
कूका विद्रोहियों के बलिदान दिवस (17 जनवरी) पर सादर नमन
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सिक्खों में एक समुदाय होता है जिनको नामधारी या कूका कहते है. 1857 की क्रान्ति के असफलता के बाद जब सारा देश अंग्रेजी राज को अपनी नियति मान कर खामोश हो गया था, तब भी कूकों के गुरु राम सिंह महाराज ने अंग्रेजों और उनके अधीन रहकर भारतीयों पर जुल्म करने वाले राजाओं और नबाबों का बिरोध जारी रखा था.
सदगुरु रामसिंह जी गो-संरक्षण तथा स्वदेशी के उपयोग पर बहुत बल देते थे. उन्होंने गांधी के जन्म से भी पहले स्वदेशी का प्रसार शुरू किया था तथा अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर, अपनी स्वतन्त्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी. कूकों का मुख्य गुरुद्वारा लुधियाना से चंडीगड़ रोड पर नीलों नहर के पास "भैणी साहिब" में है.सिक्खों में एक समुदाय होता है जिनको नामधारी या कूका कहते है. 1857 की क्रान्ति के असफलता के बाद जब सारा देश अंग्रेजी राज को अपनी नियति मान कर खामोश हो गया था, तब भी कूकों के गुरु राम सिंह महाराज ने अंग्रेजों और उनके अधीन रहकर भारतीयों पर जुल्म करने वाले राजाओं और नबाबों का बिरोध जारी रखा था.
भैणी साहब में मकर संक्रांति का पर्व बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. 1872 में मकर संक्रांति के दिन पर्व में शामिल होने के लिए दूर दूर से भक्त जा रहे थे. ऐसे में गौ-भक्तों को दुखी करने के लिए, मुस्लिम बहुल मलेरकोटला के मुसलमानों ने खुलेआम सड़क के किनारे गौ ह्त्या करना शुरू कर दिया, जिसका अंग्रेजों का भी समर्थन था.
हिन्दू सिक्ख इसको देखकर कुछ नहीं कर पा रहे थे और मन मसोस कर रह जा रहे थे. ऐसे में गुरुमुख सिंह के नेत्रत्व में, भैणी साहब को जाने वाला कुछ कूकों का एक जत्था उधर से गुजरा. उन्होने मुसलमानों से खुलेआम ऐसा न करने को कहा तो वे लोग कूकों से झगड़ने लगा. कूकों ने भी बहादुरी से उनका मुकाबला किया.
निहत्थे तीर्थयात्री, लड़ने को तैयार बैठे हथियार बंद आतंकियों का कब तक मुकाबला करते. ज्यादातर कूके उस संघर्ष में मारे गए. कुछ लोग किसी तरह जान बचाकर भैणीसाहब पहुंचे. तब 15 जनवरी 1872 कोें गुरु रामसिंह के आदेश पर, हीरा सिंह और लहिणा सिंह के नेत्रत्व में 80 कूकों का एक जत्था हथियारों के साथ मलेरकोटला को रवाना हुआ.
मलेरकोटला में हुए उस संघर्ष में दोनों और के लोग मारे गए. लेकिन अंग्रेज पुलिस ने मुसलमानों का साथ दिया और कूकों को गिरफ्तार कर लिया. अंग्रेज जिलाधीश कोवन ने बिना अदालत में मुकदमा चलाये उनको प्राणदंड देने का ऐलान कर दिया. 17 जनवरी, 1872 की प्रातः ग्राम जमालपुर (मलेरकोटला, पंजाब) के मैदान में भारी भीड़ एकत्र थी.
एक-एक कर गोभक्त सिख वीर वहां लाये गये. उनके हाथ पीछे बंधे थे. इन्हें मृत्युदण्ड दिया जाना था. ये सब सद्गुरु रामसिंह कूका जी के शिष्य थे. अंग्रेज जिलाधीश कोवन ने इनके मुंह पर काला कपड़ा बांधकर पीठ पर गोली मारने का आदेश दिया, पर इन वीरों ने साफ कह दिया कि वे न तो कपड़ा बंधवाएंगे और न ही पीठ पर गोली खायेंगे.

यह प्रिक्रिया 7 बार दोहराई गई. इस प्रकार 49 कूका बीरों को प्राणदंड दे दिया गया. लेकिन 50वें को देखकर जनता भी चीख पड़ी. वह केवल 12 वर्ष का एक छोटा बालक बिशन सिंह था. अभी तो उसके चेहरे पर मूंछें भी नहीं आयी थीं. उसे देखकर जिलाधिकारी कोवन की पत्नी का दिल भी पसीज गया. उसने अपने पति से उसे माफ कर देने को कहा.
कोवन ने बिशन सिंह के सामने रामसिंह को गाली देते हुए कहा कि- यदि तुम उस धूर्त रामसिंह का साथ छोड़ दो, तो तुम्हें माफ किया जा सकता है. यह सुनकर बिशनसिंह क्रोध से जल उठा. उसने उछलकर कोवन की दाढ़ी को दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसे बुरी तरह खींचने लगा. कोवन ने बहुत प्रयत्न किया लेकिन दाढ़ी नहीं छुडा पाया.
इसके बाद बालक ने उस कोवन को धरती पर गिरा दिया और उसका गला दबाने लगा. यह देखकर सैनिक दौड़े और उन्होंने तलवार से उसके दोनों हाथ काट दिये. इसके बाद तलवार से उसकी गर्दन काट दी. इसके बाद उस दिन इस प्रिक्रया को रोक दिया. परन्तु अगले दिन 18 जनवरी 1872 को फिर 16 अन्य सिखों को तोपों से उड़ा दिया गया.
इस तरह मालेरकोटला कांड में 10 सिख लड़ते हुए, 65 सिखों को तोपों से तथा एक सिख को तलवार से काटकर शहीद कर दिया गया. इसके अलाबा चार सिक्खों को काले पानी की सजा दी गई. गुरु रामसिंह को बर्मा की जेल में भेज दिया. जहाँ 14 साल तक कठोर अत्याचार सहकर 29 नबम्बर 1885 कों सदगुरु रामसिंह कूका ने अपना शरीर त्याग दिया
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