Tuesday, 4 July 2023

राजाराम जाट

औरंगजेब के जुल्म चरम पर थे, व्रज क्षेत्र में मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, हिन्दुओं को धर्म छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा था, हिन्दू पुरुषों को मारकर उनकी स्त्रीयों को जबरन उठाया जा रहा था. तब उस हैवान औरंगजेब को टक्कर देने के लिए एक जाट किसान "गोकुल सिंह" ने आगे बढ़कर औरंगजेब का मुकाबला करने का साहस किया.

गोकुल सिंह जाट (गोकुला जाट) ने जाटों, अहीरों और गूजरों को इकट्ठा कर औरंगजेब से टक्कर ली और कुछ समय के लिए ब्रज को औरंगजेब के आतंक से मुक्त करा लिया था. ग्रामीणों के इस विद्रोह को कुचलने के लिए औरंगजेब विशाल शाही सेना भेजी. गोकुला जाट के नेत्रत्व में 20,000 जाट, शाही सेना से मुकाबला करने निकल पड़े.
चार दिन चले इस युद्ध में जाटों ने मुघलों को भारी नुकशान पहुंचाया, लेकिन प्रशिक्षण, अनुशासन और युद्ध सामग्री की कमी के कारण जाटों को भी बहुत नुकशान हुआ. मुगल सेना ने 7000 जाटो को गोकुला व उसके चाचा उदयसिहँ सहित बँदी बना लिया. 1 जनवरी 1670 को औरंगजेब ने गोकुला और उसके चाचा को टुकड़े टुकड़े करके, शहीद कर दिया गया.
गोकुला के इस विद्रोह के बाद देश की दबी कुचली जनता में अभुतपूर्व साहस का संचार हुआ और उसके बाद देश के अन्य इलाकों में भी विद्रोह शुरु हो गए. गोकुला जाट के बलिदान बाद हिन्दुओं का नेतृत्व "राजाराम जाट'' सम्हाला. राजाराम जाट भरतपुर राज्य के राजा भज्जासिंह के पुत्र थे और सिनसिनवार जाटों के सरदार थे.
उन्होंने जाटों के दो प्रमुख क़बीलों "सिनसिनवारों" और "चाहर" को आपस में मिलाया. जाट योद्धा रामकी चाहर उनके साथ आ गए. जिससे उनकी ताकत बढ़ गई. आऊ नामक गाँव में मुघलों की छावनी थी जिसका अधिकारी था "लालबेग". लगभग 2,00,000 रुपये सालाना मालगुज़ारी वाले इस क्षेत्र में व्यवस्था बनाने के लिए एक चौकी बनाई गयी थी
एक दिन एक अहीर कहीं जा रहा था. वह अपनी पत्नी के साथ गाँव के कुएँ पर विश्राम के लिए रुका. लालबेग के एक कर्मचारी ने उस युवती के बारे में लालबेग को बताया तो लालबेग ने सिपाही भेजकर अहीर दम्पत्ति को चौकी पर बुलवा लिया. सुंदर स्त्री को देखकर वह कामातुर हो गया और उसने युवक को छोड़ दिया और उसकी पत्नी को अपने निवास पर ले गया
उस अहीर युवक ने यह बात अन्य राहगीरों को बताई. जब राजाराम को इस बात का पता चला तो उन्होंने ठान लिया कि महिलाओं की इज़्ज़त और धर्म को बचाने के लिए वह मुग़लों को सबक सिखा के ही रहेगा. उन्होंने अपना सैन्य बल तैयार किया और बार्षिक गोबरधन मेले के अवसर पर उस राक्षस लालबेग को मारने की यॊजना बनाई.
मेले में जानेवाली घास की बैल गाड़ियों में राजाराम अपने सिपाहियों के साथ छुप कर पहुंच गए. लालबेग को इस बात का अंदाज़ा भी नहीं था और उसने उन गाड़ियों को अंदर जाने की अनुमति देदी. चौकी को पार करते ही राजाराम और सिपाहियों ने गाड़ियों में आग लगा दिया. उसके बाद भयंकर युद्ध हुआ और उसमें लालबेग मारा गया.
इस युद्ध के बाद राजाराम ने अपने क़बीले को सुव्यवस्थित सेना बनाना प्रारम्भ कर दिया. अस्त्र-शस्त्रों से युक्त उसकी सेना अपने नायकों की आज्ञा मानने को हमेशा तय्यार रहती थी. राजाराम ने जंगलों में छोटी-छोटी क़िले नुमा गढ़ियाँ बनवादी. इन पर गारे की (मिट्टी की) परतें चढ़ाकर मज़बूत बनाया गया जिन पर तोप-गोलों का असर भी ना के बराबर था.
