Saturday, 20 June 2020

चीन के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य बनने में नेहरू का योगदान

RSTV Vishesh - 16 August 2019: United Nations Security Council ...द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, विश्व में स्थाई शान्ति बनाने के उदेश्य से 24 अक्टूबर 1945 को "संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद" का गठन किया गया. इस समय संयुक्त संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 5 स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य हैं. स्थायी सदस्य हैं अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन. फिलहाल भारत इसका अस्थाई सदस्य है.
भारत काफी समय से स्थायी सदस्यता की मांग कर रहा है. अमेरिका और फ्रांस जैसे कई देश उसका समर्थन कर चुके हैं. भारत में बहुत सारे लोग यह मानते हैं कि- अगर नेहरू ने गलती न की होती तो चीन के बजाय भारत इसका स्थाई सदस्य होता वहीँ, कांग्रेसी सफाई देते हैं कि - चीन तो 24 अक्टूबर 1945 से ही स्थाई सदस्य है.
तो फिर आखिर सच क्या है ? वास्तविकता यह है कि- ब्रिटिश काल से ही भारत, संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य है. जनवरी 1942 में बने पहले संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने वाले 26 देशों में उसका नाम था. 25 अप्रैल 1945 को सैन फ्रांसिस्को में 50 देशों के संयुक्त राष्ट्र स्थापना सम्मेलन में भारत ने प्रतिनिधित्व किया था.
इस सारी प्रक्रिया के दौरान स्वतंत्रता के बाद भारत को भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिये जाने की चर्चा हुई थी. हवा का रुख भारत के अनुकूल ही था. लेकिन कहा जाता है कि - जवाहरलाल नेहरू की गलती के कारण इस संभावना पर पूर्णविराम लगा दिया था. आइए, इस ऐतिहासिक चूक की कहानी जानते हैं.
चीन उस समय "च्यांग काई शेक" की "कुओमितांग पार्टी" और "माओ त्से तुंग" की "कम्युनिस्ट पार्टी" के बीच चल रहे गृहयुद्ध में उलझा हुआ था. चीन के नाम की सीट 1945 में च्यांग काई शेक की सरकार को दी गयी. कम्युनिस्टों से घृणा करने वाले "अमेरिका', "ब्रिटेन" तथा "फ्रांस" किसी साम्यवादी चीन को सुरक्षा परिषद में नहीं चाहते थे.
चीन के गृहयुद्ध में अंततः कम्युनिष्टों को विजय मिली. 1 अक्टूबर 1949 को चीन की मुख्य भूमि पर उन्हीं की सरकार बनी. "च्यांग काई शेक" को अपने समर्थकों के साथ भाग कर ताइवान द्वीप पर शरण लेनी पड़ी. वहां उन्होंने अपनी एक अलग सरकार बनाई. तभी से ताइवान, कम्युनिस्ट चीन के विरोधी चीनियों का ही एक अलग देश है.
इन्हीं परिस्थितियों के बीच 15 अगस्त 1947 को भारत, ब्रिटिश शासन से आजाद हो गया और जवाहरलाल नेहरू भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री बने. नेहरू ही भारत के प्रथम विदेशमंत्री भी थे. समाजवाद की रूसी और चीनी अवधारणाओं से वे निजी तौर से काफी काफ़ी प्रभावित थे और उनके निजी बिचार ही देश की विदेशनीति हुआ करते थे.
यही कारण था कि- जब चीन में "माओ त्से तुंग" ने गृहयुद्ध के बाद अपनी "कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार" बनाई तो उसे वैश्विक राजनयिक मान्यता देने वाले देशों की पहली पांत में भारत भी खड़ा हो गया था. जबकि उस समय अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, अदि ने इस पर कोई निर्णय नहीं लिया था. ऩेहरू को विश्वास था कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ बनेंगे.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने ...चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने के बाद नेहरूजी को अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित का एक पत्र मिला. विजयलक्ष्मी पंडित उस समय अमेरिका में भारत की राजदूत थीं. इस पत्र में विजयलक्ष्मी पंडित ने अपने भाई और भारत के प्रधानमंत्री को जो कुछ लिखा था वह इस प्रकार है :-
अमेरिका के विदेश मंत्रालय में चल रही एक बात आपको भी मालूम होनी चाहिये. अमेरिका की नजर में सुरक्षा परिषद की सीट पर इस समय चीन नहीं बल्कि "च्यांग काई शेक" के नेतृत्व वाला "ताइवान" है. अमेरिका सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से ताइवान (चीन) को हटा कर उस पर भारत को बिठाना चाहता है.
