Sunday, 16 June 2019

कूका विद्रोह


1857 की क्रान्ति के समय हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. लेकिन उस प्रथम स्वाधीनता संग्राम की असफलता के बाद अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मुसलमानो में फूट डालने का प्रयास किया. अंग्रेजों ने इसके लिए हिन्दुओं की पूज्य "गाय" को मोहरा बनाया. जहाँ मुसलमानों की आवादी ज्यादा थी, वहां बूचड़खाने खुलबाए.
बूचड़खाने खुलने का और उनमे खुलेआम गौ-हत्या होने का बिरोध हिन्दुओं औए सिक्खों द्वारा किया जाने लगा. चूँकि ईसाई और मुस्लिम दोनों गौमांस खाते थे इसलिए साथ में गौ-मांस भक्षण करने से उनमे नजदीकी होने लगी और हिन्दुओं द्वारा गौ-हत्या का बिरोध करने के कारण, मुसलमान हिन्दुओं से दूर तथा अंग्रेजों के पास आने लगे.
अंग्रेजों ने मुसलमानों को समझाया कि - अगर हम चले गए तो हिन्दू तुम को भी यहाँ नहीं रहने देंगे. साथ ही अंग्रेजों ने मुस्लिम्स को अपनी पुलिस, सेना, जेल, आदि में नौकरी देना शुरू कर दिया. यही बजह है कि प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद अधिकाँश मुस्लिम क्रान्ति से दूर रहे. केवल उंगली पर गिने जाने लायक मुस्लिम ही क्रान्ति में शामिल हुए.
गौ हत्या के बिरोध में पंजाब में सतगुरु राम सिंह महाराज ने आन्दोलन का आव्हान किया. उनके अनुयायियों ने 15 जून 1871 को अमृतसर के बूचड़खाने पर हमला कर कसाइयों को मार भगाया तथा गौवंश को आजाद कराया. इसके बाद इसी तरह 15 जुलाई 1871 को रायकोट बूचड़खाने पर धावा बोल कर गौवंश को मुक्त करवाया.
इसके बाद सतगुरु रामसिंहजी के नेतृत्व में नामधारियों (कूकोंं) ने पूरे पंजाब को बाईस जिलों में बाँटकर अपनी समानांतर सरकार बना डाली. केवल इतना ही नहीं सतगुरु रामसिंहजी ने देशवाशियों से विदेशी कपड़ों का बहिष्कार तथा स्वदेशी कपडे पहनने का आव्हान किया. अपनी स्वतन्त्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी.
इस बगावत के जुर्म में 5 अगस्त 1871 को तीन नामधारी सिक्खों को रायकोट, 15 दिसम्बर 1871 को चार नामधारी सिखों को अमृतसर व दो नाम धारी सिखों को 26 नवम्बर 1871 को लुधियाना में बट के वृक्ष से बांधकर सरेआम फांसी देकर शहीद कर दिया गया. कूका विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने मुसलमानों को भी अपने साथ मिला लिया.
