Tuesday, 25 September 2018

राव तुलाराम यादव

 "राव तुलाराम यादव" का जन्म 9 दिसंबर 1825 में हरियाणा प्रान्त के रेवाड़ी जिले में एक यादव राज-घराने में हुआ था. जब तुलाराम मात्र 14 वर्ष के थे तभी इनके पिता का देहांत हो गया था. पिता क मृत्यु के बाद राज्य का सारा भार इनकी माता जी पर आ गया था. उस समय देश के काफी बड़े हिस्से पर अंग्रेजों का कब्ज़ा था.
राव तुलाराम के पूर्वजों के पास 87 गावों पर आधारित जागीर थी जिसकी उस समय की कीमत 20 लाख रूपये रही होगी, परन्तु मराठा-ब्रिटिश संघर्ष के समय राववंश द्वारा मराठों का साथ देने के कारण अंग्रेजों ने नाराज होकर उनकी जागीर को धीरे-धीरे इतना छोटा कर दिया था कि उसकी कीमत मात्र एक लाख रूपये रह गई थी.
अंग्रेज चाहते थे कि वह इस प्रांत को अपनी सीमा के अन्दर ले लें और राज्य के लोगों से कर लेकर इनका शोषण करें. एक 14 साल के बच्चे को राजगद्दी पर बैठा देख अंग्रेज इसे अपने कब्जे में लेने की जुगत लगाने लगे. राव तुलाराव और उनकी माँ ने किसी तरह अपनी रियासत (जागीर) को अंग्रेजों के चंगुल में जाने से बचे रखा.
उधर मेरठ में स्वाधीनता संग्राम को आरम्भ करने वाले "राव कृष्ण गोपाल", "राव तुलाराम" के चचेरे भाई थे, जो मेरठ में कोतवाल पद पर थे, मेरठ की क्रान्ति के समय 10 मई 1857 को राव तुलाराम भी मेरठ में ही थे. "राव कृष्ण गोपाल" ने समस्त कैदखानों के दरवाजों को खोल दिया था तथा नवयुवकों को स्वतन्त्रता के लिए ललकारा था.
क्रांतिकारियों ने मेरठ में अंग्रेजो और उनके चापलूसों को मारने के बाद , दिल्ली की तरफ कूच करने का निर्णय लिया. मेरठ के क्रांतिकारी और सैनिक, "राव कृष्ण गोपाल" के नेतृत्व में दिल्ली को कूच कर गए. "राव तुलाराम" ने दिल्ली जाने के बजाय रेवाड़ी जाने का निर्णय लिया, जिससे उनकी सेना भी क्रान्ति में शामिल हो सके.
रेवाड़ी पहुंचकर राव तुलाराम में 17 मई 1857 को अपनी 500 सैनिकों की फ़ौज के साथ तहसील मुख्यालय पर धावा बोल दिया. तहसीदार तथा थानेदार को बाहर निकाल कर तहसील के खजाने और सरकारी दफ्तरों आदि पर पूर्ण रूप से कब्ज़ा कर लिया. उन्होंने स्वयं को रेवाड़ी, भोरा और शाहजहानपुर के 421 गावों का शासक घोषित कर दिया.
इस बात की खबर जब अंग्रेजों को हुई तो सभी हैरान रह गये और बड़े अधिकारियों को बोला गया कि जल्द से जल्द तुलाराम को गिरफ्तार किया जाए अन्यथा यह आग जल्दी ही देश के अन्य हिस्सों मैं भी फैल जाएगी. इसके बाद अंग्रेज सेना ने राव तुलाराम जी पर हमला बोल दिया पर लेकिन उनके सामने कोई नहीं टिक पाया.
मि. फोर्ड के नेत्रत्व में अंग्रेजों ने रेवाड़ी के आस पास की अपनी मातहत रियासतों की सहायता से और भी कई हमले किये लेकिन जितनी भी बार अंग्रेजों ने उनके साथ लड़ाई लड़ी, उन सभी जगह अंग्रेजों को ही जान बचाकर भागना पड़ा था. रेवाड़ी को संघर्षरत देखकर दिल्ली से राव कृष्णगोपाल भी रेवाड़ी पहुँच गए.
तुलाराम और कृष्णगोपाल ने रेवाड़ी में आस पास के राजाओं और नवाबो की सभा बुलाई. उसमे राजा अलवर, राजा बल्लभगढ़, राजा निमराणा, नवाब झज्जर, नवाब फरुखनगर, नवाब पटौदी, नवाब फिरोजपुर झिरका पहुंचे लेकिन अंग्रेजो से मुकाबला करने की बात पर वे पीछे हट गए. जोधपुर के महाराज जो उनके ख़ास मित्र थे वे सभा में भी नहीं गए.
इस बात पर राव तुलाराम क्रोधित हो गए और सभा में घोषणा कर दी कि- "हे भारतमाता ! मैं सब कुछ तन, मन, धन तुम्हारी विपत्तियों को नष्ट करने में समर्पित कर दूंगा. चाहे कोई सहायता दे या न दे, वह राष्ट्र के लिए कृत-प्रतिज्ञ हैं. उनकी इस सिंह गर्जना का राजाओं और नवाबो पर असर नहीं पड़ा लेकिन उनके बहुत सैनिक राव के साथ आ गये.
उन्होंने अपने चचेरे भाई गोपालदेव को सेनापति नियुक्त किया. जब अंग्रेजों को पता चला तो मि० फोर्ड के नेतृत्व में पुनः एक विशाल सेना राव तुलाराम के दमन के लिए भेजी गई. राव साहब को यह पता चला कि- इस बार मि० फोर्ड बड़े दलबल के साथ चढ़ा आ रहा है तो उन्होंने रेवाड़ी में युद्ध न करने की सोच महेन्द्रगढ़ के किले में मोर्चा लेने की सोंची.