पिछले सप्ताह मैंने, जॉन फ़ॉस्टर डलेस और फ़िलिप जेसप से बात की थी. दोनों ने यह सवाल उठाया और डलेस कुछ अधिक ही व्यग्र लगे कि- इस दिशा में कुछ किया जाना चाहिये. पिछली रात वॉशिंगटन के प्रभावशाली कॉलम-लेखक मार्क़िस चाइल्ड्स से मैंने सुना कि डलेस ने विदेश मंत्रालय की ओर से इसके पक्ष में जनमत बनाने को कहा है.
जॉन फ़ॉस्टर डलेस 1950 में अमेरिकी विदेश मंत्रालय के एक शांतिवार्ता-प्रभारी हुआ करते थे. 1953 से 1959 तक वे अमेरिका के विदेशमंत्री भी रहे. फ़िलिप जेसप एक न्यायविद और अमेरिकी राजनयिक थे जो नेहरू से मिल चुके थे. (विजयलक्ष्मी का यह पत्र और नेहरू के जबाब वाला पत्र ‘नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय’ में रखा हैं)
अपने उत्तर में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा :- ‘तुमने लिखा है कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट से चीन को हटा कर भारत को उस पर बिठाने का प्रयास कर रहा है. जहां तक हमारा प्रश्न है, हम इसका अनुमोदन नहीं करेंगे. हमारी दृष्टि से यह एक बुरी बात होगी और यह चीन का अपमान होगा.
यह चीन तथा हमारे बीच एक तरह का बिगाड़ भी होगा. मैं समझता हूं कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय इसे पसंद तो नहीं करेगा, किंतु इस रास्ते पर हम नहीं चलना चाहते. हम संयुक्त राष्ट्र में और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर बल देते रहेंगे. मेरा समझना है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के अगले अधिवेशन में इस विषय को लेकर एक संकट पैदा होने वाला है.
जनवादी चीन की सरकार अपना एक पूर्ण प्रतिनिधिमंडल वहां भेजने जा रही है. यदि उसे वहां जाने नहीं दिया गया, तब समस्या खड़ी हो जायेगी. यह भी हो सकता है कि सोवियत संघ और कुछ दूसरे देश भी संयुक्त राष्ट्र को अंततः त्याग दें. यह (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय को मनभावन भले ही लगे, लेकिन उस संयुक्त राष्ट्र का अंत बन जायेगा, जिसे हम जानते हैं. इसका एक अर्थ युद्ध की तरफ और अधिक लुढ़कना भी होगा.’
उस समय सोवियत संघ जनवरी 1950 से क़रीब आठ महीनों तक सुरक्षा परिषद की बैठकों में भाग नहीं ले रहा था. ऐसा उसने चीन के गृहयुद्ध में कम्युनिस्टों की विजय और 1 अक्टूबर 1949 को वहां उनकी सत्ता स्थापित होने के बाद भी, संयुक्त राष्ट्र में चीन वाली सीट उसे नहीं मिलने के प्रति अपना विरोध जताने के लिए किया था.
सोवियत संघ में उस समय तानाशाह "स्टालिन" का शासन था. चीन में "माओ त्से तुंग" की तानाशाही भी कुछ कम निर्मम नहीं थी. दोनों के बीच मतभेद तब तक आरंभिक अवस्था में थे. 25 जून 1950 को चीन के पड़ोसी और उसी के जैसे कम्युनिस्ट देश उत्तर कोरिया ने, ग़ैर-कम्युनिस्ट दक्षिण कोरिया पर हमला कर कोरिया युद्ध छेड़ दिया.