नामधारियों के इस सशस्त्र विद्रोह को "कूका विद्रोह" के नाम से पुकारा जाता है. कूकों का मुख्य गुरुद्वारा लुधियाना से चंडीगड़ रोड पर नीलों नहर के पास "भैणी साहिब" में स्थित है. भैणी साहब में हर साल मकर संक्रांति का पर्व बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. जिसमे शामिल होने के लिए उनके भक्त दूर दूर से आते हैं.
13 जनवरी 1872 को मकरसंक्रांति के अवसर पर मुस्लिम बहुल कस्बे "मलेरकोटला" में खुलेआम सड़क के किनारे गौ ह्त्या करना शुरू कर दिया गया, जिसका अंग्रेजों का भी समर्थन था. ऐसे में गुरुमुख सिंह के नेत्रत्व में, भैणी साहब जाने वाला कुछ कूकों का एक जत्था उधर से गुजरा. उन्होने मुसलमानों से खुलेआम ऐसा न करने को कहा.
इस पर वो कसाई उनसे लड़ने लगे. निहत्थे तीर्थयात्री, लड़ने को तैयार बैठे हथियार बंद आतंकियों का कब तक मुकाबला करते. ज्यादातर कूके उस संघर्ष में मारे गए. कुछ लोग किसी तरह जान बचाकर भैणीसाहब पहुंचे. और उनको मलेरकोटला का हाल बताया. तब सतगुरु रामसिंह ने अपने अनुयायियों को अधर्मियों को सबक सिखाने का आदेश दिया.
15 जनवरी 1872 कोें हीरा सिंह और लहिणा सिंह के नेत्रत्व में 80 कूकों का एक जत्था हथियारों के साथ मलेरकोटला को रवाना हुआ. मलेरकोटला में हुए उस संघर्ष में दोनों और के लोग मारे गए.अंग्रेज पुलिस ने मुसलमानों का साथ दिया और कूकों को गिरफ्तार कर लिया और बिना मुकदमा चलाये उनको प्राणदंड देने का ऐलान कर दिया.
17 जनवरी, 1872 अंगेज जिलाधीश कोवन ने 7 तोपों को लाइन में लगाकर 7 तोपों के आगे 7 कूकों को खड़ा किया और एक साथ गोला दाग दिया. चारों तरफ मॉस के लोथड़े और खून के छीटे बिखर गए. यह प्रिक्रिया 7 बार दोहराकर 49 कूकों के चीथड़े उड़ा दिए गए. मलेरकोटला की अधर्मी जनता भी इस द्रश्य को देखकर खुश हो रही थी.
एक 12 बर्षीय बालक विशन सिंह जिसने जिलाधीश कोवन की दाढ़ी पकड़ ली थी उसका तलवार से क़त्ल कर दिया. 18 जनवरी 1872 को फिर 16 अन्य सिखों को तोपों से उड़ा दिया गया. इस तरह मालेरकोटला कांड में 10 सिख लड़ते हुए, 65 सिखों को तोपों से तथा एक सिख को तलवार से काटकर मौत के घाट उतार दिया गया.
इसके अलाबा चार सिक्खों को काले पानी की सजा दी गई. सतगुरु रामसिंह को बर्मा की जेल में भेज दिया. जहाँ 14 साल तक कठोर अत्याचार सहकर 29 नबम्बर 1885 कों सदगुरु रामसिंह कूका ने अपना शरीर त्याग दिया. प्रत्येक वर्ष इन शहीद कूका की याद में मालेरकोटला में एक विशाल श्रद्धांजलि समारोह का आयोजन किया जाता है.

