Wednesday, 1 January 2025

बीबी अनूप कौर का बलिदान


बीबी अनूप कर बहुत ही सुन्दर एवं बहादुर युवती थी. उन्होंने स्वेच्छा से माता गुजरी और छोटे साहबजादों की सुरक्षा की सेवा ली थी. 21 दिसम्बर 1705 की बरसाती रात को जब गुरु गोविन्द जी ने आनंदपुर साहब को छोड़ा तो माता गुजरी और छोटे साहबजादों की सुरक्षा का दायित्व बीबी अनूप कौर जी ने लिया था.

परन्तु सरसा नदी पार करते करते वे सब आपस में बिछड़ गए. माता गुजरी छोटे साहबजादों के साथ मोरिंडा की तरफ चली गईं. जब बीबी अनुप कौर कौर को वे नहीं मिलीं तो वे उनको ढूंढने लगी. गुरु जी की सेना के तीन सिक्ख उनको मिले, उन्हें पता चला कि गुरु गोविन्द सिंह और बड़े साहबजादे चमकौर साहब में हैं

उन्हें यह भी पता चला कि - वहां पर लड़ाई चल रही है. तब वे चारों भी चमकौर साहब की तरफ चल पड़े. लेकिन रास्ते में उनका सामना मलेरकोटला के नबाब शेर मोहम्मद खान की फ़ौज से हो गया. इन चारों ने बड़ी बहादुरी से मुगल सैनिको का मुकाबला किया और अनेकों मुग़ल सैनको को मार गिराया.
लेकिन सैकड़ों सैनिको का मुकाबला भला वे चार वीर कब तक करते. लड़ते लड़ते बीबी अनूप कौर घायल हो गई और उनके तीनो साथी भी वीरगति को प्राप्त हो गए. मुग़ल सैनिको ने बीबी अनूप कौर को बंदी बना लिया और उन्हें मलेरकोटला के नबाब शेर मोहम्मद खान के सामने प्रस्तुत कर दिया.
बीबी अनूप कौर की सुंदरता को देखकर शेर मोहम्मद खान ने मोहित हो गया. जिस तरह सीता माता को देखकर रावण रावण सबकुछ भूलकर उनसे विवाह की याचना करने लगा था बैसे ही शेर मोहम्मद खान भी बीबी अनूप कौर से कहने लगा कि - धर्म परिवर्तन कर लें और उससे निकाह कर लें.
उसने उनको तरह तरह के लालच दिए और धमकाया लेकिन बीबी अनूप कौर ने उसकी बात मानने से इंकार कर दिया. तब नबाब ने उन्हें अपने हरम के एक कमरे में कैद कर दिया. लेकिन एक दिन मौका पाकर बीबी अनूप कौर ने अपने सीने में खंजर मारकर आत्महत्या कर ली.
नबाब ने इसे अपनी शिकस्त मानते हुए, उनके पार्थिव शरीर को मुस्लिमों की तरह कब्रिस्तान में दफना दिया. कुछ बर्ष बाद बाबा बन्दा बहादुर ने पंजाब पर हमला किया और चप्पड़ चिड़ी की जंग में सरहन्द के नबाब बजीर खान को मार गिराया और सरहिंद पर अपना अधिकार कर लिया
उसके बाद बन्दा बहादुर ने मलेरकोटला पर हमलाकर मलेरकोटला को भी जीत लिया. लड़ाई में बन्दा बहादुर का साथ देने वाले भाई आली सिंह और भाई माली सिंह ने बन्दा बहादुर को बीबी अनूप कौर के बलिदान के बारे में बयाया, तो बन्दा बहादुर का हृदय बीबी अनूप कौर के लिए श्रद्धा से भर गया.
उन्होंने अपने साथियों से कहा कि - हम उनके लिए कुछ और तो नहीं कर सकते लेकिन बीबी अनूप कौर का पार्थिव शरीर कब्र से निकालकर उनका दाह संस्कार अवश्य करेंगे. उन्होंने कब्रिस्तान को खुदवाकर बीबी अनूप कौर के पार्थिव शरीर के अबशेषों को निकाला और उनका विधिवत अग्नि संस्कार किया.
बन्दा बहादुर के इसी कार्य को उनके आलोचक इतिहासकारों ने लिखा है कि - बन्दा बहादुर मुसलमानो की कब्रों को खोदकर मुसलमानो के शव आग में जलाकर उनकी बेअदवी करता था , जबकि वास्तविकता ये हैं कि - उन्होंने केवल बीबी अनूप कपूर की ही कब्र ही खुदबाकर उनके अबशेषों का अग्नि संस्कार किया था.
बीबी अनूप कपूर अमर रहे, बन्दा बहादुर अमर रहें,
भारत माता की जय, वन्देमातरम

भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर एवं डा. मेघनाथ साहा / नेहरू विवाद

भारत में डा. मेघनाथ साहा नाम के एक बड़े खगोल वैज्ञानिक हुए हैं. उन्होंने विभिन्न कैलेंडर्स और पंचांग आदि का अध्यन किया था. उन्होंने 1939 में एक लेख लिखा था ‘भारतीय कैलेंडर में सुधार की आवश्यकता’. आजादी से पहले भी उनके नेहरू जी से बहुत अच्छे समबन्ध थे. जब देश आजाद हुआ तो उन्होंने नेहरू जी को नए कलेण्डर के बारे में सुझाव दिया.

उनका प्रस्ताव प्रधानमंत्री नेहरू जी को भी पसंद आया लेकिन यह एक कठिन काम था क्योंकि कैलेंडर के साथ धर्म और स्थानीय भावनाएं भी जुड़ी हुई थीं. इसी बीच 1952 में डाक्टर मेघनाथ साहा चुनाव जीतकर संसद सदस्य भी बन गए. 1952 में नेहरू सरकार ने कैलेंडर रिफॉर्म कमेटी बनाई और डा. मेघनाथ साहा को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया.
समिति ने देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रचलित विभिन्न 30 कैलेंडरों का गहराई से अध्ययन किया और 1954 में अपनी सिफारिशें रखी, जिनमें से कुछ इस प्रकार थीं. महीनो के नाम हिन्दू कैलेण्डर वाले हों लेकिन साल में दिन अंग्रेजी कैलेण्डर की तरह 365 / 366 ही हों. दिन रात सामान होने वाला 22 मार्च साल का पहला दिन हो (लीप ईयर में 21 मार्च पहला दिन हो).
एक सिफारिस यह भी की गई कि इस कैलेंडर में साल के पहले 6 महीने 31 दिन के और बाद के 6 महीने 30 दिन के हों, तो लोगों को यह याद करने में सुविधा होगी कि कौन सा महीना 31 दिन का है और कौन सा 30 दिन का. इस प्रकार उन्होंने भारतीय और अंग्रेजी कैलेंडर का समावेश कर एक नया कैलण्डर तैयार किया जो तकनीकी रूप से वास्तव में काफी अच्छा है.
1955 में एकीकृत राष्ट्रीय नागरिक कैलेंडर तैयार हो गया. नेहरू जी ने इसकी प्रस्तावना में लिखा था : पुराने कैलेंडर देश में विभाजन का प्रतिनिधित्व करते हैं. अब जबकि हमने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है, यह स्पष्ट रूप से वांछनीय है कि हमारे देश में नागरिक, सामाजिक और अन्य उद्देश्यों के लिए कैलेंडर में भी एक निश्चित एकरूपता होनी चाहिए.
अब समस्या यह आई कि इस कैलेंडर का प्रारम्भ कब से माना जाए और इसे नाम क्या दिया जाए. कहा जाता है कि नेहरू जी इस कैलेण्डर द्वारा अपने आपको विक्रमादित्य, ईसा मसीह, शालिवाहन, आदि की तरह अमर बनाना चाहते थे और इसे नेहरू सम्वत नाम देना चाहते थे साथ ही चाहते थे इसे अपने जन्म वाले बर्ष से प्रारम्भ करना चाहते थे.
इसी बात को लेकर डा. मेघनाथ साहा और प्रधानमंत्री नेहरू में विवाद हो गया क्योंकि डा. मेघनाथ साहा चाहते थे इसे युधिष्ठिर सम्वत से शुरू किया जाए. विवाद होने पर नेहरू जी ने प्रस्ताव रखा कि आजादी का बर्ष 1947 प्रथम बर्ष हो और बर्ष का नाम "विक्रम सम्वत" की तरह "नेहरू सम्वत" हो. इस बात के लिए मेघनाथ साहा बिलकुल तैयार नहीं थे.
इस विवाद के कारण कैलेंडर जारी करने का काम रुक गया. 26 जनवरी 1956 के एक कार्यक्रम में नेहरू जी ने बिना तारीख बताये शीघ्र ही नया कैलेण्डर जारी होने की घोषणा भी कर दी. डा. मेघनाथ साहा इस बात से भी नाराज हुए. कहा जाता है कि समिति के अन्य सदस्यों द्वारा भी डा. मेघनाथ साहा पर दबाव डाला गया परन्तु वे "नेहरू सम्वत" पर नहीं माने.
तभी अचानक खबर आई कि 16 फरवरी 1956 को अचानक हृदयाघात पड़ने से 62 बर्ष की आयु में डा. मेघनाथ साहा का देहांत हो गया. उस समय वे राष्ट्रपति भवन में स्तिथ योजना आयोग के कार्यालय जा रहे थे. यह भी कहा जाता है कि वे उस समय कैलेंडर से सम्बंधित सारे दस्तावेज लेकर राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद को सौंपने जा रहे थे.
डा. मेघनाथ साहा के अचानक निधन से नया कैलेंडर लागू करने का कार्यक्रम टल गया और आधिकारिक तौर पर इसका उपयोग 22 मार्च 1957 को शुरू हुआ और इसे शक सम्वत से जोड़ दिया गया. अर्थात 22 मार्च 1957 को 1 चैत्र 1879 शक संवत माना गया. आज ये राष्ट्रीय कैलेण्डर है लेकिन राष्ट्र में शायद ही कोई होगा जो इसको मानता होगा.
इसके साथ सबसे बड़ी दुविधा यह है कि इसमें बर्ष को शक सम्वत नाम दिया है जबकि शक संवत पर आधारित कैलेंडर पहले से ही मौजूद है जिसमे पूर्णमासी के बाद महीना बदलता है, जिससे भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है. इस कैलेंडर को आम जनता के बीच स्वीकृति नहीं मिली और वर्तमान में इसका उपयोग केवल सरकारी कार्यालयों तक ही सीमित है.

