गद्दी से हटा दिया. इससे सिख भड़क गए. सिखों के कई जत्थे नाभा पहुंचे. नेहरू वहां पहुंचकर एक जत्थे में शामिल हो गए. पुलिस ने उनसे नाभा से निकल जाने को कहा. मगर नेहरू और उनके साथी नहीं माने तो उन्हें भी जेल में डाल दिया गया. 

22 सितम्बर, 1923 को नेहरू, ए.टी. गिडवानी व के. सांतानम को नाभा रियासत में घुसने के कारण गिरफ्तार किया गया था. यह गिरफ्तारी जैतो पुलिस स्टेशन द्वारा की गई थी. इस बार नेहरूजी को कोई वीआईपी ट्रीटमेंट नहीं मिला बल्कि उनको, उनके साथियों के साथ हथकडिय़ां लगाकर नाभा जेल लाया गया था. यहाँ उन्हें अन्य कैदियों की तरह ही रखा गया. 

अपनी आत्मकथा में नेहरू ने इस सजा के बारे में लिखा है- मुझे, मेरे साथी ए टी गिडवानी और के संथानम को बहुत बुरी स्थितियों में नाभा जेल के अंदर रखा गया था. जेल की कोठरी बेहद गंदी थी. छोटी सी वो कोठरी नमी और सीलन से भरी थी. छत इतने नीचे था कि हाथ से छू सकते थे. रात को जब हम फर्श पर सोते थे तो चूहे हमारे ऊपर से गुजर जाते थे. 

एक हफ्ते में ही नेहरूजी की हालत खराब हो गई. नेहरूजी की कोई खबर न मिलने पर, उनके पिता मोती लाल नेहरू द्वारा उनके नाभा जेल में बंद होने का पता लगाया गया. तब मोतीलाल नेहरूजी ने तत्कालीन वायसराय से दखल देने की मांग की. वायसराय के दखल बाद ही नाभा रियासत द्वारा उनसे माफीनाम लेकर 12 दिन बाद जेल से छोड़ा गया था.

 4. चौथी बार (181 दिन) 14 अप्रैल 1930 से 11 अक्टूबर 1930 तक ****************************************************************** 
मार्च / अप्रेल 1930 में महात्मा गांधी के द्वारा नमक पर टैक्स के बिरोध में दांडी मार्च निकाला गया था, जिसमे कुल 78 लोगो ने अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से समुद्रतटीय गाँव दांडी तक पैदल यात्रा करके 06 अप्रैल 1930 को नमक हाथ में लेकर कानून को भंग किया था. इसे देश की जनता ने अंग्रेजों पर गाँधीजी की जीत के तौर पर लिया. पूरे देश में जनता जोश में आ गई. 

जगह जगह जुलुस निकाले जाने लगे. इससे अंग्रेज सरकार परेशान हो गई और प्रदर्शनकारियों पर सख्ती बढ़ा दी. उस समय नेहरूजी कांग्रेस के अध्यक्ष थे. 14 अप्रैल 1930 को नेहरूजी "हिंदी प्रॉविंशल कॉन्फ्रेंस" में भाग लेने रायपुर जा रहे थे, रास्ते में उन्हें गिरफ्तार कर छह महीने के लिए इलाहाबाद की नैनी जेल में भेज दिया गया. 

5. पांचवीं बार (100 दिन) 19 अक्टूबर 1930 से 26 जनवरी 1931 तक ******************************************************************** 
नबम्बर 1930 में आगरा / फिरोजाबाद के किसानों ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाया कि- वे अंग्रेजी सरकार को लगान (टैक्स) नहीं देंगे. बिना किसी नेता के ग्रामीण किसानो द्वारा किये गए इस किसान आंदोलन को देश भर में चर्चित हो गया. इसे देश की जनता का समर्थन मिलते देख नेहरूजी ने भी किसानो का समर्थन करने की घोषणा कर दी. 