Saturday, 15 June 2019

कूका विद्रोहियों का बलिदान

गौ-रक्षा और राष्ट्र रक्षा की खातिर बलिदान देने वाले
कूका विद्रोहियों के बलिदान दिवस (17 जनवरी) पर सादर नमन 
************************************************************
सिक्खों में एक समुदाय होता है जिनको नामधारी या कूका कहते है. 1857 की क्रान्ति के असफलता के बाद जब सारा देश अंग्रेजी राज को अपनी नियति मान कर खामोश हो गया था, तब भी कूकों के गुरु राम सिंह महाराज ने अंग्रेजों और उनके अधीन रहकर भारतीयों पर जुल्म करने वाले राजाओं और नबाबों का बिरोध जारी रखा था.
 सदगुरु रामसिंह जी गो-संरक्षण तथा स्वदेशी के उपयोग पर बहुत बल देते थे. उन्होंने गांधी के जन्म से भी पहले स्वदेशी का प्रसार शुरू किया था तथा अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर, अपनी स्वतन्त्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी. कूकों का मुख्य गुरुद्वारा लुधियाना से चंडीगड़ रोड पर नीलों नहर के पास "भैणी साहिब" में है.
भैणी साहब में मकर संक्रांति का पर्व बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. 1872 में मकर संक्रांति के दिन पर्व में शामिल होने के लिए दूर दूर से भक्त जा रहे थे. ऐसे में गौ-भक्तों को दुखी करने के लिए, मुस्लिम बहुल मलेरकोटला के मुसलमानों ने खुलेआम सड़क के किनारे गौ ह्त्या करना शुरू कर दिया, जिसका अंग्रेजों का भी समर्थन था.
हिन्दू सिक्ख इसको देखकर कुछ नहीं कर पा रहे थे और मन मसोस कर रह जा रहे थे. ऐसे में गुरुमुख सिंह के नेत्रत्व में, भैणी साहब को जाने वाला कुछ कूकों का एक जत्था उधर से गुजरा. उन्होने मुसलमानों से खुलेआम ऐसा न करने को कहा तो वे लोग कूकों से झगड़ने लगा. कूकों ने भी बहादुरी से उनका मुकाबला किया.
निहत्थे तीर्थयात्री, लड़ने को तैयार बैठे हथियार बंद आतंकियों का कब तक मुकाबला करते. ज्यादातर कूके उस संघर्ष में मारे गए. कुछ लोग किसी तरह जान बचाकर भैणीसाहब पहुंचे. तब 15 जनवरी 1872 कोें गुरु रामसिंह के आदेश पर, हीरा सिंह और लहिणा सिंह के नेत्रत्व में 80 कूकों का एक जत्था हथियारों के साथ मलेरकोटला को रवाना हुआ.
मलेरकोटला में हुए उस संघर्ष में दोनों और के लोग मारे गए. लेकिन अंग्रेज पुलिस ने मुसलमानों का साथ दिया और कूकों को गिरफ्तार कर लिया. अंग्रेज जिलाधीश कोवन ने बिना अदालत में मुकदमा चलाये उनको प्राणदंड देने का ऐलान कर दिया. 17 जनवरी, 1872 की प्रातः ग्राम जमालपुर (मलेरकोटला, पंजाब) के मैदान में भारी भीड़ एकत्र थी.