Friday, 27 September 2024

पुष्कर का गौ घाट का युद्ध

हरिद्वार की तरह पुष्कर भी हिन्दुओं का बहुत बड़ा तीर्थस्थल है. पुष्कर सरोवर में कुल 52 घाट बने हुए है, जिनमे सबसे बड़ा गऊघाट है. पुष्कर में भगवान ब्रह्मा का प्रशिद्ध मंदिर है. ऐसा माना जाता है कि चारों धाम (बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वरम और द्वारका) के दर्शन कर लिए हैं, लेकिन आपने पुष्कर का दर्शन नहीं किया है तो आपकी यात्रा सफल नहीं मानी जाएगी.

मेड़ता की हार से बौखलाए हुए, औरंगजेब के सिपहसालार "तहव्वुर खान" ने विक्रम संवत 1737 भाद्रपद की जन्माष्टमी के अवसर पर, पुष्कर के वराह मंदिर को खंडित करने, 101 गौमाताओं का पुष्कर घाट पर क़त्ल करने और वहां के पुजारियों की हत्या करने की घोषणा कर दी. सप्तमी से पहले 101 स्वस्थ गायें पुष्कर के घाट पर लाकर बाँध दी गईं.
जब यह सूचना कुंवर राज सिंह को मिली तब कुंवर राज सिंह के विवाह की तैयारी चला रही थी. कुंवर राज सिंह ने विवाह मंडप छोड़कर पुष्कर की ओर कूच करने का निर्णय लिया और अपने साथ 700 योद्धाओं को लेकर पुष्कर की ओर चल दिये. दरअसल उन दिनों पूरे राजस्थान में ओरंगजेब की सेनाओ और राजपूतो के बीच जगह जगह युद्ध चल रहे थे.
इसका मुख्य कारण यह था कि औरंगजेब ने विष देकर जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह को धोखे से मरवा दिया था और मारवाड में अपनी सेना भेजकर उस पर अपना अधिकार कर लिया था. बालक महाराज अजीत सिंह को वीरवर दुर्गादास राठौर, आदि स्वामिभक्त सरदारो की संरक्षण मे सुरक्षित करके राठौड सरदारो ने मुगलो के थानो पर आक्रमण शुरू कर दिया था.
राजपूत योद्धाओं ने जोधपुर, सोजत, डीडवाना, सिवाना, आदि पर हमला कर शाही खजाने लूट लिए थे. इसके अलावा कुवंर राजसिंह ने अपने मेडतिया साथियों के साथ मेडता पर हमलाकर वहां के शाही हकीम सदुल्लाह खान को मार दिया. उस समय मेडता अजमेर सूबे मे था. इस खबर से बौखलाए हुए तहव्वुर खान हिन्दुओं को अपमानित करने का निर्णय लिया.
उसने अपनी सेना पुष्कर भेजने की तैयारी कर ली. इस खबर को सुनकर पुष्कर के ब्राह्मणो मे त्राहि त्राहि मच गई. उन्होंने अपना सन्देश कुवंर राजसिंह जी तक भेजा. वे अपने साथ एक 700 वीर योद्धाओं की छोटी से सेना लेकर पुष्कर जी पहुँच गए. उन्होंने वाराह जी के मंदिर में माथा टेकने कर आशीर्वाद लेने के बाद शाही सेना पर हमला कर दिया
उनको हराने के बाद उन्होंने घाट के पास लाकर बाँधी गई गायो को बंधन मुक्त करा दिया और मुगलो की दूसरी टुकडी पर रात्री मे ही हमला कर दिया. सप्तमी की सारी रात और अष्टमी के पूरे दिन यह युद्ध होता रहा. पुष्कर की मिट्टी रक्त से लाल हो गई. इस लड़ाई में पुष्कर में पूरी मुघल सेना का सफाया कर दिया गया. लेकिन नवमी के दिन और बड़ी मुग़ल सेना वहां पहुँच गई.
नवमी को भी भयानक युद्ध हुआ. मुग़ल सेना का सफाया हो गया लेकिन इस लड़ाई में कुंवर राजसिंह, केशरसिंह, सुजाणसिंह, चातरसिंह, रूपसिंह हठी सिंह गोकुल सिंह, आदि भी वीरगति को प्राप्त हो गए. राठौरों के भय से तहव्वुरखां भागकर तारागढ में छुप गया. इस प्रकार वीर राजपूतों ने अपना बलिदान देकर गायों, ब्राह्मणो, मंदिरों एवं पुष्कर तीर्थ की रक्षा की.
आजादी के बाद नेहरू सरकार ने पुष्कर के गौ घाट का नाम गौ घाट से बदलकर महात्मा गांधी घाट कर दिया. उनका तर्क यह था कि यहाँ पर महात्मा गांधी की चिता की राख का कुछ अंश विसर्जित किया गया था. लेकिन सभी यह मानते है कि महात्मा गांधी घाट नाम रखने की मंशा केवल यह थी कि लोग गायो की हत्या और राजपूतों के बलिदान की बात भूल जाएँ.
इसलिए सरकारी कागजों में इस घाट का नाम भले ही महात्मा गांधी घाट कर दिया हो लेकिन सभी इसे गौघाट ही कहते है

Saturday, 7 September 2024

मार्कण्डेय ऋषि

सनातन धर्मावलम्बियों के घरों में आपने अक्सर ही एक चित्र देखा होगा, जिसमें एक किशोर शिवलिंग से भावपूर्वक लिपटा हुआ है और पीछे खड़े भगवान शिव उस किशोर के प्राण हरने को उद्यत यमराज पर प्रहार कर रहे हैं. यही किशोर आगे चलकर चिरंजीवी महामुनि मार्कण्डेय के रूप में प्रसिद्ध हुआ.

