Wednesday, 29 May 2019

आरक्षण का सकारत्मक लाभ कैसे उठाये ?

आरक्षण को कोसने के बजाय, आरक्षण को हिंदुत्व बचाने के हथियार के रूप में इस्तमाल करना चाहिए. जो आरक्षण जातिवाद को बढावा देने वाला बना हुआ है, उस आरक्षण को जातिवाद ख़त्म करने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. बस हमें इसमें थोड़ा सा फेर-बदल करना होगा. आरक्षण की नियमवाली में कुछ सुधार किये जा सकते हैं.
1. कोई भी सवर्ण लड़का (अथवा लड़की), अगर किसी आरक्षित वर्ग की लड़की (अथवा लड़के) से विवाह करता ( या करती) है, तो उनको तथा उनकी संतान को भी आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए. ऐसा करने से अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा मिलेगा , जो आगे जाकर जाति के चक्रव्यूह को तोड़ने में बहुत सहायक साबित होगा.
2. यदि पुराने समय में कोई व्यक्ति हिन्दू धर्म को छोड़ गया था और आज उनके बच्चे घर वापसी करना चाहते हैं, तो ऐसे लोगो के लिए, एक अलग से आरक्षण की व्यवस्था कर, उनको आरक्षण देना चाहिए. यदि आप ऐसा करते हैं, तो ऐसे लोगों को घर वापसी करने की प्रेरणा मिलेगी. इसका लाभ हर हाल में हिन्दू धर्म और हिन्दुस्थान को मिलेगा.
3. सभी पंथ यह दावा करते हैं कि -जाति केवल हिन्दुओं में होती है, उनके यहाँ जाति नहीं होती है, इसलिए हिन्दू के अतिरिक्त किसी भी अन्य पंथ वाले व्यक्ति को जातिगत आरक्षण नहीं देना चाहिए. अगर आरक्षित कैटेगिरी का व्यक्ति हिन्दू धर्म को छोड़ता है तो उसका और उसके परिवार का आरक्षण हमेशा के लिए रद्द कर दिया जाय.
4. "जाति" शब्द को ख़त्मकर उसको "खानदानी पेशा" कर दिया जाए. किसी भी फ़ार्म में "जाति" वाला कालम न रखकर वहां "खानदानी पेशा" शब्द लिखा जाए. बैसे भी पुरोहित, सैनिक, व्यापारी, दूकानदारी, सफाई का काम, लोहार, कुम्हार, सुनार, चर्मकार, कृषि, मल्लाह, शिक्षण, पशुपालन, आदि सभी प्रकार के कार्य, केवल धंधा है कोइ जाति नहीं.
5. आरक्षण ख़त्म करने की शुरुआत मंदिर से करनी चाहिए. पुरोहित और पुजारी बन्ने के लिए, पाठ्यक्रम निर्धारित कर, विभिन्न धार्मिक केन्द्रों में, बाकायदा ट्रेनिग सत्र चलाये जाने चाहिए. इन प्रशिक्षण केन्द्रों में प्रशिक्षित होने के लिए शिक्षार्थी के लिए कोई जाति बंधन न हो. प्रशिक्षित और संस्कारी होने कोई भी हिन्दू, धार्मिक अनुष्ठान करा सके.

संस्कृत सुभाषित , हिन्दी अर्थ सहित

अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ (वाल्मीकि रामायण)
हे लक्ष्मण ! यह सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती है, 
क्योंकि  मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है.

अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥
तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मस्त चाल हाथी का आभूषण है, 
चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥

ये मेरा है, वह उसका है, जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं. उदार ह्रदय वाले लोगों के लिए तो धरती एक परिवार है.

क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्॥

प्रत्येक क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए, क्षण को नष्ट करके विद्याप्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता।

कुलस्यार्थे त्यजेदेकम् ग्राम्स्यार्थे कुलंज्येत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥

कुटुम्ब के लिए स्वयं के स्वार्थ का त्याग करना चाहिए, गाँव के लिए कुटुम्ब का त्याग करना चाहिए, देश के लिए गाँव का त्याग करना चाहिए और आत्मा के लिए समस्त वस्तुओं का त्याग करना चाहिए।

नाक्षरं मंत्रहीतं नमूलंनौधिम्।
अयोग्य पुरुषं नास्ति योजकस्तत्रदुर्लभः॥

ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र के लिए प्रयोग न किया जा सके, ऐसी कोई भी वनस्पति नहीं है जिसका औषधि के लिए प्रयोग न किया जा सके और ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसका सदुपयोग के लिए प्रयोग किया जा सके, किन्तु ऐसे व्यक्ति अत्यन्त दुर्लभ हैं जो उनका सदुपयोग करना जानते हों।

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥

आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं (अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं), केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।
यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम्॥

यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। मेरे (अर्थात् श्लोककर्ता नारद के) विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः॥

सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो, उस सत्य को मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद है, (इसी प्रकार से) उस झूठ को भी मत कहो जो सर्वजन को प्रिय हो, यही सनातन धर्म है। 

मरणानतानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम्।
क्रियतामस्य संसकारो ममापेष्य यथा तव॥ 
(वाल्मीकि रामायण)
किसी की मृत्यु हो जाने के बाद उससे बैर समाप्त हो जाता है, मुझे अब इस (रावण) से कुछ भी प्रयोजन नहीं है। अतः तुम अब इसका विधिवत अन्तिम संस्कार करो।

श्रोतं श्रुतनैव न तु कुण्डलेन दानेन पार्णिन तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणाम् परोपकारैर्न तु चंदनेन॥