एक-एक कर गोभक्त सिख वीर वहां लाये गये. उनके हाथ पीछे बंधे थे. इन्हें मृत्युदण्ड दिया जाना था. ये सब सद्गुरु रामसिंह कूका जी के शिष्य थे. अंग्रेज जिलाधीश कोवन ने इनके मुंह पर काला कपड़ा बांधकर पीठ पर गोली मारने का आदेश दिया, पर इन वीरों ने साफ कह दिया कि वे न तो कपड़ा बंधवाएंगे और न ही पीठ पर गोली खायेंगे.
तब अंगेज जिलाधीश ने देशी रियासतों से 9 तोपें मंगबाई. उनमे से 7 को इस्तेमाल किया गया. तोपों को लाइन में लगाकर 7 तोपों के आगे 7 कूकों को खड़ा किया और एक साथ गोला दाग दिया. चारों तरफ मॉस के लोथड़े और खून के छीटे बिखर गए. मलेरकोटला की दुष्ट जनता भी इस द्रश्य को देखकर खुश हो रही थी.
यह प्रिक्रिया 7 बार दोहराई गई. इस प्रकार 49 कूका बीरों को प्राणदंड दे दिया गया. लेकिन 50वें को देखकर जनता भी चीख पड़ी. वह केवल 12 वर्ष का एक छोटा बालक बिशन सिंह था. अभी तो उसके चेहरे पर मूंछें भी नहीं आयी थीं. उसे देखकर जिलाधिकारी कोवन की पत्नी का दिल भी पसीज गया. उसने अपने पति से उसे माफ कर देने को कहा.
कोवन ने बिशन सिंह के सामने रामसिंह को गाली देते हुए कहा कि- यदि तुम उस धूर्त रामसिंह का साथ छोड़ दो, तो तुम्हें माफ किया जा सकता है. यह सुनकर बिशनसिंह क्रोध से जल उठा. उसने उछलकर कोवन की दाढ़ी को दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसे बुरी तरह खींचने लगा. कोवन ने बहुत प्रयत्न किया लेकिन दाढ़ी नहीं छुडा पाया.
इसके बाद बालक ने उस कोवन को धरती पर गिरा दिया और उसका गला दबाने लगा. यह देखकर सैनिक दौड़े और उन्होंने तलवार से उसके दोनों हाथ काट दिये. इसके बाद तलवार से उसकी गर्दन काट दी. इसके बाद उस दिन इस प्रिक्रया को रोक दिया. परन्तु अगले दिन 18 जनवरी 1872 को फिर 16 अन्य सिखों को तोपों से उड़ा दिया गया.
इस तरह मालेरकोटला कांड में 10 सिख लड़ते हुए, 65 सिखों को तोपों से तथा एक सिख को तलवार से काटकर शहीद कर दिया गया. इसके अलाबा चार सिक्खों को काले पानी की सजा दी गई. गुरु रामसिंह को बर्मा की जेल में भेज दिया. जहाँ 14 साल तक कठोर अत्याचार सहकर 29 नबम्बर 1885 कों सदगुरु रामसिंह कूका ने अपना शरीर त्याग दिया