वे आठ चिरंजीवी महामानवों में से एक हैं. अर्थात अश्वत्थामा, दैत्यराज बली, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि सदैव जीवित हैं. इन सबमें भी मार्कण्डेय ऋषि आयु में शेष सभी से बड़े हैं. मार्कण्डेय ऋषि के चिरंजीवी बनने की कथा पद्मपुराण के उत्तरखंड में है.
ऋषि मृकंदु और उनकी पत्नी मरुदमती ने शिव की तपस्या की और उनसे पुत्र प्राप्त करने का वरदान मांगा. शिव ने मृकंदु से पूछा था कि ‘तुम्हें दीर्घ आयु वाला गुणहीन पुत्र चाहिए या अल्प आयु वाला गुणवान पुत्र ? तब मृकण्डु ने गुणवान पुत्र की कामना की. भगवान शिव ने मार्कण्डेय की आयु 16 वर्ष निश्चित की.
जब मार्कण्डेय का सोलहवां वर्ष प्रारम्भ हुआ तो पिता शोक से भर गए. कारण पूछने पर पिता ने अल्पायु की कथा बताई तो वे माता-पिता की आज्ञा लेकर केरल के त्रिप्रंगोड में समुद्र के तट पर गए और वहां शिवलिंग स्थापित कर आराधना में जुट गए. उन्होंने महामृत्युञजय मन्त्र की रचना की और जाप करने लगे.
तय समय पर काल उनके प्राण हरने आ पहुंचा. तब किशोर मार्कण्डेय ने कहा कि मैं भगवान् शिव के महामृत्युंजय मन्त्र का जाप कर रहा हूं, इसे पूरा कर लूं, तब तक ठहर जाओ. मगर काल नहीं माना और बलपूर्वक मार्कण्डेय को ग्रसना चाहा. भक्त की पुकार पर उसी समय शिवलिंग से महादेव प्रकट हुए.
भगवान् शिव ने हुंकार भरकर काल की छाती पर चरण से प्रहार किया. इसी घटना के बाद शिवजी का नाम कालान्तक पड़ा. भगवान् शिव ने न केवल मार्कण्डेय के प्राणों की रक्षा की बल्कि उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें सदा सर्वदा के लिए काल-मुक्त कर चिरंजीवी होने का वरदान दे दिया,
कुछ विद्वानों का मानना है कि यह घटना कैथी (वाराणसी जिला) में गोमती नदी के तट पर हुई थी, जहाँ गंगा नदी और गोमती नदी का संगम होता है. इस स्थल पर एक प्राचीन मंदिर मार्कंडेय महादेव मंदिर बना हुआ है. गंगा नदी और गोमती नदी संगम क्षेत्र होने के कारण इसकी पवित्रता और भी बढ़ जाती है.
हरियाणा के लोगों का मानना है कि यह घटना अम्बाला और कुरुक्षेत्र के बीच स्तिथ शाहबाद मारकंडा कसबे में मारकंडा नदी के किनारे की है. यहाँ भी मारकंडा नदी के किनारे, राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे, मारकंडेश्वर महादेव का भव्य मंदिर बना हुआ है. बड़ी संख्या में भक्त या पूजा करने आते हैं.