कान की शोभा कुण्डल से नहीं बल्कि ज्ञानवर्धक वचन सुनने से है, हाथ की शोभा कंकण से नहीं बल्कि दान देने से है और काया (शरीर) चन्दन के लेप से दिव्य नहीं होता बल्कि परोपकार करने से दिव्य होता है।

भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।
तस्यां हि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्॥

भाषाओं में सर्वाधिक मधुर भाषा गीर्वाणभारती अर्थात देवभाषा (संस्कृत) है, संस्कृत साहित्य में सर्वाधिक मधुर काव्य हैं और काव्यों में सर्वाधिक मधुर सुभाषित हैं।

उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्त मरणं तृणम्।
विरक्तस्य तृणं भार्या निस्पृहस्य तृणं जगत्॥
उदार मनुष्य के लिए धन तृण के समान है, शूरवीर के लिए मृत्यु तृण के समान है, विरक्त के लिए भार्या तृण के समान है और निस्पृह (कामनाओं से रहित) मनुष्य के लिए यह जगत् तृण के समान है।

दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
उष्णो दहति चांगारः शीतः कृष्णायते करम्॥

दुर्जन लोग कोयले के समान होते हैं, उनसे प्रीति कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि कोयला यदि गरम हो तो जला देता है और शीतल हो काला कर  देता है.

चिन्तनीया हि विपदां आदावेव प्रतिक्रिया।
न कूपखननं युक्तं प्रदीप्त वान्हिना गृहे॥

जिस प्रकार से घर में आग लग जाने पर कुँआ खोदना आरम्भ करना  उचित कार्य नहीं है उसी प्रकार से विपत्ति के आ जाने पर चिन्तित होना भी उपयुक्त कार्य नहीं है. ( किसी भी प्रकार की विपत्ति से निबटने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए ) 

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्यणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मगाः॥

जिस प्रकार से सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं चले जाते, सिंह को क्षुधा-शान्ति के लिए शिकार करना ही पड़ता है, उसी प्रकार से किसी कार्य की मात्र इच्छा कर लेने से वह कार्य सिद्ध नहीं हो जाता, कार्य उद्यम करने से ही सिद्ध होता है।

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रं अमित्रस्य कुतो सुखम्॥

आलसी व्यक्ति विद्या प्राप्ति नहीं कर सकता, विद्याहीन व्यक्ति धन नहीं कमा सकता, धन के बिना मित्र नहीं मिलते और मित्रों के बिना सुख की प्राप्ति नहीं हो सकता


शान्तितुल्यं तपो नास्ति तोषान्न परमं सुखम्।
नास्ति तृष्णापरो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः॥

शान्ति जैसा कोई तप (यहाँ तप का अर्थ उपलब्धि समझना चाहिए) नहीं है, सन्तोष जैसा कोई सुख नहीं है (कहा भी गया है "संतोषी सदा सुखी), कामना जैसी कोई ब्याधि नहीं है और दया जैसा कोई धर्म नहीं है।

हंसो शुक्लः बको शुक्लः को भेदो बकहंसयो।
नीरक्षीरविवेके तु हंसो हंसः बको बकः॥

हंस भी सफेद रंग का होता है और बगुला भी सफेद रंग का ही होता है फिर दोनों में क्या भेद (अन्तर) है? जिसमें दूध और पानी अलग कर देने का विवेक होता है वही हंस होता है और विवेकहीन बगुला बगुला ही होता है।

काको कृष्णः पिको कृष्णः को भेदो पिककाकयो।
वसन्तकाले संप्राप्ते काको काकः पिको पिकः॥

कोयल भी काले रंग की होती है और कौवा भी काले रंग का ही होता है फिर दोनों में क्या भेद (अन्तर) है? वसन्त ऋतु के आगमन होते ही पता चल जाता है कि कोयल कोयल होती है और कौवा कौवा होता है।

विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्॥

विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता प्राप्त होती है, पात्रता से धन प्राप्त होता है, धन से धर्म की प्राप्ति होती है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।

विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम्॥

कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा है,

कोकिला का रुप स्वर है, और स्त्री का रुप पातिव्रत्य है ।

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥

अपने बालक को न पढ़ाने वाले माता व पिता अपने ही बालक के शत्रु हैं, क्योंकि हंसो के बीच बगुले की भाँति, विद्याहीन मनुष्य विद्वानों की सभा में शोभा नहीं देता.

दुर्जनः प्रियवादीति नैतद् विश्वासकारणम्।
मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे हृदये तु हलाहलम्॥

दुर्जन व्यक्ति यदि प्रिय (मधुर लगने वाली) वाणी भी बोले तो भी उसका विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि उसे जबान पर (प्रिय वाणी रूपी) मधु होने पर भी हृदय में हलाहल (विष) ही भरा होता है।

विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेष धनं मतिः।
परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम्॥

परदेस में रहने के लिए विद्या ही धन है, व्यसनी व्यक्ति के लिए चातुर्य ही धन है, परलोक की कामना करने वाले के लिए धर्म ही धन हैं किन्तु शील (सदाचार) सर्वत्र (समस्त स्थानों के लिए) ही धन है.