हमेशा अहिंसा की बात करने वाली कांग्रेस ने, ग्रामीण किसानो को उग्र प्रदर्शन करने के लिए उकसाया. अंग्रेजी सरकार ने उग्र किसानो के साथ साथ नेहरूजी को भी गिरफ्तार कर लिया. किसानो को भड़काने के इल्जाम में उन्हें 2 साल की सजा सुनाई गई लेकिन उन्हें 100 दिन बाद ही रिहा कर दिया गया. इस बार भी उन्हें इलाहाबाद की नैनी जेल में ही रखा गया. 

अपनी इस 100 दिन की जेल की सजा के दौरान उन्होंने अपनी 10 बर्षीय बेटी इंदिरा को कई चिट्ठियां लिखीं थी, जो आगे चलकर ‘ग्लिम्पसेज़ ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में छपीं. इन चिट्ठियों का संकलन "पिता के पत्र पुत्री के नाम" से कई अलग अलग भाषाओं में प्रकाशित हुआ. वैसे आप जब इसे पढ़ेंगे तो लगेगा नहीं कि - यह 10 बर्ष की बेटी के लिए किसी पिता का खत है.

 6. छठी बार (614 दिन) 26 दिसंबर 1931 से 30 अगस्त 1933 तक ****************************************************************** 
आगरा और फिरोजाबाद के गाँवों से शुरु हुआ, किसान आंदोलन सारे देश में फैलने लगा था. जगह जगह किसानो ने सरकार को लगान देने से इंकार कर दिया. नेहरूजी ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा कि -जब तक सरकार किसानों की परेशानियां दूर नहीं करती है तब तक किसानो को लगान नहीं देना चहिये. उनकी इस अपील का किसानो पर असर हुआ.

इसे दबाने के लिए सरकार अध्यादेश लाई कि- अगर किसान लगान देने से इनकार करता है तो इसे अपराध माना जाएगा. किसानो को भड़काने के आरोप में नेहरूजी को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें दो साल जेल और 500 रुपय जुर्माने की सजा सुनाई गई. उन्हें पहले नैनी, फिर बरेली, फिर देहरादून, फिर वापस नैनी जेल में कुल 614 दिन रखा गया. 

7. सातवीं बार (558 दिन) 12 फरवरी 1934 से 3 सितंबर 1935 तक ******************************************************************* 
अब तक कांग्रेस भी आजादी की लड़ाई में कूद चुकी थी और वह भी स्वायत्तशासी उपनिवेश के बजाय पूर्ण स्वराज की मांग करने लगी थी. 17 और 18 जनवरी 1934 को नेहरूजी ने कलकत्ता के अल्बर्ट हॉल में उन्होंने सभाएं की. यहां दिए गए भाषणों की वजह से उनके ऊपर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ और उन्हें इलाहाबाद से गिरफ्तार कर लिया गया.

 इस बार नेहरूजी को दो साल जेल की सजा सुनाई गई लेकिन उन्हें कुल 558 दिन जेल में बिताने पड़े. इस बार उन्हें पहले अलीपुर सेंट्रल जेल में रखा गया फिर देहरादून जेल भेजे गए. फिर नैनी सेंट्रल जेल और वहां से अल्मोड़ा जेल. उन्हें राजनीतिक कैदी मानते हुए सरकार ने इस बात का ध्यान रखा कि - गरमी में पहाड़ पर और सर्दी में मैदान में रखा जाए. 

8. आठवीं बार (399 दिन) 31 अक्टूबर 1940 से 3 दिसंबर 1941 तक ******************************************************************** 
दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो चुका था. सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फ़ौज ने अंग्रेजो के खिलाफ जर्मनी का साथ देने का ऐलान कर दिया था. ऐसे में कांग्रेस ने अपनी एक वॉर कमिटी बनाई, नेहरू जी जिसके अध्यक्ष थे. इस कमिटी ने कहा कि - अगर ब्रिटिश सरकार भारत को आजाद करने का बचन दे तो विश्वयुद्ध में भारतीय ब्रिटिश सरकार का साथ देंगे. 

इसको सत्याग्रह नाम दिया गया. इस सत्याग्रह के सिलसिले में नेहरू जी ने 6 / 7 अक्टूबर 1940 को गोरखपुर में कुछ भाषण दिए. इन भाषणों की वजह से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें चार साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई मगर मात्र सवा साल के बाद ही रिहा कर दिया गया. उन्हें अहमद किले में बनाई गई अस्थाई जेल में बंद कर दिया गया. 