सोवियत संघ द्वारा सुरक्षा परिषद का बहिष्कार उस समय भी चल रहा था. उसकी अनुपस्थिति में उसके वीटो का डर नहीं रहने से अमेरिका ने उत्तर कोरिया की निंदा का प्रस्ताव बड़े आराम से पास करवा लिया. भारत भी उत्तर कोरिया द्वारा यु्द्ध छेड़ने का समर्थन नहीं कर सकता था, इसलिए उसने अमेरिका के प्रस्ताव को अपना समर्थन दिया.
अमेरिका को भारत की यह बात बहुत पसंद आई. उसे लगा कि - तटस्थता की पैरवी करने वाले भारत के प्रधानमंत्री नेहरू कम्युनिस्टों के होश ठिकाने लगाने के प्रश्न पर उसके निकट आ रहे हैं. कोरिया युदध छिड़ने से कुछ ही दिन पहले नेहरू दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ देशों में गये थे. वहां उनकी कही बातें भी अमेरिका को अच्छी लगी थीं.
जनसंख्या की दृष्टि से भारत उस समय संसार का दूसरा सबसे बड़ा देश था जहाँ बहुदलीय लोकतंत्र था. उधर चीन के नाम वाली सीट पर बिठाया गया ताइवान एक छोटा-सा द्वीप देश था. इन्हीं सब बातों को देखने के बाद अमेरिका, सुरक्षा परिषद में ताइवान वाली सीट भारत को दिलवाने का इक्कूक था.
लेकिन अमेरिका कोई भी औपचारिक प्रस्ताव रखने से पहले आश्वस्त होना चाहता था कि- भारत भी यही चाहता है या नहीं. साथ ही अमेरिका को यह सावधानी भी बरतनी थी कि पापिस्तान को कहीं यह न लगने लगे कि उसके सिर पर से अमेरिका का वरदहस्त उठने जा रहा है और उसके क़ब्ज़े वाला कश्मीर भी शायद उसके हाथ से निकल जायेगा.
परन्तु नेहरू का अनौपचारिक उत्तर था - ‘भारत हर प्रकार से सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के सुयोग्य है. किंतु हम इसे चीन की क़ीमत पर नहीं चाहते.’ तब अमेरिका ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थाई सीट दिलाने का प्रस्ताव लाने का बिचार त्याग दिया और साम्यवाद की रोकथाम के लिए दूसरे उपाय करने लगा.
इसके बाद भारत से निराश होकर अमेरिका भारत के बजाय पापिस्तान को ज्यादा महत्व देने लगा. अमेरिका ने साम्यवादी "चीन' और "सोवियत संघ" की रोकथाम के लिए बने अमेरिकी सैन्य संगठनों ‘सीएटो’ (साउथ एशिया ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन) और ‘सेन्टो’ (सेन्ट्रल ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन) में 1954-55 में अमेरिका ने पापिस्तान को जगह दी.
नेहरू ने काफ़ी समय तक चीन के प्रति अपनी निजी भावनाओं को देशहित से ऊपर रखा. उनका कहना था कि चीन एक ‘महान देश’ है, इसलिए उसे उसका उचित स्थान मिलना चाहिये. जिन दिनों नेहरू चीन के प्रति सद्भावना दिखाते हुए भारत का हक़ भी छोड़ रहे थे लगभग उन्हीं दिनों में चीन तिब्बत पर आक्रमण की भूमिका रच रहा था.
सितंबर 1950 में दलाई लामा का एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली में था. 16 सितंबर के दिन वह दिल्ली में चीनी राजदूत से मिला था. राजदूत ने कहा कि- तिब्बत को चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार करनी ही पड़ेगी. कुछ ही दिन बाद, सात अक्टूबर को चीनी सेना ने तिब्बत पर धावा बोल दिया. तिब्बत के साथ हुई ज़ोर-ज़बरदस्ती को जानते हुए भी नेहरू मौन रहे थे.
उस समय होना तो यह चाहिये था कि- भारत के प्रति अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस की, सद्भावना की आहट पाते ही नेहरू एक अभियान छेड़ देते और कहते कि- उपनिवेशवाद पीड़ितों, नवस्वाधीन देशों, अविकसित ग़रीब देशों तथा गुटनिरपेक्ष देशों का सुरक्षा परिषद में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है; भारत उनकी आवाज़ बनेगा.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ...