लालयेत् पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत्॥

पाँच वर्ष की अवस्था तक पुत्र का लाड़ करना चाहिए, दस वर्ष की अवस्था तक (उसी की भलाई के लिए) उसे ताड़ना देना चाहिए और उसके सोलह वर्ष की अवस्था प्राप्त कर लेने पर उससे मित्रवत व्यहार करना चाहिए।

अन्नदानं परं दानं विद्यादानमतः परम्।
अन्नेन क्षणिका तृप्तिः यावज्जीवं च विद्यया॥

अन्न का दान महादान है और विद्या का दान भी परमदान है. दान में अन्न प्राप्त करने वाले को कुछ क्षणों के लिए ही तृप्ति प्राप्त होती है जबकि दान में विद्या प्राप्त करने वाला ( जीवनपर्यन्त तृप्ति प्राप्त करता है।

मूर्खस्य पंच चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधस्य दृढ़वादश्च परवाक्येषवनादरः॥

मूर्खों के पाँच लक्षण होते हैं - गर्व (अहंकार), दुर्वचन (कटु वाणी बोलना), क्रोध, कुतर्क और दूसरों के कथन का अनादर।

नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनो जनाः।
शुष्ककाष्ठश्च मूर्खश्च न नमन्ति कदाचन॥

जिस प्रकार से फलों से लदी हुई वृक्ष की डाल झुक जाती है उसी प्रकार से गुणीजन सदैव विनम्र होते हैं किन्तु मूर्ख सूखी लकड़ी के समान अकड़ से रहता है. 


परोपदेशवेलायां शिष्टाः सर्वे भवन्ति वै।
विसमरन्तीह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुस्थिते॥

दूसरों के कष्ट में पड़ने पर हम उन्हें जो उपदेश देते हैं,

स्वयं कष्ट में पड़ने पर उन्हीं उपदेशों को भूल जाते हैं। 

मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना कुण्डे कुण्डे नवं पयः।
जातौ जातौ नवाचारा नवा वाणी मुखे मुखे॥

भिन्न-भिन्न मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न मति (विचार) होती है, भिन्न-भिन्न सरोवर में भिन्न-भिन्न प्रकार का पानी होता है, भिन्न-भिन्न जाति के लोगों के भिन्न-भिन्न जीवनशैलियाँ (परम्परा, रीति-रिवाज) होती हैं और भिन्न-भिन्न मुखों से भिन्न-भिन्न वाणी निकलती है।

नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभारणं गुनः।
गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा॥

मनुष्य का अलंकार (गहना) रूप होता है, रूप का अलंकार (गहना) गुण होता है, गुण का अलंकार (गहना) ज्ञान होता है और ज्ञान का अलंकार (गहना) क्षमा होता है।

अहो दुर्जनसंसर्गात् मानहानिः पदे पदे।
पावको लौहसंगेन मुद्गरैरभिताड्यते॥

दुष्ट के संग रहने पर कदम कदम पर अपमान होता है। 

पावक (अग्नि) जब लोहे के साथ होता है तो उसे घन से पीटा जाता है।

चिता चिन्तासम ह्युक्ता बिन्दुमात्र विशेषतः।
सजीवं दहते चिन्ता निर्जीवं दहते चिता॥

चिता और चिंता में मात्र एक बिन्दु (अनुस्वार) का ही फर्क है किन्तु दोनों ही एक समान है, जो जीते जी जलाता है वह चिंता है और जो मरने के बाद (निर्जीव) को जलाता है वह चिता है।

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भूविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥

विद्या, तप, दानशीलता, शील, गुण तथा धर्म से विहीन व्यक्ति मृत्युलोक (पृथ्वी) पर भार के समान है, वह मनुष्य के रूप में पशु ही है.

