Saturday, 25 February 2017

सावरकर का माफीनामा : कांग्रेस का एक मिथ्याप्रचार


सावरकर का माफीनामा : कांग्रेस का एक मिथ्याप्रचार
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देश आजाद होने के बाद देश की सत्ता पर कांग्रेस का कब्जा हो गया था. देश की आजादी के असली नायक या तो फांसी चढ़ चुके थे या सत्ता के षड्यंत्र का शिकार होकर गुमनाम सी जिन्दगी जीने को मजबूर हो गए थे. नेहरू ने, सुभाषचन्द्र बोस जैसे महानायक को, विश्वयुद्ध का अपराधी मानते हुए, पकड़कर अंग्रेजों के हवाले करने का बचन दिया था.
भगत सिंह के साथी "बटुकेश्वर दत्त" साइकिल पर घूम-घूमकर सिगरेट बेंचकर अपना गुजारा करते थे. पाठ्य पुस्तकों में गांधीवादी नेताओं की गाथाओं की भरमार होती थी और अपनी जानपर खेलकर क्रान्ति करने वाले और अंग्रेजो को नाकों चने चबबाने वाले क्रान्तिवीरों की गाथाओं को दो-चार लाइन में समेटकर समाप्त कर दिया जाता था.
ऐसे ही "वीर सावरकर" के बारे में कांग्रेस ने भ्रामक बातें फैलाकर उनकी महानता को धूमिल करने का प्रयास किया. 1857 की क्रान्ति की असफलता के बाद जो देश गुलामी को अपनी किस्मत मानकर पचास साल खामोश पडा रहा, उस देश के निराश नागरिकों को जाग्रत करने वाले व्यक्ति के खिलाफ अपशब्द बोलना देशद्रोह माना जाना चाहिए.
"सावरकर" ने 1904 में "अभिनव भारत" नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की, 1905 में उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई (गांधीजी से बहुत पहले) . 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई और "गदर" को "भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम" सिद्ध किया.
उन्होंने "1857 - प्रथम स्वातंत्र समर" नाम का ग्रन्थ लिखकर देशवाशियों में क्रान्ति की ज्वाला को भड़का दिया. जिसके बाद अंग्रेजों ने उन्हें दोहरे कालापानी की सजा सुनाकर अंडमान की सेल्युलर जेल में भेज दिया. जहाँ उन्हें किसी राजनैतिक कैदी की तरह नहीं रखा गया बल्कि बहा उनपर खूंखार कैदियों की तरह अमानवीय अत्याचार किये जाते थे.
सावरकर 4- जुलाई, 1911 से लेकर 21 मई, 1921 तक दस साल पोर्ट ब्लेयर की "कालापानी" जेल में रहकर अमानवीय यातनाएं झेलते रहे. लेकिन नीचता की पराकाष्ठा को पार करने वाले कांग्रेसी 1913 में अंग्रेजों को लिखे गए उनके एक पत्र को उनका "माफीनामा" बताकर, भ्रामक प्रचार के सहारे उनका चरित्र हनन करने का प्रयास करते हैं.
सावरकर ने अक्तूबर 1913 में, चार अन्य कैदियों के साथ एक खुली याचिका दी थी, जिसमे उन्होंने उन पर किए जा रहे नृशंस अत्याचारों का वर्णन किया था. उन्होंने जेलर से सभ्य बर्ताव की मांग की थी और लिखा था कि - या तो उन्हें रिहा कर दिया जाए अन्यथा कालापानी से निकालकर भारत की किसी अन्य जेल में रख दिया जाए.
वे एक कवि और लेखक थे. उन्होंने लुभावनी शैली में लिखा था कि -यदि उन्हें रिहा किया जाता है तो वे सरकार के आभारी रहेंगे और किसी भी आतंकी कार्यवाही में हिस्सा नहीं लेंगे. यह एक राजनैतिक कैदी का मानवीय व्यवहार का मांगपत्र था कोई माफीनामा नहीं और न ही अंग्रेजों ने उसे स्वीकार किया. वे उसके आठ साल बाद तक कालापानी रहे.