गायत्री मंत्र की भांति महामृत्युंजय मंत्र को भी अत्यंत प्रभावी मन्त्र माना जाता है. विद्वानों का कहना है कि यह मंत्र सबसे पहले ऋग्वेद के सातवें मंडल के 59वें सूक्त में आया. रुद्र देवता के प्रति ऋषि वसिष्ठ द्वारा अनुष्टुप छंद में कृत यह इस सूक्त का बारहवां मंत्र है, जो बाद में यजुर्वेद से होते हुए अन्यत्र पहुंचा.

विद्वानों का कहना है कि मार्कण्डेय ने केवल इस मन्त्र का केवल जाप किया था लेकिन लोक-विश्वास है कि महामृत्युंजय मंत्र की रचना भी मार्कण्डेय ने ही की और इसी के बल पर स्वयं को मृत्यु से बचाकर चिर जीवन पाया, इसीलिए प्रियजनों को जीवनदान के निमित्त लोग इसका जाप कराते हैं.
वाल्मीकि रामायण के अनुसार मार्कण्डेय महाराज दशरथ के ऋत्विज (यज्ञ कराने वाला) थे और भगवान श्रीराम के विवाह में बराती बन मिथिला भी गए थे. राजा बनने के बाद श्रीराम के आमंत्रण पर ये उनकी सभा में पधारे थे और केवल इतना ही नहीं, मार्कण्डेय जी सीता के रसातल में प्रवेश के भी साक्षी बने थे.
इन्होंने नचिकेता से शिव सहस्रनाम का उपदेश ग्रहण कर उसे उपमन्यु को दिया था. महाभारत के अनुसार महामुनि मार्कण्डेय ने धृतराष्ट्र को त्रिपुराख्यान सुनाया था. वे युधिष्ठिर की राजसभा में भी आए थे और भीष्म के शरशय्याशायी होने पर अनेक ऋषि-मुनियों के साथ उनके पास खड़े हुए थे.
महाभारत के वनपर्व में 51 अध्यायों का एक समूचा उपपर्व मार्कण्डेय मुनि को ही समर्पित है. इस अवसर पर काम्यकवन में पाण्डवों के पास उपस्थित स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने मार्कण्डेय का पूजन किया था. इस विस्तृत उपपर्व में मार्कण्डेय मुनि ने कर्मफल सहित अनेक प्रश्नों पर जो उपदेश दिया.
लगभग सभी पुराणों में मार्कण्डेय ऋषि का सादर स्मरण किया गया है. स्वयं मार्कण्डेय के नाम से एक ‘मार्कण्डेय पुराण’ है. देवी पार्वती ने भी उन्हें एक पाठ लिखने का वरदान दिया था, उनके द्वारा लिखा गया यह पाठ "दुर्गा सप्तशती" के रूप में जाना जाता है, जो मार्कंडेय पुराण में एक मूल्यवान भाग है.
मार्कण्डेय इतने महिमावान हैं कि उनकी ख्याति उत्तर से दक्षिण तक फैली हुई है. उत्तर से लेकर दक्षिण तक के लोग उन्हें अपना मानते है और उनकी विरासत पर दावा करते हैं. सत्य तो यह है कि मार्कण्डेय ऋषि का वास्तविक जन्म या तपस्थल अज्ञात है लेकिन उनका व्यक्तित्व और कृतित्व सर्वज्ञात है.
जिस प्रकार शिवभक्ति कर उन्होंने चिरंजीवी जीवन पाया, उसका प्रतीक यह है कि भाव प्रबल हो तो पत्थर से भी परमात्मा प्रकट हो जाता है. अपने उपदेशों में हर युग में मार्कण्डेय सिखाते हैं कि जो व्यक्ति तन व मन से जितना अधिक सात्विक जीवन जीता है, वही व्यक्ति दीर्घायु और मृत्युंजयी होता है.

