"जोगेन्द्र नाथ मंडल" जी के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. वे भारत में ब्रिटिश शासन के समय में, बंगाल में दलितों के स्वयंभू नेता थे. आजादी के बाद आजाद भारत का संविधान लिखने में जो भूमिका डा. भीमराव रामजी आंबेडकर ने निभाई थी, वही भूमिका पापिस्तान का संविधान लिखने में "जोगेन्द्र नाथ मंडल" ने निभाई थी.

उन्होंने अपने पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई पहले ढाका में और बाद में कलकत्ता विश्व-विद्यालय से पूरी की थी. कलकत्ता (अब कोलकाता) आने के बाद उनके जीवन की दिशा और दशा बदल गई. उन दिनों ईसाई मिशनरिया दलितों को इसाई बनाने में लगी हुई थी, "जोगेन्द्र नाथ मंडल" ने दलितों को ईसाईयों की चाल में न फंसने से सावधान किया.
"जोगेन्द्र नाथ मंडल" का मानना था कि- दलितों का सबसे ज्यादा शोषण अंग्रेजों के राज में हुआ है. अंग्रेज उनको इसलिए अधिक से अधिक तकलीफ देना चाहते हैं जिससे कि - वो मजबूर होकर धर्मपरिवर्तन कर ले और इसाई बन जाएँ. उस समय अनेकों महान बिचारक अपने अपने तरीके से दलितों की दशा सुधारने का प्रयास कर रहे,
गाँधीजी अस्प्रश्यता के खिलाफ आन्दोलन चलाकर और दलितों की बस्तियों में रहकर उनको अपने साथ लाने का प्रयास कर रहे थे, आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानंद अपने यग्य और हवंन में दलितों को शामिल कर अपने साथ जोड़ने में लगे थे. डा.आंबेडकर दलितों को मंदिरों में प्रवेश और एक ही जगह से पानी का अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे थे,
डा. हेडगेवार "संघ की शाखा" में एक साथ मिलकर खेलकूद करने तथा किसो भी जाति सूचक शब्द से बुलाने के बजाय नाम के साथ "जी" लगाकर बुलाने पर जोर देते थे. वहीँ "जोगेन्द्र नाथ मंडल" का मानना था कि- दलित और मुस्लिम मिलकर ही सवर्णों के ऊपर हावी हो सकते हैं, इसलिए दलितों को मुसलमानों का साथ देना चाहिए.
पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने पहले नौकरी करने की सोंची, परन्तु फिर उनको लगा कि- नौकरी करने के बाद वे समाज के लिए काम नहीं कर पायेंगे. उन्होंने कानून की पढ़ाई शुरू की. कानून की डिग्री हाशिल करने के बाद उन्होंने सन 1935 में कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत करना प्रारंभ कर दिया और साथ ही समाज सेवा से जुड़ गए.
1937 में वे कांग्रेस में शामिल हो गए और उसी बर्ष उन्हें जिला काउन्सिल के लिए मनोनीत किया गया. इसी वर्ष उन्हें बंगाल लेजिस्लेटिव काउन्सिल का सदस्य चुना गया. सन 1939-40 तक वे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के करीब आये. परन्तु उनको एहसास होने लगा कि कांग्रेस के एजेंडे में दलित समाज के लिए ज्यादा कुछ करने की इच्छा नहीं है.
इस बीच वे डा. आंबेडकर के सम्पर्क में आये. वे 19 जुलाई 1942 को डा.आंबेडकर के 'अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन' में अपने साथियों के साथ शामिल हुए. इसके बाद उन्होंने कांग्रेस को छोड़कर बंगाल में "शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन" की स्थापना की. अपनी पार्टी को मजबूत करने के लिए उन्होंने मुस्लिम लीग का साथ पकड़ लिया.