Friday, 14 June 2019

पतंजली के "दिव्यजल" को लेकर MNC का प्रोपोगंडा

बोतल बंद पानी बेचने वाली, इटेलियन मूल की कम्पनी "बिसलरी (इंडिया) लिमिटेड" भारत में 1965 से बोतलबंद पीने का पानी बेच रही है. तब इसके दो ब्रांड होते थे- "बब्ली" और "स्टिल". 1969 में इसे "पार्ले प्रोडक्ट्स" ने खरीद लिया और ब्रांड निकाला "बिसलेरी".
तब बोतल बंद पानी केवल महानगरों में अमीर लोग ही खरीदते थे. बाक़ी आम आदमी तो सरकारी टोंटियों और हैण्ड पम्प से ही पानी पीते थे. इसके अलाबा जगह जगह लोग प्याऊ लगते थे जहाँ लोगों को निशुल्क साफ़ और शीतल जल मिल जाता था.
90 के दशक में पार्ले ने PET बोतल में पानी भरना शुरू किया और भारत के बड़े शहरों के साथ साथ छोटे शहरों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डो, आदि में बेचना शुरू कर दिया. इसके साथ ही अचानक, ज्ञानियों ने स्वच्छ जल का महत्त्व बताने का अभियान छेड़ दिया.
पानी को लेकर आम जनता में इतना डर फैलाया गया कि- केवल अमीर ही नहीं बल्कि साधारण लोग भी बोतल बंद पानी पीने लगे. साजिश के तहत सार्वजनिक स्थानो से टोटियां और नल हटाये जाने लगे और प्याऊ लगाने वालो को स्थान मिलना बंद हो गया.
देखते ही देखते बोतलबंद पानी का एक बहुत बड़ा व्यवसाय खड़ा हो गया, जिस पर बिसलेरी का कब्ज़ा था. 2003 में पार्ले ने इसे "वाखारिकर एंड संस" को बेच दिया. बिसलेरी कि सफलता को देखकर अन्य छोटे - बड़े लोग एवं कम्पनिया भी इस और आकर्षित हुईं.
इसमें "किनली" और "एक्वाफिना" को भी ठीक ठाक सफलता मिली. इसके अलाबा लघु एवं कुटीर उद्योग के रूप में भी जगह जगह भारतीय उद्यमी पानी का काम करने लगे. हालांकि छोटे स्तर पर काम करने वाले भारतीयों को बेचने में बहुत दिक्कत होती है.
भारत के बोतलबंद पानी के 60% कारोबार पर बिसलेरी का कब्ज़ा है और 20% पर "किनली" और "एक्वाफिना" का. शेष 20% कारोबार में देश के हजारों छोटे छोटे उद्यमियों का हिस्सा है, जिससे इन बड़ी कम्पनियों को कोई भी दिक्कत नहीं थी.
अब शुरू होती है वह समस्या जिसके कारण मैं यह पोस्ट लिखने को मजबूर हुआ हूँ. पिछले 30 साल में खूब पानी बिक रहा था लेकिन किसी को कोई तकलीफ नहीं थी , लेकिन अभी एक ऐसी कम्पनी इस क्षेत्र में आ गई है जिसके कारण सब हिल गए है,
वह कम्पनी है "बाबा रामदेव" की "पतंजली", जिसने "दिव्य जल" के नाम से बोतलबंद पानी लांच किया है, इसके मार्केट में आते ही ज्ञानी जनो ने बोतलबंद पानी के कारण होने वाले नुकशान गिनाने शुरू कर दिए हैं. जैसे कि यह नुकशान केवल इस कम्पनी में ही होंगे.
क्योंकि एक बात तो बाबा रामदेव के बारे में सभी जानते है कि - पतंजली साथ यह बड़ी कम्पनियां वह कुकृत्य नहीं कर पाएंगी जैसा वे छोटे छोटे उद्यमियों को गिराने के लिए कर लेती हैं. बाबा रामदेव वह बला है, जिसले कोलगेट और लीवर तक को टक्कर दी है.
जिस कोलगेट का पहले भारतीय टूथपेस्ट बाजार पर कब्ज़ा हुआ करता था, उस टूथपेस्ट बाजार में आज पतंजलि के "दन्तकान्ति" की 53% की हिस्सेदारी है और बाक़ी में सारी टूथपेस्ट कम्पनिया. इसलिए "दिव्यजल" के आने से से ये सब घबराय हुए हैं.

