तीन तलाक और हलाला आजकल काफी चर्चा का बिषय बना हुआ है. तीन बार "तलाक" बोलकर दिया गया जबाब इस्लामी कानून में जायज है अथवा नहीं या फिर "हलाला कुप्रथा" इस्लाम में जायज है या नहीं यह तो विवाद का बिषय हो सकता है लेकिन समाज के निचले तबके में यह आज भी हो रहा है और शिक्षित समाज उनको इग्नोर करता है.
पढालिखा मुश्लिम समाज भी अपने समाज की उन बच्चियों की भलाई के लिए आगे आने से डरते है क्योंकि उनको डर है कि - इससे कट्टरपंथी नाराज हो जायेंगे और जो आजादी अभी उनके पास हैं वह भी उनके पास नहीं रहेगी. इसी डर से वे इस मुद्दे को उठाते नहीं.और पीड़ित महिलाओं की मदद करने के बजाय धमकाने उनको ही लगते है.
तीन तलाक और हलाला की शिकार महलाए टीवी / अखबार में अपनी दुर्दशा के बारे में बता रही है, लेकिन ये बुद्धिजीवी मुश्लिम उन महिलाओं की बात को सुनने के बजाय कुरआन / हदीश की दुहाई देने लगते है. अरे भाई अगर उनके साथ जो हुआ वह कुरआन के हिसाब से गलत था तब तो आपको और भी ज्यादा खुल कर उनकी मदद करनी चाहिए.
क्या आप लोग यह कहना चाहते हैं कि- तीन बार बोल कर दिया गया तलाक मान्य नहीं होता ? क्या आप लोग यह कहते हैं कि - हलाला नाम की कुप्रथा मौजूद नहीं है ? यदि ऐसा नहीं है तो बहुत अच्छी बात है . आपकी इस बात पर अगर कानून की भी मोहर लग जाए तो आप इस बात से आखिर बिदक क्यों जाते जाते हैं ?
आप कहते है - बिना महिला की मर्जी के तीन बार बोलकर दिया गया तलाक, इस्लाम के अनुसार जायज नहीं है तब तो आपको ऐसी पीड़ित महिला की अवश्य ही मदद करनी चाहिए. ऐसे ही अगर किसी महिला को हलाला के लिए मजबूर किया गया हो तो आपको ऐसे लोगों के खिलाफ खुद आगे आकर कार्यवाही अवश्य करनी चाहिए.
जो हलाला आपके अनुसार इस्लाम में है ही नहीं, लेकिन मौलवी लोग करवा रहे है. उसके खिलाफ तो आपको आवाज खुद उठानी चाहिए. आखिर यह पीड़ित बच्चियाँ कहीं बाहर से नहीं आई हैं. हैं तो आपके ही समाज की. आज अगर देश की सरकार उनकी भलाई के लिए कोई कानून बनाना चाहती है तो आपको तो खुद स्वागत करना चाहिए.
अगर सिंगल सिटिंग में तीन बार बोलकर दिया गया तीन तलाक जायज नहीं है तो एक एक महीने के अंतराल पर दो महीने में तीन बार बोला गया तलाक कौन सी अच्छी बात है ? इससे महिला को कौन सा विशेशाधिकार मिल जाता है ? रहती तो वह पुरुष की मर्जी पर ही निर्भर है. उसका तो उस घर परिवार पर तो कोई हक़ नहीं ही है न.
हिन्दू हो या मुस्लिम , यदि पति पत्नी में से कोई गलत जा रहा हो अथवा दोनों साथ रहने के इच्छुक न हों तो दोनों को अवश्य अलग करना चाहिए. लेकिन इसमें पहले उनको एक तय प्रिक्रिया से गुजारना चाहिए. पहले उनकी काउंसलिंग हो, उन दोनों की बात सुनी जाए और उनको अपनी गलती सुधारने का मौका दिया जाए.
ऐसा करने का भी अगर कोई लाभ नहीं मिलता है तो उनकी बातों को सुना जाए, दोनों में से जो गलत हो उसको सजा भी दी जाए और उनको अलग भी किया जाए. इस बात की इजाजत हरगिज न हो कि - पुरुष अपनी मर्जी से एक तरफ़ा तलाक देकर पत्नी को घर से निकाल दे. उनको अलग करने की व्यवस्था केवल न्यायाधीश ही करे.
इसी प्रकार यदि किसी दंपत्ति का तलाक हो भी गया हो, तो उनको फिर से विवाह करने के लिए स्त्री के पहले किसी अन्य से विवाह करने की शर्त नहीं होनी चाहिए. यदि उनको अपनी गलती और जिम्मेदारी का अहेसास हो गया है तो उस औरत को पहले किसी अन्य पुरुष से शादी क्यों करनी पड़े ? यह तो उस महिला के साथ नाइंसाफी है.
अगर आप कहते हैं कि - हलाला जैसा कुछ होता ही नहीं है तो आप हलाला के खिलाफ कानून बनाने की बात से इतना घबराते ही क्यों है ? अगर आपके इस्लामी कानून के हिसाब से हलाला गैर कानूनी कार्य है, तो आप इसे संविधान के हिसाब से भी गैरकानूनी क्यों नहीं होने देना चाहते है. इससे तो आपको फायेदा ही होगा.
आपके खुद के अनुसार "हलाला" गैर इस्लामी कार्य है लेकिन कुछ स्वार्थी मुल्ले /मौलवी गरीबों को बहकाकर लाभ उठा रहे हैं, तब तो आपको खुद ही इस कुप्रथा के खिलाफ कानून बनाने के लिए आवाज उठानी चाहिय . जिससे कि ऐसा गैरइस्लामी काम करने वाला व्यक्ति, किसी भी प्रकार से बच न सके. उसपर दोहरा कानूनी पहरा हो .
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