1943 में अपने 21 एम.एल.ए. के साथ मुस्लिम लीग को समर्थन दिया और ख्वाजा नजीमुद्दीन-मंत्रिमंडल में शामिल हो गए. वे प्रथम "कानून एवं श्रम मंत्री" बने. शासन में रहते हुए उन्होंने 'बैगई हालदार पब्लिक एकेडमी' की स्थापना कर नमोशुद्रों के लिए शिक्षण-संस्थाएं खोली और 'जागरण' नाम का साप्ताहिक प्रकाशन शुरू किया.
1946 में फिर से चुने जाने के बाद, उन्हें सुहरावर्दी मंत्रि-मंडल में शामिल होने का मौका मिला था. 1946 के आम चुनाव में विभिन्न राज्यों से 1585 लेजिस्लेटिव काउन्सिल के सदस्य चुने जाने थे. इन्में से कुछ को 'संविधान-निर्माण समिति' के लिए चुना जाना था. बंगाल की 30 आरक्षित सीटें थी जिसमें से 3 सीटें संविधान-निर्माण समिति के लिए थी.
कांग्रेस पार्टी ने पक्का बंदोबस्त कर रखा था कि - कोई भी दलित सदस्य किसी भी प्रकार से संविधान सभा में न पहुँचने पाए. डा. बाबा साहब आंबेडकर के कहीं से भी चुन कर आने की सम्भावना नहीं थी. तब ऐसे में "जोगेन्द्र नाथ मंडल" ने ही डा. आंबेडकर को बंगाल से जिताकर, संविधान सभा में पहुंचकर एक नया इतिहास बनाया था.
1947 में देश की आजादी के साथ हुए बंटबारे के समय उनको लगा कि- भारत में सवर्ण जातियां दलितों का शोषण करेंगी और पापिस्तान में मुसलमान उनका ज्यादा साथ देंगे. यह सोंचकर उन्होंने पापिस्तान जाने का निर्णय ले लिया. पापिस्तान में उनको पहला कानून और श्रम मंत्री बनाया गया और साथ ही उनको संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया गया.
वे पापिस्तान की तत्कालीन राजधानी "कराची" में रहने लगे. बंटबारे के समय हुए हिन्दू मुस्लिम दंगे में उन्होंने दलितों से अपील की, कि- वो मुसलमानों का साथ दें. लेकिन कुछ ही समय में उनको पपिस्तान और मुस्लिम्स की हकीकत समझ आ गई. पापिस्तान में दलितों पर हिन्दू धर्म को छोड़ने और मुसलमान बनने के लिए दबाब डाला जाने लगे.
मुसलमान बनाने के लिए दलितों पर अत्याचार होने लगे. हिंसा और बलात्कार उनके साथ आम बात हो गई थी, संविधान लेखक और कानून मंत्री होने के बाबजूद उनकी कहीं कोई सुनबाई नहीं थी. मुस्लिम देश पापिस्तान बन चूका था. अब मुस्लिम लीग को उनकी जरूरत नहीं थी. तब उनको भी समझ आ गया कि - उनके साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है.
दलित-मुस्लिम गठबंधन का उनका प्रयोग बुरी तरह से असफल साबित हुआ था, पापिस्तान में दलितों के साथ हो रहे अत्याचार और अपनी उपेक्षा से परेशान होकर वे 1950 में भारत वापस आ गए और कलकत्ता में रहने लगे. उसके बाद वे कभी दोबारा पापिस्तान नहीं गए. दलितों की पपिस्तान में हुई दुर्दशा के लिए वे अपने आपको जिम्मेदार मानते थे
इसी आत्मग्लानि के चलते उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और एकाकी जीवन बिताने लगे. निराशा, आत्मग्लानि और एकाकीपन के साथ जीवन बिताते हुए 5 अक्टु.1968 को उनका देहांत हो गया. भारत में आज जो लोग फिर से दलित-मुस्लिम गठबंधन का प्रयोग करना चाहते हैं उनको "जोगेन्द्र नाथ मंडल" के जीवन से सबक लेना चाहिए.
भारत माता की जय, वंदेमातरम्
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