1857 की क्रान्ति के समय हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. लेकिन उस प्रथम स्वाधीनता संग्राम की असफलता के बाद अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मुसलमानो में फूट डालने का प्रयास किया. अंग्रेजों ने इसके लिए हिन्दुओं की पूज्य "गाय" को मोहरा बनाया. जहाँ मुसलमानों की आवादी ज्यादा थी, वहां बूचड़खाने खुलबाए.
बूचड़खाने खुलने का और उनमे खुलेआम गौ-हत्या होने का बिरोध हिन्दुओं औए सिक्खों द्वारा किया जाने लगा. चूँकि ईसाई और मुस्लिम दोनों गौमांस खाते थे इसलिए साथ में गौ-मांस भक्षण करने से उनमे नजदीकी होने लगी और हिन्दुओं द्वारा गौ-हत्या का बिरोध करने के कारण, मुसलमान हिन्दुओं से दूर तथा अंग्रेजों के पास आने लगे.
अंग्रेजों ने मुसलमानों को समझाया कि - अगर हम चले गए तो हिन्दू तुम को भी यहाँ नहीं रहने देंगे. साथ ही अंग्रेजों ने मुस्लिम्स को अपनी पुलिस, सेना, जेल, आदि में नौकरी देना शुरू कर दिया. यही बजह है कि प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद अधिकाँश मुस्लिम क्रान्ति से दूर रहे. केवल उंगली पर गिने जाने लायक मुस्लिम ही क्रान्ति में शामिल हुए.
गौ हत्या के बिरोध में पंजाब में सतगुरु राम सिंह महाराज ने आन्दोलन का आव्हान किया. उनके अनुयायियों ने 15 जून 1871 को अमृतसर के बूचड़खाने पर हमला कर कसाइयों को मार भगाया तथा गौवंश को आजाद कराया. इसके बाद इसी तरह 15 जुलाई 1871 को रायकोट बूचड़खाने पर धावा बोल कर गौवंश को मुक्त करवाया.
इसके बाद सतगुरु रामसिंहजी के नेतृत्व में नामधारियों (कूकोंं) ने पूरे पंजाब को बाईस जिलों में बाँटकर अपनी समानांतर सरकार बना डाली. केवल इतना ही नहीं सतगुरु रामसिंहजी ने देशवाशियों से विदेशी कपड़ों का बहिष्कार तथा स्वदेशी कपडे पहनने का आव्हान किया. अपनी स्वतन्त्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी.

नामधारियों के इस सशस्त्र विद्रोह को "कूका विद्रोह" के नाम से पुकारा जाता है. कूकों का मुख्य गुरुद्वारा लुधियाना से चंडीगड़ रोड पर नीलों नहर के पास "भैणी साहिब" में स्थित है. भैणी साहब में हर साल मकर संक्रांति का पर्व बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. जिसमे शामिल होने के लिए उनके भक्त दूर दूर से आते हैं.
13 जनवरी 1872 को मकरसंक्रांति के अवसर पर मुस्लिम बहुल कस्बे "मलेरकोटला" में खुलेआम सड़क के किनारे गौ ह्त्या करना शुरू कर दिया गया, जिसका अंग्रेजों का भी समर्थन था. ऐसे में गुरुमुख सिंह के नेत्रत्व में, भैणी साहब जाने वाला कुछ कूकों का एक जत्था उधर से गुजरा. उन्होने मुसलमानों से खुलेआम ऐसा न करने को कहा.
इस पर वो कसाई उनसे लड़ने लगे. निहत्थे तीर्थयात्री, लड़ने को तैयार बैठे हथियार बंद आतंकियों का कब तक मुकाबला करते. ज्यादातर कूके उस संघर्ष में मारे गए. कुछ लोग किसी तरह जान बचाकर भैणीसाहब पहुंचे. और उनको मलेरकोटला का हाल बताया. तब सतगुरु रामसिंह ने अपने अनुयायियों को अधर्मियों को सबक सिखाने का आदेश दिया.
15 जनवरी 1872 कोें हीरा सिंह और लहिणा सिंह के नेत्रत्व में 80 कूकों का एक जत्था हथियारों के साथ मलेरकोटला को रवाना हुआ. मलेरकोटला में हुए उस संघर्ष में दोनों और के लोग मारे गए.अंग्रेज पुलिस ने मुसलमानों का साथ दिया और कूकों को गिरफ्तार कर लिया और बिना मुकदमा चलाये उनको प्राणदंड देने का ऐलान कर दिया.
17 जनवरी, 1872 अंगेज जिलाधीश कोवन ने 7 तोपों को लाइन में लगाकर 7 तोपों के आगे 7 कूकों को खड़ा किया और एक साथ गोला दाग दिया. चारों तरफ मॉस के लोथड़े और खून के छीटे बिखर गए. यह प्रिक्रिया 7 बार दोहराकर 49 कूकों के चीथड़े उड़ा दिए गए. मलेरकोटला की अधर्मी जनता भी इस द्रश्य को देखकर खुश हो रही थी.

इसके अलाबा चार सिक्खों को काले पानी की सजा दी गई. सतगुरु रामसिंह को बर्मा की जेल में भेज दिया. जहाँ 14 साल तक कठोर अत्याचार सहकर 29 नबम्बर 1885 कों सदगुरु रामसिंह कूका ने अपना शरीर त्याग दिया. प्रत्येक वर्ष इन शहीद कूका की याद में मालेरकोटला में एक विशाल श्रद्धांजलि समारोह का आयोजन किया जाता है.