गवर्नर जनरल के प्रतिनिध "आर.एच. क्रेडोक" ने उनकी याचिका के बारे में टिप्पणी लिखी कि - ‘सावरकर को अपने किए पर पश्चाताप या खेद नहीं है और वह अपने हृदय परिवर्तन का सिर्फ ढोंग कर रहा है." क्रेडोक ने यह भी लिखा कि - सावरकर को यदि किसी भारतीय जेल में रखा गया तो यूरोप के अराजकतावादी उस जेल को तोड़कर उसे फरार कर देंगे.
सावरकर की उस याचिका को 1913 में ही खारिज कर दिया गया था और उन्हें 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में ही रखा गया. सावरकर द्वारा "1857 - प्रथम स्वातंत्र समर" ग्रन्थ लिखने के कारण अंग्रेज नाराज थे और उन्हें बड़ी और कड़ी सजा देना चाहते थे. लेकिन किताब लिखना कोई इतना बड़ा गुनाह नहीं था कि उन्हें फांसी या उम्रकैद दी जा सके.
इसके अलाबा सरकार को तब उन्हें राजनैतिक कैदी का दर्जा देकर, सारी सुबिधायें भी देनी पड़ती इसलिए उन्हें नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के षडयंत्र का आरोप लगाकर कालापानी की सजा सुनाई गई थी , लेकिन अंग्रेजी सरकार लम्बे समय तक केस चलाने के बाबजूद उन्हें गुनाहगार साबित नही कर सकी और रिहा करना पडा.
ऐसी याचिकाए न्यायिक प्रिक्रिया का हिस्सा होती थी. राम प्रसाद विस्मिल और अशफाक उल्ला खान दारा भी ऐसी दया याचिकाए दी गई थी. अशफाक के परिवार ने यहाँ तक लिखा था कि - उनका लड़का निर्दोष था और विस्मिल के चक्कर में पड़कर फंस गया था. लेकिन इससे उनकी महानता कोई कम नहीं हो जाती.
नासिक षड्यंत्र में बेगुनाह साबित होने के कारण , अंग्रेजी सरकार को उन्हें 1921 में रिहा करना पडा, लेकिन बहां से आने के बाद भी उन्हें नजरबंद रखा गया. उनकी हर गतिबिधि पर कड़ी नजर रखी जाती थी.1921-24 में मालावार, कोहाट, मुल्तान, में हुए दंगे में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार ने उनकी सोंच की दिशा ही बदल दी थी.
1921 ई. में अंग्रेजो ने तुर्की के सुल्तान को गद्दी से उतार दिया था. इस घटना के खिलाफ भारत के मुसलमानों ने जगह-जगह आन्दोलन हुए. अंग्रेजों के सामने तो उनकी चली नहीं परन्तु उनका कहर टूटा देश की निर्दोष और असहाय हिंदू जनता पर. इस हिंसक बबाल में बड़ी संख्या में हिंदुओं का कत्ल हुआ और स्त्रियों की इज्जत लूटी गई.
हिन्दुओं का सबसे ज्यादा बुरा हाल किया गया था केरल के मालाबार जिले में. मालाबार के दंगे, जिन्नाह द्वारा अलग पापिस्तान की मांग, अपने को महात्मा साबित करने की खातिर गांधी द्वारा हिन्दुओं के अधिकार लुटवाने ने की घटनाओं ने उनकी ने उनकी सोंच का रुख हिन्दुओं की सुरक्षा और अधिकार की और कर दिया.
गांधीजी द्वारा हिन्दुओं के अधिकार लुटवाने पर सावरकर गांधी से नाराज थे और गांधी भी सावरकर हिंदुत्ववादी विचारों से घबराते थे. सावरकर अखंड भारत के पक्षधर थे लेकिन उनका यह भी मानना था कि - अंग्रेजों के जाने और मुसलमानों को मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान दिए जाने के बाद शेष भारत को हिन्दुराष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए था.

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