Monday, 27 May 2019

दुर्गाभाभी

"दुर्गावती देवी" उर्फ़ दुर्गा भाभी का जन्म 7 अक्टूबर सन 1907 को प्रयाग (तत्कालीन इलाहाबाद ) के शहजादपुर नामक गाँव में, पंडित बांके बिहारी के यहाँ हुआ था. उनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे. दस वर्ष की अल्प आयु में ही दुर्गा भाभी का विवाह लाहौर के भगवतीचरण बोहरा के साथ हो गया.
भगवती चरण बोहरा के पिता रायबहादुर शिवचरण बोहरा रेलवे में ऊंचे अधिकारी थे. वे चाहते थे कि उनका बेटा भी रेलवे में अधिकारी बने लेकिन भगवती चरण जी अपने पिता से बिलकुल उलट थे. वे अंग्रेजों को भारत का दुश्मन मानते थे और उनकी नौकरी करने को हरगिज तैयार नहीं थे. उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्ति का रास्ता चुना.
भगवती चरण जी पहले कांग्रेस में शामिल हुए थे लेकिन लेकिन चौरीचौरा काण्ड के बाद सत्याग्रहियों के प्रति गांधी जी के व्यवहार से खिन्न होकर वे चन्द्र शेखर आजाद और राम प्रसाद विस्मिल के ग्रुप "हिन्दुस्थान सोसलिष्ट रिपबलिकन एसोसियेशन" के सदस्य बन गए. उनकी आयु और विद्वता के कारण सभी उन्हें बड़ा भाई मानते थे.
भगवती चरण जी को बड़ा भाई मानने के कारण उनकी पत्नी "दुर्गावती देवी" सभी क्रान्तिकारियों की "दुर्गाभाभी" बन गईं, उनका घर क्रांतिकारियों का आश्रयस्थल था. "दुर्गाभाभी" का महत्त्व केवल इसलिए नहीं है कि वे एक महान क्रांतिकारी की पत्नी थीं बल्कि इसलिए है कि- वे खुद भी महान क्रांतिकारी महिला थी.
चन्द्र शेखर आजाद के पास जो "माउजर" थी उसे भी उन्होंने ही उपलब्ध कराया था. वे क्रांतिकारियों की योजनाओ का भी हिस्सा रहती थी. "हिन्दू महासभा" के नेता "लाला लाजपत राय" की लाठीचार्ज में हुई मौत का बदला सभी क्रांतिकारी लेना चाहते थे. उस समय भी स्कोट को मारने के लिए उन्होंने खुद को प्रस्तुत किया था.
लेकिन चन्द्र शेखर आजाद ने उनको मना कर दिया और खुद, भगत सिंह और राजगुरु के साथ मिलकर स्कोट को मारने का फैसला किया. हालांकि वे लोग स्काट के बजाय "सांडर्स" को मारने में कामयाब हुए थे, सांडर्स बध के बाद सरदार भगत सिंह और राजगुरु को लाहौर से निकालना बहुत बड़ी चुनौती थी, उस समय इस कार्य का संकल्प दुर्गाभाभी ने लिया.
सरदार भगत सिंह अपने बाल कटाकर अंग्रेज टाइप भारतीय बन गए और दुर्गाभाभी उनकी पत्नी तथा राजगुरु ने उनके नौकर का वेश धर लिया. वे लोग ट्रेन द्वारा लाहौर से कलकत्ता चले गए, उसी ट्रेन में आजाद जी एक साधू के वेश में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कर रहे थे. इस घटना के लिए उनको सर्वाधिक याद किया जाता है.
63 दिन की भूख हड़ताल के बाद लाहौर जेल में जतिन्द्रनाथ दास यानी "जतिन दा" की मौत के बाद उनकी लाहौर से लेकर कोलकाता तक की ट्रेन और कोलकाता में अंतिम यात्रा की अगुवाई दुर्गा भाभी ने ही की थी. रावी तट पर बमों का परीक्षण करते समय अचानक बम फट जाने पर 28 मई, 1930 को भगवती भैया की म्रत्यु हो गई थी.
दुर्गाभाभी के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था लेकिन वे बहुत जल्द इससे उबार गईं. उन्होंने अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए पंजाब प्रांत के पूर्व गवर्नर लॉर्ड हैली पर, 9 अक्टूबर, 1930 को बम से हमला किया जिसमे हैली और उसके सहयोगी घायल हो गए थे. गिरफ्तारी से बचने के लिए दुर्गाभाभी मुबई पहुँच गईं.
एक गद्दार अहिंसावादी नेता ने, जिसने उनको सहारा देने का बचन दिया था उसने ही उनको गिरफ्तार करा दिया. उनको तीन साल की कैद की सजा हुई. सजा की समाप्ति के बाद वे पुनः लाहौर आइ, लेकिन उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व को देखते हुए उन्हें लाहौर से तडीपार कर दिया गया. तब वे गाजियाबाद आकर रहने लगीं.
गाजियाबाद में रहते हुए भी उन पर सरकार लगातार नजर रखती थी, उन्होंने कुछ दिन गाजियाबाद के "प्यारेलाल कन्या विद्यालय" में अध्यापिका के रूप में नौकरी की. लेकिन कुछ समय बाद वे गाजियाबाद छोड़कर लखनऊ चली गई क्योंकि गाजियाबाद में लोग अंग्रेजों के डर से उनसे बात करने में डरते थे.
लखनऊ में उन्होंने छोटा सा मान्टेसरी स्कूल खोला. भगत सिंह की माँ विद्यावती उनसे मिलने अक्सर आती थी और आर्थिक मदद भी करती थी. देश आजाद होने के बाद जहां फर्जी देशभक्त बड़े बड़े पदों पर पहुँच गए वहीँ दुर्गाभाभी और बटुकेश्वर दत्त जैसे सच्चे क्रांतिकारी अपनी आजीविका के लिए ही संघर्ष करते रहे.
आजादी के बाद भी सरकार उनकी जासूसी करती थी कि उनसे कौन कौन मिलने आता है. "शहीद" फिल्म बनाने के लिए मनोज कुमार "दुर्गाभाभी" से मिले तो मनोज कुमार से भी पुलिस ने पूंछताछ की थी. मनोज कुमार द्वारा दी गई आर्थिक मदद से उन्हें अपना स्कूल का विस्तार करने में मदद मिली. आज उसे मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है.
ब्रद्धावस्था में वे पुनः गाजियाबाद आकर रहने लगीं और 14 अक्टूबर 1999 को गाजियाबाद में ही उन्होंने सबसे नाता तोड़ते हुए इस दुनिया से अलविदा कर लिया. उन महान क्रांतिकारी महामहिला को सादर नमन करता हूँ. साथ ही उन फर्जी देशभक्तों को धिक्कारता हूँ जो महान क्रांतिकारियों की जासुसी करबाते थे.
बताया जाता है कि - 1956 में जब प्रधानमंत्री नेहरु लखनऊ आये थे तो उन्होंने दुर्गाभाभी को आर्थिक मदद देने की बात कही थी, जिसे दुर्गाभाभी ने ठुकरा दिया था. सोंचने वाली बात यह है कि - जब द्र्गाभाभी ने मनोज कुमार की मदद को स्वीकार कर लिया और अन्य लोगों से भी मदद ली तो उन्होंने नेहरु को इनकार क्यों किया ?