अंग्रेजों ने रेवाड़ी में उनके किले को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया लेकिन वे वहां से महेंद्रगढ़ जा चुके थे. परन्तु महेन्द्रगढ़ किले के अध्यक्ष स्यालुसिंह ने किले के फाटक नहीं खोले. (बाद में अंग्रेजों ने दुर्ग न खोलने के उपलक्ष्य में स्यालु सिंह को समस्त कुतानी ग्राम की भूमि प्रदान कर दी) महेंद्रगढ़ से निराश होजकर वे नारनौल चले गए
नारनौल के समीप एक पहाड़ी स्थान नसीबपुर के मैदान में उन्होंने मोर्चा लगाया, अंग्रेज सेना ने वहां हमला कर दिया. साधन न होने पर भी राव की सेना बहादुरी से लड़ी. तीन दिन तक भीषण युद्ध हुआ. तीसरे दिन राव तुलाराम के घोड़े ने चेतक की तरह बहादुरी दिखाते हुए लम्बी छलांग लगाईं और राव तुलाराम अंग्रेज अफसर के हाथी के समीप पहुंच गए
वह अंग्रेज अफसर काना साहब के नाम से विख्यात था. वीरवर तुलाराम ने पहला प्रहार हाथी के मस्तक पर किया और दूसरे वार से काना साहब को यमपुर पहुंचा दिया. काना साहब के धराशायी होते ही शत्रु सेना में भगदड़ मच गई. ।मि० फोर्ड भी मैदान छोड़ भाग गए और दादरी के समीप मोड़ी नामक ग्राम में एक जाट चौधरी के यहां शरण ली.
बाद में मि० फोर्ड ने अपने यहाँ शरण देने वाले चौधरी को जहाजगढ़ (रोहतक) के समीप बराणी ग्राम में एक लम्बी चौड़ी जागीर दी और उस गांव का नाम फोर्डपुरा रखा गया. राव तुलाराम के नेतृत्व में क्रांतिकारी सेना जीत रही थी लेकिन इसी दौरान पटियाला, नाभा, जीन्द एवं जयपुर की देशद्रोही फौज भी अंग्रेजों की सहायता के लिए पहुँच गई.
भीषण युद्ध छिड़ गया. इस युद्ध में नसीबपुर के मैदान में राजा तुलाराम के महान् प्रतापी योद्धा, वीर शिरोमणि राव कृष्णगोपाल, राव रामलाल, राव किशनसिंह, सरदार मणिसिंह, मुफ्ती निजामुद्दीन, शादीराम, रामधनसिंह, समद खां पठान, आदि महावीर, वीरगति को प्राप्त हो गए. यहाँ से तुलाराम बीकनेर और जैसलमेर चले गए.
लेकिन वहां भी मदद न मिल पाने के कारण वे कालपी पहुंचे. उस समय कालपी में पेशवा नाना साहब के भाई राव साहब, तांत्या टोपे एवं रानी झांसी भी उपस्थित थी. उन्होंने राव तुलाराम का महान् स्वागत किया. कालपी स्थित राजाओं ने राव राजा तुलाराम को अफगानिस्तान जाकर सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से काबुल भेजने का निर्णय लिया.
राव तुलाराम वेष बदलकर अहमदाबाद और बम्बई होते हुए बसरा (ईराक) पहुंचे. परन्तु खाड़ी फारस के किनारे बुशहर के अंग्रेज शासक को इनकी उपस्थिति का पता चल गया. लेकिन भारतीय सैनिकों की टुकड़ी जो यहां थी, उसने राव तुलाराम को सूचित कर दिया और वे वहां से बचकर सिराज (ईरान) की ओर निकल गये.
सिराज के शासक ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें शाही सेना की सुरक्षा में ईरान के बादशाह के पास तेहरान भेज दिया. तेहरान स्थित अंग्रेज राजदूत ने शाह ईरान पर उनको बन्दी करवाने का जोर दिया, लेकिन शाह ने मना कर दिया. तेहरान में उन्होंने रूसी राजदूत से सहायता मांगी और राजदूत ने आश्वासन भी दिया.
इसी बीच उनको पता चला कि- भारतीय स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लेने वाले बहुत से सैनिक भागकर अफगानिस्तान आ गये हैं तो राजा तुलाराम भी तेहरान से काबुल आ गए, परन्तु यहाँ भी सहायता प्राप्त न हो सकी. राव तुलाराम को बड़ा दुःख था कि- छः वर्ष तक अपनी मातृभूमि से दूर रहकर भी वे कुछ ख़ास नहीं कर पाए.
तब तक भारत में प्रथम स्वाधीनता संग्राम समाप्त हो चुका था. निराशा के कारण वे बीमार हो गए और 23 सितम्बर 1863 को उनका स्वर्गवाश हो गया. उनकी इच्छा थी कि उनकी राख को रेवडी की भूमि और गंगा में डाला जाए. कितने दुःख की बात है कि - लोग आज राव तुलाराम और राव कृष्णगोपाल जैसे महान क्रांतिकारियों के नाम भूल चुके है.
ऐसे महान क्रांतिकारियों को मेरा सादर नमन है. मैं वर्तमान हरियाणा सरकार और वर्तमान केंद्र सरकार से निवेदन करता हूँ कि- जिस नशीबपूरा में महान क्रांतिकारियों ने अंग्रेजो से लड़ते हुए अपना बलिदान दिया था वहां उनका भव्य स्मारक बनबाया जाए, साथ ही उन गुमनाम क्रांतिकारियों को यथोचित सम्मान दिया जाए.

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