वे कहते कि ब्रिटेन और फ्रांस के रूप में अमेरिका के दो यूरोपीय साथी पहले ही सुरक्षा परिषद में विराजमान हैं, सोवियत संघ कम्युनिस्ट देशों के हितरक्षक की भूमिका निभा रहा है, इसलिए एक और कम्युनिस्ट देश बदले, विश्व का सबसे बड़े लोकतंत्र बन रहे भारत को, सुरक्षा परिषद की सदस्यता पाने का कहीं अधिक औचित्य बनता है.
लेकिन नेहरूजी की यही रट बनी रही कि- पहले चीन, तब भारत. यही रट उन्होंने 1955 में तब भी लगाई, जब तत्कालीन सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन ने, अमेरिका की तरह, उनका मन टटोलने के लिए सुझाव दिया कि- भारत यदि चाहे तो उसे जगह देने लिए सुरक्षा परिषद में सीटों की संख्या पांच से बढ़ा कर छह भी की जा सकती है.
नेहरू ने बुल्गानिन को भी यही जवाब दिया कि- कम्युनिस्ट चीन को उसकी सीट जब तक नहीं मिल जाती, तब तक भारत भी सुरक्षा परिषद में अपने लिए कोई स्थायी सीट नहीं चाहता. बुल्गानिन और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता निकिता ख्रुश्चेव, नवंबर 1955 में पहली बार, एक लंबी यात्रा पर एकसाथ भारत आये थे.
दिल्ली के बाद वे पंजाब, कश्मीर, तत्कालीन बंबई, कलकत्ता, मद्रास, बंगलौर और दक्षिण भारत के प्रसिद्ध हिल स्टेशन ऊटी भी गये.बुल्गानिन ने एक सम्मेलन में कहा, ‘हम सामान्य अंतरराष्ट्रीय स्थिति और तनावों में कमी लाने के बार में बातें कर रहे हैं और यह सुझाव देना चाहते हैं कि भारत को छठे सदस्य के रूप में सुरक्षा परिषद में शामिल किया जा सकता है.’
इस पर नेहरू की प्रतिक्रिया थी, ‘बुल्गानिन शायद जानते हैं कि अमेरिका में कुछ लोग सुझाव दे रहे हैं कि सुरक्षा परिषद में चीन की सीट भारत को दी जानी चाहिये. यह तो हमारे और चीन के बीच खटपट करवाने वाली बात होगी. हम इसके सरासर ख़िलाफ़ हैं. हम कोई आसन पाने के लिए अपने आप को इस तरह आगे बढ़ाने के विरुद्ध हैं, जो परेशानी पैदा करने वाला है और भारत को विवाद का विषय बना देगा.’
नेहरू ने जोर देकर कहा, ‘भारत को यदि सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाया जाता है तो पहले संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन करना होगा. हमारा समझना है कि ऐसा तब तक नहीं किया जाना चाहिये, जब तक पहले चीन की और संभवतः कुछ दूसरों की सदस्यता का प्रश्न हल नहीं हो जाता. मैं समझता हूं कि हमें पहले चीन की सदस्यता पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये.
स्वयं एक कम्युनिस्ट नेता बुल्गानिन ने जब देखा कि नेहरू अब भी चीन समर्थक राग ही अलाप रहे हैं, तो वे इसके सिवाय और क्या कहते कि ‘हमने सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का प्रश्न इसलिए उठाया, ताकि हम आपके विचार जान सकें. हम भी सहमत है कि यह सही समय नहीं है, सही समय की हमें प्रतीक्षा करनी होगी.’
बुल्गानिन को दिये गये नेहरू के उत्तर से इस बात की फिर पुष्टि होती है कि- अमेरिका ने कुछ समय पहले सचमुच यह सुझाव दिया था कि सुरक्षा परिषद में चीन वाली सीट, जिस पर उस समय ताइवान बैठा हुआ था, भारत को दी जानी चाहिये. पुष्टि इस बात की भी होती है कि पहले अमेरिकी सुझाव और बाद में सोवियत सुझाव को ठुकराया.
नेहरू के जीवनकाल में ही घटी अंतरराष्ट्रीय घटनाओं ने चीन के प्रति उनके मोह को गलत साबित किया. चीन ने नेहरू के सामने ही तिब्बत को हथिया लिया और वहां भीषण दमनचक्र चलाया. नेहरू तो चीन की महानता का गुणगान करते रहे जबकि चीन ने 1962 में भारत पर हमला कर भारत की हजारो हेक्टेयर भूमि पर कब्ज़ा कर लिया.