दुर्घटना के समय घबराकर इधर उधर भागने के बजाय, होश से काम लें

 सूरत ( गुजरात) के एक कोचिंग सेंटर में आग लग गई जिसके कारण 18 मासूम बच्चों की मौत हो गई और 20 से ज्यादा घायल हो गए. हमारे देश के लोग इस दुर्घटना से कोई सबक सीखकर कोई सार्थक उपाए सोंचने के बजाय, दूसरों पर छींटाकशी करने के प्रिय कार्य में लग गए. उनके लिए यह मात्र बिरोधी बिचारधारा वालों मजाक उड़ाने का मुद्दा है,
जबकि होना तो यह चाहिए कि - इस दुर्घटना से हुए मानवीय नुकशान को देखते हुए, उन उपायों के बारे में सोंचते, जिससे आगे कभी कहीं और ऐसी दुर्घटना न हो. लेकिन हमारे देश के तथाकथित विद्वान् लोग इस अग्निकांड को लेकर देश का माजक बना रहे है कि हमारे देश में दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति ती है लेकिन चार मंजिल पहुचने वाली सीढ़ी नहीं.
ऐसा बोलकर वे बुद्धिजीवी यह सोंच रहे हैं जैसे उन्होंने कोई बहुत महान काम दिया है. ऐसा बोलने वालों में केवल अनपढ़ लोग ही नहीं बल्कि उच्च शिक्षित लोग भी शामिल हैं जिनकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है समाज को राह दिखाने की. भारत में दुर्घटनाओं में जो सबसे ज्यादा मौते होती हैं उसका सबसे बड़ा कारण दुर्घटनाओं से बचने की जानकारी का अभाव है.
हमारे देश में स्कूलों के पाठ्यक्रम या किसी भी विशेष कैंप में कहीं यह सिखाया ही ही नहीं जाता है कि - दुर्घटना के समय हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए. कोई भी दुर्घटना होने पर हम बस बदहवास होकर इधर-उधर भागने लगते है और ऐसा करके अपने साथ साथ अन्य लोगों के लिए भी मुशीबत पैदा कर देते हैं .
हमारे देश में भवन निर्माण के मानको का ध्यान रखने में लापरवाही बरती जाती है या दुर्धटनाओं से बचाने वाले उपकरणों का अभाव है यह एक अलग मुद्दा है और इसपर सरकार और सामाजिक संस्थाओं को ध्यान देना ही चाहिए लेकिन इससे भी ज्यादा जरुरी, इस जानकारी का प्रसार है कि दुर्घटना के समय क्या करें तथा क्या न करें.
कुछ साल पहले जे. पी. होटल वसंत विहार (नई दिल्ली) में आग लग गई, जिसमें बहुत सारे भारतीय मारे गए लेकिन सभी जापानी और अमेरिकन बच गए. जानते हैं क्यों ?
1. सभी अमेरिकन और जापानी लोगों ने घबराकर इधर भागने के बजाय अपने कमरों के दरवाज़ों के नीचे खाली जगहों में गीले तौलिये लगा दिए और खाली जगहों को सील कर दिया, जिससे धुआं उनके कमरों तक नहीं पहुंच सका या बहुत कम मात्रा में पहुंचा.
2. इन सभी विदेशी मेहमानों ने अपनी नाक पर गीले रुमाल बांध लिए, जिससे उनके फेफड़ों में धुआं प्रवेश न कर सके.
3. सभी विदेशी मेहमान अपने अपने कमरों के फर्श पर औंधे लेट गए.
(क्योंकि धुआं हमेशा ऊपर की ओर उठता है)
इस प्रकार जब तक अग्निशमन विभाग के कर्मचारी वहां पहुंचे, तब तक वे लोग अपने आपको जीवित रख पाने में सफल रहे. जबकि होटल में मौजूद ज्यादातर भारतीय मेहमानों को इन सुरक्षा उपायों के बारे में पता ही नहीं था इसलिए वे इधर से उधर भागने लगे और उनके फेफड़ों में धुआं भर गया और कुछ समय में ही उनकी मौत हो गई.
किसी भी दुर्घटना के समय सबसे ज्यादा जरुरी काम होता है राहतकर्मियों के आने तक, खुद को किसी भी तरह से जिन्दा रखना. कोई भी दुर्घटना में फंस जाने के बाद राहतकर्मियों के आने में कुछ समय तो लगना ही है इसलिए घबराकर इधर उधर भागने के बजाये केवल वह उपाए करना चाहिए जिससे अधिक से अधिक समय तक खुद को बचाये रख सकें.
24.05.2019 को सूरत के एक कोचिंग सेंटर में लगी आग में जो इतने सारे मासूम बच्चों की मौत हुई उसके पीछे भी सबसा बड़ा कारण अज्ञानता है. कोचिंग सेंटर में आग लगते ही भगदड़ मच गई और बच्चों ने आग से बचने के लिए चार मंजिला ऊंची इमारत से छलांग लगानी शुरू कर दी, वो आग से तो बच गए लेकिन गिरने से उनकी म्रत्यु हो गई
उक्त भवन के निर्माणे में नियमो में लापरवाही और भवन में सुरक्षा उपकरणों तथा अग्नि शमन उपकरणों का अभाव तो इस दुर्घटना का कारण है ही लेकिन बच्चों में जानकारी का अभाव भी इसकी कम बजह नहीं है. यदि स्कूलों में दुर्घटना से बचने की शिक्षा और प्रशिक्षण दिया जाता तो शायद इतनी ज्यादा संख्या में बच्चों की जान नही जाती.
हमेशा यही देखा गया है कि - किसी भी अग्निकांड में जितनी भी मौते होती हैं, उनमे जलने के कारण मरने वालों की संख्या बहुत कम होती है. मृतकों में ज्यादा संख्या धुएं के कारण दम घुटने से या भगदड़ में गिरने और कुचले जाने से होती है. ऐसा केवल जानकारी के अभाव और घबराहट में इधर उधर भागने से होता है.
क्योंकि आग से घिरने की स्थिति में, हम लोग ज्यादातर धैर्य से काम नहीं लेते हैं और इधर से उधर भागने लगते हैं. भागने से हमारी सांसें तेज़ हो जाती हैं, जिसके कारण बहुत सारा धुआं हमारे फेफड़ों में प्रवेश कर जाता है और हम बेहोश होकर ज़मीन पर गिर जाते हैं तथा उसके बाद आग की लपटों से बचना लगभग असंभव हो जाता है.
इसलिए आग लगने की स्थिति में ये सुरक्षा उपाय अपनाएं:-
1. भगदड़ न मचाएं और अपने होश कायम रखें ताकि अन्य लोग आपकी मदद कर सकें.
2. अपने नाक पर गीला रुमाल या गीला मोटा कपड़ा बांधें. जिसे धुंआ नाक में न जाए.
3. यदि किसी कमरे में बंद हों तो, उसके खिड़की दरवाज़े बंद कर दें तथा उनके नीचे, ऊपर या कहीं से भी धुआं आने की संभावना हो तो उस जगह को भी गीले कपड़े से सील कर दें.
4 अपने आसपास के लोगों से भी ऐसा ही करने को कहें।
5. फर्श पर लेट जाएं और अग्निशमन की सहायता की प्रतीक्षा करें. अग्निशमन वाले प्रत्येक कमरे की जांच करते हैं और वे फंसे हुए व्यक्तियों को ढूंढ लेंगे.
6. यदि आपका मोबाइल काम कर रहा हो तो आप लगातार 100, 101 या 102 पर मदद के लिए कॉल करते रहें. उन्हें आप अपने स्थान की जानकारी भी दें.
इसके अलाबा मैं सरकार से निवेदन करना चाहूँगा कि- स्कूल / कालेज के पाठ्यक्रम में दुर्घटना ( आग, बाढ़, तूफ़ान, भूकंप, बाहन टक्कर, आदि ) से बचने के उपायों पर जानकारी दे तथा समय समय पर विशेषज्ञों की देखरेख में इसका अभ्यास (मोक ड्रिल) कराये. स्कूल में मिली यह जानकारी उनको जीवन भर काम आएगी.
इसके अलावा सुरक्षा उपकरण बनाने वाली कम्पनियों को भी चाहिए कि - वे समय समय पर शार्ट टर्म शिविर लगाएं जहाँ सुरक्षा उपकरणों का प्रदर्शन किया जाए तथा उनको चलाना सिखाया जाए. ऐसा करने से उनके उत्पाद का प्रोमोशन और उनकी बिक्री बढ़ेगी तथा जनता को भी उपयोगी जानकारी मिलेगी.