उसने मुगल शासन के खिलाफ खुला विद्रोह कर दिया. उसने धौलपुर से लेकर आगरा तक की यात्रा के लिए प्रति व्यक्ति से 200 रुपये लेना शुरू किया. इस एकत्रित धन को राजाराम अपने सैन्य को प्रशिक्षित करने में लगाता, जो मुग़लों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारती थी. राजाराम की वीरता की बात औरंगज़ेब के कानों तक भी पहुंची.
उस समय औरंगजेब दक्षिण में गया हुआ था. उसने जाट- विद्रोह से निपटने के लिए अपने चाचा, ज़फ़रजंग को भेजा. राजाराम ने उसको भी धूल चटाई. उसके बाद औरंगजेब ने युद्ध के लिए अपने बेटे शाहज़ादा आज़म को भेजा लेकिन उसे वापस बुलाया और आज़म के पुत्र बीदरबख़्त को भेजा. बीदरबख़्त बालक था इसलिए ज़फ़रजंग को प्रधान सलाहकार बनाया.
बार-बार के बदलावों से शाही फ़ौज में षड्यन्त्र होने लगे. राजाराम ने मौके का फ़ायदा उठाया, 1688, मार्च में राजाराम ने सिकंदरा में मुघलों पर आक्रमण किया और 400 मुगल सैनिकों को काट दिया. औरंगज़ेब के अत्याचार, हिन्दू मन्दिरों के विनाश और मन्दिरों की जगह पर मस्जिदों का निर्माण करने से जनता के मन में बदले की भावना पनप चुकी थी.
इस कारण सभी आम हिन्दू राजाराम और उनकी सेना का साथ देने लगे. राजाराम की सेना के किसी भी सैनिक से मिलने पर उसे भोजन कराना आम हिन्दू अपना परम कर्तव्य मानने लगे थे. जनता का साथ मिलने से राजाराम का हौशला और बुलंद हो गया और उसने महावत खान के कैम्प पर हमला बोलकर करीब 200 मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया.
अब राजा राम संदेश देना चाहते थे कि उन्होंने गोकुल जाट की मौत का बदला ले लिया है. इसके लिए उन्हें मुगल खानदान से ही कोई चाहिए था, जिसका वो अपमान कर पाते. राजा राम ने अकबर के मकबरे सिकंदरा पर हमला बोल दिया. और उन्होंने अकबर और जहांगीर की कब्र खोदकर उसके अवशेष को आग में फिंकवा दिया.
राजाराम का अनुमान सही साबित हुआ, इस घटना से औरंगजेब झुंझलाकर रह गया. वो इतना बड़ा अपमान सहन नहीं कर पा रहा था. औरंगजेब ने काबुल में मौजूद सेनानायक राम सिंह को आगरा कूच करने और राजाराम को मौत के घाट उतारने का आदेश दिया. भारत का दुर्भाग्य देखिये कि राजा राम को मारने का इरादा करके राम सिंह आ रहा था.
लेकिन भगवान श्रीराम भी ऐसा नहीं होने देना चाहते थे इसलिए मथुरा पहुँचने से पहले ही राम सिंह की मौत हो गई. राजाराम ने मुग़लों के इलाकों में जमकर लूटपाट की एवं दिल्ली आगरा के बीच आवागमन के प्रमुख मार्गों को असुरक्षित बना दिया. आगरा के फौजदार शाइस्ता खान को हराकर आगरा पर एक तरह से कब्जा ही कर लिया.
इसी बीच राजस्थान में चौहानो और शेखावतों में लड़ाई शुरू हो गई और चौहानों ने राजाराम से मदद मांगी और राजाराम चौहानो की मदद की तो शेखावत उनके खिलाफ हो गए. मुगल ऐसे ही किसी मौके की तलाश कर रहे थे. राजाराम के हाथों हारे हुए बीदर बख्त ने बूंदी के राव राजा अनिरुद्ध सिंह, और महाराव किशोर सिंह हाडा के साथ शेखावतों से हाथ मिला लिया.
4 जुलाई 1688 को बीजल के युद्ध के समय चौहान और जाटों की संयुक्त सेना युद्ध को जीत रहे थे लेकिन तभी एक पेड़ के पीछे से एक मुगल सैनिक ने एक गोली चलाई जो सीधे राजाराम के सीने में उतर गई. जिससे राजाराम वीरगति को प्राप्त हो गए. औरंगजेब के आदेश पर मुग़लों ने राजाराम के ​सिर को काटकर दक्षिण में औरंगजेब के पास भेज दिया
इधर आगरा में भीड़ के सामने ही खुले में जाटों के दूसरे बड़े नेता रामकी चाहर को भी फांसी दे दी गई. ये मुगल साम्राज्य के खिलाफ आवाज उठाने वालों के लिए चेतावनी थी. लेकिन वो कहां मानने वाले थे. राजाराम के बाद मोर्चा संभाला उनके छोटे भाई चूड़ामन ने, जो कई सालों तक औरंगजेब और उसके बाद उसके वंशजों को भी छकाते रहे.

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