लद्दाख का स्विट्ज़रलैंड जितना बड़ा एक हिस्सा तभी से चीन के क़ब्ज़े में है. अरुणाचल प्रदेश को भी वह अपना भूभाग बताता है. क्षेत्रीय दावे ठोक कर सोवियत संघ और वियतनाम जैसे अपने कम्युनिस्ट बिरादरों से युद्ध लड़ने में भी चीन ने कभी संकोच नहीं किया और अब तो वह ताइवान को भी बलपूर्वक निगल जाने की धमकी दे रहा है.
जो लोग यह कहते हैं कि 1955 में सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन का यह सुझाव हवाबाज़ी था कि भारत के लिए सुरक्षा परिषद में छठीं सीट भी बनाई जा सकती है, वे भूल जाते हैं या नहीं जानते कि चीन में माओ त्से तुंग की तानशाही शुरू होते ही उस समय के सोवियत तानाशाह स्टालिन के साथ भी चीन के संबंधों में खटास आने लगी थी.
माओ और स्टालिन कभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हुआ करते थे. 5 मार्च 1953 को "स्टालिन" की मृत्यु होते ही "माओ त्से तुंग" अपने आप को कम्युनिस्टों की दुनिया का ‘सबसे वरिष्ठ नेता’ मानने लगा था. दूसरी ओर सोवियत संघ के नये सर्वोच्च नेता निकिता ख़्रुश्चेव, उस स्टालिनवाद का अंत कर रहे थे जो अब चीन में माओ की कार्यशैली बन चुका था.
1955 आने तक माओ और ख्रुश्चेव के बीच दूरी इतनी बढ़ चुकी थी कि- चीन उस समय के पूर्वी और पश्चिमी देशों वाले गुटों के बीच ख्रुश्चेव की ‘शांतिपूर्ण सहअस्तित्व’ वाली नीति को आड़े हाथों लेने लगा था. चीन इसे मार्क्स के सिद्धान्तों को भ्रष्ट करने वाला ‘संशोधनवाद’ बता रहा था. दोनों पक्ष एएक-दूसरे को पथभ्रष्ट तथा साम्राज्यवादी’ कहने लगे थे.
इस कारण सोवियत नेताओं को इस बात में विशेष रुचि नहीं रह गयी थी कि- सुरक्षा परिषद में चीन के नाम वाली स्थायी सीट भविष्य में माओ त्से तुंग के चीन को ही मिलनी चाहिये. वे चीन वाली सीट पर से ताइवान को हटा कर भारत को बिठाने के अमेरिकी प्रयास का या तो विरोध नहीं करते या कुछ समय के लिए विरोध का केवल दिखावा करते.
ताइवान को मिली हुई सीट भारत को देने पर संयुक्त राष्ट्र का चार्टर बदलना भी नहीं पड़ता. संयुक्त राष्ट्र महासभा में दो-तिहाई बहुमत ही इसके लिए काफ़ी होता. चार्टर में संशोधन की आवश्यकता तब आती, जब सीटों की संख्या बढ़ानी होती. बुल्गानिन के कहने के अनुसार, सोवियत संघ 1955 में इसके लिए भी तैयार था.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थाई सीट पर 1971 चीन नहीं बल्कि ताइवान बैठा रहा. इन बातों से सिद्ध होता है कि अमेरिका 1970 वाले दशक में भी सुरक्षा परिषद को अपनी पसंद के अनुसार उलट-पलट सकता था. अंततः चीन को लाने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में 25 अक्टूबर 1971 को मतदान हुआ.
संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन 128 सदस्य देशों में से 76 ने चीन के पक्ष में और 35 ने विपक्ष में वोट डाले. 17 ने मतदान नहीं किया. चीन के चुने जाते ही ताइवान से न केवल सुरक्षा परिषद में उसकी सीट छीन ली गयी बल्कि संयुक्त राष्ट्र की उसकी सदस्यता भी छिन गयी. उसकी सीट पर 15 नवंबर 1971 से चीन का प्रतिनिधि बैठने लगा.