Wednesday, 22 May 2019

क्या था मेरठ का "हाशिमपुरा कांड" ?

 हाईकोर्ट ने 31 साल पुराने हाशिमपूरा काण्ड मामले में 16 पूर्व पुलिस (PAC) कर्मियों को उम्रकैद की सजा सुनाई है. बहुत से लोगों को इस मामले के बारे में पता नहीं होगा कि- हाशिमपुराकांड क्या था तथा यह कहाँ हुआ था. बात 1985 से 1987 के बीच के समय की है, जब केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी.
उस समय राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और वीर बहादुर सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर लगे ताले को खोलने के लिएं बजरंगदल और विश्व हिन्दू परिषद् ने लोकतांत्रिक आन्दोलन चलाया था. 1986 में कोर्ट के आदेश पर श्रीराम जन्मभूमि पर लगे ताले को खोल दिया गया और भीतर जाकर पूजा होने लगी.
इस बात से नाराज होकर कई मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंसक प्रदर्शन हुए. जिनमे सबसे ज्यादा हिंसक प्रदर्शन मेरठ में हुए. मेरठ में कई माह तक हिंसक प्रदर्शन चलते रहे. देखते ही देखते मेरठ में यह हिंसक प्रदर्शन साम्प्रदायिक दंगे में बदल गए. दंगों को रोकने के लिए मेरठ में कई बार कर्फ्यू लगाया गया, लेकिन फिर भी शान्ति नहीं हुई.
इसी बीच "सैयद शहाबुद्दीन" ने 30 मार्च को दिल्ली में रैली बुलायी. रेली में साम्प्रदायिक भाषण दिए गए और वक्ताओं ने ताला खोलने के बिरोध में मुसलमानों से अपने घरों पर काले झंडे लगाने का आव्हान किया. कहा जाता है कि ऐसा इसलिए किया गया जिससे मुसलमानों के घरों को पहेचान कर उनको निशाना बन्ने से बचाया जाए.
इस रैली से लौटकर आये मुस्लिमस मेरठ के मुसलमानों ने बहुत स्वागत किया. और उनके कहने पर अपने घरों पर काले झंडे लगाए. इसे देखकर बिना किसी साजिश का अनुमान लगाए जोश में आकर हिन्दू संगठनों ने भी हिन्दुओं से अपने घर पर भगवा झंडे लगाने को कहा. हिन्दुओं द्वारा भगवा झंडे लगाना, हिन्दुओं के लिए और भी घातक रहा.
कई जगह मुस्लिम दंगाइयों ने हिन्दुओं पर भयानक् हमले किये. बताया जाता है कि - मेरठ के एक सिनेमाघर पर भी हमला किया गया, जिसमे गुप्त पहेचान को चेक करके हिन्दुओं की हत्या की गई. मेरठ-दौराला रोड पर एक बस रोककर उसमे भी इसी प्रकार सवारियों को धर्म के आधार पर अलग अलग कर हिन्दुओं की हत्या की गई.
सरकारी आंकड़ों के हिसाब से उस दंगे में कितने हिन्दू मारे गए यह तो सरकारी आंकड़ों से ही पता चलेगा लेकिन मेरठ के लोगों का कहना था कि - उस दंगे में 1000 से ज्यादा हिन्दू मारे गए थे. सिनेमाघर में ही 80 लोग जलाकर मार दिए गए थे. दौराला बस काण्ड में भी 40 हिन्दुओं को पेड़ से बाँधकर बुरी तरह से तडपाकर मारा गया था.
मेरठ के हाशिमपूरा, कबाड़ी बाजार, आदि जैसे क्षेत्रों में हिन्दुओं का सबसे ज्यादा बुरा हाल हुआ. अनेकों लोग मार दिये गए, उनकी संपत्ति लूट ली गई, महिलाओं की इज्जत लूटी गई. मेरठ शहर के अलाबा आसपास के मुश्लिम बहुल कस्बों और गाँवों में भी हिन्दुओं के साथ बहुत अत्याचार हुए. वे लोग 30मार्च के बाद ही दंगे की तैयारी किये हुए थे.
उसके बाद मेरठ के हालात और खराब हो गए. यह दंगा रुक रुक कर लगभग डेढ़ महीने तक चला जिसमे बहुत लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति का नुकशान हुआ. तब दंगे को रोकने के लिए PAC के जवानो को मेरठ में लगाया गया. इंटेलीजेंस रिपोर्ट और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान के आधार पर PAC ने संदिग्ध लोगों की सूची तैयार की.
PAC ने दंगे के संदिग्धों को पकड़ना शुरू कर दिया. 22 मई 1987 की रात को PAC ने मेरठ के हाशिमपूरा और आसपास के क्षेत्र से दो सौ से ज्यादा लोगों को हिरासत में लिया. पूछताछ और लिस्ट से मिलान के बाद ज्यादातर लोगों को छोड़ दिया गया लेकिन 43 लोगों को दंगाई मानते हुए वे ट्रक में बिठाकर मुरादनगर की तरफ ले गए.
अगले दिन सुबह लोगों को नहर में 38 शव नहर में दिखाई दिए. उस रात जो हुआ वो बहुत गलत हुआ लेकिन मेरठ के लोगों का यही कहना था कि - माना कि- PAC को कानून को अपने हाथ में लेने का हक़ नहीं था, लेकिन आखिर क्या कारण है कि - जो दंगा किसी भी तरह से नहीं रुक रहा था वह दंगा उस हाशिमपुरा काण्ड के बाद कैसे रुक गया ?