Friday, 23 August 2024

देश भर में लगभग सारे ही चोर बाजार मुस्लिम बहुल इलाकों में ही क्यों है ?

मुंबई का चोर बाजार
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भारत के प्रमुख चोर बाजारों में से एक है.. मुंबई का यह चोर बाजार, दक्षिणी मुंबई के मटन स्ट्रीट, मोहम्मद अली रोड के
पास है और मौलाना शौकत अली रोड के बीच स्थित है. इसका निकटतम स्थानीय रेलवे स्टेशन ग्रांट रोड है.

दिल्ली का चोर बाजार
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पुरानी दिल्ली लालकिले और जामा मस्जिद के क्षेत्र में यह साप्ताहिक चोर बाजार लगता है. प्रत्येक रविवार को लगने वाले इस चोर बाजार में आपको ब्रांडेड आयटम लगभग एक चौथाई कीमत में भी मिल जाएंगे। यहाँ घरेलू सामान ज्यादा मिलता है.

मेरठ का चोर बाजार
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चोरी की गाड़ियों और गाड़ियों के स्पेयर पार्ट के लिए पुरे भारत में मेरठ का सोती गंज चोर बाजार सबसे ज्यादा कुख्यात है. यह मेरठ में जकारिया मस्जिद, अनारवाली मस्जिद और मीनार मस्जिद के बीच का
इलाका है. यह ऐसा इलाका है जहाँ पुलिस भी जाने से डरती है.

बंगलुरु का चोर बाजार
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ये मार्केट बेंगलुरु में चिकपेट नामक जगह पर, बीवीके अयंगर रोड पर, नालडवाडी मस्जिद के पास लगती है. यह साप्ताहिक बाजार है जो केवल सन्डे को लगता है. यहां सेकेंड हैंड गुड्स, चोरी के गैजेट्स, कैमरा, इलेक्ट्रॉनिक आइटम और सस्ते जिम इक्विपमेंट मिलते हैं.

चेन्नई का चोर बाजार
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चेन्नई का चोर बाजार, सेन्ट्रल चेन्नई के ऑटो नगर इलाके में स्थित है. कहने को तो ये लोग कारों को मॉडिफाई करने का काम करते हैं लेकिन ये लोग गाड़ियों के ऑरिजनल पार्ट्स और कार को बदलने के लिए कुख्यात है. ये मार्केट एग्मोर ट्रेन स्टेशन से 1 किलोमीटर दूर है.
इन प्रशिद्ध चोर बाजारों के अलाबा भी विभिन्न शहरों के चोर बाजार पर नजर डालेंगे तो वहां भी ऐसे ही नज़ारे दिखाई देंगे, आसपास कोई मुस्लिम बस्ती होगी या उस शहर की कोई ख़ास मस्जिद होगी.
कोलकता मे मल्लिक बजार, लखनऊ का नख्खासा बाजार, रामपुर का रजा बाजार, आदि भी ऐसे ही चोर बाजार है. बाक़ी अपने अपने शहर के चोर बाजार के बारे में आप कमेंट बॉक्स में बताने की कृपा करे, जिससे उनका नाम भी पोस्ट में जोड़ा जा सके.

क्या अंग्रेजों ने भारत पर 200 साल तक शासन किया

 अक्सर लोग बोलते हैं कि अंग्रेजों ने भारत पर 200 साल तक राज किया. मुझे तो यह बात एकदम झूठ लगती है. मुझे आजतक समझ नहीं आया कि आखिर अंग्रेजों ने भारत पर 200 साल तक राज कैसे किया ? भारत पर अंग्रेजों के 200 तक राज करने का अर्थ है कि अंग्रेजों ने 1747 के आसपास के समय से लेकर 1947 तक भारत पर राज किया हो.