अगर नेहरू ने सही निर्णय लिया होता तो भारत का प्रतिनिधि भी वीटो-अधिकार के साथ वहां बैठ रहा होता और सोवियत संघ को भारत की लाज बचाने के लिए दर्जनों बार अपने वीटो-अधिकार का प्रयोग नहीं करना पड़ता. आज स्थिति यह है कि- भारत चाहे जितना मर्जी जोर लगा लेकिन स्थायी सदस्य नहीं बन सकता, जब तक इसके चार्टर में संशोधन न हो.
इसके लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का विस्तार करना होगा और इसके विस्तार में चीन वीटो न लगाए. चीन भला क्यों चाहेगा कि वह एशिया में अपने सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी देश भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी बराबरी में बैठने का मार्ग प्रशस्त करे ? 1950 के दशक जैसा सुनहरा मौका अब शायद ही दोबारा आए.

Sunday, 14 June 2020

ब्लड ग्रुपों के खोजकर्ता " कार्ल लैंडस्टीनर "

Image may contain: 1 personकिसी दुर्घटना, आपरेशन या बीमारी के कारण मनुष्य को खून की कमी हो जाती है, उस समय उसे किसी अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाकर उनके प्राण बचाना आज एक आम बात है. सारी दुनिया में अनेकों लोग स्वेच्छा से रक्तदान करते हैं जिससे उनका खून किसी अन्य के काम आ सके.
रक्तदान से पहले रक्त की पहचान करना आवश्यक होता है कि - वह किस समूह का है. यदि किसी व्यक्ति को उसके ब्लड ग्रुप के बजाय किसी अन्य ब्लड ग्रुप का रक्त चढ़ा दिया जाए तो इससे जान बचने के बजाय जान जा सकती हैं. ब्लड ग्रुप के बारे 1900 से पहले कोई नहीं जानता था.
सन 1901 में आस्ट्रिया के चिकित्सा वैज्ञानिक "कार्ल लैंडस्टीनर" ने रक्त के आरएच फैक्टर की खोज की, विभिन्न समूहों को पहचाना और उनको वर्गीकृत किया. चिकित्सा वैज्ञानिक कार्ल लैंडस्टीनर का जन्म 14 जून 1868 को कार्ल लैंडस्टीनर का जन्‍म वियना (ऑस्ट्रिया) में हुआ था.
उन दिनों चिकित्सा वैज्ञानिक इस बिषय को लेकर काफी काम कर रहे थे कि आवश्यकता पड़ने पर एक व्यक्ति का खून दूसरे व्यक्ति को चढ़ाया जा सके, लेकिन इसमें कई बार हानि हो जाती थी, तब उन लोगों ने खून को दो वर्गों में बाँट दिया - एक अच्‍छा और एक बुरा.
कार्ल लैंडस्टीनर ने 1901 में पता लगाया कि- ऐसा इसलिए होता है क्‍योकि जो रक्‍त उसको चढाया जा रहा है उस रक्‍त में रक्त कोशिकाओं और थक्का जमाने वाले कारकों का पूर्ण रूप से अभाव होता है और रक्‍त का थक्‍का नही जम पाता है और मनुष्‍य की मृत्‍यु हो जाती है.
कार्ल लैंडस्टीनर ने वियना यूनिवर्सिटी हॉस्पिटलमें दर्जनों लोगों का खून का सेंपल लिया और उस खून के सेंपल से आर.वी.सी को रक्‍त से अलग करके अनेकों प्रयोग किये. उन्‍होने पाया कि कुछ नमूनों में खून थक्कों में बदल जाता था और कुछ में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई
इसके बाद उन्होंने सिद्धांत दिया कि- सभी का रक्त एक सा नहीं होता है. अलग अलग लोगों के रक्त की कोशिकाओं में समानता भी हो सकती है और असमानता भी. उन्होंने मानव रक्त को पहले A,B और O में बांटा फिर इसमें भी निगेटिव / पॉजिटिव को अलग किया.