अहमद किले में मौलाना आजाद और सरदार पटेल भी उनके साथ थे. उनके लिए लिखने और पुस्तकालय की सुविधा भी जुटाई गई थी. यही रहते हुए नेहरू जी ने अपनी प्रशिद्ध पुस्तक "डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया" लिखी थी और मौलाना आजाद ने अपनी किताब "ग़ुबार-ए-ख़ातिर" लिखी थी. अर्थात सश्रम कारावास में किताबे लिखने का श्रम किया गया था. 

9. नौवीं बार (1,041 दिन) 9 अगस्त 1942 से 15 जून, 1945 तक ***************************************************************** 
ये आखिरी बार था, जब नेहरूजी जेल में डाले गए थे. ये उनके द्वारा जेल में बिताया गया उनका सबसे लंबा समय था. विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख कर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मिल रही सफलता और समर्थन को देखकर, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए 8 अगस्त 1942 को "भारत छोड़ो आंदोलन" प्रारम्भ किया. 

9 अगस्त को गांधीजी को सरकारी सुरक्षा में आगा खान पैलेस में भेज दिया गया. 9 अगस्त को ही नेहरूजी को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें पहले अहमदनगर किले की जेल में बंद रखा गया. वहां से उन्हें बरेली सेंट्रल जेल भेजा गया. उनको बरेली क मौसम पसंद नहीं आया तो उन्हें अल्मोड़ा भेज दिया गया .

इस बार नेहरूजी ने कुल 1,041 दिन जेल में बिताये थे. कहा जाता है कि - जिस तरह गांधीजी को जेल के नाम पर सुविधाओं से युक्त आगा खान पैलेस में रखा गया था उसी तरह नेहरूजी को भी अलमोड़ा के पहाड़ी जंगल में बने "डाक बंगले" की सुविधा दी गई थी. 

तो यह था नेहरू जी की जेल यात्राओ का इतिहास. क्या नेहरूजी की जेल यात्रा की तुलना "स्वतंत्र्यवीर सावरकर" की कालापानी की सजा से की जा सकती है ?

Thursday, 22 July 2021

"गोत्र" का अर्थ वंश परम्परा नहीं बल्कि गुरुवंश परम्परा है

प्राचीन काल में सात प्रमुख गुरु हुए हैं. गौतम ऋषि, भारद्वाज ऋषि, विश्वामित्र ऋषि, जमदग्नि ऋषि, वसिष्ठ ऋषि, कश्यप ऋषि और अत्रि ऋषि. इनके आश्रम आजकल की यूनिवर्सिटी की तरह थे. जिनके साथ अन्य गुरुकुल जुड़े रहते थे. जिस गुरु के आश्रम या उस आश्रम से जुड़े गुरुकुल से आप शिक्षा प्राप्त करते थे उसे आपका गोत्र कहा जाता था.

जिस गोत्र (गुरु परम्परा) वाला शिष्य आगे चलकर आचार्य बनकर, किसी को शिक्षा देता था या उसके वंशज जो अपनी वंश परम्परा के रूप में शिक्षा प्राप्त करते थे, उसका वह गोत्र हो जाता था. इसमें जाती अथवा खानदानी पेशा कोई मायने नहीं रखता था. गुरुओं के आश्रमों और उनसे जुड़े गुरुकुलों में शिक्षार्थी शास्त्रों का अध्यन करते थे.
सभी गुरुओं, उनके आश्रमों, उनसे जुड़े गुरुकुलो की अलग अलग बिशेश्ताएं थी. लोग अपनी रूचि के अनुसार आश्रम को चुनते थे. ऋषि गौतम के आश्रम में वैदिक शिक्षा का विद्वान् बनाया जाता था , ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में शस्त्र (युद्ध) विद्या भी शिखाई जाती थी. ऋषि भारद्वाज का आश्रम विज्ञान और इंजीनियरिंग शिक्षा का केंद्र था.
ऋषि कश्यप का आश्रम एक ओपन यूनिवर्सिटी की तरह था जिसमे कोई भी व्यक्ति, जब चाहे जितने भी दिन के लिए जाकर (शार्टटर्म कोर्स) शिक्षा ले सकता था और उनके आचार्य घूम घूम कर, प्रवचन द्वारा भी, आम लोगों को शिक्षा दिया करते थे. इसलिए कहा जाता है कि- जिसको अपने गोत्र का पता न हो उसे अपना गोत्र "कश्यप" मानना चाहिए.
जिस तरह आज किसी से यह पूंछा जाता है कि - आपने किस यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है. उसी तरह उस काल में "गोत्र" पूंछने का तात्पर्य उनकी गुरु परम्परा को जानना होता था. गोत्र पूंछने से यह पता चलता था कि- सामने वाला व्यक्ति किस प्रकार की जानकारी रखता होगा. जैसे वेदों की, विज्ञान की, खगोल की, शास्त्रों की, आयुर्वेद की या इतिहास की