Wednesday, 5 June 2019

जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) कम होने तथा बेरोजगारी बढ़ने के हंगामे का सच

23 मई को भाजपा के पक्ष में परिणाम आते ही, अंधबिरोधियों ने हंगामा शुरू कर दिया है कि - वित्त वर्ष 2018-19 की चौथी तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर घटकर 5.8% हो गई है. इसके अलावा देश में बेरोजगारी की दर पिछले 45 साल में सबसे ज्यादा हो गई है. सोशल मीडिया पर भी इसको लेकर हल्ला है. आइये आपको इन दोनों ही बातों का सच बताता हूँ.
पहला तथ्य बिलकुल सही है कि - वित्त बर्ष 2018-19 की चौथी तिमाही (1 जनवरी 2019 से 31 मार्च 2019) में जीडीपी में गिरावट आई है. इसका प्रमुख कारण है लोकसभा का आम चुनाव. इस चुनाव के कारण फरवरी 2019 में आचार संहिता लागू हो गई थी और आप जानते ही हैं कि -आचार संहिता के कारण सरकारी विकास योजनाओं पर रोक लग जाती है.
इसके अलावा चुनाव के समय, चुनावकर्मियों तथा सुरक्षा व्यवस्था पर बहुत ज्यादा खर्च बढ़ जाता है. इस प्रकार कह सकते हैं कि- सरकार की आमदनी कम और खर्चा ज्यादा. इसको ऐसे समझ सकते हैं जैसे किसी दुकानदार की बेटी की शादी होने वाली हो. बेटी की शादी के कारण खर्च खूब हो रहा हो और दुकान कम खुल पाने के कारण कम बिक्री होती हो.
लोकसभा चुनाव से सरकारी कामकाज तो प्रभावित होते ही है साथ ही निजी कम्पनिया भी अपना उत्पादन कम कर देती है और वो नई सरकार के आने की प्रतीक्षा करने लगती हैं. उन निजी कम्पनियों को भी भय होता है कि - पता नहीं नई सरकार कैसी होगी और वह व्यापार के लिए क्या नीति रखेगी. इसलिए वो अपना काम सीमित कर देते है.
ऐसी हालत में उत्पादन और विकास तो प्रभावित होना ही है. ऐसा कोई पहली बार नहीं है और न ही आख़िरी बार है, बल्कि यह तो आने वाले हर बड़े चानव के समय भी होता रहेगा. आइये अब बात करते है देश में बढ़ी हुई बेरोजगारी की दर की, यह तथ्य बिलकुल झूठ है क्योंकि लोग काम न मिलने से नहीं बल्कि वर्कर न मिलने से परेशान है.
45 वर्ष में सबसे ज्यादा बढ़ी हुई ,जिस बेरोजगारी का प्रचार किया जा रहा है वह रिपोर्ट 2017-18 वित्त वर्ष की है. उस समय नोटबंदी और जीएसटी के बाद लगभग 3.5 लाख फर्जी कंपनियां पकड़ में आई थीं, जो सिर्फ कागजों पर थी, उन सभी फर्जी कम्पनियों में झूठे कागजो में हर जगह 10 से लेकर 100 से ज्यादा लोग काम कर रहे थे.
इन सभी फर्जी कम्पनियों का पंजीकरण रद्द किया गया था. तो जाहिर सी बात है कि - इनमे काम कर रहे (कागजो में) लाखों वर्कर भी बेरोजगार हो गए थे. वर्ना देश के कारखानों और कृषि क्षेत्र का इतना बुरा हाल है कि उनको अपने यहाँ काम कराने के लिए वर्कर नहीं मिल रहे हैं. उन फर्जी वर्करो की फर्जी नौकरी छूटना ही बेरोजगारी बढ़ने का सच है.
GST की जो नई व्यवस्था लागू हुई थी, उसको लेकर फैलाए गए भ्रम के कारण कुछ समय के लिए व्यापार जरुर प्रभावित हुआ था लेकिन बहुत जल्द ही पटरी पर आ गया था. आज हर व्यापारी जानता है कि यह व्यवस्था उसके ही हित में है. केवल नंबर 2 का काम करने वाले अथवा स्टेट बार्डर पर दलाली करने वाले रो रहे हैं.
इसके अलावा जितने भी लोग जिला रोजगार कार्यालय में लोग अपना नाम रजिस्टर कराते हैं, वे लोग कोई नौकरी मिल जाने पर या अपना कोई स्व-व्यवसाय शुरू करने के बाद वहां अपना नाम कटवाने नहीं जाते है. इस कारण वहां बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जाती है. अगर वास्तव में बेरोजगारी होती तो उद्योग लेबर की कमी को लेकर नहीं रो रहे होते.
केंद्र सरकार की मुद्रा योजना / स्टार्टअप योजना का लाभ उठाकर भी करोड़ों लोगों ने स्व-व्यवसाय स्थापित कर लिया है और ठीक ठाक कमा खा रहे हैं. आंकड़ों की बाजीगरी करने वालों की नजर में स्व-रोजगार करने वाले लोग भी बेरोजगार हैं. उनकी नजर में केवल सरकारी नौकरी करने वाली ही रोजगार करने वाला माना जाता है.
इसलिए अंध बिरोधियों की बाते सुनकर परेशान होने के बजाये, अपने आसपास नजर दौड़ाइए और देखिये कि- वहां कितने लोग बेरोजगार है. यदि आपके आसपास ऐसे लोग दिखाई दें तो उनको पंजाब, गुजरात, तमिलनाडु, जाने को प्रेरित करें या उनको केंद्र सरकार के कौशल विकास और मुद्रा योजना के बारे में बताएं.