कार्ल लैंडस्टीनर की खोज को आधार बनाते हुए, 1907 में न्यूयॉर्क के सेनाई हॉस्पिटल में डॉक्टर "रूबिन ओटनबर्ग" ने पहली बार आधुनिक ब्लड ट्रांसफ्यूजन को अंजाम दिया. चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में यह खोज बहुत ही क्रांतिकारी साबित हुई.
कार्ल लैंडस्टीनर ने 1909 में पोलियो वायरस की खोज भी की. 1930 में इस महान चिकत्सा विज्ञानी को शरीर क्रिया विज्ञान और मेडिसन के क्षेत्र में की गई महान खोजों के लिए प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार भी मिलाम. इनको ट्रांसफ्यूजन मेडिसन के पितामह भी कहा जाता है.
Image may contain: 1 person, textस्वैच्छिक रक्तदान के इतिहास में आज का दिन बड़ा महत्वपूर्ण है. लोगों का जीवन बचाने के उद्देश्य से स्वैच्छिक रक्तदान करने वालो को धन्यवाद देने और अन्य लोगों को रक्तदान के लिए प्रेरित करने के लिए "कार्ल लैंडस्टीनर" के जन्मदिन (14 जून) को "रक्तदान दिवस' के रूप में मनाया जाता है

Wednesday, 10 June 2020

भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता

अंग्रेजों ने 1857 के क्रांतिकारियों को गद्दार , गदरी , राजद्रोही प्रचारित किया था, अपने अंग्रेज मालिकों को खुश करने के लिए, चापलूस रायबहादुर और खान बहादुर भी यही प्रचारित करते रहे. उसके अलावा 1885 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया, काले अंग्रेजों का कलब "कांग्रेस" भी अंग्रेजों के इसी इतिहास को आम जनता को बताती थी.
अंग्रेजो और काले अंग्रेजों के साहित्य में 1857 के स्वाधीना संग्राम को राजद्रोह या ग़दर बताया जाता था. जिसमे बहादुर शाह जफ़र को निकम्मा शायर, झांसी की रानी को राज सत्ता की लालची, बेगम हजरत महल को तवायफ, वाजिद अली शाह को विलासी नबाब, तात्या टोपे को लुटेरा, मंगल पांडे को राजद्रोही, आदि बताया जाता था.
लेकिन प्रथम स्वाधीना संग्राम के लगभग 50 साल बाद वीर सावरकर के ग्रन्थ "1857- प्रथम स्वातंत्र्य समर" ने अंग्रेजो और उनके चापलूसों की बाजी को पलट कर रख दिया. सारा देश अंग्रेजों के इतिहास को फेंककर सावरकर का इतिहास पढ़कर स्वाधीनता सेनानियों का सम्मान करने लगा था. इसी कारण सावरकर को कालापानी की सजा दी गई.
जो काम 1857 के सेनानियों के साथ अंग्रेजों ने किया था, वही काम आजादी के बाद दुसरे / तीसरे स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों के साथ कांग्रेस ने भी किया. ठाकुर रोशन सिंह को डकैत, चन्द्र शेखर आजाद को लुटेरा, भगत सिंह को आतंकी, सावरकर को माफी मांगने वाला, उधम सिंह को पागल, बोस को विश्वयुद्ध अपराधी बताया.
लेकिन जिस तरह स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने 50 साल बाद "1857- प्रथम स्वातंत्र्य समर" नामक ग्रन्थ लिखकर, अंग्रेजों की सारी चालबाजी को पलटकर रख दिया था. उसी तरह गैर कांग्रेसी साहित्यकारों और फिल्मकारों ने अपने निजी प्रयासों से देशभक्तों की कहानी जन जन तक पहुंचाया. उनके प्रयासों ने देशभक्तों की कहानी को ज़िंदा रखा.
सोशल मीडिया आने के बाद तो कांग्रेस की सारी बे-ईमानी देश के सामने बेनकाब हो चुकी है. आज लोग पिछली घटनाओं की चर्चा करते हैं और उनसे सम्बंधित सवालों के जबाब जान्ने के प्रयास करते है, तो उनको धीरे धीरे सब समझ आ जाता है. आज देश की लगभग एक तिहाई से ज्यादा जनता सच को जान चुकी है, शेष भी जल्द जान जायेगी.