जहाँ तक मेरी जानकारी है उसके अनुसार 1857 तक देश के ज्यादातर क्षेत्र में मुस्लिम, हिन्दू एवं सिख राजाओं का राज रहा. जब 1757, 1761, 1762 में अफगान हमलाबर अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर हमला किया उस इतिहास में भी कहीं अंग्रेजों का जिक्र नहीं आता है. उसकी लड़ाई जाटों (1757), मराठों (1761) और सिखों (1762) से हुई थी
अंग्रेजों ने 1757 में ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में बंगाल के तत्कालीन नवाब सिराज़ुद्दौला से लड़ाई हुई थी जिसमें क्लाइव ने मीर जाफर की गद्दारी के कारण प्लासी के युद्ध में नबाब सिराजुद्दौला को हरा दिया था. उस लड़ाई के बाद अंग्रेजों का मुर्शीदाबाद पर अधिकार हो गया था. लेकिन एक मुर्शीदाबाद को तो भारत नहीं माना जा सकता है.
उसके बाद भी लम्बे समय तक कहीं हिन्दू, कहीं मुस्लिम, कहीं सिक्ख राजाओं का अधिकार बना रहा. राजस्थान, बुंदेलखंड, असम, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, हरियाणा, आदि पर हिन्दुओं का राज रहा. दिल्ली, हैदराबाद, अवध, रुहेलखंड, मैसूर, आदि पर मुस्लिम नबाबों का भी कब्ज़ा बना रहा. महाराजा रणजीत सिंह ने भी पंजाब पर 1801 से 1839 तक शासन किया.
1858 के बाद अवश्य भारत पर अंग्रेजों (ब्रिटिश संसद) का कब्ज़ा हो गया. तब कुछ भारतीय राजाओं और नबाबों ने भी अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली लेकिन उसके बाद भी भारत की देशभक्त जनता ने अंग्रेजों को आराम से शासन नहीं करने दिया गया. अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी अभियान लगातार चलते रहे, जिसमे कभी भारतीय जीते और कभी अंग्रेज.
पंजाब में नामधारी समुदाय के सतगुरु रामसिंह जी महाराज ने अंग्रेजों के खिलाफ अभियान चलाया, बिहार के वनवासी क्षेत्र में विरसा मुंडा के नेतृत्व में भी क्रान्ति चलती रही. उत्तर प्रदेश और बंगाल में भी अंग्रेजों को कभी चैन से नहीं बैठने दिया गया. तब अंग्रेजों ने भारतीयों के बीच पैठ बनाने के लिए अंग्रेज टाइप भारतीयों को लेकर कांग्रेस पार्टी की स्थापना की.
1885 में अंग्रेजों द्वारा कांग्रेस पार्टी बनाने से भारतीय भ्रमित हो गए और लगभग 20 के तक क्रांतिकारी अभियानों में कमी आ गई. लेकिन जल्द ही भारतीय अंग्रेजों की इस चाल को लोग समझ गए और उन्होंने अंग्रेजों और कांग्रेस के खिलाफ अपने संगठन ( युगांतर, अनुशीलन समिति, अभिनव भारत, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग, आदि) बनाने प्रारम्भ कर दिए.
1907 में आई वीर सावरकर की किताब (1857:प्रथम स्वातंत्र्य समर) के बाद तो देश में जैसे क्रान्ति का ज्वार ही उठ पड़ा हुआ. 1857 में जो क्रान्ति हुई थी उसमे अंग्रेजों के खिलाफ या तो अंग्रेजी सेना के बागी भारतीय सैनिक थे या भारतीय राजा और नबाब, लेकिन 1907 के बाद आम भारतीय नागरिक भी अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी कार्यवाहियां करने लगे.
1907 से लेकर 1915 तक पूरे देश में अनेकों क्रांतिकारी घटनाएं हुई जिसमे अनेकों अंग्रेज और अंग्रेजों के चापलूस भारतीय गद्दार मारे गए. इस दौर में अनेकों क्रांतिकारियों को फांसी और कालापानी की सजा हुई. तब 1915 में कांग्रेस द्वारा गांधी जी को भारत में लाया गया और उनके आने के बाद एक बार फिर कुछ समय के लिए क्रांतिकारी अभियानों में कमी आ गई.
लेकिन 1919 से एक बार फिर भारतीय पूरी ताकत के साथ अंग्रेजों से लड़ने लगे और 1947 में अंग्रेजों को भारत से भगाने के बाद ही दम लिया. अब मुझे कोई बताये कि अंग्रेजो ने कैसे भारत पर 200 साल राज किया क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार तो ये 90 साल से ज्यादा नहीं बैठता है और इन 90 साल में भी देशभक्त भारतीयों ने उन्हें कभी चैन नहीं लेने दिया.
अंग्रेज भारत से जाते जाते, अपनी बनाई पार्टी कांग्रेस को भारत की सत्ता सौंप गए. कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुगलों के पाप को छुपाने के लिए ऐसे लोगों पर ठीकरा फोड़ा जा रहा है जो कि भारत से जा चुके थे और भारत की दुर्दशा का जिम्मेदार मुगलों को बताने के बजाए अंग्रेजों को बताने के लिए अंग्रेजों का कार्यकाल बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाता है.
क्योंकि अगर अंग्रेजों का कार्यकाल कम करके बताया जाएगा तो कोई भी प्रश्न कर देगा कि महज 90 साल में ही अंग्रेजों ने इतना कैसे लूट लिया जबकि इन 90 वर्षों में भी लगातार आजादी की लड़ाई चल ही रही थी. इसके बाद फिर भारत के बर्बादी की सारी जिम्मेदारी मुगलों पर आ जायेगी जो तथाकथित सेक्युलरो को मंजूर नहीं है.