Monday, 3 June 2019

क्या है अमित शाह को तडीपार किये जाने का मामला

अक्सर देखा गया है कि - बीजेपी से नफरत करने वाले अंधबिरोधी लोग अमित शाह को अपमानित करने के लिए तड़ीपार शब्द का प्रयोग करते हैं. हमें इसको समझने के लिए पहले यह समझना होगा कि - तड़ीपार होता क्या है और अमितशाह को क्यों किया गया था.
सबसे पहले तो यह समझ ले कि - वह मामला क्या है जिसमे अमित शाह को अदालत ने तड़ीपार किया था. जैसा कि सभी जानते है कि - गुजरात एक संपन्न राज्य है और सम्पन्न राज्य में अपराध, गुंडागर्दी और अवैद्ध बसूली करने वाले भी अक्सर पैदा हो जाते है.
यही हाल गुजरात का था. गुजरात में जगह जगह ऐसे गिरोह बन गए थे जो व्यापारियों और उद्योगपतियों को धमकाकर उनसे जबरन बसूली करते थे. 7 अक्तूबर 2001 को नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने. उन्होंने इस समस्या के हल पर बहुत जोर दिया.
उन्होंने अमित शाह को राज्य का गृहमंत्री बनाया. मोदी-अमित की टीम ने अपराधियों को गिरफ्तार कर उनपर केस चलाने के बजाये इनकाउंटर करने पर ज्यादा जोर दिया. इस तरीके से बहुत सारे अपराधी कम हुए और काफी गुजरात छोड़कर राज्य से बाहर भाग गए.
उन दिनों सोहराबुद्दीन और उसके साथी तुलसी प्रजापति का भी एक बड़ा गिरोह था जो मार्बल व्यापारियों को धमकाकर अवैध बसूली करता था. पुराने बदमाश "हामिद लाला" की हत्या करने के बाद सोहराबुद्दीन का मार्बल व्यापार पर एकछत्र राज हो गया था.
2004 में सोहराबुद्दीन ने राजस्थान के "आरके मार्बल्स" के मालिक "पटनी ब्रदर्स" को उगाही के लिए फोन किया था. उसने गुजरात सरकार को इसकी शिकायत की. मार्बल लॉबी की शिकायत पर गुजरात सरकार ने "डीजी बंजारा" को कार्रवाई के निर्देश दिए गए.
26 नवंबर 2005 को अहमदाबाद सर्किल और विशाला सर्किल के टोल प्वाइंट पर सुबह तड़के 4 बजे सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर कर दिया गया. एक साल एक माह बाद 26 दिसंबर 2006 को उसके साथी तुलसीराम प्रजापति को भी एनकाउंटर में मार गिराया गया.
"सोहराबुद्दीन" के भाई "रुबाबुद्दीन" ने आरोप लगाया कि उसके भाई को महारष्ट्र से पकड़कर, गुजरात ले जाकर मारा है. इसके बाद तो तत्कालीन UPA सरकार और फर्जी मानवाधिकारवादी संगठन गुजरात सरकार और अमित शाह के पीछे पड़ गए.
उन तथाकथित मानवाधिकारवादियों को गुंडों द्वारा व्यापारियों को लूटना और मारना कभी दिखाई नहीं दिया लेकिन गुंडों के मरने पर विलाप करने लगे. UPA सरकार ने भी तेजी दिखाते हुए उन गुंडों की की मौत का केस फ़टाफ़ट सीबीआई को सौंप दिया.
सीबीआई कोर्ट द्वारा भी यह मामला जज "आफताब आलम" की कोर्ट में भेजा गया. "जज आफताब आलम" सीबीआई ने कहां कि- अमित शाह के राज्य में रहने से जांच प्रभावित होगी इसलिए अमित शाह को राज्य बाहर (तडीपार) रखा जाए.
अमित शाह ने इस फैसले को स्वीकार किया और कोर्ट के निर्देश पर 2010 से 2012 के बीच कुछ समय के लिए राज्य से बाहर (तडीपार) रहे. इसके बाबजूद सीबीआई की जांच में अमित शाह और डीजी बंजारा सहित सभी 22 आरोपी निर्दोष पाए गए.
तो आप खुद बताइये कि - अमित शाह के लिए ऐसा कुछ बोलना क्या सही है ? अमित शाह के राज्य बदर (तडीपार) रहने के बाद भी अगर वो सब सीबीआई जांच में निर्दोष साबित हुए तो क्या आरोप लगाने वाले और तडीपार करने वाले ही गलत साबित नहीं हुए ?
यहाँ यह भी ध्यान देना चाहिए कि - 2005 से 2014 तक केंद्र में UPA की सरकार थी और सीबीआई केंद्र सरकार के अधीन कार्य करती है.उम्मीद करता हूँ कि - अमित शाह और तडीपार मामले की सच्चाई आपको ठीक से समझ आ गई होगी.