Saturday, 10 July 2021

गांधी जी को ट्रेन से उतारने और भारत में अंग्रेजों से बदला लेने का सच

कांग्रेसी अक्सर बोलते हैं कि किसी अंग्रेज ने नस्लभेद के कारण गांधीजी ट्रेन से उतार दिया था. इस घटना के कारण गांधीजी अंग्रेजों के खिलाफ हो गए और उन्होंने अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन चलाया.

यह कहानी भी कांग्रेसियों की अन्य कहानियों जैसी ही है. अगर यह घटना सच भी है तो यह 1893 की है जब गांधी जी 24 साल के थे और गांधीजी भारत में वापस 1915 में आए थे जब वो 46 साल के थे
गांधीजी के पिता करमचंद गांधी ब्रिटिश शासन के समय पोरबन्दर रियासत में प्रधानमंत्री थे, इसके अलावा वे राजस्थानिक कोर्ट के सभासद, राजकोट में दीवान और कुछ समय तक बीकानेर के दीवान के उच्च पद पर प्रतिष्ठित रहे थे.
ये सभी वे रियाशतें थीं जो ब्रिटिश शासन की बफादार थी. गांधीजी के पिता राजशाही और अंग्रेज अधिकारियों में समन्वय स्थापित करने का काम करते थे. वे काफी धनवान थे और उन्होंने अपने बेटे को वकालत पढ़ने इंग्लैण्ड भेजा.
अंग्रेजी राज में पिता ने खूब धन कमाया और उनके साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ. गांधीजी ने अंग्रेजों के साथ रहकर पढ़ाई की और वकालत की प्रैक्टिस की लेकिन उनके साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ. इस प्रकार बहुत साल गुजर गए.
गांधीजी का बहुत सारा जीवन इंग्लैण्ड और दक्षिण अफ्रीका में गुजर गया मगर उसके साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ. वे अंग्रेजों के साथ ही रहते रहे, पढ़ते रहे और काम भी करते रहे. किसी भी अंग्रेज ने उनको कभी परेशान नहीं किया.
इसी बीच भारत में अभिनव भारत, युगांतर, अनुशीलन समिति ने भारत में अंग्रेजो के खिलाफ स्वाधीनता संग्राम छेड़ दिया. 1907 में वीर सावरकर के ग्रन्थ "1857 - प्रथम स्वातंत्र्य समर" ने क्रान्ति की ज्वाला को और ज्यादा भड़का दिया.
क्रांतिकारियों ने अंग्रेज अधिकारियों की हत्या करना शुरू कर दिया. अनेकों अंग्रेज अधिकारी मारे गए. इस अपराध में अनेकों क्रांतिकारियों को फांसी हुई और अनेकों क्रांतिकारियों को रंगून और कालापानी की जेलों में भेज दिया गया.
इसी बीच अचानक गांधी जी को याद आया कि 21 साल पहले किसी अंग्रेज ने उनको ट्रेन से उतारा था, बस गांधी जी अपनी विदेशी जायदात को बेचकर 1915 में भारत आ गए. यहाँ उनके आते ही दुसरा स्वाधीनता संग्राम समाप्त हो गया.
एक महत्वपूर्ण बताना तो भूल ही गया. गांधीजी को साउथ अफ्रका की ट्रेन से 7 जून, 1893 को उतारा गया था. उनको इस बात पर तब गुस्सा नहीं आया था. उनको 22 साल बाद गुस्सा आया और अंग्रेजों से बदला लेने के लिए वे 9 जनवरी 1915 में भारत आये.