जब स्वातंत्र्यवीर वीर सावरकर ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारियों को सम्मान देने वाला ग्रन्थ "1857- प्रथम स्वातंत्र्य समर" लिखा तो उनके ग्रन्थ पर प्रतिबन्ध लगाकर उनको कालापानी की सजा दे दी थी. तब लाला हरदयाल, मैडम कामा, करतार सिंह साराभा, सुखदेव, भगत सिंह. आदि ने इसे चोरी से छपवाया और वितरित किया था.
सरकार स्कूलों के पाठ्यक्रम में कब परिवर्तन करेगी यह तो सरकार जाने. लेकिन मैंने यह संकल्प ले रखा है कि - मैं भारत के इतिहास के गुमनाम महापुरुषों की गाथाओं को ढूंढ ढूंढ कर, सोशल मीडिया के माध्यम से जन जन तक पहुंचाता रहूँगा. आप से भी अपेक्षा करता हूँ कि उन गाथाओं को शेयर कर अपने अन्य मित्रों तक पहुंचाएंगे.

Friday, 5 June 2020

अजीम प्रेम जी के 50 हजार करोड़ दान की हकीकत

सुनने में आ रहा है कि - विप्रो के मालिक अजीम प्रेम जी ने "चायना वायरस" से निपटने के लिए 50 हजार करोड़ रुपय दान दिए हैं. उनके इस दान का गुणगान करने वाले हर व्यक्ति से मैं पूंछ रहा हूँ कि - उन्होंने यह रकम कब और किसको दान में दी है या किस प्रकार से जनकल्याण के कार्यों में इस्तेमाल की जा रही है ? लेकिन कोई भी ये नहीं बता रहा है.

आम तौर पर कोई ऐसी रकम दान करता है तो प्रधानमंत्री राहत कोष, मुख्यमंत्री राहत कोष या किसी प्रतिष्ठित NGO को देता है लेकिन कहीं से भी ये पता नहीं चल रहा है कि उन्होंने ये रकम किसको दी है. इंटरनेट पर सर्च करने के बाद पता चला है कि - उन्होंने एक खुद का NGO बना रखा है, जिसका नाम है - "अजीम प्रेमजी फाउंडेशन".
उन्होंने बाहर कहीं कुछ दान नहीं दिया है बल्कि अपनी कम्पनी विप्रो लिमिटेड के कुछ प्रतिशत शेयर, अपने ही फाउंडेशन के नाम कर दिए हैं, जिनका बाजार मूल्य आज की तारीख में 52,750 करोड़ है. यह काम भी उन्होंने आज "चायना वायरस" से लड़ने के लिए नहीं बल्कि पिछले साल ही कर दिया था. इसका चायना वायरस से कोई लेना देना नहीं था.
यह कह सकते हैं कि - उन्होंने पिछले साल अपनी एक जेब से रकम निकालकर दुसरी जेब में रखी थी. यह उनकी दानवीरता नहीं बल्कि चतुराई है, क्योंकि ऐसा करने के बाद उनकी यह रकम करमुक्त हो गई है. इस फाउंडेसन में से वे कभी कभार थोड़ा बहुत दान करके जरूरी खानापूर्ती करते रहेंगे. यह है इनकी दानवीरता की असलियत.
प्रेम अजीम जी ने आज तक जितना भी दान दिया है अपने इसी ट्रस्ट को दिया है. इस ट्रस्ट के द्वारा सहायता पाया हुआ कोई बाहरी व्यलक्ति आपको शायद ही कहीं मिलेगा. यह ट्रस्ट केवल कुछ स्कूल चला रहा है और उसकी बिल्डिंग बनाने में पैसा खर्च किया है. उन स्कूल पर भी मालिकाना हक़ ट्रस्ट के माध्यम से खुद अजीम प्रेम जी का ही हैं.
लोग बोल रहे हैं कि - चायना वायरस से लड़ने के लिए दान दिया जबकि यह शेयर उन्होंने पिछले साल ही अपनी एक जेब से निकल कर दुसरी जेब में डाले थे. चायना वायरस के लिए किसी संस्थान / हस्पताल या प्रधानमंत्री / मुख्यमंत्री राहत कोष को कुछ नहीं दिया है. पहले के भी किसी दान का इस वायरस से कोई सम्बन्ध नहीं है