मुघलसराय : मुघलों की अहेसानफरामोशी का सबूत है मुघलसराय

मुग़लसराय न मुघलो की कोई सराय थी और न ही यह कोई बड़ा शहर था जिसका कोई विशेष महत्त्व हो. यह तो वाराणसी जिले की चदौली तहसील का एक छोटा सा कस्बा था. मुग़लसराय का महत्त्व तो तब बना जब वहां अंग्रेजों ने रेलवे का बड़ा जंक्शन बनाया.
मुघलसराय का कोई ऐतिहासिक महत्त्व नहीं है यहाँ आपको ढूँढने पर भी वहां के मूल निवाशी नहीं मिलेंगे. जिनसे भी आप बात करेंगे उनके पिता, दादा या परदादा कहीं और से रेलवे की नौकरी के कारण वहां आये हुए मिलेंगे, जो रिटायरमेंट के बाद वहीँ बस गए थे.
वाराणसी से नजदीक होना तथा दिल्ली - कोलकाता मुख्य मार्ग पर बड़ा जंक्शन और एशिया का सबसे बड़ा "रेलवे मार्शलिंग यार्ड" होने के कारण इसका महत्त्व बढ़ता चला गया. आज भी वहां जो कुछ है रेलवे मार्शलिंग यार्ड और जंक्शन के कारण ही है.
मुग़ल सराय के नाम के पीछे की भी जो कहानी मुग़ल सराय वाले बताते हैं उससे भी मुगलों की किसी महानता का नहीं बल्कि उनकी अहेसान फरामोशी का पता चलता है. यह कहानी तब शुरू होती है जब शेरशाह ने हुमायु को चौसा की लड़ाई में पराजित किया था.
हुमायु , शेरशाह सुरी से अपनी जान बचाने के लिए, चौसा से कन्नौज की तरफ भाग रहा था. कर्मनाशा नदी ( उस क्षेत्र में बिहार - उत्तर प्रदेश की सीमा रेखा) को पार करने के बाद उसे कुछ राहत महसूस हुई. गंगा के खादर में बचते हुए कन्नौज की तरफ बढ़ने लगा.
भूख, प्यास और थकान से निढाल होकर वह एक छोटे से गाँव में पहुंचा. वहां एक ब्राह्मणी जिसका नाम ममता था, उसका द्वार खटखटाया. जब तक ममता वहां पहुँची तो वह लगभग बेहोस होकर गिर पड़ा. ममता उसे घर के भीतर ले गई. उसे पानी पिलाया और भोजन कराया.
रातभर हुमायूं ने वहां विश्राम किया. और सुबह होते ही वह वहां से चला गया. उसके बाद के कई साल हुमायूं ने, कन्नौज, राजस्थान, ईरान, आदि में बिताये. हुमायूं और बाद में उसके बेटे अकबर ने भारत के काफी बड़े भू-
भाग को जीत कर अपना कब्ज़ा कर लिया.
अकबर ने ममता के उस झोपड़े पर भी कब्ज़ा कर वहां एक इमारत बनवा दी. उस इमारत पर अकबर ने लिखवाया था कि - हिंदुस्तान के बादशाह हमायुं ने अपने जीवनकाल में एक रात इसी जगह पर बिताई थी. आज से इस जगह का नाम मुगलसराय है.
अहेसान फरामोश अकबर ने ममता की प्रशंसा में एक शब्द भी नहीं लिखा. वहां पर बाद में दो सराय और बन गई. जिस तरह गंगा के उस तरफ काशी एक भव्य और पवित्र नगर था उसी तरह गंगा के इस तरफ का यह स्थान मौज मस्ती का अड्डा बन गया था.
इन सरायों के पास इनके मनोरंजन के लिए वेश्याओं व हिजड़ों का जमावड़ा हुआ करता था. जिनमे सैनिक और व्यापारी अपने मनोरंजन के लिए जाते थे. मुघलसराय का महत्त्व तब बढ़ा जब अंग्रेजों ने उसस जगह को, 1862 में "रेलवे मार्शलिंग यार्ड" बनाने के लिए चुना.
अंग्रेज जब हावड़ा और दिल्ली को रेल मार्ग से जोड़ रहे थे. उस समय दिल्ली और कोलकाता के बीच में सबसे प्रमुख शहर वाराणसी ही था. वाराणसी घना शहर था, इसलिए बनारस के समीप गंगा के इस पार इस निर्जन स्थान यार्ड बनाने के लिए चुना.
रेलवे का बड़ा मार्शलिंग यार्ड होने के कारण यहाँ बहुत सारे कर्मचारी काम करते थे. रेलवे की नौकरी से रिटायर होने के बाद वे वहीँ आस पास बसते चले गए और लगभग सौ साल में वहां अच्छी खासी आवादी हो गई. और मुग़ल सराय एक बड़े शहर में बदल गया.
मुग़लसराय, वाराणसी जिले में ही आता था. 1997 में वाराणसी को विभाजित कर एक नया जिला "चंदौली" बनाया गया, तो मुग़ल सराय चंदौली जिले की एक तहसील बन गया. अब इसी मुग़ल सराय का नाम "पं. दीन दयाल उपाध्याय नगर" रखा गया है.