Thursday, 1 July 2021

जाट

आज एक पोस्ट पर एक प्रश्न देखा कि - जाट कौन होते हैं ? उस पोस्ट पर कई लोग मुख्य बिषय पर बात करने के बजाय, एक दूसरे से लड़ते हुए ज्यादा दिखाई दे रहे थे. जाटों के बारे में मुझे जो जानकारी है उसके अनुसार यह यह पोस्ट लिख रहा हूँ. अगर किसी को आपत्ति होगी तो पोस्ट डिलीट कर दूंगा.

कहा जाता है कि- महाभारत के युद्ध के पश्चात लम्बे समय तक शान्ति हो गई थी और कोई बड़ा युद्ध नहीं हुआ था. तब ज्यादातर क्षत्रियों के अन्य व्यवसाय अपना लिए थे. कोई पशुपालन करने लगा, कोई खेती करने लगा, कोई लोहे के औजार बनाने लगा तो कोई स्वर्णआभूषण बनाने लगा, ......., आदि
युधिष्ठर महाराज ने संन्यास लेने से पहले परीक्षित को इंद्रप्रस्थ और हस्तिनापुर का राज्य सौंपकर, श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बभ्रनाभ  (अथवा  वज्रनाभ ) को मथुरा मंडल के राज्य सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया था. महाराजा बभ्रनाभ के वंशजो और अनुयाइयों ने शांतिकाल में कृषि एवं कृषि से जुड़े व्यवसायों को अपना लिया था.
कालांतर में ये जाट कहलाये. महाराजा सूरजमल भी अपने आपको इन्ही महाराज बभ्रनाभ का वंशज मानते थे. इस प्रकार जाटों को भगवान् श्रीकृष्ण का वंशज या अनुयायी कहा जा सकता है. इनकी सर्वाधिक संख्या भी ब्रजभूमि के आस पास ही है. कुछ लोग इन्हे भगवान् शिव के गणों का वंशज भी मानते है.
खैर जो भी हो लेकिन जाटों ने समय समय पर बहादुरी और देशभक्ति की मिशाल कायम की है. हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए जाटों ने हमेशा ही विधर्मियों से टक्कर ली है. तैमूर का हमला हो या अब्दाली का, औरंगजेब से टक्कर लेनी हो या दंगाइयों से, जाटों ने सदैव अपनी बहादुरी का परिचय दिया है.
मुग़ल इतिहासकारों ने इनको लुटेरा भी माना है क्योंकि ब्रजक्षेत्र में जाटों ने मुग़लों को कभी भी चैन से नहीं रहने दिया. जाटों ने छपामार लड़ाई के द्वारा शक्तिशाली मुग़ल सेना को भी सदैव परेशान किया. उन पर हमले कर उनको मारा और उनसे वह माल छीना जो मुगलों ने मंदिरों से लूटा था.
मुग़ल मंदिरो को नष्ट करते थे और हिन्दुओं की आस्था पर चोट करते थे. तब इसका बदला लेने के लिए जाटों ने अकबर और जहाँगीर की कब्रों को खोदकर, उनके अवशेषों को भी कब्र से बाहर निकाल कर आग में जलाया. ये काम उन्होंने केवल जैसे को तैसा दिखाने के लिए किया था.
यदि किसी के पास और ज्यादा जानकारी हो तो बताने का कष्ट करे जिससे उसे पोस्ट में शामिल किया जा सके और अगर जाट बंधुओं को पोस्ट में कुछ गलत लगता हो तो वो भी नाराज होने के बजाये स्पष्ट बताने का कष्ट करे. उस स्तिथि में पोस्ट को डिलीट कर दिया जाएगा