Monday, 3 June 2024

कांग्रेसी प्रोपेगण्डे की पोल

जब सोशल मीडिया नहीं था और सरकारी मीडिया कांग्रेस सरकार के नियंत्रण में था, तब कांग्रेस ने सत्ता और धन की ताकत के बल पर बहुत सारे प्रोपेगण्डे चला लिए. हिंदू महासभा / हिन्दुस्तान सोशलिष्ट रिपब्लिक आर्मी / आजाद हिन्द फ़ौज / आरएसएस / बीजेपी जिस पर जो चाहा वो आरोप लगा लिया तथा अपनी कायरता को अहिंसा साबित कर लिया.

लेकिन अब सोशल मिडिया के जमाने में उनका हर प्रोपोगंडा फेल हो जाता है. सोशल मीडिया पर कांग्रेस के प्रोपोगंडों की पोल देश की जनता ही खोल देती है. भाजपा या संघ को कुछ कोई जबाब देने की जरूरत ही नहीं पड़ती. ऐसा ही एक प्रोपोगंडा कांग्रेस ने चलाया था कि - जब देश अंग्रेजों से लड़ रहा था तब आरएसएस वाले रानी को सलामी दे रहे थे
आरएसएस के एक कार्यक्रम की फोटो को उठाकर उसमे फोटोशॉप द्वारा इंग्लैण्ड की रानी को जोड़ दिया और यह जताने की कोशिश की कि - जिस समय अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई चल रही थी उस समय इंग्लैण्ड की रानी एलिजावेथ भारत में आई थी और आरएसएस वालों ने इंग्लैण्ड की रानी एलिजावेथ को शाखा में बुलाकर सलामी दी थी.
उस फोटो को दिखाकर परिवार विशेष के गुलाम लोग, स्वयंवकों को बदनाम करने की कोशिश करते हैं. लेकिन जब इनसे पूंछा जाता है कि- क्या यह बता सकते हो कि इंग्लैण्ड की कौन सी रानी किस सन में भारत में आई थी और किस शहर की किस शाखा में गई थी ? तब ये लोग जबाब देने के बजाये इधर उधर भागने लगते है.
सबसे पहले तो यह जान ले कि- इंग्लैण्ड की रानी एलिजाबेथ द्वितीय की ताजपोशी 6 फरवरी,1952 को हुई थी और तब तक भारत को ब्रिटिश शासन से आजाद हुए लगभग साढ़े चार साल हो चुके थे. एलिजाबेथ द्वितीय पहली बार 1961 में भारत आई थीं और उस समय उसका स्वागत कांग्रेस ने किया था और वे उन्हें किसी शाखा में लेकर नहीं गए थे.
दरअसल जिस फोटो से एलिजावेथ द्वितीय की फोटो को उठाकर आरएसएस की फोटो में जोड़ा गया है, वह 1956 में नाइजीरिया की फोटो है. फोटो में सलामी देते लोग संघ स्वयंवक नहीं बल्कि नाइजीरियाई सैनिक हैं. एलिजाबेथ द्वितीय 1956 में काडुना एयरपोर्ट पहुंची थीं तो नाइजीरियाई सैनिकों ने उन्हें सलामी दी थी.