शेरशाह सूरी : न कोई अर्थशास्त्री था और न ही कोई सड़क निर्माता.


शेरशाह सूरी न कोई अर्थशास्त्री था और न ही कोई सड़क निर्माता. वह बाबर के अधीन जागीरदारों की सेना में एक सैनिक था. उसने कई ऐसी रियासतों में नौकरी की जो मुघल सत्ता के अधीन थी. वह तरक्की करते हुए बड़े ओहदे तक पहुंचा था. बाबर की मौत के बाद उसने हुमायूं के अधीन नौकरी करने के बजाय हुमायूं से धोखा कर सत्ता हथिया ली थी.
1537 में बंगाल पर एक अचानक हमले में शेरशाह ने उसके बड़े क्षेत्र पर कब्जा कर लिया. हालांकि अपने आप को मुगल सम्राटों का प्रतिनिधि ही बताता था. हुमायूं भी जानता था कि शेरशाह गद्दार हो गया है और उसकी चाहत खुद की सल्तनत स्थापित करने की है. तब हुमायूं ने उसको रोकने के लिए 1539 में बक्सर में युद्ध किया जिसमे शेरशाह की जीत हुई.
उस समय मुघल शासकों का सोने का सिक्का चलता था. शेरशाह ने हुमायूं की सत्ता को चुनौती देते हुए मुघलो के सोने के सिक्के के मुकाबले अपना चादी का सिक्का चलाया. शेरशाह द्वारा अपना सिक्का चलाने को एक चुनौती मानते हुए हुमायूं ने 1540 में फिर हमला किया लेकिन चौसा की इस लड़ाई में भी हुमायूं की हार हुई.
शेरशाह के जिस जिस चांदी के सिक्के को "रुपया" कहा जाता है उसकी भी दो बजह बताई जाती हैं. कुछ इतिहासकारों का कहना है कि - शेरशाह ने अपनी बेटी "रूपी" के नाम पर सिक्के का नाम "रूपी" रखा था और कुछ इतिहासकार मानते है कि - "रुपया" संस्कृत के शब्द "रुप् या" "रुप्याह्" मे निहित है, जिसका अर्थ कच्ची चांदी होता है.
बजह जो भी रही हो लेकिन यह सत्य है कि हजारो साल से भारत में स्वर्ण मुद्रा (सोने के सिक्के), रजत मुद्रा (चांदी के सिक्के) , कांस्य मुद्रा (कांसे के सिक्के) चले आ रहे हैं. इसी प्रकार शेरशाह ने न कोई सड़क और न ही कोई पुल बनबाया था. उस काल में न ही कोई पक्का रास्ता था. बस राजा लोग प्रचलित मार्ग पर कोस मीनार बनवा देते थे.
कोस मीनार यात्रियों के लिए रास्ते की पहेचान और रुकने का सुरक्षित ठिकाना हुआ करती थी. यह कोस मीनारे बहुत सारे राजाओं ने मार्गों में बनबाई थी. इन कोस मीनारों के आसपास स्थानीय राजा अपने सिपाही रखते थे. पीने के पानी और जलाने की लकड़ी की व्यवस्था करते थे. शेरशाह ने कोई पक्की सड़क नहीं बनबाई.
शेरशाह कोई अर्थशास्त्री नहीं था. शेरशाह ने तो केवल मुघल (हुमायूं) की सत्ता को चुनौती देते हुए अपना सिक्का चलाया था. शेरशाह की सत्ता भी मात्र 5 साल तक रही. भारत में अर्थव्यवस्था की बहुत ही सुद्रढ़ प्रणाली का इतिहास रहा है. कौटिल्य का अर्थशास्त्र शेरशाह के पैदा होने से 1700 साल से भी ज्यादा पुराना है.
शेरशाह ने किसी मुद्रा का आविष्कार नहीं किया था बल्कि उसने अपना सिक्का चलाकर मुघल (हुमायु) सत्ता को चुनैती दी थी. ज्यातर राजा अपने नाम के सिक्के चलवाते थे. शेरशाह से बहुत समय पहले से स्वर्ण मुद्रा 'चाँदी का टका' तथा 'तांबे' का ‘जीतल’ चलता था.